रविवार, 31 अक्टूबर 2010

लौह दिवस

सरदार का जैकेट/कोट। पहन कर देखिए!  
आज लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्मदिन है। इस दिन के आस पास सरकारी संस्थानों में 'सतर्कता सप्ताह/अवधि' का आयोजन होता है जिसमें अधिकारी और कर्मचारी सभी सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में सतर्कता के लिए और भ्रष्टाचार रोकथाम/उन्मूलन हेतु शपथ लेते हैं। 
 स्वतंत्रता उपरांत खंड खंड राज्यों को एक कर 'भारत' संघ की स्थापना में इस महामानव का योगदान प्रणम्य है। अरुन्धतियों और गिलानियों के पाखंडी शृगाल प्रलापों के बीच सरदार की स्मृति मुझे सम्बल देती है कि इस आत्मघाती प्रवृत्ति के विरुद्ध स्वर गूँजते रहने चाहिए।
 खेलों और कथित राष्ट्रीय सम्मान की आड़ में 70000 करोड़ रुपयों के भारत के अब तक के सबसे बड़े घोटाले और उसे पचा कर डकारती व्यवस्था को देख जो घृणा उपजती है, उसकी आँच में 'सतर्कता अवधि' को 'मनाना' महज एक आयोजन या वार्षिक कर्मकाण्ड नहीं होकर रह जाना चाहिए। अपने भीतर कुछ ठोस परिवर्तन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध छोटे छोटे ही सही, कुछ पग चलने की शपथ हम सब को लेनी चाहिए, केवल 'सरकारी जन' को नहीं। हमारा जनतंत्र तभी और असरकारी होने की दिशा में अग्रसर होगा। प्रारम्भ आज से ही ...यह लौह दिवस हमारे भीतर लौहसंकल्प का जनक हो!        

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

एक ठो कुत्ता रहा ...

एक ठो कुत्ता रहा।  उसे चैन से बैठने की बीमारी नहीं थी। एक दिन सड़क पर बैलगाड़ी जाते देखा। बहुत धूप रही सो उसके नीचे चलने लगा। बड़ी राहत मिली। अब ताड़ गया तो हमेशा ऐसे ही करने लगा। कभी ये कभी वो...
 कुछ दिनों में सोचने लगा कि सारी गाड़ियाँ उसी के चलाए चलती हैं। कुछ दिन और बीते और उसका ज्ञान पोख्ता हो गया। 
एक दिन चलते चलते उसे सू सू की सूझी। अब गाड़ी रुके कैसे और कुत्ता चलती चीज पर मूते कैसे? 
सोचा कि गाड़ी तो उसी के चलाए चल रही है। रुकेगा तो रुक जाएगी। गाड़ी तो रुकने से रही और कुत्ता तो ..समझ ही रहे होंगे। सो पहिए के नीचे आ गया। ... दुनिया में एक और खम्भा मूत्र संस्कारित होने से रह गया। 
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इस ब्लॉग पर और भी  (20 टिप्पणियों के बाद  ये लिंक लगाने की सुध आई):
एक 'ज़ेन कथा'

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

लापता कौवे

House-Crow-India-100407
मोरी अटरिया पर बोले कागा - सुना होगा आप ने!
लोकगीतों में वनवासी राम को अगोरती कौशल्या सूचना देने वाले जिस पक्षी की चोंच को सोने से मढ़वाने की बात करती हैं, वह कागा मेरे इलाके में नहीं दिखता जब कि यहाँ पर्याप्त हरियाली है। प्रात: चिड़ियों की चहचह है लेकिन वह कर्ण मधुर काँव काँव नहीं है। एक दो महीने से ही नोटिस कर रहा हूँ। शायद पहले भी...
बहुत पहले गाँव से पहली बार जब प्रयाग गया था तो ध्यान में आया था कि कौवों का एक दूसरा प्रकार भी होता है जिनमें गले के आसपास काला नहीं धूसर रंग होता है जब कि अपने गाँव मैंने पूर्ण काले कौवे देखे हैं। बहुत तलाशा लेकिन नेट पर भी पूर्ण काले कौवे का चित्र नहीं मिला। स्मार्ट भैया को धन्यवाद - Raven बताने के लिए। देखिए ये रहा शुद्ध कृष्ण काग: 
 श्रीमती जी कहती हैं कि नर मादा का अंतर है लेकिन वीकी का यह नीचे का चित्र और ही कहानी कह रहा है:

 
अब तो कोई भी प्रकार नहीं दिख रहा!
गए कहाँ कौवे? आप को पता हो तो बताइए।
इनकी अंतरराष्ट्रीय संरक्षण श्रेणी Least Concern (IUCN 3.1) बताई गई है मतलब कि इनको खतरा हो सकता है, इस बारे में सोचना भी नहीं है! माजरा क्या है?
जरा घर से बाहर निकलिए और बताइए तो आप के आस पास कौवे दिख रहे हैं क्या?

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

कुछ अनुभव सीखें

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में हाल में सम्पन्न हिन्दी ब्लॉगर संगोष्ठी पर बहुत कुछ कहा सुना जा चुका है। कतिपय व्यक्तिगत कारणों से मैं वहाँ जा नहीं पाया जिसका मुझे हमेशा दु:ख रहेगा। प्रयाग के बाद वर्धा, उसके बाद? मुझे आशा है कि 'अ-सरकारी' प्रयास भी होंगे जिनमें कथित 'भूल, ग़लतियों, असफलताओं' से सबक लिया जाएगा और उत्तरोत्तर कड़ियाँ एक इतिहास का सृजन करेंगी। विश्वविद्यालय, आयोजकों और सभी जुड़े लोगों को सफल आयोजन हेतु मैं धन्यवाद देता हूँ और आशा करता हूँ कि आगे और अच्छे आयोजन होंगे। एक बात सबको याद दिलाऊँगा: जिस तरह धुएँ से अग्नि युक्त है उसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। इस कारण सहज कर्म को त्यागना नहीं चाहिए। आयोजक इस आयोजन के लिए साधुवाद के पात्र हैं। इसलिए और भी कि उन्हों ने एक 'लीक ' दिखाई है , अब 'राजपथ' के शिल्पियों को कर्मप्रवृत्त होना चाहिए। 
        यह आलेख वहाँ न जा पाने की स्थिति में भेजा गया था। सोचा कि आप लोगों से साझा कर लूँ। एक नए ब्लॉगर के लिए और उसकी दृष्टि से ही इसे लिखा। अपरिपक्वता दिख सकती है लेकिन आशा है कि बातें विचारने को प्रेरित तो करेंगी ही। अस्तु ... 
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क्या लिखें?
मैं यह मानकर कह रहा हूँ कि आप क्यों की दुविधा से मुक्त होकर लिखने को तत्पर हैं। आप के भीतर की जो रचनात्मकता अब तक बन्द थी, वह सम्पादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, खेमों आदि ढक्कनों से मुक्त हो एक अत्याधुनिक, सक्षम और उत्कृष्ट प्लेटफॉर्म ब्लॉग पर खुलने को है। स्वभावत: आप सोचेंगे कि क्या लिखें? मैं कहूँगा कि यह चयन का मामला है, कमी का नहीं। विषय बिखरे हुए हैं, आप को रुचि अनुसार चुनना है और चुनते या लिखते समय किसी भी तरह की घबराहट, पूर्वग्रह या दुविधा से मुक्त रहना है।
प्रात:काल नर्सों को हॉस्टल से लेकर अस्पताल जाती बस, कुत्ते को टहलाते और उससे अपनी धोती बचाते दादा जी, टूटे दाँत लिए स्कूल से चहकती लौटती कामवाली की गुड़िया, शाम को ठीक 5 बजे आप के दरवाजे पर रोज आकर खड़ी होती गाय, पार्क की बेंच पर अकेले मोबाइल पर देर तक रोज बात करती युवती, बीच गली में घंटे भर से गपियाते अति व्यस्त मित्र, चहारदीवारी पर कोने में चिपके युगल, माल में ग्राहकों का ऑनलाइन हिसाब करती परेशान मुस्कुराती युवती, सड़क के गड्ढे में किनारे अटका चिप्स का रैपर, बजरंग बली के मन्दिर के ठीक बाहर फेंका हुआ कंडोम .... अनंत सूची है। यदि आप प्रेम में हैं तो कहना ही क्या? अगर आप का बॉस खड़ूस है या मातहत बदतमीज है फिर तो यकीन मानिए आप की झोली कभी खाली नहीं रहेगी।
कहने का मतलब यह कि कुछ भी लिखिए और प्रयोग करने से न चूकिए। आत्मीयता महत्त्वपूर्ण है। बहुत बार आप को स्वयं नहीं पता होता कि आप की बोर्ड पर या कलम के साथ किस विषय पर कितने धारदार हो जाएँगे? इसलिए प्रयोग करने से न चूकिए। यहाँ आप स्वयं लेखक, सम्पादक, प्रकाशक हैं। प्रारम्भ में विवादास्पद विषयों पर लिखने से बचें लेकिन उन्हें टीपे रहें और नैतिकता, विधि, अन्यों के विचार आदि जुड़े पहलुओं पर जानकारी इकठ्ठी करते रहें और फिर लिखें।
नकारात्मक लेखन न करें। तात्कालिक प्रसिद्धि(?) तो मिलेगी लेकिन बहुत दिनों तक आप चल नहीं पाएँगे। ब्लॉग जगत में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब धूमकेतु की तरह नकारात्मक बातें करने वाले छा गए और उसी की तरह लुप्त हो गए। नकार की ऊर्जा क्षणजीवी होती है क्यों कि स्वभावत: वह प्रतिक्रिया से उपजती है। क्रिया के बिना प्रतिक्रिया हो ही नहीं सकती।  
वह सब तो ठीक है लेकिन कैसे लिखें?
विषय को कैसे अभिव्यक्त किया जाय? यहाँ कैसे से अर्थ गद्य, पद्य, चित्र, ऑडियो, वीडियो, फोटोग्रॉफ आदि या इनके कम्बिनेशन से है। हिन्दी ब्लॉगरी में साहित्य बनाम ब्लॉग विवाद का एक दौर था जहाँ साहित्य से अर्थ बनी बनाई, वाददूषित, खेमाई पृष्ठभूमि से आती गद्य, पद्य, उपन्यास, कहानी आदि से लगाया जाता था और ऐसे बहुत से ब्लॉगर थे/हैं जो ‘साहित्य’ को उतनी ही हेय दृष्टि से देखते थे जितनी हेय दृष्टि से ब्लॉगर दूसरे पक्ष द्वारा देखे जाते थे – ब्लॉग और इंटरनेट माने पोर्नोग्राफी और दोयम गुणवत्ता। 
अभी मतभेद तो हैं लेकिन सक्रिय विवाद नहीं दिखता। साहित्य को अभिव्यक्ति मानें तो ब्लॉगरी एक विधा के रूप में बस इस मायने में अलग है कि यह मुक्त है। छपने पर बन्धन हैं लेकिन वैसे नहीं जैसे कागज पर छपने पर हैं। आप जैसे चाहें लिख सकते हैं। विकासमान प्रक्रिया है यह। ठीक वैसे ही जैसे वार्णिक छ्न्द-मात्रिक छन्द-मुक्त छ्न्द। गद्य-कथा-कहानी-नाटक-उपन्यास-रिपोर्ताज वगैरह वगैरह। सूक्ष्म अंतर यह है कि जहाँ विकास होने में पहले वर्षों लगते थे वहीं आप के भीतर, आप के ब्लॉग पर विकास होने में शायद कुछ महीने या सप्ताह ही लगें। शर्त यह है कि आप स्वयं उतने ही मुक्त रहें जितना मुक्त प्लेटफॉर्म है और प्रयोग करने से न हिचकिचाएँ। एक उदाहरण लें – मान लीजिए कुछ लिखते हुए आप ध्वस्त ट्विन टॉवर्स का जिक्र करते हैं और आप चाहते हैं कि पाठक वहीं उनके बारे में जान तो ले लेकिन आप विपर्यय से बचे रहें। ऐसे विजेट उपलब्ध हैं जो उस शब्द पर कर्सर ले जाते ही टॉवर्स का मयचित्र संक्षिप्त परिचय वहीं एक खिड़की में दिखा देंगे। जैसे ही कर्सर हटेगा आप वापस अपने विषय पर होंगे।      
तो आप जैसे चाहें लिख सकते हैं। गद्य, पद्य, गीत, नाटक, नौटंकी, शेर, हल्की फुलकी तुकबन्दी, ऑडिय़ो, वीडिय़ो आदि। धीरे धीरे आप अपनी एक सुविधाजनक शैली विकसित कर लेंगे जिसके लिए जाने जाएँगे और स्पष्ट है आप के चाहने वाले भी बन जाएँगे। 
भाषा कैसी हो?
वैसी ही हो जैसे आप हैं। मतलब यह कि आप भाषा के जिस किस्म के साथ/में सुविधा के साथ लिख सकते हैं उसी में लिखें। ग्राम परिवेश पर मैला आँचल भी लिखा जा सकता है, राग दरबारी भी, गोदान भी और आधा गाँव भी। विषयवस्तु, काल और परिवेश से भी भाषा तय होगी। इसे ऐसे समझिए कि आप शहर में चल रहे नाट्य समारोह पर लिख रहे हैं या झुग्गियों की किसी आपसी लड़ाई पर या कोर्ट द्वारा सुनाए किसी फैसले पर – भाषा तदनुसार बदलेगी।
एक बात और है। आप बिन्दास लिखना चाहते हैं कि दूसरों की भाषा शैलियों से सीखना चाहते हैं? प्रयोग करना चाहते हैं या भाषा की परवाह किए बिना बस इस पर केन्द्रित रहना चाहते हैं कि बात ठीक से पहुँच जाय? यदि आप दूसरी श्रेणी के हैं तो सहज अनायास रचते रहिए, आप खाँटी ब्लॉगर हैं। आप के ब्लॉग पोस्ट ही आप की एक शैली/शैलियाँ विकसित कर देंगे।  
लेकिन यदि आप सीखना चाहते हैं तो अध्ययन अपेक्षित है। ब्लॉग प्लेटफॉर्म पर भी बहुत से दिग्गज हैं और साहित्य क्षेत्र में भी। उन्हें पढ़िए और लिखते रहिए। इस मुद्दे पर अधिक टेंशन लेने की आवश्यकता नहीं है। भाषा सहज सम्वाद करती होनी चाहिए, बस।
यह भी समझ लें कि चाहे तत्सम प्रधान लिखें, उर्दू सिक्त लिखें, अंग्रेजी शब्दों को लेते हुए लिखें, चाहे जैसे लिखें; आप की बात समझने वाले, शैली सराहने वाले मिलेंगे। दुनिया बहुत बड़ी है और हिन्दी वाले करोड़ो हैं। आप भारत की प्रथम जनभाषा में लिख रहे हैं और इस कारण नियति आप के पक्ष में है।    
टिप्पणियाँ, नामी बेनामी और मॉडरेशन 
हिन्दी ब्लॉगरी के ये बहुत रोचक पहलू हैं। संख्या कम है और इस कारण ब्लॉगरों का एक दूसरे को और दूसरे के मित्रों को भी जानना हिन्दी ब्लॉगरी को एक खास फ्लेवर देता है। एक एक कर देखते हैं।
(क)  टिप्पणियाँ:
आप के ब्लॉग की पहुँच अधिक लोगों तक होने के लिए टिप्पणी का विकल्प खुला रखना आवश्यक नहीं है। लेकिन उससे मदद मिलेगी। निजी जिन्दगी में परेशाँ लोग ऐसा कुछ चाहते हैं जहाँ बतिया सकें या यूँ ही अपने मन लायक कुछ कह सकें। पढ़ने पर अच्छा लगे तो वाह वाह कर सकें, कुछ जोड़ सकें; कुछ ठीक न लगे तो अपना पक्ष रख सकें। बहुतायत ऐसे जन की ही है। कुछ विघ्नतोषी या बवाली भी पाए जाते हैं लेकिन वे तो हर जगह हैं, ब्लॉग प्लेटफार्म अछूता क्यों रहे? ऐसे लोगों की बेहूदी टिप्पणियों को आप आसानी से मिटा सकते हैं।
कई बार टिप्पणियाँ ऐसी भी आती हैं कि ब्लॉग लेख भी उनसे समृद्ध हो जाता है। कई बार ऐसी बहसें भी हो जाती हैं जिनसे कई आयामों पर प्रकाश पड़ता है।
अपने ब्लॉगर सेटिंग में यह विकल्प अवश्य चालू रखें जिससे कि कोई भी टिप्पणी ब्लॉग के अलावा आप द्वारा निर्धारित एक ई मेल बॉक्स में भी आ जाय। इसका लाभ यह है कि भले टिप्पणी करने वाला ब्लॉग से मिटा दे या आप मिटा दें; सन्दर्भ के लिए वह टिप्पणी आप के पास हमेशा उपलब्ध रहेगी।
एक पक्ष यह भी है जहाँ ब्लॉग के संकलक प्लेटफॉर्मों द्वारा रेटिंग निर्धारण के लिए टिप्पणियों की संख्या का भी ध्यान रखा जाता है। अधिक टिप्पणियों वाले ब्लॉग पोस्ट अलग से दिखाए जाते हैं और एक चेन रिएक्शन की तरह अधिकाधिक लोग वहाँ पहुँचते हैं और टिप्पणी कर जाते हैं। अगर आप ऐसी राह पकड़ना चाहते हैं तो आप को भी दूसरों के यहाँ जाकर प्रतिदान करने पड़ेंगे। अगर समय है और उत्साह है तो कीजिए लेकिन याद रखिए ‘प्रसिद्धि की चाह भक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा होती है’। महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों की संख्या या तात्कालिक रेटिंग नहीं, गुणवत्ता महत्वपूर्ण है और आप के ब्लॉग का अधिकाधिक लोगों तक पहुँचना है। अगर आप अच्छा लिखेंगे, काम लायक लिखेंगे तो भले धीमे हो, आप को लोग पहचानेंगे और आप की बात दूसरों तक भी पहुँचाएँगे।
स्वयं टिप्पणी करते हुए वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखें। परिचित या घनिष्ठ ब्लॉगरों के यहाँ आप हास परिहास या चुटकी भी ले सकते हैं लेकिन वहाँ भी विषयकेन्द्रित रहें। प्रशंसा करना आसान है – आह, वाह, अद्भुत लिखे और चलते बने लेकिन आलोचना कठिन कर्म है। वीतरागी संत ब्लॉगिंग नहीं कर रहे। आलोचना पर पहली प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से क्रोध होती है। इसलिए विरुद्धवीणा बजाने के पहले सुर ताल पर पक्के हो लें और सभ्य भाषा में ईमानदारी के साथ अपनी बात कहें। प्रतिकार में दिए गए तर्कों के प्रति खुले रहें। ऐसा करने पर कई बार आलोच्य और आलोचक दोनों लाभांवित होते हैं। अधिक लम्बी और फलदायी बहस के लिए चुनिन्दा लोगों के साथ ई मेल पर बहस का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। त्वरित प्लेटफार्म होने के कारण सामान्यत: एक पोस्ट बस एक या दो दिन ही बहस के लिए हॉट रहती है। हजारों लोग लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। पाठक केवल आप की एक पोस्ट पर बँधे रह कर सारा समय वहीं तो नहीं दे सकता।
(ख)  नामी बेनामी
कायदे से वास्तविक मतलब यह कि जैसा असल जीवन में ब्लॉगर है, वैसा ही ब्लॉग प्लेटफार्म पर भी है। वही नाम, वही फोटो, वही परिचय आदि आदि। उसे ब्लॉग जगत के लोग जानते पहचानते हैं या प्रोफाइल में उसके द्वारा दिए गए सम्पर्क सूत्रों से तसदीक कर सकते हैं, मिल सकते हैं। इस हिसाब से ब्लॉग जगत में बहुत से नामी ऐसे हैं जो बेनामी ही कहे जा सकते हैं। वे स्वस्थ ब्लॉगरी की राह चलते हैं, प्रतिष्ठित हैं लेकिन आप उनसे साक्षात नहीं मिल सकते। व्यक्तिगत कारणों से वे गुमनाम बने रहना चाहते हैं। नाम तक कैसे कैसे! Ghost buster, उन्मुक्त, ab inconve.., Abyss_Garden आदि आदि।
ब्लॉग जगत में जब ‘बेनामी’ की बात होती है तो उसके निशाने पर यह लोग नहीं होते, सामान्यत: वे विघ्नतोषी और दुष्ट प्रकृति के लोग होते हैं जो अपनी कुंठा, धर्मान्धता आदि बेनाम टिप्पणियों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। फिर किसी भी पोस्ट पर हो रही बहस का लीक से उतरना तय हो जाता है। लिखने वाले और गम्भीर पाठकों को जो कष्ट होता है वह तो है ही। चूँकि बेनामी विकल्प से कोई भी टिप्पणी कर सकता है, कई बार नाम वाले ब्लॉगर भी अपनी खुन्नुस निकालने के लिए यह काम करते हैं। यह बुराई समाज की अन्य बुराइयों की तरह ही है।
प्रश्न यह है कि बेनामी टिप्पणी का विकल्प खुला रखा जाय या नहीं? खुला रखना ही ठीक है। कोई भी दुष्ट फर्जी नाम से ब्लॉगर प्रोफाइल बना कर अपने काम को अंजाम दे सकता है फिर उन आम पाठकों को जो कि ब्लॉगर नहीं हैं या प्रोफाइल नहीं बनाना चाहते, टिप्पणी करने से क्यों रोका जाय? अगर आप टिप्पणी का विकल्प खुला रखे हैं तो समय समय पर आप को अपने ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखना भी होगा और सफाई भी वैसे ही करनी पड़ेगी जैसे कि आप घर में करते रहते हैं। आप अवांछित टिप्पणियों को मिटा सकते हैं लेकिन उस हानि का क्या जो उस तरह की टिप्पणी ने उतनी देर  आप की पोस्ट पर रह कर कर दी? बहुत बार दो तीन टिप्पणीकार आप के ब्लॉग को निजी लड़ाई का आखाड़ा बना देते हैं। अगर आप उस दौरान अपने काम में कहीं और व्यस्त रहे तो हो गया कल्याण!
इससे बचने के कई तरीके हैं:
(1)  आप गुमनाम ब्लॉगर प्रोफाइल बनाएँ और बेफिक्र रहें, रह सकें तो।
(2)  आप भी नंगे हो जायँ। कोई कुछ भी धमाल मचाता रहे आप को कोई फर्क ही न पड़े। लेकिन इसमें कभी कभार क़ानूनी मामलों में फँसने का खतरा है। ब्लॉग लेख ही नहीं, उस पर आई टिप्पणियों की जवाबदेही भी ब्लॉगर की  बनती है। किसी ने यदि राष्ट्रविरोधी टिप्पणी कर दी तो आप भी गुनहगार होंगे।
(3)   कविताओं, कहानियों, ग़जल, गणित के पाठ आदि पर ऐसे विवाद नहीं होते। विवाद सामान्यत: समकालीन ज्वलंत विषयों पर लिखे गए लेखों पर ही होते हैं। आप विवादास्पद या ज्वलंत विषयों पर लिखें ही नहीं। कोई आवश्यक है क्या कि सभी लोग हवन करें?
(4)  मॉडरेशन। टिप्पणियाँ बिना आप की अनुमति/सहमति के न छपें। यह एक रोचक  विकल्प है। इसे ऊपर बताए उस विकल्प के प्रकाश में भी देखना होगा जिसमें टिप्पणियों के ई मेल पर भी आ जाने वाले अतिरिक्त विकल्प को सक्रिय रखने को कहा गया है। 
मॉडरेशन कब ?
(क)  अगर आप प्रसिद्ध हस्ती हैं और आम जन के विचार जानना तो चाहते हैं लेकिन असुविधाजनक बातों से बचना चाहते हैं। प्रसिद्धि ईर्ष्या, निन्दा, कुप्रचार, द्वेष, अवांछित हस्तक्षेप आदि  वस्त्र पहन कर आती है। जितनी सुन्दर प्रसिद्धि, उतने ही विविध वस्त्र।
(ख) अगर आप अपने को ‘बड़ी हस्ती’ समझते हैं और भाव क़ायम रखना चाहते हैं।
(ग)  आप वास्तव में शत्रुग्रस्त हैं।
(घ)  आप नहीं चाहते कि आप के ब्लॉग पर कोई बहस ऐसी हो जो अवांछित हो, पटरी से उतर जाय और आप के अलावा औरों को भी संकट में डाल दे।
(ङ)  आप केवल विषय सम्बन्धित टिप्पणियाँ ही चाहते हैं और प्रचार, स्पैम वगैरह से बचना चाहते हैं।   

मॉडरेशन के अवांछित प्रभाव
(क)   किसी ज्वलंत विषय पर सही बहस तब तक नहीं हो सकती जब तक आप लगातार बैठ कर टिप्पणियों को मॉडरेट न करते रहें। मॉडरेशन की दशा में बहस अड्डेबाजी न होकर ऐसा ग्रुप डिस्कशन रह जाती है जो बॉस द्वारा अनुशासित है और बीच बीच में आप के कान आँख बन्द कर दिए जाते हैं। तुर्रा यह कि आप की बात खत्म होती है और वे बातें आप के सामने लिख कर रख दी जाती हैं जो अपनी बात कहने के पहले आप ने देखी सुनी ही नहीं। तब तक बात इतनी आगे जा चुकी होती है कि पीछे लौटा ही नहीं जाता।
(ख) आप पाठकों को भाई छाप गुंडा लगने लगते हैं भले ही कितने ही भले क्यों न हों।
(ग)   पाठक असहज और अपने को आप की दृष्टि में अविश्वसनीय सा अनुभव करने लगता है।
(घ)   बहस के बीच में कहीं आप का नेट कनेक्शन बिगड़ गया तो या तो किसी और के यहाँ/ढाबे पर जाइए या सैकड़ो योजन दूर से भी पाठकों की गालियाँ पाइए।

तो एक विकल्प यह भी है कि टिप्पणियों का विकल्प बन्द रखिए और अपनी ई मेल आइ डी पब्लिक कर दीजिए। जिसे बहुत इच्छा होगी वह अपनी बात आप तक पहुँचा देगा। अब विश्राम लेता हूँ। 

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

केमिकल लोचा तुमसे ही है माँ! तुमसे ही।

साथ काम करने वाली युवतियाँ मुझे किसी पर चिल्लाता हुआ पाती हैं,
कृपा भरी दृष्टि से देखती हैं,
तो माँ! तुम्हारी उलाहना भरी आँखें दिखती हैं - ऐसा भी क्या? गला फाड़ने से कुछ नहीं होता।
वह प्यार भरी धमक, ठण्डा स्वर, बेंत से शब्द - लचीले, नहीं टूटने वाले।
समाधान की लीक, समझ की लीक - पुन: दिखने लगती है
जाने क्यों कुकर की बिगड़ी गास्केट पर फ्रिज का पानी डालते हाथ नज़र आते हैं!
    
खिचड़ी केश घिरी झुर्रियों में जब कोई अनजानी वत्सल मुस्कुराहट झलकती है
माँ! तुम दिखती हो।
सोचता हूँ जब किसी बछड़े या पिल्ले को देख ऐसे ही मुस्कुराता हूँ
तो तुम्हारे जीन ही होठों को तान रहे होते हैं
ऐसे क्षणों के पहले घटता भीतर का केमिकल लोचा तुमसे ही है माँ! तुमसे ही।

टी वी देखते हुए वहीं पर खाना खाने की ज़िद!
उलाहना देती, डाँटती पत्नी अखबार बिछा थाली रख जाती है।
दीन दुनिया भूल कर छत पर उपन्यास पढ़ते बिगड़ैल बच्चे को
अपने हाथों खाना खिलाती माँ! तुम ही तो हो यहाँ भी।
बस ऐसे ही खयाल आता है - कैसे ठीक करता बाहर के बिगड़ैलों को?
अगर नहीं पता होता कि हारे हुए घायल को सहारा देते सहलाते स्वर घर में हैं
तो क्या लड़ पड़ता अनर्थ करते अत्याचारियों से?
क्या लड़ पड़ता जो तुमने बिगाड़ा नहीं होता?
(जीत तो मैंने हमेशा छिपाया है। हिंसक आनन्द बाँटने में खुद को अक्षम पाया है।)

गए जमाने में ऐसा कभी नहीं हुआ जब टिफिन बॉक्स के लिए देर हुई हो
इस जमाने ऐसा कभी नहीं हुआ जब बच्चों की बस छूटी हो - तैयारी में देरी के कारण
अखबार पर नज़र गड़ाए, भारी भरकम फंडामेंटल पढ़ते
सोचता हूँ कभी कभी कि प्लानिंग इतनी साधारण सी और रोजमर्रा सी
कैसे हो सकती है?
माँ, तुम्हारे कितने रूप हैं!  

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

चर्चा मंच की चोन्हरई

सर्वप्रथम अपेक्षित। चोन्हरई मने क्या? यह भोजपूरी क्षेत्र का वह शब्दरत्न है जिसका भाईचारा बुरधुधुर, लड़बकार, चिलगोंजई, चूतिया आदि से है। t0
इन शब्दों को ज्ञानी लोगों द्वारा अश्लील, भदेस और निरर्थक माना जाता रहा है। असल में यह उनका अज्ञान है। वे भी इनके अर्थ समझते हैं लेकिन व्याख्या करने में स्वयं को अक्षम पाते हैं। शब्दों के अर्थ समझते हुए और बिना अर्थ अनर्थ की चिंता किए धडल्ले से प्रयोग करने की समृद्ध अज्ञानी सनातन परम्परा श्लील, अश्लील जैसे बेहूदे विमर्शों में नहीं पड़ती। बात में घंटा घहराना हो तो यूजो और भूलो। अर्थ जान कर क्या उखाड़ना?
हुआ यह कि गई 30 सितम्बर को एक चिर उदार और एक चिर ज़िद्दी के बीच सम्पत्ति विवाद का फैसला आने वाला था। आग में मूतने की छूट तो ज़िद्दी को मिली ही हुई है, समस्या यह है कि उदार भी गुस्सा कर अड़ गया है। तो उस दिन जब पूरा देश साँसों को अरगनी पर टाँगे ज़ेहनी हाँफ में व्यस्त था, मैं भी हाँफा डाफा में लगा हुआ था।  
बेचैनी में टहलते हुए निषिद्ध स्थान - जहाँ कथित चर्चाएँ की जाती हैं - पर पहुँच गया। एक दिन पुरानी कथित चर्चा में अपनी पोस्ट का लिंक देख कर हैरान हुआ और उसके नीचे की भड़ैती देख झंड हो गया। आप भी देखिए:

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यहाँ झंड का झंडू बाम से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह भी अज्ञानी परम्परा का शब्द है। झंडू बाम की छोटी सी शीशी पर महान लोग इतने हस्ताक्षर कर चुके हैं कि अपने लिए जगह ही नहीं बची।
पहले मजनू शब्द देख कर परम प्रसन्न हुआ। इतिहास के जिन चन्द लोगों ने अपन को हड़काने के स्तर तक प्रभावित किया है उसमें मजनू नामधन्य क़ैश (उर्दूदाँ लोग वर्तनी ठीक कर लेंगे) भी एक है। दीवानापन हो तो ऐसा! अपन को भी कोई लैला मिली होती तो उद्धार हो गया होता। वाह वाह क्या बात है! किसी के इश्क़ में यूँ मिट जाना कि कायनात हिल दहल उठे! क्या बात है!!
फिलम लैला मजनूँ में जब नमाज़ी कठमुल्ले को बावरा क़ैश इबादत और प्रेम का पाठ पढ़ाता है तो क्या दिव्य बात कहता है:
सजदे-खुदा में रहे आने जाने वालों का खयाल
इससे तो अपनी मुहब्बत ही भली!

और मरण सेज पर पड़ी लैला को होश में लाने को समूची कायनात और खुदा को ललकारता क़ैश
फजाँ ज़ालिम सही ये ज़ुल्म वो भी कर नहीं सकती
जहाँ में क़ैश ज़िन्दा है तो लैला मर नहीं सकती

ये दावा आज दुनिया भर को दिखलाने की खातिर,
ये दीवाने की ज़िद है ज़िद अपने दीवाने की खातिर, हाँ ...


पीपली लाइव और दबंग देख के हैराँ परेशाँ लोगों से अपील है कि यह पुरानी फिलम जरूर देखें। मदन मोहन, साहिर और रफी की तिकड़ी ने कहर बरपा कर दिया है। कहर!  

मामला यत्र तत्र और भौंड़े पर सीरियस हो गया। घटिया छ्न्द में गाली (गाली के मायने मेरे यहाँ जुदा से हैं।)!... बात इश्क़ की हो और हीर राझाँ की चर्चा न हो, सम्भव नहीं! फिलम हीर राँझा में कवि क़ैफी आज़मी हर सम्वाद शेरो शायरी में लिखने की कला दिखा चुके हैं। चाहते तो वह भी खल पात्रों के मुँह से छ्न्दभड़ैती करा सकते थे लेकिन वह तो बुद्धिमान थे।  जिस क्षेत्र में बुद्धिमान लोग असफल रहते हैं, मूर्ख वहाँ सफलता की कुलाचें मारते हैं।
अपन का हाल ऐसा हुआ कि मारना चाहो और हाथ बँधे हों। ऐसी जगह था कि बस देख सकता था, कुछ कर नहीं सकता था। जिस प्रेमकथा की 31 कड़ियों ने विमर्श, प्रशंसा और स्वस्थ आलोचना के उदाहरण स्थापित किए, उसे भौंड़ा कैसे कहा जा सकता था! जिसे लिखते
हुए हर क्षण डूबा हूँ, साँसों को ठहरा कर मरा हूँ, फिर फिर जीवित हुआ हूँ उसे यत्र तत्र सर्वत्र की कुत्तामूतन परम्परा से कौन जोड़ सकता है?
वही न जिसके मन में कलुष का भंडार हो। ऐसे पुजारी जो राधा राधा जपते हों और नज़र राधाओं की गोलाइयों पर रखते हों, प्रेम को नहीं समझ सकते। नहीं, मैं तुक्कड़ महराज के लिए नहीं कह रहा। ऐसे ही दिमाग में क़ोटेशन आया तो सोचा लिखता चलूँ।              
सबसे अधिक कष्ट इन टिप्पणियों से हुआ। नाम नहीं लूँगा। स्वयं देख लीजिए।

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किसी ने भी तुक्कड़ महराज को चेताने की ज़हमत नहीं उठाई। 14 लोगों ने आह, वाह, बढ़िया, अच्छा टाइप के शब्द करीब 22 बार इस्तेमाल किए। 11 बार 'अच्छी अच्छाई ' दिखी। मुझे तो अब किसी को अच्छा कहते शर्म आने लगी है। तो यह है हिन्दी ब्लॉगरी!... यह वही ब्लॉग जगत है जिसमें सुनी सुनाई बात पर कहर ढाहती उच्छृंखलता पर प्रश्न नहीं उठाए जाते। तब जब कि आरोपी मौन रहे।  
अपने मित्र अमरेन्द्र जी को मेल किया। और अमरेन्द्र जी ने सारी अच्छाइयों को धता बताते हुए यह टिप्पणी की।

3 
उन्हें आभार नहीं कह सकता। दोस्ती में नो सॉरी नो थैंक यू। और दूसरों की राय की तो परवाह ही नहीं करनी। खुद जो समझ आए वही करना।      
अब तुक्कड़ जी स्वयं के लिए नहीं दूसरों के लिए आदर्श स्थापित करने में आस्था रखते हैं। नीचे देखिए।
t5 
हम नंगई करेंगे लेकिन तुम्हें पूरे कपड़ों में मेरे पास आना होगा! हम नागा बाबा है!
स्पष्ट था कि टिप्पणी मिटनी थी सो मिटा दी गई। हाँ, फटकार का यह असर हुआ कि मेरी पोस्ट की लिंक और वह छ्न्दछिछोरई भी लुप्त हो गए।
..आप लोग पूछेंगे कि इतने दिन बाद क्यों? सम्पत्ति बँटवारे के अर्थ समझ रहा था और सर्वधन क्रीड़ा की पीड़ा से उबर रहा था। मुक्त सा हुआ तो 32 वाँ भाग लिखा। समय समय की बात है। तो चर्चाकारों! आप से करबद्ध प्रार्थना है कि जब समझ में न आए तो मौन रहें और मेरी किसी भी पोस्ट की लिंक देने के पहले पूर्व अनुमति ले लें। जानता हूँ कि औसत दर्जे का लिखता हूँ लेकिन फिर भी मुझे डूबना पड़ता है। डूब से पीड़ित अपने साथी ब्लॉगर पर इतनी कृपा तो आप लोग करेंगे ही। टिप्पणीकार ब्लॉगरों से अनुरोध है कि आह व्यक्त करते हुए आगा पीछा देख लें। एक बार पोस्ट को पढ़ भी लें। आह का लेबल इतना डाउन न करें। किसी तुक्कड़ ने कहा है न - आह से उपजा होगा गान। मेरा नहीं उस दिवंगत पुरनिए का तो मान रखें। चिलगोंजई न करें।

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सतीश पंचम जी की इस पोस्ट से ध्यान आया कि उन्हें 'चिलगोंजई' शब्द के लिए धन्यवाद देना था, जो मैं भूल गया। देर आयद दुरुस्त आयद।
धन्यवाद सतीश जी! इस शब्द को आप के ब्लॉग लेखों से ही समझा है। :)

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

अथ सर्वधन क्रीड़ा : एक पुनर्प्रस्तुति 'रानी का डण्डा'

 भोर के आसपास हूँ। ऊर्मि और मनु की कथा लिखने को जगा हूँ और अन्धेरे को बहुत घना पा रहा हूँ। कल इंडियन एक्सप्रेस में एक विद्वान का लेख पढ़ा जिसमें  दूसरे देशों में हुए वृहद आयोजनों के दौरान घटित भ्रष्टाचारों पर जनता की उदासीनता की तुलना आम भारतीय जनता की जागरूकता से करते हुए यह आशावान भविष्यवाणी सी की गई थी कि अब एक नए युग का आरम्भ होगा। अर्थ के विलक्षण विशेषज्ञ से असहमत होते हुए मुझे अपनी लम्बी कविता का वह अंश याद आया जिसमें एक पीड़ित संसद भवन के मैले खम्भों को गन्ने के खौलते रस से सराबोर करने  की बात करता है। 
 एक सर्जक के लिए अच्छाई की कल्पना और सृजन बहुत  ऊँचे आदर्श हैं। न तो मैं तुलसीदास हूँ और न मक्सिम गोर्की। क्या करूँ? अन्धेरे मुझे बहुत स्याह दिखते हैं। एक परम्परा व्यास के महाभारत की भी तो है जिसमें प्रकाश के साथ स्वयं ईश्वर मानव रूप में चित्रित हुआ है। लेकिन अन्धेरा इतना सान्द्र होकर उभरा है कि अन्धे युग के पहले कुछ दिनों में ही स्वयं रचयिता कह उठता है - मैं दोनों हाथ उठा कर कहता हूँ पर कोई नहीं सुनता (उसे कहना था - किसी को कुछ नहीं दिखता)।
 ईश्वर मर चुका है और समूची धरा सर्प यज्ञ के अनुष्ठान में लगी है। विष वमन करते, मृत्यु का प्रचार प्रसार करते सर्प जनमेजयों के यज्ञ में नहीं मरते। नहीं मरते! उनका यज्ञकुण्ड में दहन कल्पना ही तो है - अच्छी या बुरी? नहीं पता लेकिन अन्धेरे को इतना साफ साफ कह देना क्या प्रकाश पर प्रकाश डालने जैसा प्रभाव नहीं छोड़ता? प्रेम क्या है- क्या यह दिखाने के लिए घृणा का सृजन करना होगा? कौन करेगा? किसमें इतनी क्षमता है?
... व्यासदेव! आज इस भोर में यह क्षुद्र सर्जक प्रेमाख्यान नहीं लिख पाएगा। कुछ भी नहीं लिख पाएगा। छ्लकते उजालों के बीच रहते हुए भी अपने को एक कपाट में बन्द पा रहा है जिसके बाहर अन्धेरा ही अन्धेरा है। कल्पना, हाँ अन्धेरे की कल्पना ही कर रहा है - उन विपत्तियों को विस्तार देते हुए जिन्हें सामान्य कहा जा सकता है लेकिन जिनके विष उस जैसे करोड़ों आम व्यक्तियों को रोज मारते हैं और फिर भी उनकी आत्माएँ अमर रहती हैं। अपने भीतर के त्रास को पुन: प्रस्तुत कर रहा है क्यों कि उसे अमर अश्वत्थामाओं से घृणा है, घृणा है।... वह तरंगों से फेंकी एक मणि नहीं, किनारे के शैवाल सा है। वह ठहरा है और मझधार में संसृति जलनिधि की तरंगों का उद्दाम नर्तन है, चल रहा है। मणियाँ कैसे बनती हैं? उनमें प्रकाश कहाँ से आता है? ...     
इस कहानी का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। पढ़ते पढ़ते अगर वास्तविक लगने लगे तो अपने ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि यह कभी वास्तविक न हो। 
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(1) 
मिडिल स्कूल के फील्ड में रानी का डंडा आने वाला था। गाँव भर जोशो खरोश में होश खो तैयार हो रहा था।
सोनमतिया बेटी के केश सँवार रही थी। उसने बेटी को एक धौल लगाया,” मोछिउखरनी, कहेलीं कि साबुन नाहीं बा त रोज काँचे पानी से सलवार समीज धो देहलि करु। कैसन महकता। लोगवा का कही रे ?”
बेटी ने जवाब दिया,” माइ रे, तोर मोछि कहाँ बा जो उखरी?”
धत्त! कह कर सोनमतिया पहले हँसी और फिर नम हो गई आँखें पोंछने लगी। उसके मरद को मरे तीन साल होने को आ रहे थे।
लाला अपने दुआरे बहोरना के साथ गम्भीर विमर्श में व्यस्त थे। “रानी के डंटा के मतलब का ? आखिर ई आवता काहें हो?”
पछिमही बोली में बहोरना बोला,” लाला, सात समन्दर पार से कभी एक रानी हम पर राज करती रही। उहे अंग्रेज राज के अब के रानी डंटा भेजिस है। पहिले तो वो सब डंटा मार मार पीठ की खाल उधेड़ राज किए अब खेल खेल में उसकी याद दिला रहे हैं। राजदंड तो सुनै होगा। एक तरह से वही समझ लो। बड़ी इज्जत है उसकी। सुना है बड़े बड़े लोग लुगाई उसके साथ चल रहे हैं। सिक्योरिटी एक्दम टैट है।“
लाला बुदबुदाए,”बड़वार लोग मजा लेवे खातिर भी डंटे ले घूमेला।“ 

दोनों मिडिल स्कूल के फील्ड की ओर चल दिए। वहाँ लोगों का जुटान अभी शुरू हो रहा था। बहोरन को लगा कि एक हरमुनिया की कमी है नहीं तो अभी लौडस्कीपर पर बजती तो कितने लोग जुट जाते। फिर उसने खुद को कोसा, “अरे, हरमुनिया क्यों बजेगी? कोई नौटंकी थोड़े हो रही है?” मन के किसी कोने ने सरगोशी की – ये नौटंकी ही तो है। बात बढ़ाने की गरज से नए पीपल के नीचे लाला को ले पहुँचा जहाँ दो तीन और खड़े थे।
बहोरना बोला, "अरे, सुना है कि रानी के डंडा बहुत दिन से घूम रहा है, हम्में कौनो खबरे नाइँ!"
रजुआ ने खबर की अखर को आगे बढ़ाया,
"खबर का लंड होई! बिसवरिया से बिजली नपत्ता बा। टीवी चलते नैखे। रेडियो त घर घर बिगड़ल धइल बा।"
लाला कब चुप रहने वाले थे, बोल पड़े "अरे, आवेले - राति के एगारे बजे अउर बिहाने चारे बजे फुर्र! उहो रेगुलर नाहीं।"
"त लाला, दुन्नू परानी रतजग्गा करss जा।"
"हे बुरधुधुर, लोग का कही रे? सगर गाँव सुत्ता परि गे अउर लाला ललाइन जागल का करता? उहो ए उमिर में!"
इस बात पर सब लोग पिहिक पिहिक हँसने लगे। लाला जारी रहे,
"वैसे ई बाति हम ललाइन से कहले रहलीं त ऊ कहली कि लनटेम बारि के बिजली अगोरले से का होई? राम जाने आई कि नाहीं। माटी के तेल जरी अलगे से। नज़र सेंकले के शौक बा त बैटरी के जोगाड़ करss"
रजुआ ने याद दिलाया कि बिधायक के यहाँ छोटा टी वी था जो ट्रैक्टर की बैटरी से चलता था। बहोरना ने याद पर वर्तमान का लवना लगाया," का रजुआ, जानते हुए भी अनजान बन रहै हो। मज़ा लेना कोई तुमसे सीखे। अरे लोन नाहीं जमा किए रहे सो बैंक वाले ट्रैक्टर खिंचवा ले गए।"
" हँ, बिधायक सोचलें कि वोहू के कर्ज़ा माफ हो जाई।"
बेचारे बिधायक का बस नाम ही विधायक। सो उसका सारा विधि विधान पब्लिक के उल्टा पुरान का अंग बन गया था।
"भाई, कल पुरजा के चीज में माफी नाहीं चलेले।
सरकारो बड़ी चँलाक हो गइल बा। कल-पुर्जा एहि से दिन रात बढ़ावतिया। अब बैंकवे में देख sss। कारड डार। बटन दबाव ss। कड़कड़ौवा नोट हाथे में। कुछ दिन के बादि कर्जा वसूलियो एहि तरे होई। कड़कड़ौवा नोट लेके मशीन में डारे के परी। कौनो माफी नाहीं। सरकार कही कि कल पुर्जा के बात में कउनो छूट नाहीं मिली।"
बात मजाक की थी लेकिन कई लोगों के दिलों में धुकधुकी होने लगी। मामला गम्भीर होते देख बहोरना ने शांति पाठ किया," अरे मशीन चलेगी तब न ss। बैंक में हमेशा तो खराब रहती है। खजांची बाबू खुदे नहीं चलने देंगे। बहाना एकदम टंच। बिजली नहीं रहती और बड़े जनरेटर का पुर्जा मिल नहीं रहा। मतलब कि कल पुर्जा की काट भी कल पुर्जे से। कर्जा माफी होती रहेगी, निश्चिंत रहें।"
लोगों की धुकधुकी फिर कच्ची लीक चलने लगी। अटकी साँसें सामान्य हो चलीं।
रानी के डंडे की बात सुन कर 'दिल्ली रिटर्न' रमपतिया अखबार वाले से भी नहीं रहा गया। लाठी ठेगते वह भी पहुँचा जहाँ की चौकड़ी अब दहाई हो रही थी। साँवला चेहरा काला पड़ गया था। देह के नाम पर ठठरी लेकिन आँखें बत्ती की तरह रोशन। देख के डर लगता था। उसे देख सब लोग दूरी बनाने लगे। उसने चर्चा का सूत्र पकड़ा," अखबार नहीं रहने से सूचनाएँ नहीं मिलतीं। मैं ठीक रहता तो अखबार से सूचना मिल गई होती। अब मोबाइल थोड़े रानी के डंडे के बारे में बताएगा!"
रमपतिया पिछले तीन महीने से बिस्तर पकड़े हुए है। ठीक था तो लक्ष्मीपुर टेसन से जाकर भोरहरे अखबार ले आता था। गाँव में दो तीन ग्राहक थे, बाकी कुछ गिने चुने लोग उधरिया एक दिन की बासी खबर पढ़ते थे, देश दुनिया की खबर से लेकर नरेगा के घपलों तक से वाकिफ रहते थे। सबसे बड़ी अचरज की बात यह थी कि क़स्बे गए लोग अखबार पढ़ आते थे लेकिन बस लोकल खबर। फ्रंट पेज की खबरें जब तक कोई विवेचित न करे, उनकी समझ में न आती थीं और न ही वे कोई रुचि ही रखते थे। पढ़ी हुई बातें भी छिपा कर रखी जातीं और ऐसी जुटानों में चटकारेदार मनोरंजन का सामान बनतीं।
ऐसे में रमपतिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका उसकी बीमारी के कारण समाप्त हो चली थी। गाँव में अब सहज हो चली उदासीनता के कारण उसका एक तरह से लुप्त हो जाना भी किसी को नहीं अखरता था।
रजुआ ने उसे कोंचा," त भैया कैसे बेराम परि गइल? टी बी हे का ??"
रमपतिया की बीमारी के बारे में तरह तरह की बातें गाँव में प्रचलन में थीं, बात साफ करने के लिए रजुआ ने मौके का फायदा उठाते हुए यह प्रश्न किया था।
रमपतिया की आँखों में गर्वीली चमक आई और खाँसते हुए उसने बताया,"मुझे एड्स हो गया है।"
रजुआ ने इस बीमारी के बारे में सुना भर था। जान बूझ कर बनाते हुए बोला," अँड़ास? ई कौन बेमारी हे?"
रमपतिया की खाँसी खामोश हो गई। उसने डाँटते से स्वर में जवाब दिया," अनपढ़ तो हो ही, कान भी खराब हो गए हैं क्या? एड्स कहा एड्स। बहुत भारी बीमारी है। एक्के दुक्के को ही होती है लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर फिल्मी हिरोइनें तक फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करते हैं। भरी दुपहरी पोस्टर बना जुलूस निकालते हैं। जिसे कभी साक्षात न देख पाओ उसे इन जुलूसों में देख लो। बस बम्बई, दिल्ली जाने की ज़रूरत है। अँड़ास ! हुँह"
लोगों को भौंचक करने के बाद रमपतिया लाठी ठेगते चल दिया।
बीमारी का इतना घमंड ! लोगों के अचरज पर बहोरना ने मुलम्मा चढ़ा कर उसे सामान्य करने का प्रयास किया," ये बीमारी कई लोगों से देंहजी सम्बन्ध बनाने से होती है। हमको हमेशा शक था कि अखबार के बहाने ये भिंसारे क्या करने जाता है? सारी कमाई टेसन के बगल में उड़ा आता होगा। भिंसारे कुकर्म! छि:"
लोगों ने इशारे समझे और बहोरना की कल्पनाशक्ति पर शक करें कि शोर उठा," डंटा आ गइल! बेटहनी डंटा आ गइल!!"
लाला को हँसी आ गई,"बेटन बेटहनी हो गइल। ई रजुआ के खेला हे। सारे घूम घूम के कलिहें से बतावता।" 

रानी का डंडा बड़ी शानदार कार से उतरा। उसे हाथ में लिए काला चश्मा लगाए जो नार निकली वह बिटिहनी थी की औरत? पता नहीं चल रहा था। लाला ने यह भी नोटिस किया कि वह थी तो देसवाली लेकिन अंग्रेजन सी दमक रही थी। ब्लाउज जैसा जो कुछ उसने पहन रखा था वह खतरनाक स्तर तक नीचे की ओर कटा हुआ था। लाला को सनसनी होने लगी लेकिन फिर ललाइन की सोचे तो सनसनी शांत हो गई। उन्हों ने बहोरना के कान में फुसफुसी की – गोरकी के देख! मस्त माल !!
कार के साथ इतनी गाड़ियाँ की पूछो मत – जीप पर पुलिस वाले। अम्बेसडर से उतरे तोंदू लोग। कई मोटरसाइकिलों पर लखेरे और एक बड़ी सी वैन में ऊपर छाता ताने टी वी वाले। इंतजाम एकदम पोख्ता था।
गाँव के कुत्ते इकठ्ठे हो जोर जोर से भोंकते इधर उधर भागने लगे और लोग घेर कर तमाशा देखने लगे । रजुआ बेटहनी डंटा ली हुई बिटिहनी को घूरे जा रहा था। बहोरना ने सब छोड़ डंडे पर ध्यान केन्द्रित किया। बे सूल साल का डंडा - न किसी को मार सको, न डरवा सको और न पड़रू हाँक सको ! ऊपर से डिजायन बना उसे भी जनाना बना दिए थे। ठीक है, आदमी हाँकने के लिए डंटा अउर तरह का होना चाहिए। उसे भैया जी और उनके आदमियों की अनुपस्थिति पर भी आश्चर्य हो रहा था। होगी कोई बात, सोचते हुए उसने सिर झटक दिया।
एकाएक गोरकी ने डंडे को ऊपर किया और कुछ हे हू जैसा बोला। ब्लाउज ऊपर को खिसकी तो छातियाँ उभर आईं। सनसनाया रजुआ फिलिम की तरह की गोरकी को देखे कि डंडे को ? आँखें फट गई थीं।
भरे दिन में भी लैट जला कर कैमरा चलवा एक फिटर्रा मनई जोर जोर से चिल्लाने लगा,” अभूतपूर्व है! अभूतपूर्व है यह नज़ारा!! इंसान के भाईचारे की भावना को लिए यह बेटन पहली बार किसी गाँव में आया है। देखिए गाँव वालों को, कितने खुश हैं ! सच है भाईचारे की भावना अमीरी गरीबी, गाँव शहर, जाति पाति , धर्म मज़हब कुछ नहीं देखती। हमें उम्मीद है कि इस बार के खेलों से वह घटित होगा जो कभी नहीं हुआ।“
कैमरा बन्द करवा कर उसने पसीना पोंछना शुरू किया,”शिट ! ये उमस, धूल धक्कड़।“

जिस समय फील्ड में यह सब होना शुरू हुआ था, उसके कुछ पहले यशवंत प्रधान के यहाँ दो तीन लोग आग बबूले हो रहे थे। पांड़े बोला,” ई कौन कायदा ? डंटा परधान के इहाँ न आई ?”
यशवंत पढ़े लिखे युवा थे। उन्हें फील्ड पर जाने में कोई उज्र नहीं था लेकिन कचोट यह थी कि कुँवर बाबा ने डंडे के आने की खबर उन्हें एडवांस में नहीं बताई। मैडम आती हैं तो कितनी अच्छी व्यवस्था कराई जाती है ! इस बार कोई इंतजाम नहीं कर पाए। हाथ मलते घूम घूम सोच रहे थे, टीवी पर आने का मौका विचल गया !
 पाँड़े ने समाधान दिया।
“भैया हो ! टट्टर ले के जातनी। सबके इहें ले आवतनी।“ मौन सहमति पा कर पाँड़े ने ट्रैक्टर ट्रॉली स्टार्ट किया और भैया जी के दसियो कार्यकर्ता उस पर सवार हो फील्ड की ओर चल दिए।
टी वी वालों ने समेटना शुरू कर दिया था और गाँव वाले ? ग़जबे निराश थे। इतने का ही इत्ता सारा हल्ला था! सब तैयारी धरी ही रह गई – न खेल, न तमाशा, न भाषण। औरतें रजुआ को कोस रही थीं कि भैया जी का ट्रैक्टर आ पहुँचा। पाँड़े सीधा गोरकी के पास पहुँचा और डंडे को करीब करीब छीनने लगा। फिटर्रे मनई ने फौरन कैमरे वाले को इशारा किया और जोर जोर से अभी शुरू ही किया था,” कुछ असामाजिक तत्त्व ...” धप्प! एक कार्यकर्ता ने कैमरे के लेंस पर गमछा पहना दिया। दूसरे ने फिटर्रे का हाथ जोर से दबा कर चुप रहने की शिक्षा सेकंडों में दे दी। तीन कार्यकर्ता दारोगा जी से बातें करने लगे।
गाँव वाले तो लहालोट! अब मज़ा आई!! पाँड़े ने गोरकी को कहा,” कारे में नाहीं, टाली पर चले के परी हो रानी! पूरा जुलूस निकली, गाँव भर घूमी। ऐसहे कैसे चलि जैबू? ”। जाने पाँड़े की वज्र पकड़ का प्रभाव था कि ‘रानी’ नाम का कि ‘रानी’ सम्बोधन का – गोरकी ट्रॉली में सवार होने के प्रयास करने लगी। रानी का डंडा पाँड़े के हाथ में था। रजुआ और बहोरना गोरकी को ट्रॉली पर सवार कराने के बहाने जिस्म की नरमी का अन्दाजा ले रहे थे। बाकी कार्यकर्ताओं ने टीवी वालों को और साथ में आए साहब लोगों को भी ट्रॉली पर चढ़ा दिया। पाँड़े ने जोर से नारा लगाया,” बोल रानी के डंटा के ...!”
“जय!” गगनभेदी समवेत स्वरों में मंगलकामना लिए अभिवादन गूँजा। प्रजा धन्य हो उठी । जुलूस चल पड़ा। दारोगा जी की गाड़ी सबसे पीछे एस्कॉर्ट की तरह लग गई। लाला से बहोरना बोला,” ये है गँवई स्वागत! रानी का डंडा भी याद रखेगा। हम तो कहे कि दुर्गाधसान के टैम से भी बढ़िया है नज़ारा !आरकेस्ट्रा के कमी रही सो गोरकी पूरी किए दे रही है।”
(2)
गोरकी असल में एक भूतपूर्व एथलीट थी जिसका खेल जगत में योगदान भारत की फुटबाल टीम से कम नहीं था। घटित के तेज बहाव से निज़ात पाकर उसने अपने को ट्रैक्टर की चाल पर लुढ़कता पाया। संतुलन के लिए उसे कभी पाँड़े तो कभी रजुआ की देह का सहारा लेना पड़ रहा था। रजुआ मन ही मन भैया जी को गरियाए जा रहा था – कौन ज़रूरत रहे चिक्कन सड़क बनववले के ? सड़क खराब होती तो हचका जोर होता और सहारा देने के बहाने जाने कितनी बार गोरकी को अँकवार में ले चुका होता! ड्राइवर ने गेयर बदला और एक्सीलेटर चाँपा। पुराने आयशर के इंजन ने रेस लगाई – फट, फट , फट , फट .......... फट, फट,फट...... । डांस के प्रोग्राम के बारे में सोचता पाँड़े चिल्लाया,”बहानचो, अजुए सब कलाकारी देखइबे? एकदम सिलो चलाउ।“ सहारा लेती गोरकी ने कुछ संतुलन पाया तो आखिरी मदद के तौर मोबाइल निकाला हालाँकि उसे उम्मीद कम ही थी। पाँड़े ने देखा तो फिस्स से हँस दिया और अपनी जान में गोरकी को समझ आए उस तरह से बोला,”मैडम जी, इहाँ इसका नेटवरक नहीं चलेगा। बात करने के लिए उँचास छत पर जाए के परी...”। पाँड़े ने अपना चमचमाता चाइना मोबाइल निकाला तो गोरकी दंग रह गई। पाँड़े ने फुल वाल्यूम में गाना लगाया – “चोरबजारी दो नयनों की ...“
नाचsss रानी! अरे नाचsss!! गोरकी को यह आदमी अट्रैक्टिव लगने लगा था । भरी भींड़, सरकारी अधिकारी, पुलिस – इन सबके बीच पाँड़े द्वारा अपहरण कमाल प्रभावकारी था ही। यह सोच कि – लेट हैव फन, गोरकी ने पहला ठुमका लगाया तो भींड़ पगला उठी। पाँड़े के इशारे से ट्रैक्टर बन्द हो गया और रजुआ, बहोरना, पाँड़े, गोरकी ट्रॉली पर अजीबोग़रीब बेताल ताल हीन नाच में जुट हो गए।
लाला ने सफारी सूट पहने एक अधिकारी के सामने ठुमकना शुरू किया तो एक कार्यकर्ता ने अधिकारी का हाथ पकड़ उसे नचाना शुरू कर दिया। समाँ बँध गया। ट्रॉली पर गीत की धुन पर नाचते लोग तो नीचे जमीन पर तोंद लड़ाते लाला, अधिकारी, कार्यकर्ता ... पाँड़े के हाथ में रानी का डंडा रह रह ऊँचा उछ्ल रहा था। सोनमतिया की माई गुलगुल हो हँसे जा रही थी। बाकी औरतें लीन थीं – धन धन रानी !
(3)
ट्रैक्टर पहुँचने में देर होता जान भैया जी ने ह्विस्की का एक घूँट निगला और लखटकिया मोटरसाइकिल पर सवार हो चले। सड़क का काम खत्म होने के तुरंत बाद बड़े शौक से यह मोटरसाइकिल दिल्ली से मँगाए थे और उसे बहुत कम ही निकालते थे। रास्ते में ही जो नज़ारा दिखा उसकी कल्पना उन्हें भी नहीं थी।
पाँड़े होनहार था। उससे सतर्क भी रहना पड़ेगा। ऐसे पालतू कटहे बनने में देर नहीं लगाते।
मोटरसाइकिल को ट्रॉली के बगल में खड़ी कर भैया जी दहाड़े,”बन्द कीजिए यह भड़ैती।“ नाच को ब्रेक लग गया। पाँड़े सकपका कर नीचे उतर कर रानी का डंडा उनके हाथ में देने लगा। गोरकी तो ऑ स्ट्रक! अभी तक जिसे हीरो समझ रही थी वह तो प्यादा निकला! ये कौन आया? स्मार्टी। थंडरबर्ड बाइक ! वाव !!
रानी के डंडे को हाथ में ले उस पर उपेक्षा की एक दृष्टि डाल भैया जी अधिकारी सम्बोधन मुद्रा में आ गए,”इतने पावन अवसर पर आप लोगों को मसखरी सूझ रही है? भारत के किसी गाँव में पहली बार यह .. यह .... आया है। शर्म कीजिए आप लोग। इज़्ज़त बख्शने के बजाय नौटंकी? इंस्पेक्टर साहब ! अच्छा हुआ कि आप एस्कार्ट में हैं नहीं तो ये लोग तो इसका, इसका ... पीछे से लाला फुसफुसाए- बेटन... हाँ, बेटन की बेइज्जती ही कर डालते! चलिए आप लोग। वहाँ बेटन का विधि विधान से स्वागत होगा।” बाइक स्टार्ट करते भैया जी ने लाला पर कृतज्ञ दृष्टि डाली। रानी के डंडे को डंडा कहना पड़ता ! कितनी बेशर्मी होती !! लाला ने बचा लिया। उन्हें नाम भूल कैसे गया था?       
    
जुलूस चुपचाप चल पड़ा। घर के बगल से गुजरा तो रमपतिया भी लाठी ठेगता पीछे पीछे चल पड़ा। मार गई फसल लिए कोई किसान खलिहान जा रहा था क्या?   
(4)
भैया जी ने लव मैरेज किया था। दिल्ली की सरदारन जब दुलहिन होकर आई थी तो लड्डू तो बाद में बँटे, प्रायश्चित स्वरूप गाय का गुह मूत पहले ग्रहण करना पड़ा। जाति बिरादरी से बाहर करने के बजाय इसी पाँड़े के बाप ने यह रास्ता निकाला था। वक़्त के साथ दुलहिन ने अपने को ऐसा बदला कि लोग बाग सन्न हो गए। साड़ी पहने आधा सिर ढके जब दुलहिन तुलसी चौरा पर पयकरमा करती थीं तो लगता जैसे सछात देवी हों ! घर बाहर सब सँभालती दुलहिन आदमी जन की ‘दुलहिन भैया’ हो गई। आज कोठी के रजदुआरे पर दुलहिन आरती थाल सजाए खड़ी थीं।
भैया जी मोटरसाइकिल पर आते सबसे आगे दिखे पीछे टट्टर टाली पर गोरकी समेत सभी लोग। अगल बगल मोटरसाइकिलें, टाली के पीछे कारें और सबसे पीछे टीवी वाले। उनकी महतारी ने देखा तो उन्हें लगा कि टी वी वाले किशन कन्हैया महभारत में रथ दौड़ा रहे हों! जेवनार फेवनार भाखने लगीं।       
  
दुलहिन ने बुदबुदाते हुए रानी के डण्डे की आरती उतारने को दीप बालना ही चाहा कि भैया जी ने रोक दिया। पाँड़े को इशारा मिला और तुरत फुरत टी वी वाले कैमरा सैमरा तान कर तैयार हो गए। भैया जी ने फिटर्रे के कान में फुसफुसी की – लाइव और रिकार्डिंग दोनों । उसने सहमति में सिर हिलाया ही था कि दो अधिकारी आ कर भैया जी के आगे गिड़गिड़ाने लगे,”सर ! अब तक ठीक था लेकिन टेलीकास्ट हुआ तो ग़जब हो जाएगा। हम कहीं के न रहेंगे।“
भैया जी ने प्रेमिल स्वर में कृपा की वर्षा की,” अगर टेलीकास्ट नहीं हुआ तो आप लोग यहीं के हो के रह जाएँगे।“
शांति छा गई।
भैया जी डण्डे को लिए थंडरबर्ड पर सवार हो गए। बगल में गोरकी ओठ निपोरे आ सटी। दुलहिन ने दीप जला डण्डे को तिलक लगाया और आरती उतारने लगीं। पुरोहित जी ने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया,” स्वस्ति नो इन्द्रो ..स्वस्ति नो पूषा...”।
फिटर्रे मनई ने माइक ले गद्गगद स्वरों में जोर जोर से रोदन सा पाठ शुरू किया,”दिव्य है यह दृश्य! ऐसा भारत के गाँव में ही सम्भव है। इतनी सरलता, इतनी आत्मीयता, इतना प्रेम और कहीं देखने को नहीं मिला। मैं भाव विह्वल हो रहा हूँ। राष्ट्रकवि की पंक्तियाँ याद आ रही हैं – अहो ! ग्राम्य जीवन ..... “
सबसे पीछे खड़ा रमपतिया आँखें पोछता बुदबुदाया,”अब बस अखबार में ही आस है।“

सारे तमाशे का अंत जब शंख ध्वनि से हुआ तो वापस लौटते तमाशबीनों में रमपतिया दूर सबसे आगे हो गया। ढलते सूरज के कारण लाठी ठेगते रमपतिया का साया राह पर कुछ अधिक ही लम्बा लग रहा था। सरकारी गाड़ियों ने लौटने में जो तेजी दिखाई वैसी तेजी अगर आज़ादी के बाद काम करने में दिखाई गई होती तो आज ....
हाइवे पर पहुँच कर अम्बेसडरों में मोबाइल पर बिन पूछे जाने किन किनको सफाई दी जा रही थी। जो चुप थे वे ट्रांसफर और सस्पेंसन से बचने की राह जोह रहे थे। गोरकी ने राह में उछ्लते छौने को देख ड्राइवर को कोंचा,” इट वाज ए रियल फन!” और आँख मार कर हँसते हुए गोद में पड़े बेटन को सहलाने लगी। भैया जी ...   
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घर पहुँचते पहुँचते रमपतिया की तबियत खराब हो गई। खाँसी को किसी तरह काबू कर वह लेटा तो जो आँख लगी वह अधराति खुली। बाहर आया और अचानक दिन का देखा सुना नए नए अर्थ ले उसके दिमाग में घुमड़ने लगा। जब गाँव में यह हाल है तो शहरों में क्या होगा? निज़ाम, प्यादे, खिलाड़ी, समूची सरकारी मशीनरी, प्राइवेट पूँजीपति सभी बेटन बेटन ... उसने गिना। अखबार पढ़े हुए तीन महीने छ: दिन हो गए थे। करिखही रात को घूरते हुए तय किया कि आज अखबार लाएगा, पढ़ेगा और पढ़ाएगा। साइकिल तो अब चलने चलाने से रही। पैदल ही लक्ष्मीपुर स्टेशन को चल पड़ा। गाड़ी आने तक तो पहुँच ही जाएगा।

टेसन पर चाय पानी की तैयारी में जुटे मिसिर की दुकान पर ताजे और पुराने अखबारों को पढ़ कर वह तरो ताज़ा हो गया। मिसिर के बहुत रोकने पर भी वह अखबार हाथ में लिए गाँव को वापस हो लिया। आसमान में घनी बदरी छाई हुई थी। सुबह सुबह बला की उमस थी।

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रजुआ ने घर घर घूम रमपतिया का सन्देशा पहुँचा दिया और दस बजते बजते एक छोटी भीड़ उसके दरवाजे पर इकठ्ठी हो गई। चौकी पर लेटे लेटे ही रमपतिया ने कहना शुरू किया,” अंत आ पहुँचा है। आप सब से भेंट करना था और अपना फर्ज अदा करना था सो बुला लिया। बड़ छोट सब माफ कर दें। महीनों के बाद आप को अखबार सुनाना अच्छा लगेगा। इस बार खबर नहीं, खबर का अर्क बाटूँगा।  कल जो रानी का डण्डा आया था वह साधारण नहीं था। गए ज़माने की रानी, सात समन्दर पार की अब की रानी, अपने देश की रानी और इस प्रदेश की रानी और उनके निज़ाम ....” खाँसी आई तो मुँह से खून निकल पड़ा... रुक कर पोंछते हुए उसने पूरा किया ,”सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे। डंडे की माया सभत्तर है। यह डंडा मन्दिर में शीश नवाता है और लाइन में लगे लोगों की जेबें भी साफ करता है। कॉमनवेल्थ का प्रतीक है यह। कॉमन माने सबका और वेल्थ माने धन – सबका धन। घूम घूम कर खेल खेल में सन्देश फैला रहा है। धन तो सबका है। चाहे यहाँ रहे या वहाँ, क्या फर्क पड़ता है? बहोरना की जेब का हजार और बाहर देश के खाते में हजार करोड़ सब बराबर हैं। सबके हैं – इधर उधर से क्या?  बिधायक का टट्टर, लाला का लोन, सोनमतिया की माँ का पेंशन, गन्ने का पेमेंट ... यह सब छोटी बाते हैं। या तो मिलते नहीं, जो मिलें तो हजार बन्दिशें ! सरकार की माली हालत दुरुश्त है। बाहर साख मज़बूत हुई है। हम अब धनी कहाने लगे हैं। देखिए न, नरेगा के नाम पर सरकार आप सबकी दारू बोटी का जुगाड़ भी तो कर रही है!मालिक लोग खाते खाते कुत्तों के आगे भी तो फेंक देते हैं ! है कि नहीं? ” रुक कर उसने पानी पिया और मुँह से आते खून को फिर पोंछ दिया।
“स्कूल में बँटते खाने को किसी ने चखा कभी? पढ़ाई लिखाई फैलाने के लिए रानी ने जो धन यहाँ भेजा था उससे लोगो ने एसी, टीवी और जाने क्या क्या खरीद डाले! 2400 करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ है। रानी के प्रधानमंत्री ने तो कह दिया है कि इस बार अनुदान में भारी कटौती होगी। भारत के धनी लोग ग़रीबों की मदद करें। ...ग़रीबों की मदद में उसने यहाँ डण्डा भेज दिया है। पूरा देश पगलाया स्वागत में जमींदोज हो रहा है और उधर दिल्ली खुदी पड़ी है। उसके गड्ढों में रोज करोड़ो डाले जा रहे हैं। गड्ढे हैं कि भर ही नहीं रहे।  जिन ताल पोखरों की गहराई बढ़ा कर, बन्धा बना कर आप लोग गुलगुल हैं, उनमें पानी कहाँ से आएगा? इसके लिए पैसा आ कहाँ से रहा है? कभी सोचा? .... कौन यहाँ ग़रीब नहीं है? धनिक भी बिखरे पड़े हैं - अफरात लेकिन उनसे मदद मिलेगी आप को?” उसकी आँखों की चमक दुगुनी हो चली थी जैसे भभकता दिया बुझने की तैयारी में हो!
“... माया से निकलिए। डंडे की मार को समझिए। दिल्ली तो फिर सज सँवर जाएगी, नौटंकी भी खत्म हो जाएगी। लेकिन डण्डे के झंडाबरदारों ने आप की जो हालत हमेशा के लिए गढ़ कर फाइलों में रख दी है, उसका क्या ? ....” चुप हुआ और मुँह खुल गया।           
अखबार के पन्ने हवा से इधर उधर उड़ने लगे। रमपतिया ने हिचकी ली, उसका मुँह और खुल गया। पास खड़े लोगों ने देखा खुले गले में खून का भभका उपराया और फिर भीतर चला गया। बात बेबात दाँत चियारने वालों की तरह उसकी बतीसी उभर आई। आँखों की चमक आसमान ताकती रह गई और सिर अकड़ गया जैसे किसी भदेस मजाक पर मज़ा लेते आदमी को फ्रेम कर दिया गया हो। भैया जी के कार्यकर्ता ने उसके चेहरे पर अपना गमछा डाल दिया। गुमुन्द बदरी से टपाटप बूँदे गिरने लगी थीं।        
दूर राजधानी में तीखी धूप में ही अचानक बारिश शुरू हो गई। गोरकी ने रानी के डंडे को भीगने से बचाने के लिए रंग बिरंगी छतरी तान काला चश्मा चढ़ाया और दूरस्थ कैमरे के लिए बेपरवा पोज देने में व्यस्त हो गई।
... मुँह में गमछा ठूँसे भीगता बहोरना सोचे जा रहा था,”इस देश को एड्स हो गया है। जुलूस निकलते रहेंगे कभी बैनरों के साथ और कभी डंडे के साथ। बीमारी वैसी की वैसी रहेगी। ... भगवान रमपतिया जैसी मौत किसी को न दे।“ (समाप्त)