शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

ढेला पत्ता

आज बाउ गाथा लिखने बैठा तो जाने क्यों भोजपुरी क्षेत्र की यह देहाती कथा याद आ गई। मैंने तो यही समझा कि अवचेतन की चुहुल है - मन में बहती दो एकदम भिन्न शैली की कथाओं 'प्रेमपत्र' और 'बाउ' को लेकर। सोचा आज देहाती बोध कथा को ही साझा कर दूँ। फोटो भी ऐसे ही लगा दिया है - दुपहरी फुरसत के कुछ क्षण। ऐसी कथायें ऐसे मौकों पर ही तो जन्म लेती हैं!    
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ढेले और पत्ते में बहुत मैत्री थी। खेत से गुजरती मन्द हवायें ढेले से धूल की बातें करतीं तो पत्ते से खड़खड़ की। दोनों की बातों में कुछ खास नहीं होता था लेकिन दोनों बिना बातें किये रह नहीं पाते थे। 
एक दिन हवा तेज हो गई। पत्ते ने खड़खड़ की - मैं उड़ जाऊँगा! 
ढेले ने उसे अपने नीचे दबा लिया और पत्ता गुम होने से बच गया। मैत्री बनी रही। 
एक दिन तेज वर्षा होने लगी। ढेले की धूल गलने लगी। ढेले की मौन घबराहट देख पत्ते ने उसे ढक लिया। ढेला गलने से बच गया। मैत्री बनी रही।    
एक दिन आँधी पानी दोनों साथ साथ आये। न ढेला पत्ते को बचा पाया और न पत्ता ढेले को। ढेला गल गया और पत्ता दह बिला गया। 
ऐसी मित्रता न हो वही ठीक। अगर हो जाय तो उससे अधिक आस न रखना।    
कथा समाप्त। 










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इस कहानी का पोडकास्ट श्री अनुराग शर्मा के स्वर में नीचे दिये लिंक पर उपलब्ध है: हिन्दयुग्म पर 'ढेला पत्ता'   

16 टिप्‍पणियां:

  1. जब तक हो सका, साथ दिया। जब वश से बाहर हुआ तो दोनों साथ में नष्ट हुये, ऐसी बुरी तो नहीं रही मित्रता। यह तो नहीं किया कि खुद बने रहने के लिये दूसरे को इस्तेमाल किया।
    पर ये अपना नजरिया, विद्वान लोगों की राय फ़िर आकर जानेंगे।

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  2. न ढेला जानता था न पत्ता कि आंधी-पानी दोनो एक साथ आयेंगे। जब तक यह अज्ञानता रहेगी तब तक ऐसी दोस्ती यूँ ही चलती रहेगी। ज्ञान है कि बगैर ठोकर खाये मिलता नहीं।

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  3. 'कथा समाप्‍त' पर-
    हम छत्‍तीसगढ़ी में कहते हैं ''दार भात चुर गे, मोर किस्‍सा पुर गे''.

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  4. बचपन की याद आ गयी. लगता है यह लघु कथा सभी भाषाओँ में है.

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  5. ये बोध कथाएं जीवन दृष्टि जागृत कर जाती हैं...

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  6. जितना सम्भव हो सहायता की जाये, एक दिन तो जाना ही है।

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  7. यह भी खूब रही! कल रात ब्लॉगर सेटिंग करने में टिप्पणी विकल्प खुला रह गया। ... आप सभी का धन्यवाद और आभार।

    रह गईं खुली सपनों को सहेजती आँखें
    सितारे हँसे शाद के आँसू छिड़क गये।

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  8. परसाई जी ने(?)एक जगह लिखा था कि मित्र वही होता है जो आपकी खुशी में खुश हो, विपत्ति में तो अनजान भी मदद कर देते हैं. मगर मित्र वही है जो आपकी तरक्की से भी खुश हो.
    सिर्फ विपात्ति से बचने की आस लिये दोस्ती करना उचित नहीं!
    वैसे मनीषियों का चिंतन तो आचार्य ही जानें!!

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  9. @एक दिन आँधी पानी दोनों साथ साथ आये। न ढेला पत्ते को बचा पाया और न पत्ता ढेले को। ढेला गल गया और पत्ता दह बिला गया।
    ऐसी मित्रता न हो वही ठीक। अगर हो जाय तो उससे अधिक आस न रखना। ...
    कथा के समापन नें अच्छी संकेतक पारी खेली है,कुछ नम कुछ गहन.

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  10. एक दिन आँधी पानी दोनों साथ साथ आये। न ढेला पत्ते को बचा पाया और न पत्ता ढेले को। ढेला गल गया और पत्ता दह बिला गया।
    बहुत सुंदर जी,.... अब खुल गया हे तो इसे खुला ही रहने दे, धन्यवाद

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  11. कोशिश तो की दोस्ती निभाने की, कुटिल खल कामी[:)] भाई से पूरी तरह सहमत हूँ |

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  12. यत्नों-प्रयत्नों की ही तो सब कथाएँ हैं, आस/अपेक्षा न रखना उनका बोध। मुझे दोनों ही उचित लगे।

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  13. सबकी अपनी अपनी गति और नियति होती हैं ....नीति कथा है या बोध कथा ...?
    टिप्पणी आप्शन खुला रह गया! केयरफुल केयरलेस्नेस ..स्मार्ट !:)

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