“बड़ा अच्छा लगता होगा न तुम्हें गाँव आकर? कुछ दिन का ब्रेक। चारो ओर हरियाली। टेंसन से मुक्ति। पुरानी यादें। शायद पेड़ों को देख मुस्कुराते भी होगे।“
”हाँ, वह तो है।“
“तुम्हें साल दर साल गाँव उदास होता नही दिखता?”
“...समस्यायें तो हर जगह हैं।”
“क़्वालिटी और लेवल का फर्क है।... नहीं समझे? यूँ समझो कि तुम्हारी समस्यायें हर हाल में मुझसे बेहतर होंगी।“
गन्ने के खेत के पास वह थम गया है। छिले जाते गन्ने की गन्ध हवा पर सवार है।
“पिछले साल कठ्ठे में पन्द्रह कुंतल तक गन्ना हुआ। इस साल पाँच कुंतल भी नहीं होगा। फसल मार गई।...सोचा था इस साल केले और ओल की खेती शुरू करूँगा। अब मुल्तवी।“
“तुम कुछ अधिक ही निराश लग रहे हो... फसल तो अगले साल बेहतर हो जायेगी। लगा ही रहता है। ... मरने की नौबत तो नहीं आई न। उपजाऊ बहुफसली धरती है।“
उसके चेहरे पर विद्रूप उभर आया है।
”कह तो ऐसे रहे हो जैसे बड़के खेतिहर हो।...हमलोग मरते हुये ही जीते हैं। सोचने की बात यह है कि क़ुदरत भी हमें ऐसे ही रखना चाहती है। एक साल की अच्छी फसल की खुशी पूरी तरह खिल भी नहीं पाती कि अगले साल सब स्वाहा...“
“मेरे खेत अधिया बटाई हैं, तुम ही ले कर कराओ न। रकबा बढ़ेगा तो बरक्कत भी होगी। दूध का व्यापार क्यों नहीं शुरू कर देते?”
वह रुक गया है। हमारे कदमों के नीचे कॉंक्रीट की सड़क है।
“आइडिया तो अच्छा है... एक काम करो। मेरे खेत अधिया ले कर कराओ। डेरी खोल लो। कुछ पूँजी तो होगी ही, मशीनें भी लगा लेना।“
“मैं? मैं कैसे कर सकता हूँ? मैं तो नौकरीपेशा हूँ। छोड़ कर कैसे आ पाऊँगा?”
वह तीखा हो चला है।
“झूठ बोल रहे हो तुम! नौकरी तो एक बहाना है। असल में तुम वहाँ इसलिये हो कि वह बेहतर है – लाख गुना, नहीं तो तुम भी खेती करा रहे होते और मैं ऐसे कलप नहीं रहा होता।... यह सड़क...तुम्हीं ने कहा था न कि कम से कम तीस साल तो चलनी चाहिये। देखो पाँच साल में ही क्या हाल हो गया?... साला, जो जहाँ है वहीं लूटने पर लगा है।...मैं, मैं बी एड कर के बैठा हूँ। प्राइमरी की मास्टरी तक नहीं मिली। आखिरी उम्मीद बची है कि एक साल और बी एड वालों को प्राइमरी में लेंगे। अगले साल तो बीटीसी फिर शुरू हो जाएगी... पता है, इस बार आठ बी डी एस डॉक्टर और दस एम बी ए बीटीसी में दाखिला लिये हैं... क्लिनिक चले या न चले, घर बैठे डाक्टर साहब को बीस हजार महीना मिला करेगा, मास्टर साहब भी और डॉक्टर साहब भी। और ये एम बी ए! बेंचेंगे साबुन तेल और तनखाह उठायेंगे दोहरा....
... बेटी ग्यारहवीं में गई। जमा पूँजी कुछ नहीं। आगे क्या करेगी?...उसकी शादी भी पाँच छ: साल में करनी ही पड़ेगी। इस साल मैं भी सब बटाई पर दे कर दिल्ली जा रहा हूँ। दोस्त से बात कर लिया है। एटीम मशीन पर ड्यूटी मिल जायेगी - छ: हजार महीना।”
“तुम्हें छ: हजार कौन देगा? दे भी दिया तो उसमें तुम क्या बचा लोगे? बेवकूफी न करो। बेटी के लिये भी तुम्हारा घर रहना जरूरी है।“
“दारू पीते हो?”
“नहीं। ..क्यों?”
“मैं भी नहीं पीता, पसियाने में ठर्रा पीने और गाँजा लगाने नहीं जाता...कुछ पक गया है भीतर। मुझे शहर में शामिल होना ही है। यूँ समझो कि नशे की दरकार है।“
सरसो के खेत आ गये हैं। चहुँओर फैली पीली चादर। रस्टिक ताज़ी गन्ध। जानते हुये भी कि पॉलेन एलर्जी है, मैंने गहरी साँसें भरी हैं। शायद इसे अब ठीक से समझा सकूँ।
“लगता है अबकी सरसो गन्ने के नुकसान की भरपाई कर देगी। ...देखो तो कितनी सुन्दरता पसरी हुई है! बसंत की सुषमा।”
“कविराज! बसंत की सुध अब सिर्फ अखबारों में बची है। तुम्हारे जैसे कुछ भरपेटू सनकी शहर में भी इसे याद कर लेते हैं। ...लाही, हवा और दूजी बीमारियों से फसल बचेगी तो कुछ मिलेगा। बाँझ सुन्दरता किस काम की? गन्ने का कोई जोड़ नहीं है। हमने बहुत कोशिश की लेकिन बस ‘लेकिन’ ही हाथ लगी...ऐसा नहीं कि हम फसल देख खुश नहीं होते लेकिन तुम्हारी और हमारी खुशी में फर्क है। तुम्हारे लिये सरसो की फसल ओपेन थियेटर में किसी फिल्म की नई सुन्दर नायिका की तरह है, पैसे फेंकोगे, देखोगे, आहें भरोगे और भूल जाओगे। तुम्हारी खुशी तुम्हारी दया की तरह ही क्षणजीवी है। ...हमारे लिये फसलें बहू बेटियाँ हैं। हमसे कुछ नहीं कहतीं लेकिन उनके रुख देख हम खुश हो लेते हैं, दुखी भी हो लेते हैं। इनसे घर चलते हैं। इनका फूलना फुलाना ज़िन्दगी है, जो कि कोई नई बात नहीं। तुम्हारी तुम जानो।...” उसे जाते हुए मैं घूरे जा रहा हूँ। ऊँचा स्वस्थ कद, यह भी हार गया?
सरसो के खेत के उस पार उसकी बेटी जो गाँव के रिश्ते से मेरी भतीजी भी लगेगी, साइकिल से आती दिखी है। उसने अगर पीला दुपट्टा लगाया होता तो सरसो और फुला जाती। अकस्मात ही बगल के इकलौते अहिर के घर की बेटी का चेहरा आँखों में घिर आया है। दो साल पहले दपदप गोराई वाले चेहरे पर जड़ी बड़ी बोलती आँखें याद आई हैं, आज सुबह भी वैसी ही थीं लेकिन देह में और कुछ भी शेष नहीं। गोराई से गार कर जैसे कोई खून निचोड़ रहा है – धीरे धीरे, दो बच्चे सँभाल रही है। दूध पीते बच्चे की गन्ध, गन्ने की गन्ध, सरसो की गन्ध...एक दिन भतीजी का भी यही हाल होगा। कुछ नहीं बदला, कुछ भी नहीं।
मैंने ड्राइवर को फोन कर गाड़ी लाने को कहा है।
“धीरे धीरे चलो।“
सारी खिड़कियाँ खोल दी हैं।...
...गाड़ी नहीं यह पिंजरा है जिसमें आज़ादी है, ताजी हवा बेरोक आ जा सकती है लेकिन चलती गाड़ी से उतरने की कोशिश किये तो हाथ पाँव सलामत नहीं रहेंगे। गाड़ी रोकी भी तो जा सकती है... चलते रहो।
अकस्मात ही तीखी बदबू भर गई है। सड़क की सूरत बदल गई है लेकिन उसके किनारे अभी भी ओपेन शौचालय है और हगने वाले वैसे ही दिखते हैं जैसे बीस साल पहले दिखते थे। ... दूध पीते बच्चे की गन्ध, गन्ने की गन्ध, सरसो की गन्ध, गुह की गन्ध, गन्ध ही गन्ध... बास आ रही है।
योजना आयोग की किताबों और बाबुओं के चश्मों से नीचे उतर कर ‘डेवलपमेंट’ जब राज्य की राजधानी में पहुँचा तो ‘विकास’ हुआ और गाँव तक आते आते ‘बिकास’ हो गया जिसकी तुक बास से बैठती है। इस बास का गन्ने, सरसो, बच्चों, बहू बेटियों और किसानों से सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध की स्वाभाविकता को बदबू कहा जाता है जिसे इम्पोर्टेड परफ्यूम की गन्ध से ढक दिया जाता है।
पहले गाँव में बिकास नहीं तरक्की की बात होती थी। तरक्की माने घर खेती की तरक्की, आदमी की तरक्की, परिवार की तरक्की। उनके एजेंडा में न तो देश का विकास था और न ह्यूमन इन्डेक्स डेवलपमेंट। सोचनीय स्थिति थी। बिकास के आते ही सब बदल गया। एकाएक ही ऐसी भाषा में बात होने लगी जिसे समझना आज भी उनके लिए कठिन है। उन्हें दिखा तो बस लूट और मुफ्तखोरी का एक और अवसर, चाहे उसके लिये भले अपनी जमाँ पूजी गँवानी पड़े। परधानी के चुनाव में जाने कितने घर तबाह हुये और हुये जा रहे हैं। प्रधान के पास आता फंड वह माया है जिससे ठगे जाने को सभी लालायित हैं। तरक्की रुकी है, बिकास हो रहा है, फाइलों में डेवलपमेंट है, आँकड़ों में डेवलपमेंट है, इंडेक्स अच्छे हैं।
प्रधान जी की बहू जो कि शिक्षामित्र हैं, कभी पढ़ाने नहीं जातीं। वह बिकासग्रस्त हैं। एक अध्यापक और तीन शिक्षामित्रों वाले स्कूल में केवल एक ‘मास्टर’ सारी कक्षाओं के बच्चों को एक ही गोले में बैठा कर जाने क्या और कैसे पढ़ाता है? सुना है कि उसे बीस हजार तनखाह पाने वाले माट्साब ने दो हजार रूपये महीने पर रखा है। बिकास का यह मॉडल विश्व के इसी कोने में पाया जाता है।
फाइल में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। असलियत में वे सिर्फ रोल पर दुपहर की दलिया खाने आते हैं। चश्मा चढ़ाये कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर से भूख में कमी नापी जा रही है और अधनंगे बच्चों के दिमाग धीमे लकवे के शिकार हो रहे हैं। पेट और दिमाग बिकासग्रस्त हैं।
कुछ हजार करोड़ नरेगा के नाम पर फेंक दिये गये हैं ताकि लाखो लाख करोड़ के घपले जस्टिफाई होते रहें। नरेगा में कच्चे पक्के काम के खर्च में दो और तीन का अनुपात फिक्स है। अब कच्चा काम रोज रोज तो हो नहीं सकता। न तो चकरोड रोज भरी जा सकती है और न नाली रोज खोदी जा सकती है। पोखरे तो एकाध ही होते हैं। लिहाजा पब्लिक कच्चे फंड से कच्ची पकी दारू के व्यवसाय का बिकास कर रही है। फी आदमी रोज 120 रूपये महँगाई के इस जमाने में भी कम नहीं होते। ठीक से लगाओ तो बिकास और आनन्द दोनों प्राप्त होते हैं।
सत्रह लाख करोड़ रूपये... काला धन जमा है जब कि मैं अपने सेविंग अकाउंट के ब्याज पर भी टैक्स देता हूँ। काले लोग तो देश में भी करोड़ो करोड़ खेल रहे हैं। डेवलपमेंट हो रहा है, इंफ्रास्ट्रक्चर मज़बूत हो रहा है, सड़कें बन रही हैं, इंडेक्स ऊपर की ओर छ्लाँगे मार रहे हैं और गाँव में लोग अब भी सड़क किनारे हग रहे हैं। नंग धड़ंग बच्चे सड़कों पर खेलते हैं, साइकिल चलाना सीखते हैं और बत्ता ताने हीरो छाप टिनहिये गँवई लौंडे गाड़ियों के आगे आराम से सड़क क्रॉस करते हैं, रोक सको तो रोक लो। पहले भी तो ऐसा ही था। शायद इसे ही बिकास कहते हैं। मैं तो इसे बकवास कहता हूँ ...
सड़क पर 3एम का इम्पोर्टेड स्पीड ब्रेकर लगा है ताकि हगने वालों, खेलने वालों और भैंस, बकरियों के साथ कोई दुर्घटना न हो। दोनों पक्षों की तरफ से यह मान लिया गया है कि गाँव वाले ऐसे ही रहते थे, हैं और रहेंगे। किसी ने स्पीड ब्रेकर के बीच से कुछ स्ट्रिप निकाल दिये हैं। क्यों? ताकि गाँव के हीरो को बाइक की स्पीड कम न करनी पड़े!
बेतहाशा स्पीड से गाँवों के सीनों पर डेवलपमेंट के कॉरीडोर बनाये जा रहे हैं ताकि उनसे होकर हाई स्पीड की कारें गुजर सकें, विदेशों में देश का नाम रोशन हो। जवान के सीने पर मांस नहीं बचा लेकिन स्पीड से वह भी लहालोट हो रहा है – बाइक ही सही। उसकी बाइक मर्सीडीज से कम नहीं। वह सड़क किनारे नहीं हगता, निपटने के लिये बाइक चलाते दूर खेतों की ओर जाता है। फसल देखने शायद ही जाय – पप्पा तो हैं ही। यही जवानी है, यही क्रांति है और यही बिकास है।
बिकास की माया। दसियों बरस पहले बने मकानों पर चूना पोत कर सूचनायें लिख दी गई हैं – फला योजना के तहत निर्मित। मंत्री का दौरा है – रातो रात बिना टंकी का शौचालय भी बन गया है। हगने हगाने की बिकास योजना। सुगना सुरती ठोंकते कह रहा है – थोड़ी शांति हो जाय तो इसे तोड़ कर ईंटों से नाद बना दूँ। मेहरारू इसमें जायेंगी तो दो हफ्तों में ही मच्छर काटने की शिकायतें करने लगेंगी। इतनी नाज़ुक हो जायेंगी कि रोपनी, छिलनी सब दुश्वार! ...इसे 'सोच का व्यावहारिक बिकास' कहते हैं।
शौचालय बन गया, दौरा हो गया, नाद भी बन जाएगा और सड़क किनारे भिनसारे वही पाँय, पोंय, पुर्र, भड़ाक – कई रंगों और आकृतियों के गन्धाते बिकास प्रतीक...
घर आ गया है। पहिये गुह से सने हैं। गन्ध से बौराई हवा भागती घर में घुस रही है।
“थके लग रहे हो। कहाँ चले गये थे?... गाड़ी से इतनी बदबू क्यों आ रही है?”
“पिताजी यह बदबू नहीं बिकास की गन्ध है।“
“? .... बिकास नहीं विकास।“
“नहीं, दोनों होते हैं और दोनों में अंतर भी होता है।“