शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

बी - 3

1 और 2 से आगे...
...तन्नी यानि तमन्ना वैसी ही थी जैसी बी उसकी उमर में रही होंगी। सुल्तान मियाँ की यही मुसीबत थी। पढ़ने नहीं जाती थी। उसे  बी घर में ही क़ुरआन रटातीं, मज़हबी तालीम देतीं। देहाती मियों की तरह ही परदा उतना खास नहीं था। सुल्तान मियाँ न होते तो तन्नी हमलोगों के साथ दलान के अमरूद और आम के पेड़ों पर लखनी भी खेल लेती। मुझे वह बाबूजान कह कर बुलाती। मेरे आने के बाद घर के काम में उसके ज़िम्मे यह तय पाया गया कि राँधने वाले और मेरे जूठे बर्तन वह अलगा दिया करेगी। उन बर्तनों को बी अलग उकछ्न से माँजतीं, बाकी बर्तन तन्नी के लिये छोड़ दिये जाते जिन्हें उसे दूसरे उकछ्न से माजना होता। उकछ्न की छुआछूत बी के अलावा मैंने कहीं नहीं देखी।

मेरे कपड़े भी बी ही धोतीं और जब तब पीतल के लोटे में दहकते कोयले रख इस्तरी भी कर दिया करतीं। तन्नी उन्हें यह करते बहुत कौतुक से देखती। उसने मुझसे यह पूछ पहली बार चौंकाया था – बाबूजान, आप की मुसलमानी कब होगी? मुझे समझ में नहीं आया तो मैं बी से ही पूछ बैठा। उस दिन बी के मुँह से तन्नी के लिये मैंने वह मंगल गालियाँ सुनीं जिन्हें लिख नहीं सकता। फिर तो मैं तन्नी का चिढ़ौना हो गया। ‘बाबूजान, मुसलमानी दशहरे में करायेंगे। बकरे की जगह बस्स...’ कह कर खी खी करते हुये घर में चली जाती। कभी कहती – बाबूजान, करा ही लीजिये, अलग अलग बर्तन रखना और माजना तो नहीं पड़ेगा। निशान लगाने को अलकतरा भी मुझे ही लाना पड़ता है तो कभी – आप की मुसलमानी तो अब गँड़ासे से ही हो पायेगी। आप इत्ते बड़वार जो हो गये हैं।  मैं बस फिस्स से हँस कर रह जाता।
इन चुहुलों की कोई गुन्जाइश सुल्तान मियाँ के घर पर रहते नहीं थी। शायद उनकी उन्हें भनक थी और वह कोई मौका तलाश रहे थे जो कि मिल गया था ...

...मेरी नींद हवा हो चुकी थी। तमतमाये सुल्तान मियाँ ने मुझे मारने को चइला उठा लिया कि बीच में बी आ खड़ी हुईं। आदमी साँप की तरह कैसे फुफकार सकता है, उस दिन मैंने सुना। असलम के अब्बा! ... तमाशा न कीजिये। अनुरोध नहीं आदेश था। मारने उठे हाथों को ज्यों किसी ने मरोड़ दिया था, सुल्तान मियाँ का चेहरा बिगड़ गया – पूछो इससे?
बी ने जवाब दिया – रंगीबाबू से नहीं तन्नी से पूछ्ना है। जाने सुल्तान मियाँ का डर था कि बी का कि अकवड़ स्थिति का, तन्नी रोने लगी। रोना कहना कम होगा, उसकी मति ही बिचल गई। बी पूछें कि क्यों कोठरी में गई थी? तो वह बस अहके और सिर हिलाये। मेरे पेट में मरोड़ें उठने लगीं। अगर बी की कोशिशों से तन्नी ने कुछ देर और नहीं बताया होता तो मैं...

ज़िन्दगी का वह पाठ मुझे बहुत कुछ एक झटके में सिखा गया। बी ने मेरे माथे का बोसा लिया और मुझसे कहा – बेटा, इंसान को अपना ईमान रखना चाहिये। जहाँ अपना ईमान दूसरे से टकराने लगे, ग़ेंड़ुआर की तरह सिमट जाना चाहिये। बाकी सब अल्ला के हाथ है। घर का माहौल बोझिल हो गया था। मुझे लगा कि अब यहाँ रहना ठीक नहीं।

तिजहर को मैं निकला और गाँव की ओर चल दिया। बीच रास्ते के जिस हनुमान अस्थान पर मैं स्कूल आते जाते मन्नतें माना करता था कि भगवान मुझे भर पेट खाने को मिल जाय और मैं बड़ा होकर हेडमास्टर बनूँ, लौटते हुये उस अस्थान पर बैठ कर अहकता रहा। अब फिर पेट काटना था।

घर पहुँचा तो काका सनाका खा गये और बड़की माई खुश हुईं। बाकियों पर कोई असर नहीं पड़ा। घर के माहौल से जी और खराब हो गया। लगा कि पढ़ाई लिखाई सब बेकार थी। सात आठ दिन बीत गये। इस दौरान मैं आवारों की तरह भटकता रहा। काका पूछते तो कह देता कि जी ठीक नहीं।

और तब बी का सनेसा लेकर असलम आया। बी ने कहलाया था कि नहीं पढ़ना तो आकर अपने कपड़े लत्ते, किताबें वगैरह ले जाऊँ। असलम ने झोली में से मेरी थाली और गिलास निकाला और बताया कि तन्नी इन्हें देख नहीं पाती, बीमार है। बी ने कहा है कि तुम खाना इसी थाली में खाना और पानी इसी गिलास से पीना, बड़े आदमी बनोगे। मेरी आँखों के आगे बड़की माई की थरिया के बारह ढेर चमक उठे थे।
भीतर हूल सी उठी और मैं सिसक उठा। हनुमान जी को मेरा पलायन स्वीकार नहीं था। काका के पैर छू मैं असलम के साथ वापस कस्बे की ओर चल पड़ा। रास्ते में हनुमान मियाँ का परिचय असलम से कराया और हम दोनों हाथ जोड़े उस राह निकल पड़े जो दूर तक जाती थी।

शाम को हम लोग पहुँचे तो बी गेट छेक कर खड़ी हो गईं। उन्हों ने कहा – बेटा, कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं। मुझे पता है कि तुम सामान वापस लेने नहीं आये हो। भीतर तन्नी को अपना चेहरा दिखा आओ। मियाँ आते ही होंगे। कोठरी बनने के बाद पहली बार मैं रिहाइश में दाखिल हुआ था। बिस्तर पर लेटी तन्नी ने मुझे देखा और हरी हो गई।

अगले दिन मेरी थाली माजते उसने कहा – यह तो बड़ी घुमक्कड़ है। वापस आ गई। बाबूजान, आप की मुसलमानी को कल्लन कसाई से बात कर ली है।
मैंने कहा - अच्छा, तो आप बीमार नहीं थीं? और हँस पड़ा। बत्तखें शोर मचाने लगीं। (अगला भाग)   

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

बी - 2

पिछले भाग से आगे ...

उस सुबह की मुझे अब भी याद है। बी ने बालों में तेल लगाया, कंघी किया, माँग में सनल टीका, आँखों में सुरमा लगाया और दाँतों तले पान दबा कर अपनी झोली उठा लीं जिसमें उनका पानदान, पंखा और तसबीह थे। मुझे घूरता देख उन्हों ने दिलासा दिया कि अब उनकी झोली उठ गई है तो अल्ला के करम से सब ठीक होगा। आगे वह, पीछे असलम और सबसे पीछे मैं। खुली दलान पार कर उन्हों ने जैसे ही दरवाजा खोला, सुल्तान मियाँ को रास्ता रोके पाया। वह कारखाने से जैसे भाग कर आये थे। सामने के ताल से ठंडी हवा आ रही थी लेकिन उनका तमतमाया चेहरा कुछ और ही छोड़ रहा था। मेरे देखे उन दोनों में हुये तमाम झगड़ों में वह पहला और अंतिम था जिसमें सुल्तान मियाँ जीते थे।

सुल्तान मियाँ को मेरे आने से आपत्ति थी। इस पर भी आपत्ति थी कि बी ने मुझे केले के पत्ते पर खिलाया, बट्टे से पानी पिलाया क्यों कि खाना खाने वाले बरतन हिन्नू के लायक नहीं थे। उन्हें डर था कि नये बरतन खरीदे जाने थे, जो कि बाद में सच साबित हुआ। घर में एक ‘जवान’ लड़की तन्नी थी। यहाँ मियाँ एकदम ग़लत थे। एक अजनबी लड़के के लिये सरकारी जगह पर जाकर बी का ‘नाचना’ उन्हें गवारा न था। यह उनका आपसी मामला था जिसमें मैं कुछ नहीं कर सकता था।

बी ने अपना जाना मुल्तवी कर बीच का रास्ता निकाला। असलम को मेरे साथ जाना था जिस पर सुल्तान मियाँ की आपत्ति पर बी की तड़क दहलाऊ थी – औलाद पर जने वाली का हक़ कइ गुना जियादा होता है। आप इस मामले में चुप ही रहें। उन्हों ने मुझे आशीष दी  और असलम को चेतावनी कि उसे हरदम मेरे साथ रहना था और साहब मुसाहिबों से खुद बात करनी थी। असलम एकदम नकारा साबित हुआ। डिप्टी ऑफिस पहुँचते ही उसकी घिघ्घी बँध गई और वह सामने की इमली तले घस्स से बैठ गया। मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी थी। माई की याद का अगर कुछ एकदम साफ था तो उनकी आँखें थीं जिन्हें गँवई औरतें राजरानी की आँखें बताती थीं। कस्बे से चलते हुये मैंने वही आँखें बी में देखी थीं। अब मुझे किसी का डर नहीं था। घंटों इंतजार के बाद भी जब मुझे भीतर जाने की अनुमति नहीं मिली तो मैं दहाड़ें मार रोने लगा। डिप्टी साहब ने कारिन्दा भेज मुझे भीतर बुला लिया और मेरी कहानी सुन कर सच में करुणा से भर उठे। इस नसीहत के साथ कि मैं दुबारा कभी फेल न होऊँ, मुझे ग्रेस मिल गया।

हम लौटे तो शाम घिर रही थी। ताल किनारे पालतू बत्तखों का शोर था। सुल्तान मियाँ सिर गाड़े जमीन पर बैठे थे जब कि बी चौखट पर आँखें मूँदे तसबीह जप में लगी थीं। असलम ने धीरे से बताया – अम्मी, रंगीबाबू को साहब ने पास कर दिया। राजरानी वाली आँखें खुलीं और बी ने रोते हुये मुझे सीने से चिपटा लिया। सुल्तान मियाँ कुछ भुनभुनाये थे लेकिन हमलोगों को गुड़ और पानी देने के बाद बेपरवाह बी का झोला उठ गया।

बी नयी थाली, गिलास और गोश्त लेकर आईं। उस रात सुल्तान मियाँ के अलावा सब खुश थे। बहुत खुश। सुल्तान मियाँ ने खाते हुये इतना कहा – ठाकुर, ठीक से खा लेना और अपनी बी के लिये भी छोड़ देना। उसने दिन भर न कुछ खाया और न पिया। चौखट पर बैठी तपती रही। लाहौल बिला...

बी का वह एकदिनी रोजा मेरे लिये जन्म भर का आशीर्वाद बन गया। दुबारा मैं कभी फेल नहीं हुआ।

बी ने मुझे डाँट कर वापस घर भेज दिया। विदा करते हुये कहा – अपना घर अपना ही होता है बेटा लेकिन जरूरत पड़े तो हिचकना नहीं। इस घर में तुम्हारे लिये एक थाली हमेशा रहेगी। तुम्हारे लिये इस अनपुरना का दुआर हमेशा खुला रहेगा। सुरमा लगाने के बहाने उन्हों ने आँखें नीची की लेकिन जिसे टपकना था वह टपक ही गया।

घर पहुँचा तो सिवाय बड़की माई के कोई खुश नहीं हुआ। खुश नहीं कहना ज्यादती होगी। असल में उस भूख भरे घर में यह कोई मायने ही नहीं रखता था। मुझसे बारह साल बड़े पहलवान ने तो कह दिया कि अब फिर से थरिया में बारह ढेर लगेंगे।

ऐसे में जब एक रात मैंने कस्बे में रह कर आगे की पढ़ाई करने का फैसला सुनाया तो मुझे दिख नहीं पाया कि किसको कैसा लगा? बाद में पता चला। भाई खुश हुये थे। छुट्टियों में खेतों में खटने मुझे आना ही था जब कि घर में एक पेट कम होने वाला था। बहनों को कुछ खास नहीं लगा था, मैं बजगानी में बाँध कर चुराये आलू और कन्न कभी नहीं लाता था। बड़की माई खुश हुई थी कि कम से कम एक को तो भर पेट खाने को मिलने वाला था और काका थोड़े चिंतित कि कस्बे में लड़का रहेगा कहाँ? यह सब बाद की बातें हैं, उस समय तो बस खामोशी छा गई थी।

मेरे साथ खाली हाथ काका कस्बे आये थे। यह देख कि मैं एक जोलहा के यहाँ रहने वाला था, उन्हों ने बताया कि कैसे पुरखों की रखवाली को एक मियाँ भेस बदल उनके पीछे पीछे घर बार छोड़कर गाँव में साथ आ बसा। बी से उनकी देखा देखी नहीं हुई। किवाड़ की आड़ से बी ने उन्हें इतना बताया कि मेरी अब पाँच औलादें हैं। काका अनपुरना के दुआर से संतुष्ट वापस चले गये।

उस रात सुल्तान मियाँ और बी की लड़ाई सिर्फ तन्नी के कारण मार पीट में बदलने से रह गई लेकिन बी विजयी हुईं। दो दिन असलम के साथ सोने के बाद तीसरे दिन मेरी ‘कोठरी’ तैयार हो गई। क्वार्टर के ‘गेट’ और रिहाइशी कमरों के बीच खासी लम्बी खुली दलान थी। उसका एक कोना टिन के पत्तरों से घिर गया और ऊपर छप्पर पड़ गया। बी की करामात कि कुल जमा पाँच रुपये खर्च में कोठरी तैयार हो गई। उठौवा पैखानारूम  की व्यवस्था हर क्वार्टर में थी लेकिन यहाँ केवल बी और तन्नी उसका इस्तेमाल करते, सभी मर्द बाहर जाते थे। 
  
वहाँ रहते मैंने जाना कि बी क्या बला थीं! कारखाने की उस छोटी सी कॉलोनी में उनकी ग़जब धाक थी। वह करीब करीब खुदमुख्तार थीं। ताल में उनकी बत्तखें तैरतीं, बगल के टोले में बटाई भैंस और बकरियाँ थीं, खुद की सिलाई पुराई, डलिया बिनना, सुरमा बनाना, दलान में पपीते, अमरूद और कोठी की छोटी सी बगीची का ठीका ... बी सब तरफ थीं। सिवाय अपने शौहर के उनकी किसी से लड़ाई नहीं होती। सुल्तान मियाँ इसके लिये खासे बदनाम थे। ऐसी खुशदिल औरत से कोई कैसे लड़ सकता था? गैंगमैन थे लेकिन उन्हें कोई न पूछता। सब बी की रट लगाये रखते जिनके लगाये पान उस छोटे दायरे में मशहूर थे।
                                                
हफ्ते भर के भीतर ही मेरी पढ़ाई चल निकली। रात में मैं और असलम एक ही ढेबरी की रोशनी में पढ़ते और बी रखवाली करतीं। उनकी अजीब सी आदत थी, जब भी हम और असलम के कारखाने में लग जाने के बाद सिर्फ मैं छुट्टी के दिन पढ़ते तो वह कोठरी के सामने बैठ जातीं। कुछ न कुछ करती रहतीं और समय समय पर गुड़, पानी, पपीता, अमरूद या बत्तख के उबले अंडे खिलाती रहतीं। कहतीं कि मगज पर जोर हो तो खोरिश बढ़िया होनी चाहिये। बाद में पान की लत भी लगा दीं। पढ़ाई गहरी हो तो मुँह सूखने लगता है – यह ज्ञान मुझे बी से ही मिला वरना मुझे तो खबर ही नहीं थी। उस समय हमारी गली में कोई शोर नहीं हो सकता था। बी का डंडा जानवरों से लेकर इंसानों तक सब पर भारी रहता। छुट्टी के दिन  गाँव जाना और खेती का काम करने में नागा होने लगा लेकिन मैं खुश था। मुझे माई मिल गई थी।

अगली बरसात में पहली गड़बड़ हुई। भारी बारिश के कारण पैखानारूम जाने लायक नहीं था और बाहर गई लौटती तन्नी अचानक आई बारिश से भीगने से बचने के लिये मेरी कोठरी में आ गई। मैं सोया हुआ था, मुझे पता ही नहीं चला। नींद सुल्तान मियाँ की तड़क से खुली जिन्हों ने बारिश धीमी होने के बाद तन्नी को मेरी कोठरी से निकलते हुये देख लिया था। मैं भौंचक था।  (अगला भाग)            

बुधवार, 28 सितंबर 2011

बी

नवरात्रें शुरू हो गयी है। मतलब कि मैं पचहत्तर पार कर गया। सन् बासठ में चीनी हमले के बाद से डायरी लिखना शुरू किया तो सिलसिला आज तक नहीं टूटा। परिवार, गाँव, कस्बा, सगे सम्बन्धियों, देश, विदेश की प्रमुख घटनाओं के साथ अपनी व्यक्तिगत बातें भी डायरी में दर्ज हैं लेकिन अब लगता है कि कुछ छूट गया, बिखर गया। आज जन्मदिन पर उसे सहेजना चाहता हूँ। इतने लम्बे जीवन के बाद अनुभव ठोस होकर मूर्त से हो जाते हैं जैसे दिमाग में कोई बिनायन ट्यूमर हो। नहीं, उसे निकालना अपने वश का नहीं, कुछ और लिखना चाहता हूँ।

अब अकेला हूँ। बड़की माई की उस सतरोहिनिया का अकेला बचा लाल जिसमें सात नहीं बारह औलादें थीं। सारे सगे और चचेरे भाई, बहन परलोकवासी हो गये। आखिरी का अभी पिछले सप्ताह ही ब्रह्मभोज था। वह मुझसे छोटा था। पत्नी का क्या कहूँ, अब मुझसे अलग थोड़े है? बच्चों की अपनी दुनिया है, मेरी अपनी। वे विदेश में हैं।

माता पिता बचपन में ही चल बसे। आठ वर्ष का था जब बाबू माई के शोक में मरे। मुझे बताया गया कि दोनों किसी ईसर के यहाँ गये। निपढ़ बाबू चाहते थे कि मैं पढ़ लिख कर कलट्टरी करूँ – एकदम अंग्रेज बहादुर की तरह। उन्हें बस इतना पता था कि गाय के दूध से मगज तेज होता है, इसलिये जब तक जीवित रहे मुझे गाय का दूध पिलाते रहे। मैं गोरा हूँ। पियरकी गोराई। भूरे से बाल और बिल्लौरी आँखें। सब कहते हैं कि माई की सूरत मैंने ही पाई। माई जो किसी शुभ के मौके पर औरतों की जुटान में सबसे अलग दिखती। लमहर, गोरहर, सुन्नर – बिलैती मेम जैसी। कोई अचरज नहीं कि चार औलादों में कलट्टरी के लिये बाबू ने मुझे ही चुना। अगर जीवित रहते तो शायद बन भी जाता लेकिन न बन पाने का मुझे कोई दुख नहीं है। बस एक टीस सी है कि बाबू की इच्छा पूरी नहीं कर पाया।

बन पाता भी कैसे? मुझमें संघर्ष की उतनी शक्ति नहीं थी। बाबू के जाने के बरस भीतर ही लाला पागल हुये और सारे बही बस्ता को आग लगा दिये। बची खुची कसर पहलवान ने कत्ल कर के पूरी कर दी जिसमें सारा खानदान मुलजिम बन गया। उन सबने बच्चों तक को नहीं छोड़ा! मैं उस समय नीचे दर्जे में पढ़ता था और मेरा नाम इसलिये नहीं डाला गया कि मेरी हाजिरी कत्ल के समय स्कूल में मिलती। केस कमजोर हो जाता। देश आज़ाद हुये अधिक बरस नहीं बीते थे।  मुकदमा बहुत लम्बा चला और घर उसी में बरबाद हो गया। जिस पच्छिम घर से आग और दही के जोरन सारे गाँव में जाते, उसी घर के दुआरे मवेशी एक एक कर कुपोषण से मरे। भुक्खल चमार दो तीन दिन में आता और मरणासन्न गोरुओं के इकठ्ठा गोबर कुदाल से उठा कर घूरे में फेंक आता। एक खेतिहर घर के लिये इससे बड़ी दुर्दशा क्या हो सकती थी?
बड़के बबुआ की आत्मा सुखी रहे। मरने के एक दिन पहले ही पूरब घर वाले जमींदार घराने को जुटा कर कह दिये थे कि कल इसी समय मेरी आत्मा माटी छोड़ देगी। मुकदमे का सारा खरचा बिना ब्याज, बिना किसी अवधि के हमारे बच्चे भरेंगे और तुम लोग खेत का एक भी धुर हड़पे तो तुम्हारे खानदान का सत्यानाश हो जायेगा। अगले दिन उसी समय बबुआ चल बसे। उनके जाने से खेत बच गये। अच्छा हुआ कि चले गये, जीवित रहते तो न बचा पाते, न जाते हुये देख पाते और न सह पाते।

सबेरे बड़की माई थरिया में कभी भूजा, कभी मकई के दाने और कभी बासी भात के बारह छोटे छोटे ढेर लगा देती। हम सभी बारी बारी आ कर अपना अपना हिस्सा पा लेते और घर की संतानों के प्रति उस दिन की जिम्मेदारी खत्म हो जाती। ईमानदारी इतनी कि कोई दूसरे के हिस्से पर हाथ नहीं मारता था और न्याय बुद्धि इतनी थी कि हर ढेर में भूजा के दाने बराबर रहने चाहिये थे वरना बड़की माई की खैर नहीं। इस ‘नाश्ते’ के बाद लड़कियाँ घरेलू काम में लग जातीं और लड़के सरेह में – गन्ने चूसते, कन्न, सुथनी, आलू, भून कर खा जाते और कमर से नीचे सरकती फटी चुटी बजगानियों में बाँध कर बहनों के लिये ले भी आते। महातम भैवा कहता – सब नाश के रास्ते पर हैं।

बाबू की याद लिये मैं अकेला पाठशाला को निकलता। पेट में भूख ककोरती रहती, आँखों से लोर और नाक से पोंटा बहते रहते। चार कोस पैदल आना और जाना। बड़की माई पर क्रोध भी आता कि मुझे थोड़ा अधिक क्यों नहीं दे देती? धीरे धीरे भूख की आदत हो गई। रास्ते भर गन्ना चूसते जाता। मुँह फैल गया। दोनों किनारे हमेशा घाव रहने लगे। पेट निकल गया। बड़ा माथा और उभर गया। पट्टीदारों ने नाम दिया – पितमरुआ लेकिन मैं पढ़ता रहा और पास भी होता रहा।

पहली बार मिडिल में फेल हुआ। पढ़ाई जारी रह पा रही थी तो सिर्फ इसलिये कि मैं पास होता जा रहा था। उस दिन मेरी आँखों के आगे अन्धेरा था। परिवार वाले जानते तो पढ़ाई छुड़ा मुझे भी पूरे समय खेतों में लगा देते, उन खेतों में जिनमें अँजोरिया लगते ही कोदो की फसल मर जाती थी। छुट्टी के दिन मैं खेतों में काम करता लेकिन हमेशा लगता कि कुछ है जिसके कारण हमारी खेती बाँझ हो चुकी थी और उसे दुबारा उपजाऊ बनाने के लिये पढ़ लिख कर मेरा आगे निकलना जरूरी था। उस समय से ही अपने खेतों और सगों के लिये अजीब सा प्रेम और घृणा का समन्वय मैं खुद के भीतर पाता रहा हूँ। बहुत से अवसर आये लेकिन मैं बाहर की दुनिया में पंख पसार नहीं सका जिसका मुझे कोई दुख नहीं। मैं आज भी वैसा ही हूँ, बाबू के उलट - अमहत्त्वाकांक्षी।

फेल होने के बाद हेड मास्टर के ऑफिस के बाहर घुटने में सिर दिये मैं रो रहा था। किसी भी तरह के रहम के लिये डिप्टी साहब के ऑफिस जाना होता। लेकिन जाता कैसे और कौन ले जाता? मैंने अपनी पीठ पर किसी का हाथ महसूस किया। घुटनों से सिर उठाया तो असलम का धुँधला चेहरा दिखा। उसने मेरे आँसू पोंछे और बिना कुछ बोले हम दोनों कस्बे में उसके घर की ओर चल पड़े। अपने घर जाने का न तो कोई मतलब था और न जरूरत थी। उसके घर ही करीमन बी से मुलाकात हुई जो उसकी अम्मी थीं। करीमन बी देखने में माई की तरह ही थीं लेकिन नाटी थीं। उन्हें देखते ही मैं फूट फूट कर रो पड़ा। एक रिश्ते की शुरुआत हुई जिसमें मैं उनका लाडला पाँचवा बना और वह मेरे लिये सिर्फ बी। अम्मी पुकारने से उन्हों ने खुद मना कर दिया था – ठाकुर की औलाद हो, मुझे सिर्फ बी कहो।  असलम के अब्बू मेरे लिये आदर के पात्र थे तो सिर्फ इसलिये कि वे बी के खाबिन्द थे वर्ना वैसा कट्टर मैंने आज तक नहीं देखा लेकिन वह बी से डरते थे और खूब डरते थे।

अगले दिन बी असलम और मुझे लेकर डिप्टी साहब के ऑफिस जाने को तैयार हुईं। मुझे हर हाल में पास होना था और उन्हें मुझे पास कराना ही था। (अगला भाग)                   

सोमवार, 26 सितंबर 2011

मेरा स्वार्थ ही मेरी प्रार्थना है।

रात भर अन्धेरे से जूझता रहा 
सलवटें गवाह हैं। 
दिन चटका है, खिलखिलाती धूप है 
गाँव के गाँव 
शहर कस्बे सब तबाह हैं । 
और तुम 
पड़े हुये हो आइ सी यू के बेड पर 
न रात, न दिन, न साँझ, न अरुण 
बस एकरस दुधिया उजाला 
नियत लक्स का। 
ऐसे में प्रार्थना किससे करूँ? 
क्या करूँ? 


लहरियाँ हैं साँस की, वाद्य की और स्वर की 
कि राख से उठते हैं अँखुये
झोपड़ी फिर बनती है 
हरियाली फिर सजती है 
जोगी कहते रहे हैं 
जीवन ऐसे ही चलता है 
तो ...प्रार्थना क्यों?
किससे करूँ कि जब सब 
ऐसे ही चलता है?  


नहीं पता मुझे।  
वह मौन है जो खिंचता है जब
सब दह जाने के बाद एक गठरी काँधा ढोता है 
जिसमें होते हैं आटा, कपड़े और विवशतायें
जिसकी गाँठ को जिजीविषा कहते हैं। 


उसे आज तुम्हें देता हूँ
(सुना है बाँटने से बढ़ती है) 
आज उसे बाँटता हूँ
सिक्किम को 
जौनपुर, बनारस, आज़मगढ़ ... 
बढ़ियाये गाँवों को 
लीलावती हॉस्पिटल को 
संसार में सब ओर - 
जहाँ भी युद्ध है, मृत्यु है, विनाश है
ईति है, भीति है, ध्वंस है, उपास है -
इस प्रात मैं बाँटता हूँ  
कि आज रात मुझे नींद आये 
मेरा स्वार्थ ही मेरी प्रार्थना है। 

 

रविवार, 25 सितंबर 2011

प्रार्थना

आज मन बहुत उदास है। प्रख्यात गायक जगजीत सिंह मस्तिष्क रक्त स्राव के कारण गम्भीर स्थिति में हैं। कहते हैं कि पहला प्रेम कभी नहीं भूलता। उनका गाया फिल्म ‘प्रेमगीत’ का अमर गीत ‘होठों से छू लो तुम’ संगीत के प्रति मेरे प्रेम का पहला कारण बना। आज भी आठवीं कक्षा की वह आठवी घंटी याद आती है जब कहानियों के क्षेत्र से गायन की ओर पहला पग लिया और उससे आगे कभी नहीं बढ़ा। पता नहीं गीत की सादगी है, संगीत की सहजता है या स्वर में भोले से स्वीकार और आग्रह का पुट है – आज भी जब यह गीत सुनता हूँ तो पग ठिठक जाते हैं। कुमार गन्धर्व, मल्लिकार्जुन मंसूर तो बहुत बाद में मन में समाये लेकिन जगजीत सिंह! पता नहीं कब...

उनका ऋणी हूँ कि भक्ति संगीत से मुझे जोड़ रखे हैं। ‘जनम सफल होगा रे बन्दे मन में राम बसा ले’ भजन में स्वर की वही सहजता है जैसे कोई साधू दिन भर के थके माँदे को समझा रहा हो। जिन चन्द विभूतियों के कारण यह नास्तिक समर्पण और प्रार्थना के स्वरों का अवगाहन आज भी करता है, उनमें जगजीत सिंह भी हैं।

ऋणी हूँ कि व्यर्थ सद्भावना के बवंडरों के बीच औसत दर्जे के पाकिस्तानी गायकों के प्रमोशन और भारतीय प्रतिभाओं की उपेक्षा के विरुद्ध अकेले जगजीत सिंह ने स्वर उठाया है। 

आज जाने किससे प्रार्थना में झुका हूँ कि नहीं, कुछ भी अवांछित नहीं होना चाहिये। आज भगवद्गीता नहीं देखनी मुझे ...




'पहला प्रेम' गीत 

'और' प्रार्थना - मुझे निर्वेद या वैराग्य नहीं चाहिये। यह बस एक नासमझ प्रार्थना है, ठीक गीत के वीडियो जैसी। 

         

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

~~~~~~~~~~~~~चिड़िया, गुड़िया और खरहा~~~~~~~~

1
यात्राओं में और किसी के यहाँ जाने पर अक्सर मैं अनजान बच्चों से भी घुल मिल जाता हूँ। माता पिता भी थोड़ी देर के बाद उन्हें मेरे भरोसे छोड़ देते हैं। मैं थोड़ा चालाक हूँ कि शरारती बच्चों को एकदम भाव नहीं देता :) पिछले सप्ताह किसी सम्बन्धी के यहाँ गया तो एक प्यारी सी गुड़िया मिल गई। हम दोनों में ऐसी दोस्ती हुई कि स्वयं उसके माता पिता दंग रह गये। हम दोनों ने खूब बातें की। महज दो वर्ष की कन्या इतनी प्रतिभाशील थी कि पूछिये न! मैंने उसका वीडियो भी बनाया है। कभी पोस्ट करूँगा। फिलहाल उसके लिये रची मेरी बाल कविता पढ़िये। यह मेरी दूसरी बाल कविता है। पहली बहुत पहले रची थी जो यहाँ है।  

माँ चिड़िया कैसी होती है?
बेटी! गुड़िया जैसी होती है।
खुली हवा में गाये चिड़िया
बुलाओ तो उड़ जाये चिड़िया
सरजू दादा की प्यारी चिड़िया
बरगद नाना की न्यारी चिड़िया।
2माँ रुको, आगे मत बोलो
गुड़िया की भी पाँखें जोड़ो
चिड़िया संग उड़ जायेगी
चन्दा से खरहा लायेगी
मैं खेलूँगी उसके साथ
करती तुमसे मीठी बात।
बेटी! चन्दा रातों को जागे
चिड़िया तो तब सोती लागे
गुड़िया अकेली डर जायेगी
सोचो ऊँचा क्या उड़ पायेगी?
इससे अच्छा पिंजड़ा डालो
खरहे को तुम खुद ही पालो।
3
माँ तुम अकल की कच्ची हो
इतनी बढ़ गइ पर बच्ची हो
खरहा चन्दा पर दौड़ा जाये
बढ़ता जब तब घटता जाये
ऐसे को पिंजरे में क्या रखना?
अच्छा है गुड़िया संग रहना।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

हौं प्रसिद्ध पातकी...

यह लेख तेजस्वी भारतीय और ताजे घटनाक्रम पर केन्द्रित है। इसके बहाने हिन्दी ब्लॉगजगत के उस भाग की पड़ताल है जिसमें सक्रिय जनों की संख्या चन्द सैकड़ा है लेकिन दम्भ और अज्ञान कोटिपूरक श्रेणी के। भारतीय जी से कभी मिला नहीं लेकिन हिन्दी ब्लॉग जगत से यदि किसी ऐसे व्यक्ति को चुनने को कहा जाय जो बाहर भीतर से पूर्णत: ईमानदार हो तो मैं उन्हें चुनूँगा। कारण उन्हें स्पष्ट होंगे जो उन्हें थोड़ा भी जानते होंगे।

वह एक ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी के लिये बुरा नहीं सोच सकते। उसूलों के इतने पक्के कि अपशब्द बोल नहीं सकते, लिख नहीं सकते और पढ़ भी नहीं सकते। मेरी कहानियों का पोडकास्ट करने की सदाशयता उन्हों ने कई बार दिखाई लेकिन हर बार यदि कोई शब्द उन्हें अनुचित लगा तो उसे छोड़ा या उससे बेहतर विकल्प का प्रयोग किया।

मन से रुग्ण ध्यानाकर्षण की प्रेमी एक स्त्री द्वारा जिस पोस्ट को लेकर इतना हंगामा बरपा गया उसका पुनर्पाठ करने की आवश्यकता है। पुनर्पाठ इसलिये कि यह सिद्ध हो सके कि हिन्दी ब्लॉगरी में कितना छिछ्लापन है। उस पोस्ट में मेरी पोस्ट का भी लिंक है और स्पष्ट लिखा गया है कि: 

जो पाठक "सैंस ओफ़ ह्यूमर" को साँप की जाति का प्राणी समझते हों, वे "अपोस्ट से कुपोस्ट तक" के इस सफ़र को न पढें तो उनकी अगली "प्रतिक्रियात्मक" पोस्ट के पाठकों का बहुमूल्य समय नष्ट होने से बच जायेगा।
(चाहता तो मैं भी नंगे हो कर नाच सकता था, यह बात और है कि तमाशाइयों की संख्या बहुत कम होती। वैसे भी 'सेंस ऑफ ह्यूमर' को मैं श्वान श्रेणी में नहीं रखता। क्या कहा? साँप लिखना था? जी,  मैं उतना सभ्य नहीं हूँ)।

 यहाँ इसलिये दुहराया कि नकली और छली आर्तनाद करती ब्लॉग जमात और विशेषकर उन स्त्रियों की आँखों से पट्टर हटे जो सिर्फ इसलिये गलत का पक्ष ले रहे हैं कि वह स्त्री है। सम्भवत: उनके लिये प्रगतिशीलता की पहचान यही है कि स्त्री कैसी भी हो, कुछ भी करे, उसे हमेशा सही कहा जाना चाहिये; भले उस विवाहिता के कारण किसी कुँवारे युवक को चरम मानसिक यातना झेलनी पड़ी हो, किसी वृद्ध को अपमानित होना पड़ा हो, किसी को दूसरे के कहे पर लेबल कर दिया गया हो ... भारतीय जी से यह सब छिपा रहा होगा, असम्भव है। किसी से भी छिपा नहीं रहा।

हर वह ईमानदार व्यक्ति घुटन का अनुभव करेगा जो यह देखेगा कि रोगी प्रवृत्ति के पुरुषों और सखियारो टाइप की स्त्रियों के अलावा ऐसे लोग भी कुसंगीत पर नृत्य करते और अनदेखी करते पाये जाते हैं जिन्हें स्वस्थ और परिपक्व व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। व्यंग्य के माध्यम से भारतीय जी ने छिछली प्रवृत्ति पर दृष्टि डालने का संकेत किया जिसमें केवल एक स्त्री नहीं, कइयों के लेखन के अंश थे। भाषिक रूप से वे कहीं भी अश्लील या कटु या कुख्यानी नहीं रहे। बाकियों ने तो व्यंग्य को पढ़ा, समझा और सराहा लेकिन आत्ममुग्धता के चरम तक विवेकहीन स्त्री को लगा कि उसे ही लक्षित कर लिखा गया है। स्वाभाविक भी था क्यों कि संख्याबल तो है ही! जमावड़ा बटोरने वाले हास्य संकेतों को या तो समझते ही नहीं या इतने धूर्त होते हैं कि उनमें भी अवसर देख कर नौटंकी फैलाने की सोच लेते हैं। वही हुआ।

यह साफ कर दूँ कि इस विषय पर मेरी भारतीय जी से चर्चा नहीं हुई है और न उन्हों ने मुझे लिखने को कहा है। वे स्वयं समर्थ हैं और बाद में रोना पड़े ऐसा काम करेंगे नहीं लिहाजा उन्हें किसी के कन्धों की आवश्यकता भी नहीं है। मैं स्वयं यह अन्धेर बहुत दिनों से देख रहा हूँ।

जिस दिन एक बहुत ही प्रसिद्ध दोहे का नये अर्थ संकेत के साथ प्रयोग कर वहाँ से हटा था तब से बहुत कुछ घटित हो चुका है। मैं वहाँ अपने से नहीं जाता लेकिन बार बार हंगामा इतना बड़ा हो जाता है कि कोई न कोई बता ही देता है। इतने सुलझे हुये व्यक्ति के साथ हुआ तो रहा नहीं गया। वहाँ टिप्पणियों में भारतीय जी के लिये अपशब्दों की भरमार है। जाने क्या क्या कहा गया है और स्वनामधन्य महान स्त्री पुरुष ब्लॉगरों ने उन नकली छलिये टेसुओं को पोंछने में अपने हाथ छील (यह शब्द इस प्रकरण की एकमात्र उपलब्धि है) डाले हैं जो हकीकत में सिवाय ‘चलित्तर’ के कुछ नहीं हैं। किसी ने यह परवाह नहीं की कि उस साधु पुरुष पर क्या गुजर रही होगी!

‘चलित्तर’ के प्रयोग से जिसे मुझे ‘स्त्री विरोधी पुरुष’ समझना हो समझा करे। बहुत गहरे प्रेक्षण और सदियों के बाद लोक में कुछ स्थापित होता है, एक दो दिन में नहीं।

तमाम पिताओं, माताओं, सखियों, मित्रों, भाई आदि आदि लोगों से अपील है कि उस स्त्री को समझायें:

(1)   लिखती पढ़ती रहो लेकिन सार्वजनिक करती हो तो आलोचना के लिये भी तैयार रहो। सीख लो। मनुष्य के पास हमेशा सुसीख लेने की गुंजाइश रहती है और कुसीख को त्यागने की भी। सुलोचना बनो। 
(2)   हास्य व्यंग्य की रचनाओं का भी पारायण किया करो। समझ विकसित होगी और भीतर बाहर की कु-रचनाओं से मुक्ति भी मिलेगी। 
(3)   विवाहिता हो, अपने परिवार पर केन्द्रित हो।
(4)   न तो तुम इतनी महान हो कि सब कुछ छोड़ कर लोग तुम्हारे विरुद्ध षडयंत्र रचते रहें और न इतनी गिरी हुई कि जो चाहे लतिया कर चलता बने। (इसका उलट भी उसे बतायें)।  
(5)   स्त्री-स्त्री और आँसू-आँसू खेलना छोड़ो। युग बहुत आगे निकल गया है। लोग समझते हैं और जिस दिन स्त्री इस अस्त्र का प्रयोग करना प्रारम्भ कर देती है, वे आदिम और सहज रूप से सोचने लग जाते हैं।
(6)   भाग्यशाली हो कि हिन्दी ब्लॉगरी में हो, अंग्रेजी ब्लॉगरी में या तो कोई फटकता ही नहीं और अगर आ भी जाता तो ऐसी नौटंकी देख जो सुना कर वहीं जमा रहता (जाता नहीं) उसे झेलना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं होता।
(7)   किसी मनोचिकित्सक से सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है।

टिप्पणियों का विकल्प बन्द है क्यों कि मुझे उनमें दिलचस्पी नहीं है, जिसे प्रतिक्रिया देनी हो मेल से भेज दे। अपनी जान बहुत सभ्य भाषा में लिखा है। आभासी कॉलर चढ़ाते और बाँह मरोड़ते भाई लोगों से विनम्र अनुरोध है कि अपनी ऊर्जा का उपयोग अपशब्दों या धमकियों के लिये न कर किसी सार्थक काम के लिये करें। ब्लॉग जगत में ऐसी बहुत सी छिपी प्रतिभायें हैं जिन्हें पहचान और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, वहाँ अपना सार्थक योगदान करें (उनमें स्त्रियाँ और युवतियाँ भी हैं)। अभी जिसे चमकाने में लगे हैं उस लोहे में तो जंग ही जंग है।

हाँ, मुझे गाली वगैरह वाली मेल भेज सकते हैं। मुझे किसी चीज से परहेज नहीं है, मैं एक अलग प्रकार का भारतीय हूँ। वैसे भी इस समय जो कहानी लिख रहा हूँ उसमें गालियों की क्वालिटी से संतुष्ट नहीं हूँ, कुछ नया मिलेगा तो रचना का भला होगा। स्वयं द्वारा आविष्कृत गालियों के सरल और गूढ़ार्थ भी भेज देंगे तो समझने में सहूलियत होगी।

भारतीय जी! मैंने तो दूसरों के ब्लॉगों पर टिप्पणी करना छोड़ दिया है, इसलिये मेरी ‘सद्भावना’ निर्बल और अनादरणीय है फिर भी अपील है कि या तो हर पोस्ट पर टिप्पणी का विकल्प बन्द कीजिये या वहाँ भी खुला रखिये।
      
नोट: ‘स्त्रीवाद’ का अध्ययन मैंने अपनी बुढ़ौती के लिये रख छोड़ा है इसलिये इस लेख में शास्त्रीय गड़बड़ियाँ पाई जा सकती हैं। यहाँ स्त्रीलिंग सम्बन्धित कतिपय शब्दों का अर्थ किसी जीवित या मृत या आगामी स्त्री से नहीं है। अन्य जंतु का नाम भी किसी प्रकार के मनुष्य के लिये नहीं लिया गया है।  (... बताना पड़ता है यार!)

मैं किसी के लिये इसलिये सम्मान नहीं रखता कि वह स्त्री है, इसलिये रखता हूँ कि वह अच्छा व्यक्ति है, अच्छा नागरिक है।  घटनाक्रम पर दृष्टि बनी रहेगी। मैं अपनी कहानियों के लिये विषय परिवेश से ही लेता हूँ। अगली रचना सम्भवत: यह कहानी हो:

'झील फिर से सूख गई'
जैसा कि होता है, कहानियाँ व्यक्ति पर केन्द्रित न होकर प्रवृत्ति पर होती हैं। (... बताना पड़ता है यार!)  
  

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मातृ पितर और पुत्र पर्व - जिउतिया


आश्विन (क्वार, कुआर) माह का कृष्ण पक्ष पितृपक्ष कहलाता है। बहुत प्राचीन काल से ही भारत के आर्यगण इस दौरान अपने पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहे हैं, उनकी स्मृतियों को जीते रहे हैं। भारतीयों का यह पक्ष इतना प्रसिद्ध रहा कि अलेक्जेंडर (2004) फिल्म में वृद्ध टॉलमी से कहलवाया गया है कि भारतीयों का उनके पूर्वजों से जुड़ाव हानिकारक स्तर तक था।
पितृपक्ष में ही अष्टमी को जीवित्पुत्रिका ऐसी स्त्री जिसके जीवित पुत्र हों (जिउतिया, जितिया, जितीया आदि) व्रत का विधान है जिसमें पुत्रवती स्त्रियाँ एक दिन का निर्जला उपवास रखती हैं और नवमी के दिन स्त्री पक्ष के पितरों (मृत सास, सास की सास आदि) को अर्पण, तर्पण करने के पश्चात अन्न ग्रहण करती हैं। यह व्रत पूर्वी उत्तरप्रदेश, पश्चिम बिहार, मिथिला और नेपाल में प्रचलित है। कुछ अवध क्षेत्रों में भी इसका प्रचलन है।
लोग इसे पुत्रों की दीर्घायु की मंगल कामना का पर्व मानते रहे हैं। जैसा कि पहले के इस आलेख में मैंने बताया था कि कतिपय स्नेही विद्रोही मातायें पुत्रियों के लिये भी इसे रखती आई हैं। स्त्री के अस्वस्थ होने की स्थिति में यह व्रत पति रखता है। समय के साथ अब इस व्रत का तप पक्ष क्षीण हो चला है और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुये कतिपय स्त्रियाँ अब इस दौरान फलादि ग्रहण कर लेती हैं।

लोककथा:
लोक की रूढ़ परम्परा के अनुसार ही इस व्रत की महात्म्य कथा है। चील और सियारन (चील्हो - सियारो) सखियाँ थीं। विशाल बरगद के ऊपर चील का घोंसला था और जड़ की माँद में सियारन रहती थी। एक दिन चील को व्रत की तैयारी करते देख सियारन ने भी व्रत रखने की ठानी। चील ने मना किया कि यह व्रत बहुत ही संयम नियम का है और तुम्हारी कच्छ भच्छ की प्रवृत्ति के कारण निर्वाह नहीं हो पायेगा लेकिन सियारन न मानी और उसने भी निर्जला व्रत रख लिया। दिन तो किसी तरह बीत गया लेकिन रात को उसे भूख सहन नहीं हुई। पास के गाँव से एक मेमने को ला कर खाने लगी। उसके चबाने का स्वर चील को सुनाई दिया तो उसने ऊपर से ही कहा - कर दिया न सत्यानाश! भूख नहीं सही गई तो इस समय हाड़ चबा रही हो? सियारन ने उत्तर दिया - नहीं सखी! मारे भूख के मेरी हड्डियाँ ही कड़कड़ा रही हैं। चील ने नीचे आकर सब देख लिया और सियारन को धिक्कारती उड़ गई।
 उस जन्म में सियारन की जितनी भी संतानें हुईं, उसके इस पाप के कारण असमय ही मरती गईं जब कि चील की वंशवरी बढ़ती गई। अगले जनम में दोनों मनुष्य हुईं। पूर्व सियारन का विवाह राजा से हुआ और चील का मंत्री से। पूर्वजन्म के पाप के कारण रानी की संतानें एक कर एक मरती गईं जब कि मंत्री के सात पुत्र हुये। मारे जलन के रानी ने सातों पुत्रों को मरवा कर उनकी देह फिंकवा दी और उनके सिर टोकरियों में बन्द करा मंत्री के यहाँ भिजवा दिये। जब टोकरियाँ खोली गईं तो सभी सोने और जवाहरात से भरी थीं। उसी समय मंत्री के सभी पुत्र भी अपने अपने घोड़ों पर सवार आ गये।
रानी ने सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वह स्वयं मंत्री के यहाँ गई और उसकी पत्नी से पूछा। पूर्वजन्म के तप के कारण मंत्री की स्त्री को सब याद था, उसने सारी कथा सुनाई और रानी को जिउतिया व्रत रखने को कहा। रानी ने संयम नियम के साथ व्रत रखा और उसके पुण्य स्वरूप उसे कई पुत्र हुये।

पुराण कथा:
नागवंश गरुड़ से त्रस्त था। वंश की रक्षा के लिए उन्हों ने गरुड़ से एक समझौता किया कि प्रतिदिन उसे एक नाग खाने को देंगे जिसके बदले गरुड़ नागों का उच्छृंखल आखेट नहीं करेंगे। समझौते के अनुसार व्यवस्था हो गई लेकिन प्रतिदिन किसी न किसी नाग घर में रोना पिटना मचता क्यों कि उस घर से एक पुत्र गरुड़ का आहार बनने को जा रहा होता। उसी काल में गन्धर्वराज जीमूतवाहन हुये। वे बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे। युवाकाल में ही राजपाट छोड़ वन को प्रस्थान किये। वन में उन्हें रोती हुई नागमाता मिली जिसका पुत्र शंखचूड़ अगले दिन गरुड़ के आहार के लिये भेजा जाने वाला था। दयालु जीमूतवाहन ने स्वयं को प्रस्तुत किया। वे लाल कपड़ा लपेट उस शिला पर लेट गये जिस पर से गरुड़ अपना आहार उठाता था। गरुड़ आया और उन्हें लेकर उड़ चला। उसे आश्चर्य हुआ कि वह नाग मृत्यु के भय से चिल्लाने रोने के बजाय एकदम शांत था। जब गरुड़ ने कपड़ा हटाने पर नाग के स्थान पर जीमूतवाहन को पाया तो कारण पूछा। उन्हों ने सब सच सच बता दिया। गरुड़ ने प्रभावित हो कर उन्हें छोड़ दिया और नागों को अभय आश्वासन दिया। तब से ही यह व्रत प्रारम्भ हुआ।

विधि:
अष्टमी के दिन भोर में स्त्रियाँ उठ कर बिना नमक या लहसुन आदि के सतपुतिया (तरोई) की सब्जी और आटे के टिकरे बनाती हैं। चिउड़ा और दही के साथ इन्हें दिवंगत सास और चील्हो सियारो को चढ़ाया जाता है और सभी संतानों के साथ उसी का आहार लिया जाता है। इसे 'सरगही' कहते हैं। पानी पीने के साथ ही  निर्जला व्रत प्रारम्भ होता है।
तिजहर को बरियार की झाड़ी ढूँढ़ कर उसकी सफाई कर पूजा की जाती है और सन्देश भेजा जाता है। नवमी के दिन सूर्योदय के पश्चात हालाँकि व्रत का समापन अनुमन्य है लेकिन स्त्रियाँ व्रत को आगे बढ़ाती हैं। इसे 'खर करना' कहते हैं।  मान्यता है कि जो स्त्री जितना ही खर करेगी उसका पुत्र उतना ही सुरक्षित होगा, उसका उतना ही मंगल होगा।
व्रत समापन के पहले स्नानादि उपरांत नये वस्त्र धारण कर स्त्रियाँ 'जाई' तैयार करती हैं। यह दिवंगत सास, उनकी सास आदि पितरों के लिये अर्पण होता है। जाई बनाने में नये धान का चिउड़ा, साँवा (एक तरह का अन्न जो एक पीढ़ी पहले तक चावल की तरह खाया जाता था), मधु, गाय का दूध, तुलसी दल, उड़द और गंगा जल का प्रयोग होता है। इसे गाय के ऊष्ण दूध के साथ निगला जाता है। इससे मातृपक्ष के पितरों की आत्मायें तृप्त होती हैं और वंशरूप पुत्र के उत्थान, प्रगति और सुख समृद्धि के लिये आशीष देती हैं।
एक कथा एक स्त्री के बारे में बताती है जिसके पुत्र को अजगर ने निगल लिया था। उसने जिउतिया व्रत रखा और जैसे जैसे गर्म दूध के साथ जाई निगलती गई, अजगर के पेट में दाहा बढ़ता गया। अंतत: उसने पुत्र को जीवित उगल दिया। जाई को चबाया नहीं जाता जिसका कारण यह है कि मेमना चबाना भी सियारन के व्रत भंग का एक कारण था।
जिउतिया 
स्त्रियाँ रसोईघर की चौखट को अन्नपूर्णा और मातृपक्ष के पितरों की स्मृति में टीका देती हैं। स्त्रियाँ पुत्रवती होने के प्रतीक स्वरूप गले में धागे से बनी 'जिउतिया' पहनती हैं जिसमें पुत्रों की संख्या से एक अधिक गाँठ लगाई जाती हैं। अधिक वाली गाँठ जिउतबन्हन की गाँठ कहलाती है जिसे जीमूतवाहन नाम से समझा जा सकता है। स्वयं पहनने के पहले उसे कुछ देर पुत्र को पहना कर रखा जाता है। धनाढ्य स्त्रियाँ बहुमूल्य धातुओं से बनी जिउतिया भी पहनती हैं। उसके बाद विविध पकवानों के साथ पारण किया जाता है।
आज भी गाँव गिराम में रसोई की चौखट पर गृहस्वामिनी का बैठना निषिद्ध है क्यों कि उस चौखट को मातृपक्ष के पितरों का प्रतीक माना जाता है। कोई बैठी दिख जाय तो उलाहना दिया जाता है - सासु के कपारे बइठल बाड़ू!

एक और कथा मिलती है जिसमें परीक्षित पुत्र बरियार (?) का सन्दर्भ मिलता है। स्त्रियाँ व्रत के दिन बरियार नामक पौधे का पूजन करती हैं और राजा रामचन्द्र के पास अपने पुत्र की मंगल कामना हेतु सन्देश भेजती हैं। परीक्षित पुत्र जनमेजय का नाग यज्ञ प्रसिद्ध है। जीमूतवाहन की कथा भी नागों से सम्बन्धित है। एक प्रश्न मन में उठता है कि क्या परीक्षित का कोई दूसरा पुत्र भी था जिसने भाई जनमेजय द्वारा प्रतिशोध स्वरूप आयोजित नागों के सम्पूर्ण विनाश यज्ञ में नागों का पक्ष ले उन्हें बचाया था जिसकी स्मृति आज भी बरियार (बली) पुत्र के रूप में परम्परा में मिलती है?
 यह व्रत नाग परम्परा का बदला हुआ रूप है जिसके मूल में वंश संहार की त्रासदी का सामना करने और उससे उबरने के स्मृति चिह्न हैं। हो सकता है कि नागों ने वन में बरियार के झाड़ झंखाड़ो  की आड़ ले स्वयं को बचाया हो। वनवासी राम का जंगली जातियों से स्नेह सम्बन्ध जगप्रसिद्ध है। आज भी वर्ण व्यवस्था से बाहर की कितनी ही जनजातियों के लिये राम आराध्य हैं। 
नये धान, साँवा और उड़द का प्रयोग इस व्रत को कृषि परम्परा से भी जोड़ता है। धान्य के घर में आने पर गृहस्वामिनी का उत्सव! ऐसा उत्सव जो तप से आपूरित है ताकि वंश सुरक्षित रहे और पितर तृप्त। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध पितृ समाज परम्परा के इस रूप को यह व्रत उत्सव अक्षुण्ण रखे हुये है।  

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कुत्तों के चरवाहे


जिस तरह से गोरू और बकरियों के चरवाहे होते हैं वैसे ही कुत्तों के भी होते हैं। जिस तरह से समाज के हर वर्ग में श्रेणीबद्धता पाई जाती है वैसे ही चरवाहों में भी होती है। सबसे निचले स्तर पर बकरियों के चरवाहे होते हैं और गाय, भैंस से होते हुए कुत्तों तक आते आते श्रेणी इतनी उच्च हो जाती है कि चरवाही के मायने ही बदल जाते हैं। चूँकि कुत्तों में दूसरे पशुओं की तुलना में इंसानियत अधिक पाई जाती है, उनकी चरवाही वी आई पी श्रेणी में आती है। कुत्तों का चरवाहा स्वयं को आम इंसानों से उच्च समझने लगता है भले वह नौकर ही क्यों न हो!

असल में कुत्ते इस दौरान चरते नहीं, उसके उलट काम करते हैं। वे उत्सर्जन करते हैं। यह शब्द हगने मूतने के लिये अकादमिक अर्थों में प्रयुक्त होता है और इस कारण पशुता या इंसानियत के गड़बड़झाले से मुक्त है।
बहुत से कुत्तों के स्वामी अपने कुत्तों के लिये पशुचित सम्बोधन उचित नहीं मानते। वे उन्हें पशु नहीं मानते। ऐसे जन असल में कुत्ते के स्वामी नहीं होते, कुत्ता उनका स्वामी होता है जो कि उन्हें टहलाने ले जाता है। ऐसे लोगों को कुत्तों के लिये चराने और चरवाही जैसे शब्द प्रयोग भी आपत्तिजनक लगेंगे। वे टहलाना कहना अधिक उपयुक्त मानेंगे हालाँकि इस शब्द से पशु और मनुष्य के बीच का अंतर झीना होता है।

गोरू को एकाध दिन न चराओ तो चल जाता है। उनका विरोध बस पगहा तोड़ने और रँभाने तक सीमित रहता है लेकिन कुत्ता? न टहलाओ तो वह आप को घर से बाहर निकाल देगा। सही भी है घर का स्वामी वही है, आप तो चरवाहे हैं। कुत्ते हमेशा दूसरों की गली में चराये जाते हैं। कोई चरवाहा अपने बेल्टदार कुत्ते के साथ आसमान सूँघता और उसका साथी जमीन सूँघता दिखे तो समझ जाइये कि वे दोनों उस गली में नहीं रहते, पीछे वाली या सड़क के उस पार वाली गली में रहते हैं। इसका कारण इलाकायी है। इलाकायी इस अर्थ में कि कुत्ता हमेशा अपने रहवास की तुलना में बहुत बड़े दायरे को उस उत्सर्जन द्वारा चिह्नित कर के रखना चाहता है जिसे आप मूत्र समझते हैं। यह विशुद्ध कुत्ता प्रवृत्ति है जिसकी झलक मुहल्ले के दादा लोगों में दिखती है। यह शोध का विषय है कि यह वृत्ति किधर से किधर को प्रवाहित हुई।

कुत्ते हमेशा साफ जगह पर चरना पसन्द करते हैं। उस जगह की गन्ध भी उत्सर्जन के लिये उपयुक्त होनी चाहिये और ‘चारू’ टाइप के कुत्तों को मानव मल से सख्त घृणा होती है। वे भले उसे कभी कभी सही अर्थ में ‘चर’ लेते हों लेकिन जब निपटने की बात आती है तो उन्हें उसकी गन्ध विरक्त करती है। चरने के दौरान वे अपने चरवाहों का सामान्य ज्ञान भी बढ़ाते चलते हैं। चरवाहा धीरे धीरे ज्ञानी और चुप्पा होता जाता है। मौन ज्ञानी का लक्षण है। आप ने ध्यान दिया होगा कि चरते हुये कुत्ते कभी नहीं भोंकते और चरवाहे बात करना पसन्द नहीं करते। उस समय वे ज्ञानाश्रयी भाव भूमि में होते हैं जो कि धर्म की ओर ले जाती है। इससे धर्मराज के कुत्ते वाली कथा का मर्म समझ में आ जाता है। यह नहीं लिखा कि युधिष्ठिर चरवाहे थे या नहीं लेकिन प्रेक्षण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे अवश्य रहे होंगे और बहुत क्लास टाइप के चरवाहे रहे होंगे। आश्चर्य होता है कि उनके समकालीन एक चरवाहे के ऊपर इतना कुछ लिखा, पढ़ा, गाया और बजाया गया लेकिन युधिष्ठिर के मामले में शून्य बटे सन्नाटा! सम्भवत: उस समय तक कुत्तों की चरवाही वी आई पी श्रेणी में नहीं आई थी। वैसे भी वह समय धर्म के विरुद्ध था। इतना विरुद्ध था कि धर्म को कुत्ता कहा जाता था और उस दिव्य चरवाहे को पैना, बंसी छोड़ चक्करबाजी में लगना पड़ा! (यह बस अनुमान है, कुत्तों या धर्म या धर्मराज का अपमान करने का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष इरादा नहीं है। यदि आप को लगता है तो आप की समझ में समस्या है)।

चराते समय जब कुत्ता उस वास्तविक क्रिया में सन्नद्ध होता है जिसके लिये उसे चराया जाता है तो उस समय एकाग्रता दर्शनीय होती है – कुत्ते की नहीं उसके चरवाहे की। जग विदित है कि निपटते समय एकाग्रता अपने चरम पर होती है लेकिन इस पक्ष पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि उस दौरान चरवाहे क्या करते हैं? वे एकाग्रचित्त होते हैं। या तो कहीं दूसरी ओर दृष्टि जमाये देखते रहते हैं – दीवार का पलस्तर कितना झड़ गया है! यह पेंड़ कितना बढ़ गया है!! आदि आदि या वे पॉटी की क्रिया को ही एकाग्र चित्त हो कर देखते रहते हैं। उस दौरान दो बातें मार्के की होती हैं। पहली, उनसे कुछ पूछिये तो वे पहले तो सुनेंगे ही नहीं लेकिन यदि सुनेंगे तो उत्तर हमेशा सच देंगे। यह कुत्ते की संगत के प्रभाव का चरम होता है। पशुओं के यहाँ सच या झूठ नहीं होता, उनके यहाँ बस होता है। सच और झूठ इंसानी फितरत हैं। लिहाजा हम यथावत कहने को सच कहना कहते हैं और परिणामस्वरूप तमाम दार्शनिक विमर्शों के बावजूद भी आज तक नहीं जान पाये कि सच क्या है?

तो एक दिन कुत्ते को पॉटी कराती हुई आंटी जी से मैंने पूछा – क्या उमर होगी? पहले तो उन्हों ने अनसुना कर दिया लेकिन दुबारा पूछने पर खोये से स्वर में कहा – ग्यारह। मेरे मुँह से अ-एकाग्र स्वर में जोर से निकल पड़ा - हाँय!! स्वर की तीव्रता से वह भी अ-एकाग्र हुईं और मुझे घूरते हुये बोलीं – मैंने ‘मीठू’ की उमर बताई थी, अपनी नहीं! मेरे यह कहने पर कि मैंने तो स्पष्टीकरण नहीं माँगा था, वह कुत्ते के साथ रौद्र रूप धारण किये, पैर पटकते चली गईं और मेरा दूसरा प्रश्न अनपूछा ही रह गया – मीठू आप के पोते का नाम है क्या?  वैसे वह उस प्रश्न का उत्तर भी सच ही देतीं।

दूसरी बात यह होती है कि मानव मल और कुत्ते के मल में विभेद करना चरवाहों को बखूबी आ जाता है। आप किसी शहर, देहात, हाइवे वगैरा पर निकल जाइये, आबादी के पास पीले, ललछौंहे, कभी कभी धूसर, सलेटी, ठोस, द्रव, अर्धठोस, संकुचित, पसरे, गोलाकार, लम्बाकार, बेलनाकार, एकमंजिला, बहुमंजिला आदि आदि प्रकार की मानव उत्सर्जित वे अस्थायी संरचनायें दिखेंगी जिन्हों ने उस गन्ध का निर्माण किया और उसे प्रसिद्धि दी जिसे किसी यूरोपीय पर्यटक ने ‘Indian national smell’ यानि कि ‘भारतीय राष्ट्रीय गन्ध’ कहा था। एक दिन प्रात: गेट खोलते ही मुझे सामने सड़क पर मल दिखा और एक कुत्ते के चरवाहे भी मयकुत्ते दिखे। मैंने उनसे अपना दुखड़ा गाया  – कहाँ तो लोग सुबह सुबह किसी अच्छी शक्ल को देखना चाहते हैं कि दिन अच्छा गुजरे और मैं क्या देख रहा हूँ? अभी तो आईना भी नहीं देखा। मैंने मल की ओर इशारा कर दिया था नहीं तो वे कुछ और समझ जाते। चूँकि उस समय तक कुत्ता निपट चुका था इसलिये वे सच बोलने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी उन्हों ने मेरा ज्ञानवर्धन किया और बताया कि वह मल मनुष्य का न होकर किसी कुत्ते का था। ‘किसी कुत्ते’ में छिपे अर्धसत्य को मैं समझ गया और मन ही मन धर्मराज युधिष्ठिर का स्मरण किया कि दिन अच्छा गुजरे। उनसे पूछ बैठा कि आप को कैसे पता? इस पर उन्हों ने टेक्सचर, आकार प्रकार, मात्रा, कंसिस्टेंसी आदि गुणों के हवाले से मुझे अच्छा खासा ज्ञानात्मक लेक्चर पिला दिया और साथ ही अंत में जोड़ दिया मनुष्य का होता तो आप नाक पर हाथ धरे स्वयं सफाई कर रहे होते। कुत्ते की पॉटी में बहुत हल्की गन्ध होती है जो कि एकदम ऑबजेक्शनेबल नहीं होती। मैं गलदश्रु हो गया और बस यह समझिये कि किसी तरह से अपने भीतर साष्टांग दन्डवत करने की उठती चरमेच्छा को नियंत्रित किया।      

कुत्ते अपने चरवाहे को संशयी बनाते हैं। संशय के बिना ज्ञान नहीं होता। संशय की स्थिति में आदमी विचित्र व्यवहार करता है। पड़ोस के शर्मा जी तब तक एकदम श्योर रहे कि दूसरों की गली में कुत्ता चराना, दूसरों के द्वार उसे हगाना और बिजली पोलों पर निशान छिड़कवाना जघन्य कर्म हैं, जब तक कि उनके यहाँ कुत्ता नहीं आया लेकिन जब से उनके यहाँ कुत्ता आया है वे संशयी हो गये हैं। मिलने पर अब उस बावत कोई चर्चा नहीं करते। वे हमेशा आसमान निहारते रहते हैं, गो कि परमात्मा से पूछ रहे हों – प्रभु! धर्म के साथ संशय की संगति क्यों है? पिछले हफ्ते तो हद हो गई। उनके कुत्ते ने मेरे पैर को पोल समझने की भूल की तो उनकी तन्द्रा टूटी। उन्हों ने गूढ़ शब्दों में ज्ञान दिया – मनुष्य की संगति में कुत्तई का गुण विलुप्त होने लगता है। देखिये न इसे पोल और टाँग में अंतर ही नहीं पता चल रहा! इस संभाषण के समाप्त होते होते कुत्ते महराज मुझे चिह्नित कर चुके थे। तब से मैं चाहे पैदल निकलूँ या कार से, कुत्ते मेरे पीछे पीछे घूमने और दौड़ने लगते हैं। मैं कइयों का इलाका बन गया हूँ।

इस संकट से मुक्ति के लिये मैं जब शर्मा जी से गुहार लगाने गया तो उन्हें कुत्ते ने घर से बाहर कर दिया। रुआँसे चेहरे के साथ उन्हों ने बताया कि कुत्ते से ब्रह्मचर्य पालन की साधना को लेकर लड़ाई हो गई है। वह चरना नहीं, अड्डाबाजी करना चाहता है, टहलना चाहता है जब कि मैं उसके बाद के दृश्य की कल्पना से ही सिहर उठता हूँ।

मैं उलटे पाँव वापस आ गया। ब्रह्मचर्य व्रत काल के समापन की प्रतीक्षा में हूँ। तब तक कुत्तों से ज्ञान प्राप्त करने में कोई बुराई नहीं। अपनी इंसानियत से कुछ तो निजात मिलेगी।
                   

बुधवार, 14 सितंबर 2011

आमार तमारो हिन्दी

...what are your hobbies?”
“Hindi literature, music, computer software, reading and writing.”
“Hindi! … writing?... I guess in Hindi?”
“Yes sir”
वे हिन्दी पर उतर आये थे।
आप राष्ट्रभाषा के बारे में कुछ बतायेंगे? भारत में राष्ट्रभाषा की अवधारणा पर कुछ कहिये।“
“सर, भारत विविधताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से अरुणांचल तक फैले इस देश की अनेक राष्ट्रभाषायें हैं जैसे कश्मीरी, पंजाबी, मराठी, तेलुगू, कन्नड़, बंगला, हिन्दी आदि। इन भाषाओं के समान्तर वे भाषायें भी हैं जिनका आम जन प्रयोग करते हैं लेकिन जो आज पिछली पंक्ति में हैं...”
”एक मिनट। आप ने अनेक राष्ट्रभाषायें कहा? Right?”
यस सर।“
“राष्ट्रभाषा तो हिन्दी है न? इतनी भाषायें कैसे राष्ट्रभाषा हो सकती हैं? ...यह आम खास का क्या चक्कर है?” उनका चौंकने का अभिनय लाजवाब था।
“सर, आप जिस अर्थ में कह रहे हैं, वह राजभाषा से सम्बन्धित है। व्यावहारिक रूप में  देखें तो हिन्दी भारत की दूसरी राजभाषा है और अंग्रेजी पहली। राजभाषा माने जिस भाषा में सरकारी काम काज होता हो, राज काज चलता हो। जहाँ तक राष्ट्रभाषा की बात है, किसी भी देश की सारी भाषायें वैसे ही राष्ट्रभाषा होती हैं जैसे सारे जन नागरिक – बराबर। राष्ट्र और राज में अंतर है। सारी राष्ट्रभाषाओं के प्रकट रूपों के पीछे उनसे पुरानी भाषायें हैं जिनमें प्रचुर साहित्य उपलब्ध है और जिनका प्रयोग आम जन आज भी करते हैं। हिन्दी को देखें तो अवधी, ब्रज, मैथिली आदि। हिन्दी माने हिन्दी क्षेत्र।“
वे पर्याप्त रूप से चौंक चुके थे।
उन्हों ने अंतिम उद्गार व्यक्त किये,” I think you are confused. You should study, rather more to know more about the fields you call your hobbies... No further questions. Thank you.”

वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र (विकिपीडिया से साभार)। 
उत्तराखंड, हिमाचल, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के कुछ क्षेत्र छूटे हुये हैं। 
विकि को सुधारने के लिये अंग्रेजी में लिखूँगा।     
कंफ्यूजन बहुत भयानक है। हिन्दी को लेकर जाने कितने दुराग्रह हिन्दी समाज पाले हुये है। स्वयं अपने क्षेत्र की भाषाओं की जिन्हें कि माता, मातामही, पितामही जैसा सम्मान मिलना चाहिये, जो अब भी ऊर्जावान, जीवंत और अधिक व्यवहार में हैं, जिन्हें लोक जिह्वा पर हमेशा जीवित रहना है, जिन्हें उसके लिये सरकारी सहयोग की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है और जो वाकई बहता नीर हैं; कितनी उपेक्षा हो रही है!

कितने ऐसे हिन्दीभाषी हैं जो किसी अन्य भारतीय भाषा को जानते हैं या जानने का प्रयास किये हैं? दयानन्द सरस्वती और कन्हैयालाल मुंशी जैसे प्रखर हिन्दी समर्थकों की भूमि गुजरात में जब मैंने गुजराती सीखनी चाही तो ऐसा उत्तर सुनने को मिला,”तमारे सीखवाने शी जरूर छे? बध्धा गुजरात हिन्दी समझता है साहब।“ (गुजराती भाई सुधार लेंगे, आज भी गुजराती समझ सकता हूँ लेकिन लिख नहीं सकता। पढ़ सकता हूँ क्यों कि उसकी लिपि देवनागरी से मिलती जुलती है लेकिन बोल नहीं पाता)। मुंशी जी के गुजराती साहित्य का हिन्दी अनुवाद पढ़ पढ़ कर निहाल होता रहा हूँ और सोचता भी रहा हूँ कि मूल तो और सुन्दर होंगे। बारहवीं या इंजीनियरिंग के दौरान मराठी से अनुवादित ‘ययाति’ को पढ़ना  एक अद्भुत अनुभव रहा। शरत बाबू की बंगला कृतियों का क्या कहना

अभी कुछ महीनों पहले लघु उपन्यास ‘अग्निपरीक्षा’ को लिखते हुये शोध के चक्कर में अचानक ही मराठी ‘गीत रामायण’ से पाला पड़ा। गजानन दिगंबर माडगूळकर रचित और ‘ज्योति कलश छलके’ प्रसिद्धि वाले सुधीर फड़के द्वारा संगीतबद्ध और गायी गयी इस गीतमाला से इतना सम्मोहित हुआ कि सात आठ दिनों तक सुनता रहा। मेरे मोबाइल में इसके कुछ गीत हैं और गाहे बगाहे सुनता रहता हूँ।

जिस सांस्कृतिक एकता में हम भारतीय बँधे हुये हैं, वह और प्रगाढ़ और आनन्दमयी हो जाय यदि हर भारतवासी अपनी एक दूसरी भाषा को भी सीखे और समझे। हम हिन्दी भाषियों का दायित्त्व सबसे अधिक है क्यों कि हमारा क्षेत्र सबसे बड़ा है और संख्या भी। आज इस ‘राजभाषा दिवस’ पर एक और राष्ट्रभाषा सीखने का संकल्प लें तो कितना अच्छा हो! अपने क्षेत्र की लोकभाषाओं का ही अवगाहन प्रारम्भ करें तो भी अच्छा हो। विश्वास कीजिये उससे हिन्दी मजबूत होगी और कृत्रिमता के आरोप से, जो कि सही भी है, बचने लायक बनेगी।

चलते चलते...

अभी जब मैं महाराष्ट्र भ्रमण पर था तो मेरे छोटे भाई साहब ने एक दिन झुँझलाते हुये बड़े भाई साहब यानि कि बी एस एन एल (नहीं लगता जी ;)) की सेवाओं पर अपना क्रोध प्रकट किया - रोमिंग में लगता ही नहीं। अंत में उन्हों ने कहा कि वैसे मोबाइल मिलाने पर व्यस्तता या नेटवर्क सम्बन्धित सन्देशों को मराठी में सुनना बहुत अच्छा लगता है। मैने पूछा – क्यों? उनका उत्तर था – कभी कभी भोजपुरी जैसी लगती है। मैं सन्न रह गया और बस इतना कहा – ठाकरे परिवार तुम्हें पा जाय तो ....