1 और 2 से आगे...
...तन्नी यानि तमन्ना वैसी ही थी जैसी बी उसकी उमर में रही होंगी। सुल्तान मियाँ की यही मुसीबत थी। पढ़ने नहीं जाती थी। उसे बी घर में ही क़ुरआन रटातीं, मज़हबी तालीम देतीं। देहाती मियों की तरह ही परदा उतना खास नहीं था। सुल्तान मियाँ न होते तो तन्नी हमलोगों के साथ दलान के अमरूद और आम के पेड़ों पर लखनी भी खेल लेती। मुझे वह बाबूजान कह कर बुलाती। मेरे आने के बाद घर के काम में उसके ज़िम्मे यह तय पाया गया कि राँधने वाले और मेरे जूठे बर्तन वह अलगा दिया करेगी। उन बर्तनों को बी अलग उकछ्न से माँजतीं, बाकी बर्तन तन्नी के लिये छोड़ दिये जाते जिन्हें उसे दूसरे उकछ्न से माजना होता। उकछ्न की छुआछूत बी के अलावा मैंने कहीं नहीं देखी।
मेरे कपड़े भी बी ही धोतीं और जब तब पीतल के लोटे में दहकते कोयले रख इस्तरी भी कर दिया करतीं। तन्नी उन्हें यह करते बहुत कौतुक से देखती। उसने मुझसे यह पूछ पहली बार चौंकाया था – बाबूजान, आप की मुसलमानी कब होगी? मुझे समझ में नहीं आया तो मैं बी से ही पूछ बैठा। उस दिन बी के मुँह से तन्नी के लिये मैंने वह मंगल गालियाँ सुनीं जिन्हें लिख नहीं सकता। फिर तो मैं तन्नी का चिढ़ौना हो गया। ‘बाबूजान, मुसलमानी दशहरे में करायेंगे। बकरे की जगह बस्स...’ कह कर खी खी करते हुये घर में चली जाती। कभी कहती – बाबूजान, करा ही लीजिये, अलग अलग बर्तन रखना और माजना तो नहीं पड़ेगा। निशान लगाने को अलकतरा भी मुझे ही लाना पड़ता है तो कभी – आप की मुसलमानी तो अब गँड़ासे से ही हो पायेगी। आप इत्ते बड़वार जो हो गये हैं। मैं बस फिस्स से हँस कर रह जाता।
इन चुहुलों की कोई गुन्जाइश सुल्तान मियाँ के घर पर रहते नहीं थी। शायद उनकी उन्हें भनक थी और वह कोई मौका तलाश रहे थे जो कि मिल गया था ...
...मेरी नींद हवा हो चुकी थी। तमतमाये सुल्तान मियाँ ने मुझे मारने को चइला उठा लिया कि बीच में बी आ खड़ी हुईं। आदमी साँप की तरह कैसे फुफकार सकता है, उस दिन मैंने सुना। असलम के अब्बा! ... तमाशा न कीजिये। अनुरोध नहीं आदेश था। मारने उठे हाथों को ज्यों किसी ने मरोड़ दिया था, सुल्तान मियाँ का चेहरा बिगड़ गया – पूछो इससे?
बी ने जवाब दिया – रंगीबाबू से नहीं तन्नी से पूछ्ना है। जाने सुल्तान मियाँ का डर था कि बी का कि अकवड़ स्थिति का, तन्नी रोने लगी। रोना कहना कम होगा, उसकी मति ही बिचल गई। बी पूछें कि क्यों कोठरी में गई थी? तो वह बस अहके और सिर हिलाये। मेरे पेट में मरोड़ें उठने लगीं। अगर बी की कोशिशों से तन्नी ने कुछ देर और नहीं बताया होता तो मैं...
ज़िन्दगी का वह पाठ मुझे बहुत कुछ एक झटके में सिखा गया। बी ने मेरे माथे का बोसा लिया और मुझसे कहा – बेटा, इंसान को अपना ईमान रखना चाहिये। जहाँ अपना ईमान दूसरे से टकराने लगे, ग़ेंड़ुआर की तरह सिमट जाना चाहिये। बाकी सब अल्ला के हाथ है। घर का माहौल बोझिल हो गया था। मुझे लगा कि अब यहाँ रहना ठीक नहीं।
तिजहर को मैं निकला और गाँव की ओर चल दिया। बीच रास्ते के जिस हनुमान अस्थान पर मैं स्कूल आते जाते मन्नतें माना करता था कि भगवान मुझे भर पेट खाने को मिल जाय और मैं बड़ा होकर हेडमास्टर बनूँ, लौटते हुये उस अस्थान पर बैठ कर अहकता रहा। अब फिर पेट काटना था।
घर पहुँचा तो काका सनाका खा गये और बड़की माई खुश हुईं। बाकियों पर कोई असर नहीं पड़ा। घर के माहौल से जी और खराब हो गया। लगा कि पढ़ाई लिखाई सब बेकार थी। सात आठ दिन बीत गये। इस दौरान मैं आवारों की तरह भटकता रहा। काका पूछते तो कह देता कि जी ठीक नहीं।
और तब बी का सनेसा लेकर असलम आया। बी ने कहलाया था कि नहीं पढ़ना तो आकर अपने कपड़े लत्ते, किताबें वगैरह ले जाऊँ। असलम ने झोली में से मेरी थाली और गिलास निकाला और बताया कि तन्नी इन्हें देख नहीं पाती, बीमार है। बी ने कहा है कि तुम खाना इसी थाली में खाना और पानी इसी गिलास से पीना, बड़े आदमी बनोगे। मेरी आँखों के आगे बड़की माई की थरिया के बारह ढेर चमक उठे थे।
भीतर हूल सी उठी और मैं सिसक उठा। हनुमान जी को मेरा पलायन स्वीकार नहीं था। काका के पैर छू मैं असलम के साथ वापस कस्बे की ओर चल पड़ा। रास्ते में हनुमान मियाँ का परिचय असलम से कराया और हम दोनों हाथ जोड़े उस राह निकल पड़े जो दूर तक जाती थी।
शाम को हम लोग पहुँचे तो बी गेट छेक कर खड़ी हो गईं। उन्हों ने कहा – बेटा, कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं। मुझे पता है कि तुम सामान वापस लेने नहीं आये हो। भीतर तन्नी को अपना चेहरा दिखा आओ। मियाँ आते ही होंगे। कोठरी बनने के बाद पहली बार मैं रिहाइश में दाखिल हुआ था। बिस्तर पर लेटी तन्नी ने मुझे देखा और हरी हो गई।
अगले दिन मेरी थाली माजते उसने कहा – यह तो बड़ी घुमक्कड़ है। वापस आ गई। बाबूजान, आप की मुसलमानी को कल्लन कसाई से बात कर ली है।
मैंने कहा - अच्छा, तो आप बीमार नहीं थीं? और हँस पड़ा। बत्तखें शोर मचाने लगीं। (अगला भाग)