रविवार, 25 मार्च 2012

लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 15


पिछले भाग से जारी....

...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता  है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। खुदाई कसौटी दूजों को कसता रहता है!...   

बाहरी संसार से सम्पर्क लगभग शून्य होने पर भी भउजी को सोहिता का पुरुख चलित्तर पता था – पदले के अवाज भले पता न चले, गन्ह त पता लगबे करेलाऽ। (पादने की आवाज भले पता न चले, गन्ध का तो पता पड़ ही जाता है)
एक रात भउजी ने रसोई में देर कर दी। इसरभर चला गया लेकिन सोहिता के आगे थाली नहीं पहुँची। मारे रीस के वह नहान चउकी पर बैठ अगोरने लगा – माँगब नाहिं, देखीं कब खयका देली? (माँगूगा नहीं, देखें कब खाना देती हैं?)
अँजोरिया टहाटह फुला चुकी थी और सुहावन रात शीतल थी। चउकी पर सोहिता उकड़ू मार अँहुवाने (ऊँघने)  लगा था कि भउजी के स्वर से चेतन हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि भउजी परोसी थाली ले वहीं आ गई थीं।
“खाईं बबुना! आजु देर हो गइल, बिजन बनावे लगलीं। (खाओ बाबू! आज देर हो गई, व्यंजन बनाई हूँ।)
थाली वाकई खास थी और सुस्वादु भी। अँजोरिया तले भोजन करता सोहिता प्रसन्न था जब कि धीमे धीमे बेना डोलाती (पंखा झलती) भउजी मौके की प्रतीक्षा में थी। उसके अँचऽ लेने (हाथ धो लेने ) के बाद भउजी ने अपनी बात शुरू की:
“बबुना! कब्बो सोचले बानीं कि बाबू के खनदान कइसे चली?” (कभी सोचे कि खानदान कैसे चलेगा?)  
 सोहिता चेतन हुआ कि भउजी ने दूसरा वार कर दिया – बड़ी बदनामीऽ हो गइल बा बबुना! घर क लींऽ। एन्ने वोन्ने मुँह मारल ठीक नाहींऽ। (बहुत बदनामी हो गई है बबुना! विवाह कर लीजिये। इधर उधर मुँह मारना ठीक नहीं)
अँजोरिया में दो जोड़ी आँखें मिलीं और दोनों सहम कर चुप हो गये। जमीन को कुछ देर कुरेदने के बाद भउजी ने बात की लुतुही (लुत्ती) फिर से लगाई – कहीं तऽ बीजनपुर सनेसा भेजवा दींऽ, हमरे नइहरे कवनो कनिया त मिलीऽ जाईऽ (कहिये तो बीजनपुर सन्देश भेजवा दूँ, मेरे मायके कोई कन्या तो मिल ही जायेगी)  और फिर अपना देवर दुलार भी जताया – रजा जइसन हमार देवर, एक बोलावे चउदे धावे! (राजा जैसे हमारे देवर, एक को बुलाऊँ तो चौदह दौड़ें!)  
सोहिता गरम हो गया – एहि खातिर खयका एतना देर से देहलू हऊ आजु? ... नीच पट्टीदारन आ रमैनी काकी के रहते हमरे गाँड़ि हरदी लागी? बीजनपुर वाला तऽ तोहऊ खातिर झाँके नाइँ आवेलें ..एगो अउरी बेटी दीहें?...ई कुलि हमसे न कहऽल करऽ आ ...(इसीलिये आज इतनी देर से भोजन दिया? ...नीच पट्टीदारों और रमैनी काकी के रहते मुझे हल्दी लगेगी? बीजनपुर वाले तो आप के लिये भी झाँकने नहीं आते...एक और बेटी देंगे?... यह सब मुझसे मत कहा कीजिये और...)   सोहिता को खदेरन का प्रस्ताव याद आया और वह जड़ हो गया।
गहरी साँस ले भउजी उठ खड़ी हुई। मन में रात का नहीं वह सन्नाटा था जो बिन किलकारी के आँगन में होता है – हमरे कारन खनदान निरबंस हो जाई! (मेरे कारण खानदान समाप्त हो जायेगा)  
दो दिनों के बाद ही हजाम गुप्त सन्देश ले बीजनपुर में था लेकिन सोहिता की शोहरत और नागिन डाँस प्रबल थे। महतारी ने हजाम को बुला कर हाल चाल तक पूछ्ने की जरूरत नहीं समझी और भाई ने सीधे कह दिया – सरापल घर में फेर से बासा कइसे परी? (शापित घर में फिर से वास कैसे पड़ेगा?)   
भउजी ने सुना और हजाम को सौंह दिलाई कि बबुना को इस बात का पता न चले। हजाम मुसकी मारता चला गया। उस रात भउजी की सेज पर केवल करवटें थीं – न रुलाई, न हिचकी और न दाहा...      
...पख बीत गया। चँवर की चरम अन्हरिया में सोहिता रमण में लगा था, साथी थी रमैनी काकी की मझली...वह अपनी इस विजय पर प्रसन्न था, बहुत प्रसन्न!
आत्मा इतनी तृप्त हुई कि उसके बाद महीनों उसने कहीं मुँह नहीं मारा।
...भउजी मन में गुँड़ार मारे अनगिनत साँपों से जूझती अलगाती रही लेकिन वे सब तो ही नागिन के सगे थे! दुनिया के सगों ने तो दगा कर दी थी!      
(भ)
भदवारा चल रहा था। काम धाम था नहीं और सबकी मोर्ही खाली। जुग्गुल के लिये यह वक्त बहुत मायने रखता था। भादो में वे बखारें खुलतीं जो सालो साल बन्द रहतीं। साँझ के बेरा टेढ़े मेढ़े अक्षर लिखी बही रोज देखता और जुड़ाता रहता। उस साल तो जैसे असमानी हाथी बिगड़ गया था। छप्पन कोटि बरखा। क्या भितऊ, क्या खपड़ा, क्या फुसऊ; सब घरों के आँगन किचिर पिचिर हो गये और ऐसे में जैसा होता है जन जनावर सब कुलबुल कुलबुल और मन में बिछली। सोची बात ऐसे छिहिलती कि पूछो न!
सत्तमी को दिन में ही घनघोर अन्हरिया कर मेह तड़प रहे थे और फुहारों का मजा लेते जुग्गुल ने बही में गौर किया सतऊ मतऊ की उधारी गहरा गई थी। बइठकी की चौकी से बाहर उसने आँख गड़ा कर जमीन को देखा। बरखा के जोर से जैसे जमीन उठ गिर रही थी। उसके मन में नेबुआ मसान की झाँखी लहरा उठी। रास्ता सँकरा हो चला था, उसे और जमीन चाहिये थी। अब तो रेहन का बाण ठाँसना पड़ेगा। वह मन ही मन हँसा –सतऊ मतऊ! जमीन के आपन सत्त होला, जुग्गुल के बही, जामल मही।(जमीन का अपना सत्त्व होता है, जुग्गुल की बही में मही जम गई है)  
“का हो काका! कल्हि के कौन तैयारी बा?” (क्या काका! कल की क्या तैयारी है?)
सोहिता की आवाज से जुग्गुल स्वप्नलोक से बाहर आया। उसने जल्दी से बही तोसक के नीचे छिपा दी। प्रकट में बोला,”तैयारी का होई? कन्हैया के तैयारी देखु, हे बरखा में का होई? तब्बो कुछ कइले जाई।”(तैयारी क्या होगी? कन्हैया की तैयारी देखो, इस बारिश में क्या हो सकता है? तब भी कुछ किया ही जायेगा।)
सोहिता पूरा भीग गया था और जुग्गुल को ऐसे समय उसके आने का कारण समझ में नहीं आया। कुसंग मन और देह दोनों को बिगाड़ता है।  अकेले घर में लेटे लेटे सोहिता का ध्यान रह रह भउजी पर जाता। नहीं रहा गया तो भाग कर अपने मीत के पास आ गया था। देह जरे त कउड़ा धावे! (देह जले तो अलाव की ओर दौड़े!)
वहाँ पहुँचने पर बात जन्माष्टमी की तैयारी से बही तक पहुँच गई और पहली बार जुग्गुल ने इयार से अपना मन खोला। नेबुआ के सामने वाले पंडितों के गोंयड़े के खेत को उसका होने में अब देर नहीं थी। बस सही वक्त की तलाश थी।
सोहित आतंक से जड़ हो गया,“काका! बभने के खेत हड़पबऽ का?” (काका! ब्राह्मण का खेत हड़पोगे?)   
जुग्गुल ठठा कर हँस पड़ा,” जर, जमीन अउर जोरू बरियारे के लग्गे अपने से चलि जालें। ए सबके कवनो जाति नाहिं होला।“ (धन, जमीन और स्त्री बलवान के पास अपने आप ही चले जाते हैं। इन सबकी कोई जाति नहीं होती।)
वह फुसफुसाया,” फँसावेले त मेहरारुन के जाति देखेलेऽ? (फँसाते हो तो औरतों की जाति देखते हो?)
फुसफुसाहट और गहरी हो गई – ...मझली त एक तरे से तोर बहिनिये लागीऽ।(मझली तो एक तरह से तुम्हारी बहन ही लगेगी)। जुग्गुल की मुस्कान वक्र हो चली -  जाति, धरम, नाता पाता सब बेकार। जिनगी ई कुल सोचले से बेमजा हो जालेऽ।(जाति, धर्म, नाते रिश्ते सब बेकार। जिन्दगी यह सब सोचने से बेकार हो जाती है।)
सोहिता उठ खड़ा हुआ। कलेजे की फाँस को जुग्गुल ने जोर से हिला दिया था। जिस तरह से आया था वैसे ही बैठके से निकल कर भागता भीगता चला गया। हैरान से जुग्गुल ने जमीन पर थूका –चूतिया सार, हमके सिखाई! (मुझे सिखायेगा!) जारी...  

4 टिप्‍पणियां:

  1. ” जर, जमीन अउर जोरू बरियारे के लग्गे अपने से चलि जालें। ए सबके कवनो जाति नाहिं होला।“
    एक चिरन्तन सत्य ....

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  2. Padle ke aawaz.......man main wo sannata jo bina kilkari ke aangan main hota hai.....kusang man aur tan dono bigarta hai....kya baat hai,aur bhado ki barsati raat main ek naye kshadyantra ki rachna ....superb!!!yeh kist ummid se pahle aa gayee hai,sukhad aashcharya hua ...likhte rahiye,hum padh rahe hain..dhyan laga kar .shabdo ka sammohan jaari rahe.dhanyabad!

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