गाँवों में 'बरम बाबा' का स्थान पाया जाता है - ब्राह्मण अनुशासन का गँवई रूप। पीपल, बरगद, पाकड़ आदि के किसी वृक्ष के नीचे सादा सा चबूतरा बना दिया जाता है। मन्नत पूरी होने पर या तर त्यौहार पर जेवनार चढ़ाया जाता है। गोंइठी की आग पर गाय के दूध में चावल डाल छोड़ दिया जाता है। दूध उफन कर बाहर गिरता है, तब प्रसाद स्वरूप इस फीकी खीर को उतार कर बाँट दिया जाता है। बाबा को लँगोट चढ़ाने की भी प्रथा है। हर पर्व त्यौहार में इस स्थान की सफाई होती है और देवताओं के साथ यह भी पहली भेंट के भागी होते हैं।
बचपन से ही इनसे जुड़ी कतिपय आतंक मिश्रित आस्था को धीरे धीरे लुप्त होते देखते आ रहा हूँ। एक समय वह था कि पीपल वाले बरम स्थान के आसपास तो क्या लोग उधर मुँह तक कर मूतते नहीं थे! केवल कुत्ते ही कभी कभी ...जिनकी पकड़े जाने पर दौड़ा दौड़ा कर पिटाई होती थी लेकिन पशु तो पशु! अगली बार मौका मिलने पर फिर...
गाँव में किसी को सफेद दाग की बीमारी हो गई तो उसका कारण यह बताया गया कि फलाने पंडित जब ब्रह्मभोज खाने के बाद नल पर हाथ धो रहे थे तो उन महाशय ने उनके हाथ के ऊपर ही अपना हाथ लगा दिया था जिससे धुलता जूठा पंडित के हाथ पर गिरा। नाराज़ होकर बरम बाबा ने पहले उनका वह हाथ और फिर पूरी देह ही धुल दी! दपादप्प उज्जर! - अन्हरिया रतियो में चमके, ओइसन! यह किसी के ध्यान में नहीं आया कि पंडित हस्तप्रक्षालन शास्त्रोक्त विधि से क्यों नहीं कर रहे थे?
यह भी सुना कि दूर देस से पैदल गाँव वापस आते किसी पुरनिया को राह भूल गई तो बरम बाबा पैना से कोंच कोंच सही राह बताये।
ओंहर नाहीं रे! हे पड़े -पहली कोंच।
निराल बागड़े हउअ? अबकी एँहर ओंहर भइल त देब दू सटहा! - दूसरी कोंच ...
अब बरम बाबा केवल स्त्रियों द्वारा ही पूजित रह गये हैं। वह भी केवल मरजाद रखती हैं और परम्परा निबाहती हैं लेकिन स्थान ठीक करने को किसी सँवाग को नहीं धिरातीं!
सदियों से चला आ रहा बाभन अनुशासन खत्म हो गया। बाबू लोगों का क्षात्र अहम नरम पड़ गया। चमटोली और दलित गाँवों के जवान अब 'बाबू सलाम' नहीं कहते, सीधे आँख तरेरते हैं, जैसे युगों युगों की त्रासदी का बदला उसी क्षण ले लेंगे। साथ ही मोहभंग भी दिखता है। कभी 15 बनाम 85 आन्दोलन की एक चाहना थी - राज बहुजन का होगा और ये सवर्ण हमारे यहाँ काम करेंगे, इनकी जनानियाँ हमारा चौका बरतन करेंगी।
चमटोली का ___ कहता है - बड़का बड़के रहिहें बाबू! उम्र में मुझसे बड़ा है लेकिन अब सलाम करने लगा है। मैं कहता हूँ - अब तो सब जातियों में बड़के होने लगे हैं। वह बात नहीं मानता और हाथ जोड़ कहता है कि उसका बेटा कम्प्यूटर में डिप्लोमा कर लिया है, कहीं कोई ठाँव नहीं। अगर आप कुछ कर देते तो ... मैं उसे समझा नहीं पाता कि इस व्यवस्था में मैं भी बहुजन हूँ और राज काज प्रभाव आदि जाति निरपेक्ष रूप से उन चन्द जनों के पास ही रहे हैं और रहते हैं जिन्हें हम बाबू कहते हैं - टाइटिल कोई हो। मगध का महापद्म नन्द भी तो ... उसे पोसा बाभन व्यवस्था ने ही। आज की बाभन व्यवस्था है – लोकतंत्र।
जिस तरह से संहिताओं में तमाम अच्छी अच्छी बातें कही गईं लेकिन राज चला अपने हिसाब से, उसी तरह अब विधान में तमाम अच्छी अच्छी बातें कही गई हैं लेकिन राज चल रहा है अपन हिसाब से। संहिताओं की बातें अब क्रूर और अमानवीय लगती हैं, क्या पता हजारो वर्षों के बाद चकतियों और थेगलियों लगे विधान को पढ़ तब के लोग यही कहें?
बरम बाबा के स्थान और घरों के दुआर अब बकरियाँ चरने लगी हैं। बरम के चबूतरे पर पीली मूत के साथ अब लेंड़ियाँ भी दिखती हैं - कोई नहीं रोकता टोकता। काका गुस्से में लाल हो कर बुदबुदाते हैं - सब नामर्द हो गइलें ... अपने गाँव का इतिहास कुरेदता हूँ - अस्पृश्यता के निबाह के अलावा दलित उत्पीड़न की कोई घटना नहीं मिलती । पिताजी के एक अंत्यज शिष्य की कही बात याद आती है - तुम्हारे गाँव इलाके में अत्याचार नहीं हुआ कभी। तो फिर फुफकार की मर्दानगी का कमाल था अनुशासन! गरीबी तो सब जातियों में थी। वर्ण व्यवस्था का बाभन अनुशासन ही कमाल करता था!
अब?
अजीब धुरखेल है। सब एक दूसरे की आँखों में झोंकने में लगे हैं। संतोष है कि सबको समान अवसर हैं! नहीं, यह नहीं - कम से कम वंचना में वर्ण व्यवस्था का रोल आधिकारिक रूप से नहीं है, हाँ अपनी जाति को प्रमोट करने की बात और है। सामाजिक क्रांति ऐसे ही तो होगी। गाँव की अस्पृश्यता अब भी वैसे है जिसकी प्रगतिशीलता होटल की चाय गिलास पर होठ निशान छोड़ हवा हो जाती है। रोटी बेटी में आपसी व्यवहार अब भी नहीं है माने बाभन व्यवस्था अब भी वहीं है लेकिन बकरियाँ आ पहुँची हैं। ये सब चर जायेंगी और परम्परा के हर पवित्र मुकाम पर लेंड़ियाँ छोड़ जायेंगी। वहाँ केवल कुत्ते नहीं, सब मूतेंगे।
सूख चके पीलेपन से विधानों के स्याह दूसरे तरीके से रचे जायेंगे। तब जब कि कभी न होने वाली क्रान्तियाँ इन द मेकिंग होंगी, हम जैसे लध्धड़ किसी पीपर अस्थान बैठ ऐसे ही मन डोलाते लेंड़ियों का हिसाब किताब करते रहेंगे... जेवनार चाभने वाले तब भी चाभते रहेंगे।
जब पूरा समाज शिक्षित हो जाय, जागरूक हो जाय तभी लोकतंत्र सफल होता है। आधा अधूरा लोकतंत्र भी प्राचीन बाभन व्यवस्था बनकर रह जाता है। यह लोकतंत्र के निर्माण का काल है। ऐसी विसंगतियाँ दिखती रहेंगी। जिसकी लाठी उसकी भैंस तब तक चलेगी जब तक सभी जागरूक न हो जांय। अत्याचार, भ्रष्टाचार अधिक होने पर विरोध होगा। सब शांत होगा तो फिर भ्रष्टाचार बढ़ेगा। इस उलट पुलट में कई पीढ़ियों को दंश सहना होगा तब जाकर एक स्वस्थ लोकतंत्र, सुंदर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होगा।
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट भी बरम बाबा की तरह कोंचती है।
@ बाभन व्यवस्था अब भी वहीं है लेकिन बकरियाँ आ पहुँची हैं। ये सब चर जायेंगी और परम्परा के हर पवित्र मुकाम पर लेंड़ियाँ छोड़ जायेंगी। वहाँ अब केवल कुत्ते नहीं मूतेंगे, सब मूतेंगे।
जवाब देंहटाएंइहै सार है बाबू साहेब
कार्यालय से बेनामी के रूप में हीं आ सकता हूँ :) ग़ज़ब..., इससे ज़्यादा कुछ भी कहना फालतू की बीसी होगी...
जवाब देंहटाएंअभी भी सीवान में बरम बाबा तो दिख जाते हैं लेकिन पुराने, नयों का निर्माण भी बंद है.
Ab logo main Aham AA GAYA ...BARAM KE LIYE GAGAH HI NAHI BACHI ...
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बंद करो बक बक - ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंकितनों को कितना याद रह जाने वाला है! नई व्यवस्था अपनी जगह खुद बना ले रही है.
जवाब देंहटाएंई लंगोटी लगाय बाला, कुटिया मं रहय बाला, राजा लोगन के किरपा पे जिये बाला, "बाम्हन को धन केबल भिक्षा" से संतुष्ट रहय बाला "बाम्हन बेबस्था" के जनक कइसे हो गइल? ई रहस्य हम आज तक ना बूझ पवलीं। रउआ सबे इतिहास उठा के देखीं, केतना राजा लोग बाम्हन रहे ? राजा त राजा, अबतारो के मामला मं बाह्मन दरिद्रे रहे। बेबस्था बनाय अ बिगाड़े मं सबल के महत्व होला ..आ बाह्मन कबहूं सबल ना भइल ...आजिये देख लीं केतना बाह्मन सबल बाड़ेन? अटल जब परधान मंत्री रहे तब अपना केतना इस्टेचू बनवलन ? माया आ कांसीराम के केतना इस्टेचू यूपी मं खड़ल बा ....ई बेबस्था के नाम का ह ?
जवाब देंहटाएं@ आ बाह्मन कबहूं सबल ना भइल ...
हटाएं:)
लाख टके की बात है :)
हटाएंसत्ता का नशा सगा ही मादक रहा है। समाज अपने जीने का अन्दाज बदल लेता है।
जवाब देंहटाएंभूत के आईने से वर्त्तमान दिखा दिया!!
जवाब देंहटाएंकाल का पहिया घूमे भैया ...
जवाब देंहटाएंहमारे गाँव का ब्रह्म स्थान तो आज भी गुलज़ार है, हाँ गाँव ज़रूर नाबाद है। पिछले साल गया था तब ब्रह्म स्थान के बाहर हनुमान जी की मूर्ति लगाई जा रही थी जो मायापुलिस की माया से अधूरी ही रह गयी थी ... क्या अब पूरी हो सकेगी? लेनिन, माओ, सद्दम के पुतले उखड़ते तो हम सब ने देखे हैं। सुना है, पुराने ज़माने में हिरण्यकशिपु अपने अलावा किसी और भगवान की मूर्ति नहीं लगने देता था। सोचता हूँ कि क्या आज ढूंढने पर उसकी कोई मूर्ति किसी संग्रहालय में मिलेगी? ...
आज भी बहुतों के लिए ग्राम्य ब्रह्म दहशत का हेतु है .......अतीत दुहराने को आसन्न है - अम्बेडकर श्याद इतनी जल्दी ब्रह्म को स्थानापन्न नहीं कर पायेगें ...मगर ब्राह्मणों को क्या कहें जो समझ कर भी नहीं समझ रहे हैं -आज ब्रह्म को सबसे अधिक खतरा ब्राहमण से ही है !:)
जवाब देंहटाएंमैं उसे समझा नहीं पाता कि इस व्यवस्था में मैं भी बहुजन हूँ और राज काज प्रभाव आदि जाति निरपेक्ष रूप से उन चन्द जनों के पास ही रहे हैं और रहते हैं जिन्हें हम बाबू कहते हैं - टाइटिल कोई हो। मगध का महापद्म नन्द भी तो ... उसे पोसा बाभन व्यवस्था ने ही। आज की बाभन व्यवस्था है – लोकतंत्र। ...
जवाब देंहटाएंरोटी बेटी में आपसी व्यवहार अब भी नहीं है माने बाभन व्यवस्था अब भी वहीं है लेकिन बकरियाँ आ पहुँची हैं। ये सब चर जायेंगी और परम्परा के हर पवित्र मुकाम पर लेंड़ियाँ छोड़ जायेंगी। वहाँ केवल कुत्ते नहीं, सब मूतेंगे। सूख चके पीलेपन से विधानों के स्याह दूसरे तरीके से रचे जायेंगे। तब जब कि कभी न होने वाली क्रान्तियाँ इन द मेकिंग होंगी, हम जैसे लध्धड़ किसी पीपर अस्थान बैठ ऐसे ही मन डोलाते लेंड़ियों का हिसाब किताब करते रहेंगे... जेवनार चाभने वाले तब भी चाभते रहेंगे।
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अरसे से यह मन में ऐसे ही उफन रहा था...आपने शब्द दे दिया...आभार आपका...