रविवार, 11 मार्च 2012

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी- 13

मेरे पात्र बैताल की तरह
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे परपूछते हैं हजार प्रश्न ।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूं उत्तर
...प्रतिदिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
  
(द)
निषिद्ध और भयावह स्थान जुग्गुल जैसों के खुराफती फितूरों की देन होते हैं लेकिन उनको स्थापित आम लोग ही करते हैं जिनके भ्रष्टाचार, स्वार्थ, दुख, सुख सभी सीमित होते हैं। उन्हें ऐसी जगहों को मान देने और उनका मान बढ़ाने में वही सुख मिलता है जो अमली को अमल में। ऐसे में जुग्गुलों को प्रतिष्ठित होते देर नहीं लगती।
रमैनी काकी के टोटके की खबर जुग्गुल को थी लेकिन उसे वह टोटका लुजलुज लगा। टाँगी(कुल्हाड़ी) का बेंट ढीला हो तो घाव अवाह(पुरजोर) कैसे लगेगा?  जुग्गुल की लँगड़चाल गाँव के हर दुवार पहुँचने लगी, लाल कपड़े, लाल टीका  – जिन सोगहो चमैनिया अस्थाने दूध चढ़वले बाड़ी, अगर खून नाहिं चढ़वली त महिन्ना बन्न। (जिस भ्रष्टा ने चमैनिया स्थान पर दूध चढ़ाया है, अगर खून भी नहीं चढ़ाया तो उसे  कभी माहवारी नहीं आयेगी।)  
पूरे गाँव का भ्रमण समाप्त करने के बाद सग्गर ब का परोसा रोट्टा खाते जुग्गुल अपने प्रयास पर मगन था, सन्तुष्ट था कि जिसने भी यह काम किया है खून क्या चढ़ायेगी, मिलने ज़रूर आयेगी।
जुग्गुल झाड़ा फिरने चँवर की ओर ही जाता था क्यों कि चाल में भचक के कारण लोटे में पानी नहीं ले जा सकता था। चँवर के पानी में ही धो धा लेता था। उसकी राह जगजाहिर थी।  सुबह के झुटपुट उजाले में जब वह पंडित टोले के पास से गुज़र रहा था तो लमजमुनिया के मोटे पेंड़ की आड़ से आवाज़ आई – रुकीं तनी (जरा रुकिये!)। देखा, सुना अनसुना कर आगे बढ़ा तो आग्रह पुकार थोड़ी तेज़ हो गई – सुनत नइखीं का? तनी रुकीं न (सुन नहीं रहे हैं क्या? रुकिये तो सही।)
जनानी आवाज़ के कारण जुग्गुल के दिमाग में भकजोन्हियाँ जलने बुझने लगीं। वह समझ गया। ठिठक कर बोला – के ह? लुकाइल काहें बाड़ू? (कौन है? छिपी क्यों हो?)
-  सनमुख का होईं बाबू? रमैनी काकी के कहले से दुधवा हमहीं चढ़वले रहलीं। आगे जौन करे के होखे, खुदे क लेब। हाथ जोड़तनीं हमरे कोखी पर कवनो बिपति न परे (सामने क्या आऊँ बाबू? रमैनी काकी के कहने पर मैंने ही वहाँ दूध चढ़ाया था। आगे जो करना हो, आप खुद कर लीजियेगा। आप से विनती है कि मेरी कोख पर कोई विपत्ति न आये।) पेंड़ की आड़ से सुबकने की आवाज़ आने लगी।
जुग्गुल कोई उत्तर दिये बिना ही झड़क पड़ा। उसे तेज़ लग गई थी। उस दिन चँवर में बहुत दिनों बाद उसका झाड़ा साफ उतरा। हल्केपन का असर उसकी लौटती चाल में भी दिख रहा था। सँवरुआ ने देख कर चुटकी ली – जुग्गुल बाबू! आज त उड़तल ऽऽ (जुग्गुल बाबू! आज तो उड़ रहे हो।)
बदले में उसने भद्दा सा गाली संकेत पाया – तोर मेहरिया हल्लुक बा । भारी क दे नाहिं त ऊहो उड़े लागी। न सपरे त बताउ (तुम्हारी औरत हल्की है। उसे भारी कर दो नहीं तो वह भी उड़ने लगेगी। तुमसे नहीं होता तो बताओ।)
(ध)
करिखही रात। कामाख्या मन्दिर के चारो ओर बहुत बड़े गोले में आग लगी हुई है - वैसा ही हल्ला है जैसे आग बुझाने के समय लोग करते हैं लेकिन लपटों की चट चट चटक लहकन के पीछे लोग दिख नहीं रहे बस हल्ला है। धुप्प अन्धेरे में भी आसमान पर छाई लाल जीभ दिख रही है। किसकी जीभ है यह? त्रिपुर सुन्दरी?
आज्ञा चक्र का लाल गोला फैलता जा रहा है। आग के घेरे में कुन्दन सी दमकती स्त्री। 
                                                                                   
माम् बलि! दहकती आँखों में भय नहीं, माँ! ले लो मुझे –बिजली की चमक के साथ अन्धेरे को चीरता चमकता खडग। गले से रक्त की धार उफन पड़ी है। मैं आ रही हूँ खदेरन! पितरों की धरती पर मैं आ रही हूँ। चारो ओर रक्त ही रक्त।... ...कौन है यह?
'सुभगा?'
'नहीं सुभगे! नहीं !!'
...माई, भिक्खन की महतारी, चमैनिया माई, कामाख्या की बुढ़िया, फेंकरनी... घेर घेर, कटे मुंड को लोकाती जनानियाँ... पाप कइले रे! पाप कइले रे!! मुखमंडल पर गर्म राख पोतती औरतें...पाप कइले रे!...       
...शय्या पर पसीने से लथपथ खदेरन जाग गये। कंठ में किसी ने बालू सा भर दिया था, आवाज नहीं निकली। मस्तिष्क फट रहा था। मन में गूँजते स्वर जैसे चारो ओर से आ रहे थे ...  भस्मांगरागायोग्रतेजसे हनहन दहदह पचपच मथमथ...पाप कइले रे...विदारयविदारयच्छिन्धिच्छिन्धि ह्रीं फट स्वाहा...
'कैसी माया माँ?'
बेचैन खदेरन घर से निकल पड़े। पलानी में मतवा और वेदमुनि गहरी नींद सोये हुये थे।
'यह कैसा स्वप्न था? सुभगा! अनिष्ट हुआ क्या तुम्हारे साथ?'
पग उन्हें खींच कर बाहर ले आये। रात अभी बहुत बाकी थी लेकिन टिमटिमाते दिये से सम्मोहित खदेरन नेबुआ मसान की ओर चल पड़े। निकट पहुँचे तो कोई लंगड़ाता जाते दिखा। सिर पर हाथ रखे एक छाया दिये के पास बैठी थी। पैर के नीचे कुछ कोमल सा पड़ा तो झुक कर उन्हों ने उठाया। हाथ खूने खून हो गया। सिर कटा परेवा(कपोत) हाथ में था।
बैठी औरत ने उन्हें देखा, दिया नहीं दिन का प्रकाश हो गया। खदेरन की आँखें फट पड़ीं – परशुराम... परसू पंडित की जोरू, महोधिया चंडी की पुत्रबधू! स्पर्श वर्जना की परवाह किये बिना बहू ने खदेरन के पैर पकड़ लिये – भाई जी, केहू न जाने(कोई न जाने!) ... क्या क्या देखना बाकी है खदेरन?... तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिये। चंडी वंश का विनाश चाहते थे न? खदेरन उलटे पाँव लौट पड़े। घर पहुँचते पहुँचते ज्वर का दाहा पूरे शरीर में फैल चुका था।
दिन उगा और सबने देखा। मुअल परेवा नेबुआ मसान, खूने खून चमैनिया बिहान। खदेरन दिन भर खाट पर पड़े तपते बड़बड़ाते रहे और जुग्गुल बुदबुदाता गाँव में घूमता रहा। रक्कत जोग – लाल कपड़ों पर भी छींटे देखे जा सकते थे।
(न)
नया बिहान माने नया जीवन लेकिन इस गाँव के लिये हर सबेरा शंका ले कर आता था। महीने दो महीने पर कोई न कोई ऐसी घटना घटती रही जो अन्धेरे को पुख्ता करती रही। पुरानी बटुली की पेंदी में जरठा बैठता रहा। नेबुआ मसान के पास मंगर को किसी की देह कभी जुलफुत हुई तो भुइली के बजाय उसे नाखून से देंह ककोरती फेंकरनी दिखी, किसी के लड़के की बहती गाँड़ धोते धोते चूतड़ लाल हुआ तो चमैनिया माई की नज़र लग गई, किसी को भरी दुपहर गेंड़ुआर का मसाला पीसती फेंकरनी दिखी तो किसी को रात में गुड़ेरवा से आँख लड़ाती चुड़ैल... नेबुओं की जड़ों में तो जैसे अमृत बरस रहा था। जाने कितने खर, पतवार, झाड़, झंखाड़ बाड़ को लाँघ चुपचाप राह को सँकरा करते रहे। जैसा कि ऐसे में होता है एक अनाम सा समझौता स्वीकार पैठ गया - वह रास्ता करीब करीब बन्द हो गया।
 जुग्गुल और सग्गर सिंघ गुलगुल होते रहे। सामने पंडितों के गोंयड़े के खेत थे। चंडी पंडित तो रहे नहीं, कभी तो ...
गाँव की शांति जुग्गुल को ठीक नहीं लगती थी। उसे दूसरे बमचक की तलाश थी। नेबुआ तो अब पौढ़ा गया था, उसका मज़ा मज़ेदार नहीं रह गया था। कुछ तो नया हो।
यह संयोग ही था कि जिस दिन परसू पंडित की घरैतिन ने भवानी को जन्म दिया, उसी दिन जुग्गुल के मन में नये मज़े की बेहन पड़ी – जिस गाँव में बाण, लाँड़ और राँड़ न हों वह गाँव अधूरा होता है। बाण माने बाण – जो दूसरों के कलेजे बेधता रहे। जुग्गुल ने खुद को इस खाते रखा और राँड़ की सोच पर वह मुस्कुराया – धुर्र बुरधुधुर! सब पता बा लेकिन राँड़ त दुसरे गाँवे के होखे तब्बे मज़ा (सब पता है लेकिन भ्रष्टा दूसरे गाँव की हो तभी मजा)। इस काम के लिये उसे एक लाँड़ की कमी अखरने लगी। लाँड़ माने जो किसी भी बिरादर की, किसी भी उमर की, किसी नाते की जनानी से सम्बन्ध बनाने में परहेज न करे। जुग्गुल को पूरा यकीन था कि कोई न कोई तो होगा ही। फिर उसे अपने ऊपर ही हँसी आई – अरे! सोहिता त बटले बा (अरे! सोहित तो है ही)। उसे खीझ सी हुई कि अब तक सोहित सिंह से उसकी क्यों नहीं छनी? (जारी)

7 टिप्‍पणियां:

  1. जियो करेजा....जियो.....बड़े दिनन बाद बाऊ कथा शुरू हुई और क्या खूब शुरू हुई....आगे भी जारी रखिये....अबकी रौ टूटे नहीं :)

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  2. इतने दिन बाद लिखने के बावजूद वही लय, वही तिलिस्म, वही रोचकता और कमाल की भाषा शैली!

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  3. चारो ओर रक्त ही रक्त। कौन है यह? सुभगा? नहीं सुभगे! नहीं !! माई, भिक्खन की महतारी, चमैनिया माई, कामाख्या की बुढ़िया, फेंकरनी... घेर घेर, कटे मुंड को लोकाती जनानियाँ... पाप कइले रे! पाप कइले रे!! मुखमंडल पर गर्म राख पोतती औरतें...पाप कइले रे!

    बाप रे ....
    इतने तिलस्म के बीच भी नीच प्रकुर्ती का व्यक्ति अपनी नीचता नहीं छोड़ता..

    क्या ये (उपन्यास) सच्ची घटना पर है.

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  4. Taangi ka bent dhila ho to......,purani batuli ke pende main zarda....,Jis gaon main baan......,Bhojpuri aur gaon,dono shabab par hain.Aap ki lekhni main wo chamatkar hai ki aap ko padhte hi aisa lagta hai ki sidhe sasharir gaon pahunch gaye ho.Adjective ki itni kami lagti hai ki apne ko bhashai daridra samajhne laga hoon.benami hoon lekin ye jaroor chahta hoon ki aap ka khoob naam ho.dhanyabad.Aage ki katha ka intejaar hai,hamesha ki tarah.

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  5. भाई मुझे भाग 11 एवं 12 नहीं मिल रहा है।मदद करे ।-डॉ गोविन्द पाण्डेय

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