गुरुवार, 1 मार्च 2012

लोक : भोजपुरी - 6: रोइहें भरि भरि ऊ... बाबा हमरो...भाग-1

भोजपुरी शृंखला की अन्य कड़ियाँ:
(5) घुमंतू जोगी - जइसे धधकेले हो गोपीचन्द, लोहरा घरे लोहसाई
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गाँव। श्रद्धा विश्वास की छाँव, नेह ठाँव। अभी सूर्योदय नहीं हुआ। जाली को भेद कानों में वही स्वर प्रवेश कर रहे हैं। सनातन संस्कार के पुरातन स्वर। उनमें अब खनक नहीं रही, वार्धक्य की थकान है। जग गया हूँ, भावुक मन भीग रहा है। नागेन्द्र हाराय, त्रिलोचनाय, भस्मांगरागाय नम: शिवाय। करुणा भर आई है – पूजावसानसमये तुलसी ...मोहमुक्त हो बेटे! जरा, मृत्यु, दुख प्राकृतिक हैं, अवश्यम्भावी ... व्याधिग्रस्त पिता न बैरागी हैं और न रागी। पुत्र की मनोदशा समझते हैं, समझाते हैं। मानस पारायण प्रारम्भ हो गया है। गम्भीर स्वर:
“वर्णानां अर्थ संघानां रसानां छ्न्दसामपि...”

मैं मोबाइल से रिकॉर्ड कर रहा हूँ और तुलसी के शब्दों पर कबीरी पसरती जा रही है। अक्षर, अर्थ, रस, छ्न्द ...रोइहें भरि भरि ऊ नयनवा, बड़ लहरी। स्तव कर बहु अर्थ भरे ...कैसा होगा वह गायक? इतना निस्संग प्रेक्षण और फिर भी कितनी करुणा! स्वयं को दिये काम ने झटक कर उठा दिया है – बस आज समय है। उसे ढूँढ़ लो। विलम्ब हुआ तो कहीं निकल जायेगा यायावर, फिर सरेह में, गाँवों में कहाँ कहाँ ढूँढ़ते फिरोगे? उठो! सोने के कपड़ों में ही अम्मा की नजर बचा भागता भैया के यहाँ पहुँचा हूँ –
“चलब हमरे संगे?”
“हँ, स्कूल त दस बजे से बा। तवले त चलि आवल जाई।“
वहीं चाय पीता हूँ और वापस लौट कपड़े बदलता हूँ। अम्मा को यह बताते हुये कि चाय पी ली है, चिंता न करना; कार स्टार्ट कर देता हूँ। अम्मा को पता है कि बछरू इस समय कुछ नहीं सुनेगा – जल्दी से चलि अइह जा। कहाँ से तोहके ई लहँगा लागि गइल? अम्मा से लहँगा लगने का अर्थ पूछने का समय नहीं है। रास्ते में भैया को बिठा लेता हूँ और हम चल पड़ते हैं...

... बड़ी नहर का किनारा, तिराहा, सिंगहा बहुत बड़ा गाँव है, कई टोले – कहाँ कहाँ भटकेंगे? भैया कहते हैं कि इन्हीं दुकानों पर पूछ लेते हैं।
“अइसन गवइया के त जनते होइहें सो।“

मैं भूदृश्य में खो गया हूँ। ऊँची भरान। टूटती हुई सी सी सड़क। दूर तक हरियाली की दीवार को बेधती सुईनुमा होती जाती सीधी नहर। लोग अभी जुटे नहीं हैं। गाड़ी किनारे कर ड्राइविंग साइड का पल्ला खोल बैठ लेता हूँ – तू जा पूछि आव, हम बइठल बानी। मोबाइल से कार स्टीरियो पर एफ एम ट्रांसमिशन कर रहा हूँ ... ए देहियाँ ले बैल बाधि बा, निरमल खेतिय होई... किस खेती उलझे हैं पिताजी? मेरी मनोदशा क्यों नहीं समझते? या समझते हुये भी ...
बाबा हमरो बगिया लगवलें, अमवा महुअवा अमरूद,
अमवा के डलिया डलिया बोलेले कोइलिया,
तोर बोलि सहलो न जाला।
जइबू त जइबू कोइलर पूरवा के देसवा जहाँ बाडें सइयाँ हमार,
जाइ कोइलर हमरे समिया से कहिह, भेजि दीहें डोलिया कहाँर...

(गायक - श्री शम्भू पाण्डेय)
..मेरे बाबा के बाग की कोयल! जाती हो तो पूरब देश जाओ। मेरे सइयाँ के देश जाओ। उनसे कहना कि बिदाई को कहार भेज दें...

लिखते नयन छलक आये हैं...भइया लौट आये हैं – पता चलि गइल।
क्या हुआ है मेरे भीतर यह सुन? किस लोक ले आये भैया? सबेर का बवंडर है, उछाह है – नाम क्या है?
“अरे, अच्छा किये हमलोग यहीं पूछ लिये। सिंगहा के नहीं हैं। जोगीछपरा के हैं।“
मैं भीतरलोक में बोल उठा हूँ – हाँ, जोगी को जोगीछपरा में ही होना चाहिये।
“नाव हे – बीगन पंडित, बीगन पांडे।“
“बीगन?”
बिगना माने भोजपुरी का फेंकना। कैसा नाम दिया माँ बाप ने? विज्ञान रखा था क्या, जो बिगड़ गया? मन में अविश्वास है। नहीं, यह नहीं हो सकता ...अकस्मात ही पिंजर प्रकाश हुआ है – बाऊलैंड में एक खदेरन पंडित भी हुआ करते थे गिरिजेश! बीगन क्यों नहीं हो सकते? मैं सकते में हूँ।

“अरे भाई, सनकारि के कइ जाने से पुछलीं हईं। दूसर केहू नाहिं बा।“
भैया को सम्भवत: अभी अचरज देने से संतोष नहीं हुआ है। बताते हैं – समाजी हैं बीगन पंडित। नौटंकी में काम करते हैं। आज भी कहीं सट्टे पर गये हैं नहीं तो यहीं मिल जाते। समाजी माने नचनिया – पुरुष जो नर्तकी का रूप धरता है। भैया के स्वर से पता चलता है कि इसके बावजूद बीगन का नाम लोग आदर से लेते हैं। फिर भी... भीतर आर्तनाद सा उठा है – भ्रम हुआ है भैया! वह गायक बीगन नहीं है!
“चलते हैं, वहाँ पहुँच कर शायद और पता चले।“

कार के पहिये अब असल देहात में हैं, जहाँ विकास के नाम पर भ्रष्ट बास फैली हुई है। खड़ंजा टूटा है, सी सी लीक गड्ढों भरी है। भरान के बाद भी चकरोड इतनी सँकरी है कि कार के गड्ढे में गिरने का डर लगता है। कहाँ है जोगीछपरा? काली माई के स्थान की ओर जाती चौड़ी चकरोड की ओर लोग इशारा करते हैं। बीगन पंडित न? हँ हँ, ऊहे टोला ह। चकरोड से मुड़ता हूँ और प्रेमचन्दी गाँव सामने है – प्रगति के हर शहरी दस्तावेज पर गुमशुदगी का अंगूठा लगाता टोला जोगीछपरा, मौजा – खुर्द मठिया!

कार आगे नहीं जा सकती। लोग लुगाइयाँ निकल आये हैं। नंगे, अधनंगे, स्कूल की ड्रेस पहनते घर से निकल कर आते बच्चे। कौतुहल साफ है। ट्रॉली पर गन्ना लादता एक मानुस सब छोड़ पास आ पहुँचा है। बीगन पंडित?
“गड़िया एहिजा लगा दीं। आगे नाइ जा पाई। केहू नाहीं छूई।“ कहते हुये वह घिर आये बच्चों को भगाते हैं।
“हमार नाव – रामू। रामू यादव।“
रामू यादव अब हमारे गाइड हैं – आईं जा।
मैं उन्हें मोबाइल पर रिकॉर्डिंग सुनाता हूँ – सुना अनसुना कर कहते हैं – हँ, हँ, ऊहे। मुझे अब भी भरोसा नहीं हो रहा।
“इहे ह उनके घर।“ कहते हुये यादव जी चिल्लाते हैं – भउजी हो! ए भउजी!!
“रउरे पाछन रुकीं जा। अब्बे बोलावतनि।“ कहते हुए अपनी भउजी को पुकारते भीतर चले गये हैं।
मैं कहाँ हूँ? कौन सा वर्ष है? सन् 20.., नहीं सन् 19.., नहीं सन् 18..। मैं काल से परे एक कालातीत गाँव में हूँ जहाँ का एकमात्र सच है – ग़रीबी।

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यह घर है? कहाँ हैं इसके द्वार। किंवाड़ तक नहीं। दरवाजे पर लटकती हुई लाल चादर परदा है। मुझे यशपाल की ‘परदा’ कहानी याद आई है – मैं दुष्ट सूदखोर पठान यह परदा खींचने आया हूँ? लाज उघाड़ने कि यह है गरीबी! यह एक कलाकार का घर है। इसकी पूँजी क्या है जिसका सूद ...

तन्द्रा टूट गई है। यादव जी भीतर बुला रहे हैं। भीतर? चलो गिरिजेश! मरजाद केवल ऊँचे महलों में ही नहीं होती।
एक कोने बकरियाँ हैं। दूजे कोने भैंस। एक कोने छ्प्पर है – रसोईघर। सिलवट प्रमाण है। चूल्हा ठंढा है। बेशर्म हो मोबाइल से स्नैप लेने लगा हूँ।

अचरज भरा भोला हास। साथ में छिपी वर्जना। ग़ृहस्वामिनी हमें देख गदगद है – फोटो काहें खींचतनिं? बइठीं जा। उन्हों ने बेंच और कुर्सी खींच इशारा कर दिया है।
“ऊहाँ के सुनि के लखनऊ से आ गइलीं हें?” – अविश्वास है। वह हमें चाय पिलाने को कहती हैं। मैं बरज देता हूँ।
“काहें, गरीबे के खरचा न होखे...” फिर वही अचरज भरी हँसी। भीतर मैं गड़ता जा रहा हूँ। तीन बच्चों ने माँ को घेर लिया है। सयानी बिटिया फोटो खींचते छिप गई है।
जाने गृहिणी को अपनी विपन्नता का एहसास है या फोटो की लाज या मरजाद की रेख ... उनका भोला अविश्वास असहज है - अतिथि है। शहरी बाबू है लेकिन फोटो...
..हाँ देवी! मुझे भी अविश्वास है। यह उस गायक का घर नहीं हो सकता। आप का फोटो नहीं लगाऊँगा – इतनी तमीज मुझमें अब आ गई है।
... लगता है कि मुझमें और रुपये दे नाचते वनवासियों का तमाशा देखने एक्सोटिक जगहों पर जाने वाले शहरियों में कोई फर्क नहीं है। निर्लज्ज ब्लॉगर!... यह तुम्हारा जवार है। देख ले!
तसदीक करने को उन्हें भी रिकॉर्डिंग सुनाता हूँ – जाने न कोइ कोइ, साहेब राउर भेदवा!
... स्त्री! तुम मेरा भेद जानती हो? मैं कौन साहब हूँ? क्यों आया हूँ?...

भोले छाहीं भरे गौर चेहरे को घेरे उड़ते भूरे केश। सौन्दर्य! इतनी विपन्नता में!!... रिकॉर्डिंग सुनते स्त्री के चेहरे पर अपरिचय सा दिखता है। सही है – वह गायक बीगन नहीं हैं। अपने अविश्वास को पुख्ता कर ही रहा हूँ कि पुन: वही भोला हास – हँ, ऊहें के हईं। हम केतनो कहीं, हमके नाहीं सुनावेलीं।
यादवजी अनुमति लेते हैं – टट्टर हारन देता। अब हम चलीं। ... हाँ।
मैं और भइया बैठ गये हैं। बात कर रहा हूँ। मतवा भूमि पर बैठी सब बता रही हैं। दीवार पर दो मोबाइल नम्बर लिखे हैं लेकिन बिजली नहीं है।
नम्बर लगाता हूँ – स्विच ऑफ। भैया अपने स्रोतों से पता लगाने बाहर निकल जाते हैं।

मतवा अब सामान्य हैं। कोट सूट का अपरिचय समाप्त हो गया है – यह आदमी बिरेंच पर बैठ सकता है। कsल का पानी गरीब गिलास में पी सकता है। घोरठ गाँव का बबुआन है, अपने इलाके का ही है।
हम बच्चों की पढ़ाई, पशुपतिनाथ, काठमांडू, नौटंकी, लोगों के प्यार ...और जाने क्या क्या बातें कर जाते हैं। अपना नम्बर देता हूँ - आने पर बात करने को कहता हूँ। गायक को अपने गाँव आने का निमंत्रण देता हूँ। वह आश्वस्त करती हैं। भैया ने पता लगा लिया है। कुइयाँ गाँव के एक समाजी परिचित हैं। उनसे पता चला है कि बैटरी डिस्चार्ज हो गई है इसलिये मोबाइल स्विच ऑफ है। अभी हिसाब नहीं हुआ है, इसलिये कब वापस आयेंगे, नहीं पता।
मतवा बताती हैं कि सिवराति में कहीं बाहर जाना था इसलिये मैंने एकतारा और करताल रखवा लिया था, वरना बाहर बाहर ही चले जाते। मतवा को मेरा शेड्यूल पता है। वह आश्वस्त करती हैं कि बिना मुझसे मिले उन्हें नहीं जाने देंगी। मेरे भीतर अभी भी अविश्वास का लेस है। एकतारे करताल का फोटो लेने को कहता हूँ।
फिर से वही भोला हास उनके चेहरे पर पसर गया है – ओकर फोटो? उजारि के धइल बा।
डीअसेम्बल्ड है तो क्या? मुझे फिर भी फोटो लेना है।
मैंने हाथ जोड़ लिये हैं। वह फिर से आश्वस्त करती हैं कि अवश्य भेजेंगी। भीतर कहीं लज्जित हूँ – अपनी भीतरी लफ्फाजियों से - बच्चे के हाथ मैंने कुछ रख दिया है – मिठाई खाना।
“अरे! एकर कवन जरूरत?”

मैं आश्वस्ति में सिर हिलाता हूँ। मैं परदा कायम रखूँगा – मैं कहानी का पात्र नहीं, वास्तविक मानुस हूँ। बच्चों से घिरी वह लाल परदे को हटा घर के ‘मुख्य द्वार’ पर खड़ी हैं। अंतिम बार देखता हूँ और बहुत ही गहरे उतनी ही गहरी पीड़ा को समेटे मुस्कुराता चल देता हूँ ...
...कई बच्चे कार को घेरे खड़े हैं। मुड़ कर देखता हूँ – वह तो हमें छोड़ने आ रही हैं। अतिथि सत्कार की ग्रामीण मर्यादा अभी भी बची हुई है। उनकी आँखों के आग्रह को पढ़ लेता हूँ - बच्चे को स्कूल छोड़ देते।

“क्यों नहीं? आज तो वह हमारा राजकुमार है। आओ।“

कार के धूल पगे पिछले शीशे पर मासूम अंगुलियों ने कई इबारते रच दी हैं। आज के दिन शहर गाँव आया है।
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“हमें स्कूल छोड़ दोगे साहेब?”
आँखें छलछल हैं। छिपा कर पोंछ लिया है मैंने – राजकुमार! तुम आगे बैठो, भैया की गोद में। बाकी सब पीछे। खासी मशक्कत के बाद सब सवार हो पाये हैं।
मिलन की आस लिये कार चल दी है। बाबा हमरोs ...

... स्कूल की ओर जाती टूटती इकलौती सी सी सड़क पर दावे के दो शिलापट्ट लगे हैं - हम दगाबाजों के कारनामों के अक्षत सबूत। हम कालातीत हैं ...

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बाय, बाय! बच्चों!! पढ़ लिख कर धनी बनना - चाहे कुछ भी करना पड़े। (अगले भाग में जारी)

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई में "परदा" कहानी नए परिवेश में जीवंत हो चली है ........

    इसका अगला भाग बहुत ही जल्दी आना चाहिए और वो भी पूरा डिटेल में.................!

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  2. – जाने न कोइ कोइ, साहेब राउर भेदवा!
    मॉल, मैकडोनाल्ड और माचो से गाँव, गरीबी और गायन तक का सफर...
    सब कुछ संक्रामण का शिकार... भला है गाँव ने अभी बहुत कुछ बचा के रखा है

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  3. प्राणेर व्यथा और कारुणिकता! क्या कहें और क्या न कहें!
    कितनी विसंगितियाँ विछोह और विडम्बनाओं में बसा पला बढ़ा है हमारा जार जवार...कलेजा मुंह को आता है ..
    और आपकी हिम्मत को दाद कि उन्ही मंजरों का दीदार कर रहे हैं .....

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  4. ओह.....एकदम पहुंच गया हूं उस जगह....। इतना जीवंत और स्नेह से रचा पगा विवरण है कि क्या कहूं। निशब्द:।

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  5. सूक्ष्मतम भावनाओं को बहुत खूबी से पकड़ते और प्रकट करते हैं आप !

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  6. ओह............सालों बाद सुना एकतारा..........और बिलकुल वैसी ही धुन....

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  7. इतना समय लगा कमेन्ट करने में सिर्फ इसलिए कि उस एहसास से बाहर आना ज़रूरी था... सारा का सारा डेस्क्रिप्शन ऐसा मानों कोई फिल्म चल रही हो.. और बैकग्राउंड में आपकी कमेंट्री गूँज रही है.. जो तस्वीर दिखी वो भी और जो न दिखी वो भी साफ़-साफ़ चल रही थी, बोल रही थी, बतिया रही थी.!!!

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  8. मन भीगा है पर प्रसन्न है, आशावान भी!

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  9. कितना बीता घूम के लौट आया, मैं जितना आगे निकलता जाता हूँ, पीछे पर उतना गर्व बढ़ता जाता है।
    गिरिजेश जी, आभार एक छोटा शब्द है, बहुत छोटा।
    आज टिप्पणी नहीं दूँगा तो चलेगा?

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  10. रुला दिया मेरे भाई, एक एक शब्द अन्दर तक कुरेद गया, अपना रीता-बीता सब याद आ गया.

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