गुरुवार, 8 मार्च 2012

लोक: भोजपुरी- 8: कस कसक मसक गई चोली(निराला) और सुतलऽ न सुत्ते दिहलऽ(लोक)

आज मदनोत्सव है - फागुन महीने की अंतिम तिथि। मदन जो कि अनंग है, जिसमें वह मद है जो मन को बहकाता है, जो देहाभाव की पूर्ति हर प्राणी के अंग अंग समा कर करता है और जिसके दमन हेतु समाज संहितायें गढ़ता रहा है। स्थान स्थान होली जला वसंत की बिगड़ी बयार शुद्ध कर दी गई है और हम नवरस का सन्देश ले एक पक्ष बाद आने वाले नवसंवत्सर का स्वागत करने को तैयार हैं। कल से चैत चढ़ रहा है, वही चैत जिसके बारे में कहा गया है – चुअत अन्हरवे अँजोर, देहियाँ टुटेले पोर पोर। वही चैत जिसमें हल बेच कर भी सजनी के लिये सजन हार गढ़वाता है। इस लास्य की भूमिका है फागुन माह की होली।
होली देहपर्व है, मनबढ़ई का पर्व है। निषेधों और वर्जनाओं की बरजन का पर्व है, बरजोरी का पर्व है। यह देह के भूगोल के अनुसन्धान का पर्व है, मिलन का पर्व है। समूची सृष्टि जैसे उन आदिम भावों के उफान लिये मचल उठती है जिनके चारो ओर शेष वर्ष घूमती रहती है। यह पर्व प्रकृति से पुरुष के, पर्जन्य से भूमा के, सूर्या से सोम के, यिन से यान के, प्रवाह से श्यान के, लाज से उघार के, संकोच से विस्तार के , नर से नार के मिलन का पर्व है।
साहित्य और लोक के रसिया जन ने इस बारे में बहुत कुछ लिखा-गाया-बजाया है। ऐसे ही एक रसिया थे हिन्दी के महाप्राण कवि निराला। उन्हों ने 22 मार्च 1932 को बनारस से प्रकाशित पाक्षिक जागरण में अपनी रचना ‘होली ’ को प्रकाशित करवाया। बनारस तो रसराज है जहाँ जयशंकर प्रसाद की छाँव में बैसवाड़ी निराला को उस समय ठाँव मिली थी जब वे गुप्तरोग से पीड़ित थे जिसका कारण पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ द्वारा बहकाने पर वेश्यागमन था।
रचना बहुत प्रसिद्ध हुई। उसमें बिना किसी छायावादी छिपाव के उद्दाम वासना का उन्मुक्त चित्रण था। उतरते वस्त्र थे, करस्पर्श से कठोर होते उरोजों के कारण कसकती मसकती चोली थी, अधरों पर दंतचिह्न थे, सुरत का श्रम था और रतजग्गे के कारण लाल लाल आँखें थी यानि सेज पर पिय के साथ रात भर खेली गई होली थी। अपनी लय योजना के कारण यह मुझे बहुत प्रिय रही है। इसे चौताल पर इस तरह से विस्तार देते हुये गाया जा सकता है (गा नहीं रहा क्यों कि चौताल न तो एकल गायन है और न इसे बिना वाद्यों के, बिना लिहो लिहो किये गाया जा सकता है)।
सखि, लाल गुलाल हो लाल गुलाल
नयनों के डोरे लाल गुलाल भर खेली होली
अरे होली, लाल गुलाल हो होली
जागी रात सेज प्रिय पति संग,
जागी रात सेज प्रिय पति संग
रति सनेह रँग घोली , हँस खोली
अरे होली, लाल गुलाल हो होली
मलि मुख चुम्बन रोली ....
बहुत दिनों के बाद पहली बार जब यहाँ प्रस्तुत नये जमाने के एक भोजपुरी गीत को सुना तो मस्त हो गया! निराला के गीत पर लोक का यह गीत भारी था। इसमें केवल दो जन की वयक्तिकता नहीं थी, इसमें परिवार का माहौल था, लोक के प्रवाद की छाया थी, प्रकृति का हस्तक्षेप था और उन सबके बीच उन्हीं को संकेतित कर अपनी बात कहती, बरजती रात भर के सुरत से थकी नायिका थी। इस स्वाभाविकता के आगे निराला की रचना सायास रची सी लगी।
निराला संकीर्ण से लगे, केवल रतिक्रीड़ा पर केन्द्रित लेकिन भोजपुरी गीत में परिवेश को जोड़ता लजाता उल्लास था, पूर्ण सम्भोग के चक्रों के पश्चात प्रिय के ऊपर उड़ेला जाता स्नेह था।

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !

जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
मली मुख-चुम्बन-रोली ।
 
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-
कली-सी काँटे की तोली ।
 
मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-
बनी रति की छवि भोली ।
 
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली ।
छोड़ऽ छोड़ऽ कलइया सइयाँ भोर हो गइल
तनि ताक ना अँगनवाँऽ अँजोर हो गइल।
 
गते गते घरवाऽ के, लोग सब जागल
बोलेले चुचुहियाऽऽ, पह बाटे फाटल
सुनऽ कुकड़ू कू मुरगा के शोर हो गइल।
छोड़ऽ छोड़ऽ ....
 
सुतलऽ न सुत्ते दिहलऽ, बीतल रइनिया
हमरा त गोड़वा में, पऽरल झिझिनियाँ
थोरे थोरे दरद पोरे पोर हो गइल।
छोड़ऽ छोड़ऽ ....
 
अब जनि राजा जी तू करऽ सरहँगई
मन भरि कइ ले ले, बाड़ऽ दबंगई
बड़ा भारत पिरितिया ल शोर हो गइल।
छोड़ऽ छोड़ऽ ....
...सुरत के कई चक्रों के बाद भी मन तो है लेकिन नायिका समझदार है। वह भरे पुरे परिवार में आई नवब्याहता है जिसे मरजाद का भी खयाल है कि दिन उगने तक अगर सइयाँ घर में ही रहे तो लोग क्या कहेंगे? वह घर की नवेली लक्ष्मी है, स्वयं भी तो दिन उगने के बाद सोई नहीं रह सकती! साजन तो जबर है। उसे बरजते हुये भी अपनी चाह को बयाँ सी करती है कि अगली रात तक विराम लो, आँगन में अँजोर हो गया है, चहचहाने वाली छोटी चिड़िया शोर मचाने लगी है और इधर उधर घर के लोग जागने लगे हैं, अब तो मेरी कलाई छोड़ो!
इस भोजपुरी गीत में, निराला के विपरीत, कामांगों का विवरण नहीं है, केवल लक्षण बता कर ही रस सृजन किया गया है। लोक की स्वाभाविकता अपने पूर्ण रूप में प्रस्तुत है जिसमें प्रकृति का संगीत है – चुचुही बोल रही है, पौ फट रही है, मुर्गा बोलने लगा है। तुम न खुद सोये और न सोने दिये जब कि पूरी रैन बीत गई। सुरत थकान के कारण मेरे पैरों में झिनझिनी भर आई है, शरीर के पोर पोर में थोड़ा थोड़ा दरद, मीठी पीर भर गई है।
जिन लोगों ने ऐसे सुरत का आनन्द लिया है, बहुत आसानी से इससे स्वयं को जोड़ पाते हैं। यहाँ चुम्बन बताने के लिये रोली की आवश्यकता ही नहीं है! अंग विवरण अनावश्यक है कि केश खुल गये, आँख मुँद गई। निराला के यहाँ दीपक बुझता है जिसके साथ ही देह द्युति समाप्त हो जाती है जब कि लोकरचना में भोर का अँजोर है, नेह प्रकाश की सूक्ष्मता है और देह तो प्रिय के ऊपर मुग्धभाव में लुप्त है। सजनी को अपने बलम पर नाज़ है।
भोजपुरी के बस दो अनूठे शब्दों के प्रयोग से ही नायक के गुण उकेर दिये गये हैं जैसा कि हिन्दी में हो पाना कठिन है। सरहँग कहते हैं ऐसे पुरुष को जो अपने गुणों और कर्मों की लोक समाज द्वारा निरंतर सराहना और आदर किये जाने के कारण प्रभावशाली हो जाता है। नवेली अब अपने पति से यह तो सीधे कह नहीं सकती कि आप रतिक्रियानिपुण हैं और मुझे थकान के स्तर तक संतुष्ट कर दिये हैं! वह पति की लोकप्रचलित विशेषता सरहँगई को बयाँ करते हुये दो लक्ष्य साध लेती है – सराहना भी और वर्जना करते हुये लाज की छिपी अभिव्यक्ति भी। साथ ही याद भी दिला देती है कि तुम्हारा बाहर बहुत आदर है, इस तरह दिन उगने तक घर में घुसे रहोगे तो बदनामी होगी।
लेकिन फिर उसे लगता है कि बात अब भी अधूरी रह गई। मर्द मानुस तो संकेत समझने में मूर्ख होता है। आगे दबंगई की बात करती है – दबंग नकार भाव लिया हुआ गुण है, अपनी बात बरजोरी से मनवा लेने वाला दबंग कहलाता है। पिया की सरहँगई में दबंगई का जोग ऐसा ही है जैसे बढ़िया रसोई में नमक का स्वाद! उसके अहम को संतुष्ट भी कर देती है तुमने तो मनमानी कर ली अब तो छोड़ो!
और देखिये कैसे एक वाक्य से ही अपने पिया के प्रेम पर गर्व, उसके रसिया स्वभाव की प्रसिद्धि और अपनी संतुष्टि को कह जाती है – बड़ा भारत पिरितिया ल शोर हो गइल – सब ओर हमारे प्रेम का हल्ला मच गया है (तुम्हारा प्रेम इतना पूर्ण है!)। निराला की रचना इसके आगे वाकई ठिठोली सी लगती है।
सुनिये अब गीत:


(स्वर सम्भवत: मदन राय या भरत शर्मा व्यास का है और कॉपीराइट टी सीरीज। मेरी सी डी कहीं खो गई है नहीं तो पूरी सूचना देता)
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रंगपर्व की नंगानंग शुभकामनायें!
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हमारे घर होली की शुरुआत! श्रीमती जी नहा धोकर पूजोपरांत मेरे मुँह मालपुआ बनाने के लिये फेंटा गया मलाई मैदा और अबीर पोत गईं, तब जब कि मैं ब्लॉग लेख फाइनल कर रहा था! बहुत नाइंसाफी है! सजा जरूर मिलेगी।

18 टिप्‍पणियां:

  1. इस पोस्ट को होली पर ब्लॉग जगत को दिया आपका एक नायाब तोहफा कहा जा सकता है। तुलनात्मक व्याख्या इतनी सशक्त है कि महाकवि निराला की प्रसिद्ध कविता भी कमतर लग रही है! पॉडकास्ट सुनकर भी आनंद आ गया। वाह! ब्लॉग जगत की होली तो आज बन गई इस पोस्ट से।..आभार।

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  2. आखें नशीली लग रही हैं..देखिये भांग भी घोट कर पिला दिया गया है:)आप तो गये काsssम से:)

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  3. इस भोजपुरी गाने को कहीं सुना जरूर था। फिर से याद आ गया।

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  4. काश हम होते भाभी जी को रंगने के लिए !!!!!!!!!
    अरसा हो गया ..............................

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  5. काश हम होते भाभी जी को रंगने के लिए !!!!!!!!!
    अरसा हो गया ..............................

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  6. कितना सुन्दर है ये सब !

    इतनी सारी ब्लॉग्गिंग के लिए हमेशा समय निकाल लेना, और बिना गुणवत्ता घटाए |
    आप में वाकई कुछ असाधारण है | जीवन में कभी आपके साथ होली खेलने का मौका जरुर निकालूँगा | पर पता नहीं कब ;-)

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  7. व्याख्या प्रभावी है. आनंद का संचार हुआ.

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  8. व्याख्या प्रभावी है. आनंद का संचार हुआ.

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  9. 'मेरे मुँह मालपुआ बनाने के लिये फेंटा गया मलाई मैदा और अबीर पोत गईं..'
    - रिपोर्ट अधूरी है - एक तरफ़ा आरोप न्यायोचित नहीं होता!

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  10. गीत तो एक मित्र (..) के माध्यम से पहले सुन चुके हैं, उसको निराला की कविता का मिलान जैसे आपके चित्र के साथ उस नायेका के चित्र का मिलान.... सुभान अल्लाह, भाई होली रीत गयी, पर खुमारी अभी बाकी है, हम तो सोच रहे भाभी का फोटू लगा है, जुगाड भिड़ा रहे थे लक्लउ आने का..... परनाम स्वीकारिये.

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  11. व्याख्या गिरिजश्य ... :) .गीत उम्दा ही नहीं, गाया भी बहुत अच्छा है ....रागात्मकता निखरी पड़ रही है ..मैं भी इस बार की होली पर गाँव गिरांव में बहुत कुछ छोड़ आया हूँ तिस पर आपकी यह पोस्ट बड़ी बीस पड़ गयी है! बस इक उश्वास!

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  12. जय हो प्रभु ! बहुत लैग से पोस्ट पढना हो रहा. है... और ऐसी पोस्ट नहीं होती... तो कब का 'मार्क आल एज रेड' दबा देता. आपके चक्कर में कई ऐसी-वैसी पोस्ट भी पढ़ लेता हूँ :)

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  13. अभिषेक जी से शब्द चुरा रहा हूँ।
    :)
    बाकी क्या है, घर से लौट के देर से पढ़ा जा रहा है।

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  14. भोजपुरी गीत सदैव ही आकर्षित करते हैं और ऊपर से इस फगुनियाहट में आपकी व्याख्या।
    मज़ा आ गया धन्यवाद

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