बीते दिनों अपरिहार्य कारण से गाँव भागना पड़ गया इसलिये कोणार्क यात्रावृत्त लेखन में व्यवधान पड़ा। आप को स्मरण होगा कि हम चन्द्रभागा से कोणार्क सूर्यमन्दिर की ओर निकले ही थे...
...गाँव में लगे हाथ मैंने अपने भतीजे का जन्मदिन भी मना लिया जो कि 6 जून को पड़ता है।
...सूर्यमन्दिर को देखने पर सबसे पहले एक उच्छवास निकलती है जिसमें भव्यता पर चकित होने के भाव के साथ यह पीर भी होती है कि यदि यह ध्वस्त नहीं हुआ होता और तब यह कौतुहल जगता है कि कैसा रहा होगा मन्दिर अपनी सम्पूर्णता में?
इस भाग में कौतुहल शांत करने का यत्न है। यात्रा तो चलती रहेगी...
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सूर्य प्रतिमा के ढेर सारे चित्र मिलते हैं किंतु जो काम का मिलता है वह दो टुकड़ों में है। प्रतिमा का अर्धांश सूर्य किरणों से प्रकाशित है। इनका चयन संकटकारी है क्यों कि दोनों भागों को जोड़ने में बहुत समय जाता है। तब भी हमलोग परिणाम से संतुष्ट हैं।
अंतत: यह रहा पुनर्निर्माण। महान शिल्पी बीसू, उनके पुत्र धर्मपाद और शिल्पी साथियों को डिजिटल युग के एक पिता पुत्री की अति लघु श्रद्धांजलि ...
...गाँव में लगे हाथ मैंने अपने भतीजे का जन्मदिन भी मना लिया जो कि 6 जून को पड़ता है।
...सूर्यमन्दिर को देखने पर सबसे पहले एक उच्छवास निकलती है जिसमें भव्यता पर चकित होने के भाव के साथ यह पीर भी होती है कि यदि यह ध्वस्त नहीं हुआ होता और तब यह कौतुहल जगता है कि कैसा रहा होगा मन्दिर अपनी सम्पूर्णता में?
इस भाग में कौतुहल शांत करने का यत्न है। यात्रा तो चलती रहेगी...
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कोणार्क सूर्यमन्दिर के प्रधान शिल्पी का नाम बीसू महराना था जिनके नेतृत्त्व में 1200 शिल्पकारों ने राजा नरसिंहदेव के साथ बारह वर्ष में सूर्य मन्दिर पूरा करने की संविदा की थी। राजा ने राज्य के 12 वर्षों के कराधान के बराबर की पूँजी इस काम के लिये नियत की थी। 12 की संख्या का सम्बंध द्वादश आदित्यों से हो सकता है।
पिता पुत्र ने उस युग में मन्दिर को पूर्ण किया और हम पिता पुत्री इस डिजिटल युग में बिना किसी राजा और बिना अथाह पूँजी के एक ध्वंस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। बीसू महराना के बालक पुत्र धर्मपाद के आत्मबलिदान की करुण कहानी आगे बतायेंगे।...
...मैं नेट पर पुराने चित्र ढूँढ़ने में लग जाता हूँ और पुत्री फोटो शॉप पर अपने यंत्र तंत्र...
काम का पहला चित्र मिलता है स्कूल ऑफ प्लानिंग ऐंड आर्किटेक्चर के छात्रों की एक प्रस्तुति में जिसमें मन्दिर का प्लान (क्षैतिज योजना) दर्शाया गया है। देखिये:
पूर्वाभिमुख मन्दिर नागर शैली की ओडिशा उपशैली में बना था जिसमें दक्षिण की भाँति गोपुरम नहीं वरन गर्भगृह का शिखर सबसे प्रमुख और ऊँचा होता है। शिखर पर्वतों की चोटियों की भाँति बनाये जाते हैं जिनके शीर्ष पर आँवले के फल सदृश आमलक पत्थर, कलश और ध्वज होते हैं।
सबसे आगे नृत्य मंडप (नट मन्दिर) था जो कि मुख्य मन्दिर के आधार से असम्पृक्त था। यहाँ देवदासियों के नृत्य के अतिरिक्त और सांस्कृतिक गतिविधियाँ होती थीं। इसमें द्वार तो थे किंतु कपाट नहीं थे अर्थात यह चारो ओर से खुला हुआ था जिससे कि जनता सब ओर से नृत्य देख सके। इसका मुख्य द्वार तीन भागों में विभक्त था जिनसे होकर प्रात:कालीन किरणें सम्मुुुख के जगमोहन से होते हुये गर्भगृह की प्रतिमा पर पड़ती थीं। तीन द्वारों में से किस द्वार से किरणें प्रवेश करेंगी, यह इस पर निर्भर था कि अपने वार्षिक चक्र में सूर्य किस राशि पर हैं।
मुख्य मन्दिर और नृत्य मंडप के बीच लगभग 10-11 मीटर ऊँचा अरुण स्तम्भ था जिसके शीर्ष पर सूर्य सारथी अरुण की प्रतिमा थी। यह स्तम्भ जगमोहन प्रवेश द्वार की पूर्व-पश्चिम केन्द्ररेखा से हट कर रहा होगा, सम्भवत: नृत्य मंडप के पूर्वी प्रवेश द्वार को तीन भागों में बाँटने वाले स्तंभों में से किसी एक स्तम्भ की सीध में जिससे कि इसकी छाया गर्भगृह में न जाय। मुख्य मन्दिर का जगमोहन भाग सभा मंडप भी कहा जाता है जिसमें विमर्श या अनुष्ठान हेतु सभायें जुटती होंगी।
जगमोहन के आगे गर्भगृह है जिसमें मुख्य प्रतिमा स्थापित थी। इस सूर्य मन्दिर की विशेषता यह थी कि प्राची को छोड़ गर्भगृह चैत्य की तीन दिशाओं में सूर्य की क्रमश: प्रात: (दक्षिण), मध्याह्न (उत्तर) और अस्ताचल (पश्चिम) प्रतिमायें स्थापित थीं, जिन पर आकाश में भ्रमणशील सूर्य की किरणें क्रमश: इन समयों पर पड़ती थीं। अब ये प्रतिमायें भिन्न दिशाओं में स्थापित हैं और पर्याप्त सुरक्षित हैं।
वर्तमान में कलश के अतिरिक्त जगमोहन सुरक्षित है और छत के अतिरिक्त नृत्य मंडप, शेष सब कुछ ध्वस्त हो चुका है।
इसके पश्चात अंग्रेजों के बनाये दो चित्र मिलते हैं जिनसे यह पता चलता है कि 13 सितम्बर 1820 और 1847 में भी गर्भगृह का कुछ भाग ध्वस्त होने से बचा रह गया था। इन चित्रों से यह अनुमान लग जाता है कि मुख्य विमान आकृति में नागर शैली के मन्दिरों की भाँति ही था।
नेट पर ही एक पुराना रहस्यमय सा चित्र मिलता है जो कि फोटोग्राफ होने का आभास देता है। चूँकि सन् 1820 में भी मुख्य विमान ध्वस्त दशा में था, यह चित्र उससे बहुत पहले का है और स्पष्टत: फोटोग्राफ न हो कर किसी प्रकार की काष्ट नक्कासी या पेंटिंग ही है। इसमें मुख्य विमान सम्पूर्ण दिखता है किन्तु पार्श्व का छोटा उपमन्दिर विमान जिसमें कि सूर्य की उल्लिखित तीन प्रतिमाओं में से एक स्थापित रही होगी, ध्वस्त होने का आभास देता है। जिस प्रकार से वनस्पतियाँ दर्शाई गई हैं, निश्चित हैै कि यह किसी प्रशिक्षित यूरोपीय हाथ की कृति है और यह भी कि उस समय मन्दिर का रखरखाव नहीं हो रहा था। हम तय करते हैं कि यही कालखंड पुनर्रचना का आधार होगा।
मैं पुत्री को स्मरण कराता हूँ कि वर्तमान में अरुण स्तम्भ पुरी जगन्नाथ मन्दिर के पूर्वी द्वार के सम्मुख स्थापित है जिसे मराठे वहाँ ले गये थे और मैंने उसे दिखाया भी था। इसकी परिधि वृत्ताकार नहीं, सोलह भुजाओं वाली बहुभुज है। नृत्य मंडप की सीलिंग पर स्थापित कुंजिकाप्रस्तर का गोला भी सोलह भागों में विभक्त था जो कि अब किनारे पड़ा हुआ है। नेट पर स्तम्भ का यह स्पष्ट चित्र मिलता है:
नृत्य मंडप के लिये हम अपने खींचे पैनोरमा चित्र पर भरोसा करते हैं। फोटोशॉप में चित्र और फोटोग्रॉफ को मिश्रित करना सरल होता है।सूर्य प्रतिमा के ढेर सारे चित्र मिलते हैं किंतु जो काम का मिलता है वह दो टुकड़ों में है। प्रतिमा का अर्धांश सूर्य किरणों से प्रकाशित है। इनका चयन संकटकारी है क्यों कि दोनों भागों को जोड़ने में बहुत समय जाता है। तब भी हमलोग परिणाम से संतुष्ट हैं।
मैं बेटी को बताता हूँ कि परित्यक्त मन्दिर की स्थिति वनस्पतियों के सहसंयोजन से दिखाये। कुछ पौधे मन्दिर के शिखरों पर भी दिखें और ध्वस्त उपमन्दिर का वह भाग जिसमें सूर्य प्रतिमा स्थापित दिखे, वनस्पतियों से घिरा आच्छादित हो जिनके भीतर से पत्थर शिल्प झाँकता दिखे। सूर्य प्रतिमा को इस प्रकार से कोणित कर के स्थापित करे कि पैनोरमा में विषम न दिखे और साथ ही आधे भाग पर पड़ती सूर्य किरणों का प्रकाश दृश्य हो।
नृत्य मंडप की ऊँचाई जगमोहन से अल्प रही होगी किंतु आधार का चत्वर समान ऊँचाई का दिखना चाहिये जो कि आज भी है। अरुण स्तम्भ की ऊँचाई अवश्य ही शिखरों से अल्प रही होगी, किनारे रहने के कारण स्यात उस पर भी सूर्योदय की पहली किरणें पड़ती होंगी।
... तो यह रहा पहला प्रयास:
"... नहीं बेटी! नृत्य मंडप को तो तुमने पूर्णत: जगमोहन की अनुकृति बना दिया! स्मरण रहे कि उसका घेरा खुला हुआ था। फोटो से उस भाग को लो। केवल छत को जगमोहन से ले कर स्केल कर दो। ...वनस्पतियों की एकरूपता निश्चित करो। अरुण स्तम्भ तो दिखाया ही नहीं! ... सूर्य प्रतिमा को थोड़ा और दक्षिणावर्त घुमाओ। कलश कॉपी कर के ठीक लगाया! खंडहर हुआ उपमन्दिर और वनस्पतियाँ ठीक आई हैं।"
पुन: प्रयास कुछ इस प्रकार :
"नहीं... शिल्पियों ने तो कॉपीराइट नहीं किया था और उन लोगों ने भी नहीं जिनके चित्रों से हमें इतनी सहायता मिली।... क्या पता कल को कोई और इसे और सँवारना चाहे? अभी भी प्रकाश प्रभाव उतना अच्छा नहीं आ पाया है। नहीं? ... वैसे जैसी तुम्हारी इच्छा।"
बेटी को उसका स्पेस तो मिलना ही चाहिये।
aapko aur aapki putri ko aabhaar :) dhanyavad
जवाब देंहटाएंवाह आपने तो यात्रा संस्मरण की जगह पुरातत्वेत्ताओं का काम कर दिखाया
जवाब देंहटाएंखण्डहरों से खोज लाए वैभव!!
जवाब देंहटाएंआप पिता-पुत्री की सुक्ष्म दृष्टि को दाद देनी पडेगी!!
गर्भग्रह के शिखर के नीचे थोडा और निर्माण होना चाहिए, और सूर्य-प्रतिमा अलग न होकर शायद उसकी बाहरी दीवार पर लगी होनी चाहिए। सम्भवतः तीनो दिशाओं में।
चित्र जीवंत हो उठा है। आभार!!
सुज्ञ जी, जैसा कि क्षैतिज योजना में दर्शाया गया है, तीनों प्रतिमायें मुख्य मन्दिर से अलग बने तीन उपमन्दिरों में तीन दिशाओं में स्थापित थीं न कि उसकी दीवारों पर। तीनों उपमन्दिरों के आधार प्लिंथ आज भी यथावत हैं। दृश्य बिम्ब में तीनों प्रतिमायें एक साथ नहीं दिख सकतीं , केवल एक ही दिखेगी।
हटाएंचूँकि उपमन्दिर मुख्य विमान की तुलना में बहुत छोटे थे (प्रतिमा ऊँचाई मात्र 3 मीटर जब कि जगमोहन की दीवार ही 17 मीटर ऊँची है, मुख्य विमान तो बहुत ऊँचा था।), उपमन्दिर को सही सलामत दिखाने में कठिनाई यह थी कि घिरे होने के कारण प्रतिमा दृश्य पैमाने पर अपने पूरे प्रभाव के साथ दिख ही नहीं पाती और सूर्य किरणों का प्रभाव तो और भी संकुचित हो जाता। हाँ, बड़े स्केल के ग्राफिक्स में यह सम्भव है। आप लोगों की सुविधा के लिये एक चित्रकार का बनाया मॉडल चित्र लगा रहा हूँ जिससे समझने में आसानी होगी।
आभार।
स्पष्ट हुआ, आभार गिरिजेश जी,
हटाएंbadhiyaa
जवाब देंहटाएंकिसी पुरातत्वविद से कम नहीं है आपकी बिटिया, रोचक आलेख..
जवाब देंहटाएंपढ़ कर एक और पिता-पुत्री की याद आ गई -
जवाब देंहटाएं'भरा था मन में नव उत्साह ,सीख लूँ ललित कला का ज्ञान,
इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूँ प्यारी संतान !'(- प्रसाद)
यहाँ तो लगता है पिता भी वास्तु-विद् हैं - प्राचीन स्थापत्य के विशेषज्ञ !
आनन्द आ रहा है .
यहां मंदिर बनते देखना, रोमांचकारी रहा, स्तुत्य.
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी आपके द्वारा कोणार्क के सूर्य मंदिर का डिजिटल जीर्णोद्धार बहुत अच्छा लगा. अभी कुछ समय पूर्व मैं भी भुवनेश्वर गया था. वहां से कोणार्क सूर्य मंदिर, जगन्नाथ पुरी और चंद्रभागा तट पर जाने का मौका भी मिला. मेरी दृष्टि आपकी तरह तीक्ष्ण, गहरी और व्यापक तो नहीं है पर फिर भी पुरी और आस पास के मंदिरों में दो चीजों ने मेरा ध्यान खीचा.पहला तो गज का शिकार करते हुए सिंह की एक विशेष प्रतिमा के दर्शन प्रत्येक मंदिर के द्वार पर हुए. इस मूर्ति में में गज को एकदम तुच्छ निरीह प्राणी के रूप में और सिंह को पुरी भव्यता के साथ दर्शाया गया है. सिंह देवी का वाहन है और जहाँ तक मैं समझता हूँ गज भगवान विष्णो को प्रिय है. भगवान जगन्नाथ की भूमि पर इस प्रकार के सिंह द्वार बनवाने का क्या कारण रहा होगा ये बात जानने की उत्सुकता मेरे मन में तभी से है. दूसरी बात जिसने मेरा ध्यान खीचा वो सम्भोग रत युगल की मूर्ति थी जो मुझे सभी मंदिरों में दिखाई दी. कोणार्क के सूर्य मंदिर में तो खुजराहो की ही तरह की मूर्तियों की भरमार है. मेरे साथ यात्रा कर रहे मेरे एक मेवाती सहयोगी ने बार बार मुझसे पूछा की भाई पंडित जी आपके मंदिरों में इस प्रकार की मूर्तियाँ क्यों होती है. मैं उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया पर कभी ना कभी उसे जवाब देना जरुर चाहता हूँ. काश टाइम मशीन का अविष्कार हुआ होता.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा कि आप वहाँ हो आये हैं। मेरे साथ बने रहिये, आनन्द आयेगा और सम्भवत: प्रश्नों के उत्तर भी मिलेंगे। आप ने इसके पहले के दो भाग तो पढ़ ही लिये होंगे?
हटाएंहिन्दू शिल्प और मन्दिरों में कुछ भी यूँ ही नहीं है, उनके पीछे संगत तर्क और दार्शनिक सांस्कृतिक दृष्टि रही है। इस लम्बी यात्रा में इतिहास, शिल्प, दर्शन, लोक, संस्कृति आदि सभी आते जाते रहेंगे और साथ ही मैं काल का झूलना भी झूलता रहूँगा।
मिथुन मूर्तियों के बारे में अभी यही कहूँगा - सम्भोग सृष्टि सृजन का प्रस्थान विन्दु है और उसकी उपेक्षा अंतर्दृष्टि युक्त सभ्यता नहीं कर सकती। रही बात गोपन की तो गोपन उघड़ता है ईश्वर आराधना स्थल पर, अन्यत्र नहीं।
...मन्दिर तक मुझे पहुँचने तो दीजिये पहले! :) अभी तो राह में हूँ।
मेवाती सहयोगी मोहम्मदिया थे क्या? यदि हाँ तो उन्हें ले पुरी मन्दिर में तो नहीं प्रवेश कर गये जहाँ ग़ैर हिन्दुओं की मनाही है? :)
:)
हटाएंसही है पिता पुत्री का यूँ इतिहास में दुबकी लगाना. रोचक
जवाब देंहटाएंश्रृंखला दिन पर दिन रोचक होती जा रही है!
जवाब देंहटाएंमित्रों द्वारा कमेंट्स में पूछे जा रहे सवाल और आपके उत्तर पढ़ कर अच्छा लगा |
कॉपीराइट का विचार मेरे दिमाग में भी आया था |
इस बार आपने लेख के अंत में जारी नहीं लिखा |
:) साथ बने रहिये। जारी तो प्रारम्भ में ही लिख दिया है। पुन: क्या लिखना?
हटाएंक्या क्या कोपीराईट करवायेंगे?
जवाब देंहटाएंसहमत!
हटाएंअरे नहीं।
हटाएंये तो शानदार काम है! पिता-पुत्री दोनों ही अतिशय बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंअद्भुत ! आपके साथ घूमने का मौका मिले तो मजा आ जाये !
जवाब देंहटाएंक्या बात कह दी अभिषेक बाबू!
हटाएंयोजना बनाइये, पूरा समय रख जाड़े में चलते हैं। एक सप्ताह में पुरी, कोणार्क और भुबनेश्वर के मन्दिर, केवल मन्दिर। इतिहास, पुराण, मिथक और लोक के साथ।
वाह! सर्दियों... जल्दी आओ! :)
हटाएंअभिभूत हूँ.
जवाब देंहटाएंयूँ मंदिर को देखना...आहा!...
जवाब देंहटाएंfir se padh rahi hoon | kamaal kiye hain aap sach me ... fir se aabhaar .. :)
जवाब देंहटाएंDhanyvad 🙏
जवाब देंहटाएं🙏
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