हिन्दी ब्लॉगरी के दशकोत्सव का प्रारम्भ तोरू दत्त की कविता Our Casuarina Tree के अविनाश चन्द्र द्वारा किये भावानुवाद से हो चुका है। शुभारम्भ के लिये वह बहुत ही उपयुक्त कड़ी थी।
इस दौरान पुनर्प्रस्तुतियाँ होंगी जिनमें मैं अपनी और पूर्व अनुमति ले कर दूसरे ब्लॉगों की उत्तम रचनाओं को प्रस्तुत करूँगा। चन्द्रहार शृंखला तो रहेगी ही।
आज की कड़ी के लिये सामग्री ढूँढ़ते हुये एक शिल्पी से भेंट हुई। जिन चन्द जन को पूर्वग्रह (prejudices) और पूर्वाग्रह (pre-requests) के शाब्दिक और अर्थसम्बन्धित भेद पता हैं, उनमें वह भी एक हैं। गत दिनों में हिन्दी ब्लॉग जगत में इस ब्लॉग पर हुये प्रियता आयोजन और उसके परिणामों को लेकर थोड़ी बहुत उथल पुथल हुईं है, उस सन्दर्भ में इन दो शब्दों के भिन्नार्थ बहुअर्थी हो जाते हैं। लिखे हुये अक्षर भी भिन्न भिन्न अर्थ देने लगते हैं। बेचारे ब्रह्म स्वरूप अक्षर!
जिस पोस्ट पर ये भेद बताये गये हैं, उससे और उस पर आई टिप्पणियों से पता चलता है कि प्राचीनकाल (हिन्दी ब्लॉगरी के लिखित और लिखे जा रहे, छपे, छपते और छपे जा रहे इतिहास में छ: वर्ष पुरानी बातें प्राचीन ही कहलायेंगी) में स्थिति कुछ अधिक ही जीवंत थी। :)
फुरसत, खुरपेंच, चेतना सम्पन्नता, रचनाशीलता, हम किसी से कम नहीं/क्यों/क्यों नहीं, हमसे पूछा क्या, लिया क्या, दिया क्या, टिप्पणी, लेता, देता, दाता, लाता, उद्गाता, रोता, गाता, हँसता, चुटकी लेता, गरियाता, फरियाता आदि आदि में जिस श्रेणी की विदग्धता थी, वह आज दुर्लभ है। पारम्परिक रूप से हमारी प्राचीन परम्परा हर क्षेत्र में स्वर्णिम होने के लिये अभिशप्त रही है, अब भी है। दश वर्ष पश्चात जब कोई इसे पढ़ेगा तो गौरवशाली परम्परा के अवसान पर या ह्रासोन्मुख होते जाने पर उसी तरह से आहें अवश्य भरेगा जैसे अब मैं भर रहा हूँ। :( :)
उनकी जन्मतिथि से सम्बन्धित एक और पोस्ट पर जिस तरह की टिप्पणियाँ उतरी हैं, उनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में भी नेट पर लिखने के अतिरिक्त पढ़ने और टिप्पणी करने की सीमायें यथावत थीं।
कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं, सम्पूर्ण के लिये वहीं जायें:
आश्चर्य नहीं कि उथल पुथल के दौरान कैवल्य प्राप्त प्रज्ञावान जन मौन रहना ही ठीक समझते हैं :) अस्तु।
बहुत पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी - मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ? यह प्रश्न अब भी मुझे लगभग प्रतिदिन मथता है। आज की कड़ी के लिये उस पोस्ट को ही पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ। तब चिमामन्डा अडीची के भाषण का अंग्रेजी पाठ दिया था, बाद में जिसका हिन्दी अनुवाद निशांत मिश्र ने इस आलेख में प्रस्तुत किया था। यहाँ उसे पुन: प्रस्तुत करने की अनुमति देने के लिये उन्हें धन्यवाद देता हूँ, इसके लिये भी कि चर्चा में उन्हों ने स्याह अक्षरों को रोशनाई दिखाई।
आज लिखने बैठा तो कुछ प्रश्न मन में आये - मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ?
बाउ के बहाने पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक निहायत ही उपेक्षित ग्रामक्षेत्र की भूली बिसरी गाथाओं की कथामाला हो या सम्भावनाओं की समाप्ति के कई वर्षों के बाद बीते युग में भटकता प्रेम के तंतुओं की दुबारा बुनाई करता मनु हो, मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ?
मैं वर्तमान पर कहानियाँ क्यों नहीं लिख रहा?
अंतिम प्रश्न - जाने कितनों ने ऐसे विषयों पर लिख मारा होगा, तुम कौन सा नया कालजयी तीर चला रहे हो?
उत्तर भी आये हैं - तुम इसलिए लिख रहे हो कि लिखे बिना रह ही नहीं सकते। कभी वर्तमान पर भी लिखने लगोगे। कहानियाँ समाप्त कहाँ होती हैं?
अंतिम प्रश्न का तो कमाल का उत्तर आया, ऊर्मि की वाणी "तुम फालतू बहुत सोचते हो।"
तय किया कि स्वांत:सुखाय लिखते जाना है, No further questions and no फालतू सोच।
यह सब TED पर नाइजीरियाई उपन्यासकार Chimamanda Adichie के व्याख्यान The danger of a single story सुनते हुए लिख रहा हूँ। नाम रोमन में ही रहने दिया क्यों कि सही उच्चारण नहीं पता। मैं तो धोखे में पहले चिदानन्द और चिन्मयानन्द जैसा कुछ पढ़ने लगा, अभी चिमामंडा अदिची फाइनल किया है। सही जानने की जहमत कौन उठाये? अपने नाम के ग्रिजेश, गृजेश, गिर्जेश , गिरजेश, गिरीजेश, गीरिजेश आदि आदि रूपों से हर महीने एकाध बार साक्षात्कार हो ही जाता है। उन्हें ही ठीक कराने में नानी याद आ जाती है। अस्तु...
सुनाते रहेंगे यूँ दास्तान-ए-मुहब्बत
तुम्हें फुरसत नहीं, कोई बात नहीं।
पुनश्च: कहानियों के पात्र लिखने वाले से हँसने बतियाने लगें तो उस स्थिति को क्या कहते हैं? बचपना? पागलपन?
अभी अभी श्रीमती जी ने बताया है - रात नींद में आप हँसे जा रहे थे।
...मुझे कुछ याद ही नहीं!
...और इस व्याख्यान से कुछ : I started to write about things I recognized....
...when we reject the single story, when we realize that there is never a single story about any place, we regain a kind of paradise.
(...मैंने उनके बारे में लिखना शुरू किया, जिन्हें पहचानता था...
...जब हम 'अकेली कहानी' से इनकार करते हैं, जब हम यह अनुभव करते हैं कि किसी भी जगह के बारे में 'एक ही कहानी' नहीं होती, हम एक तरह के स्वर्ग को फिर से पाते हैं।)
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मूल व्याख्यान:
मैं एक कहानीकार हूँ और मैं आपको कुछ निजी कहानियाँ सुनाना चाहती हूँ जिन्हें मैं “अकेली कहानी के खतरे” कहती हूँ.
मैं पूर्वी नाइजीरिया के एक यूनीवर्सिटी कैंपस में बड़ी हुई. मेरी माँ बताती हैं कि मैंने दो साल की होने पर पढ़ना शुरु कर दिया था, पर मुझे लगता है कि यह चार साल के आसपास हुआ होगा. इस तरह मैंने जल्दी पढ़ना शुरु कर दिया. मैं ब्रिटिश व अमेरिकी बाल साहित्य पढ़ती थी.
मैंने लिखना भी जल्दी शुरु कर दिया. जब मैं लगभग सात साल की थी तभी से मैं पेंसिल और क्रेयॉन से चित्रित करके कहानियाँ लिखने लगी जिन्हें मेरी बेचारी माँ को ही पढ़ना पड़ता था.
मैं वैसी ही कहानियाँ लिख रही थी जैसी मैं पढ़ती थी. मेरी कहानियों के सारे चरित्र गोरे थे और उनकी आंखें नीली होती थीं. वे बर्फ़ में खेलते थे और सेब खाते थे. (हँसी) वे मौसम के बारे में बहुत बातें करते थे - जैसे सूरज निकलने पर कितना अच्छा लगता है. (हँसी) हांलाकि, मैं जन्म से ही नाइजीरिया में ही रह रही थी और वहाँ से बाहर कभी नहीं गई थी. हमने बर्फ़ कभी नहीं देखी. हम आम खाते थे. और हम मौसम के बारे में कभी बात नहीं करते थे, क्योंकि उसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी.
मेरी कहानियों के चरित्र जिंजर बीयर बहुत पीते थे क्योंकि जो ब्रिटिश कहानियाँ मैं पढ़ती थी उनके चरित्र भी जिंजर बीयर पीते थे. मैं जानती ही नहीं थी कि जिंजर बीयर कैसी होती है. (हँसी) और आगे कई सालों तक मेरे भीतर जिंजर बीयर चखने की बहुत गहरी इच्छा बनी रही. पर वह दूसरी बात है.
मैं सोचती हूँ कि इस सब से यह दिखता है कि छोटे बच्चों के रूप में हम सभी किसी कहानी से कितनी आसानी से प्रभावित हो जाते हैं और कितने सुभेद्य हैं.
मैं वही पुस्तकें पढ़ती थी जिनके चरित्र विदेशी थे, इसलिए मैं आश्वस्त हो गई थी कि यह पुस्तकों का मूल स्वभाव ही है कि उनमें विदेशी तत्व हों. यही कारण है कि मैंने अपनी कहानियों में वे बातें कीं जिनसे मैं स्वयं तादात्म्य का अनुभव नहीं करती थी. लेकिन जब मैंने अफ़्रीकी पुस्तकें पढ़ना शुरु किया तो चीजें बदल गईं. उस दिनों बहुत कम पुस्तकें उपलब्ध थीं. और जो थीं वे भी विदेशी पुस्तकों जितनी आसानी से नहीं मिलतीं थीं. लेकिन चिनुआ अचेबे और कमारा लाए जैसे लेखकों को पढ़ने पर मेरे साहित्यबोध में सहसा बहुत बड़ा परिवर्तन आया. मुझे लगा कि मेरे जैसी चाकलेटी कांति वाली लड़कियाँ भी साहित्य का अंग हो सकती हैं जिनके घुंघराले बालों से पोनीटेल नहीं बनती.
मैंने उन चीजों के बारे में लिखना शुरु किया जिन्हें मैं पहचानती थी. वैसे, मुझे अमेरिकी और ब्रिटिश पुस्तकों से प्रेम था. उन्होंने मुझे कल्पनाशील बनाया. मेरे लिए नई दुनिया का दरवाज़ा खोला. लेकिन इसका अनचाहा परिणाम यह हुआ कि मुझे इस बात का ज्ञान नहीं हो सका कि मेरे जैसे लोगों का भी साहित्य में कोई स्थान है. मुझे अफ़्रीकी लेखकों की जानकारी मिलने का परिणाम यह हुआ कि इसने मेरी कहानी को अकेलेपन से बचा लिया, जैसा पहले हो रहा था.
मेरा जन्म एक पारंपरिक मध्यवर्गीय नाइजीरियाई परिवार में हुआ था. मेरे पिता प्रोफ़ेसर थे. मेरी माँ प्रशासक के पद पर थीं. और इस तरह, जैसा वहां चलन था, हमारे घर में नौकर-चाकर थे जो पास के गांव-देहात से आते थे. जब मैं आठ साल की हुई तब हमारे घर में काम करने के लिए एक लड़का आया. उसका नाम फ़ीडे था. मेरी मां ने उसके बारे में यह बताया कि उसका परिवार बहुत गरीब था. माँ ने उसके घर जिमीकंद, चावल, और हम लोगों के पुराने कपड़े भेजे. और जब कभी मैं अपना खाना छोड़ देती, तो मेरी मां कहतीं, “खाना मत छोड़ो, तुम जानती हो, फ़ीडे जैसे लोगों के पास खाने को भी नहीं है”. तब मुझे फ़ीडे के परिवार पर बहुत दया आती थी. फिर एक शनिवार को मैं उसके गाँव तक गई. उसकी मां ने मुझे खूबसूरत बुनाईवाली बास्केट दिखाई, जो उसके भाई ने ताड़ के रंगे हुए पत्तों से बनाई थी. वह देखकर मैं हैरान रह गई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि उसके परिवार में वास्तव में कोई कुछ बना सकता था. मैं तब तक सिर्फ यही सुनती आई थी कि वे बहुत गरीब थे. और इस तरह मैं उनके बारे में कुछ और नहीं जान सकी थी इसके सिवाय कि वे बहुत गरीब थे. उनकी गरीबी मेरे लिए उनकी एकमात्र कहानी थी.
सालों बाद मैंने इस बारे में सोचा जब मैं नाइजीरिया छोड़कर यूनाइटेड स्टेट्स के विश्वविद्यालय में पढ़ने गई. उस समय मैं 19 साल की थी. मेरी अमेरिकी रूम-मेट मुझसे मिलकर बहुत अचंभित हुई. उसने मुझसे पूछा कि मैंने इतनी अच्छी अंग्रेजी कहाँ सीखी. मुझसे यह सुनकर वह चकरा गई कि अंग्रेजी नाइजीरिया की राजकीय भाषा है. उसने मुझसे कहा कि वह “मेरा आदिवासी संगीत” सुनना चाहती है, और यह देखकर उसे और भी निराशा हुई जब मैंने उसे मेरे मराइया कैरी के कैसेट दिखाए. (हँसी) उसे यह लगता था कि मुझे स्टोव इस्तेमाल करना नहीं आता होगा. उससे मिलकर मुझे लगा कि हमारी मुलाकात होने के पहले ही उसे मुझपर तरस आने लगा था. एक अफ़्रीकी होने के नाते मेरी स्थिति ने उसमें मेरे प्रति दयालुता, सदाशयता, और करूणा जगा दी थी.
मेरी रूम-मेट के पास अफ़्रीका की एक ही कहानी थी - घोर दुर्गति की कहानी. इस अकेली कहानी में कोई संभावना नहीं थी कि उसमें अफ़्रीकावासी कुछ मायनों में उस जैसे लगते. उसमें दयाभाव से इतर भावना की गुंजाइश नहीं थी. सभी मनुष्यों के समान होने के विचार की संभावना उसमें नहीं थी. मैं ज़ोर देकर यह कहूंगी कि अमेरिका जाने के पहले मैं खुद को एक अफ़्रीकी के रूप में गहराई से नहीं जानती थी. लेकिन अमेरिका में जब अफ़्रीका का ज़िक्र चलता तो सारी आँखें मुझपर टिक जातीं थीं. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं नामीबिया जैसी जगहों के बारे में कुछ नहीं जानती थी. लेकिन मैं अपनी इस नई पहचान से बहुत अच्छे से जुड़ गई. अब मैं स्वयं को कई अर्थों में अफ़्रीकी ही मानती हूँ. हालाँकि मुझे तब बहुत खीझ होती है जब अफ़्रीका को एक बड़े से देश के रूप में देखा जाता है. इसका ताजा उदाहरण ये है कि मेरी एक यात्रा में लागोस से दो दिन पहलेवाली उड़ान में वर्जिन एयरवेज़ के विमान में उन्होंने “भारत, अफ़्रीका, व अन्य देशों में” जारी परोपकारी कार्यों की जानकारी दी. (हँसी)
एक अफ़्रीकी के रूप में अमेरिका में कुछ साल बिताने के बाद मैं अपने प्रति मेरी रूम-मेट की प्रतिक्रियाओं को समझने लगी. यदि मैं नाइजीरिया में पलती-बढ़ती नहीं तो मेरे मन में भी अफ़्रीका की पॉपुलर छवियां ही रहतीं. मुझे भी यही लगता कि अफ़्रीका एक स्थान है, जहां रमणीय परिदृश्य, सुंदर जानवर, और अबूझ लोग रहते हैं जो फ़िजूल में लड़ते रहते हैं, गरीबी और एड्स से मरते हैं, जो अपने अधिकारों के लिए कुछ नहीं कर पाते, और इस इंतजार में रहते हैं कि कोई दयालु विदेशी गोरे आकर उन्हें बचाएंगे. मैं अफ़्रीका को उसी प्रकार से देखती जिस तरह से मैंने एक बच्चे की आँखों से फ़ीडे के परिवार को देखा था.
मेरे विचार से, अफ़्रीका की बेचारगी की यह कहानी पश्चिमी साहित्य से आती है. मेरे पास यहां एक उद्धरण है जिसमें 1561 मे पश्चिमी अफ़्रीका आनेवाले लंदन के व्यापारी जॉन लॉक ने अपनी यात्रा का रोचक विवरण लिखा है. अश्वेत अफ़्रीकावासियों के लिए वह लिखता है “जंगली जानवर जो घरों में नहीं रहते”, आगे वह लिखता है, “यहां ऐसे लोग भी हैं जिनके सिर नहीं हैं, और जिनके मुँह और आँखें उनकी छाती में हैं”. इसे पढ़ते समय मैं हर बार हँस पड़ती हूँ. जॉन लॉक की कल्पनाशक्ति की तो दाद देनी होगी. लेकिन उसकी कहानी में खास बात यह है कि यह पश्चिम में अफ़्रीका की कहानियों की परंपरा के प्रारंभ का निरूपण करती है. यह अधो-सहारा अफ़्रीका की नकारात्मक बातों से भरी, असमानताओं की, अँधेरेपन की, और इसके निवासियों को बेजोड़ कवि रुडयार्ड किपलिंग के शब्दों में “आधे दैत्य, आधे शिशु” कहने की परंपरा है.
और तब मुझे यह समझ में आने लगा कि मेरी अमेरिकी रूम-मेट ने उसके पूरे जीवनकाल में ऐसी ही अकेली कहानी के विविध रूप देखे-सुने होंगे, जिस प्रकार मेरे एक प्रोफेसर ने एक बार मुझसे कहा कि मेरे उपन्यास “प्रामाणिक रूप से अफ़्रीकी” नहीं लगते थे. देखिए, मैं यह स्वीकार करती हूँ कि मेरे उपन्यास में कुछ गड़बड़ियाँ तो रही होंगी, और कुछ स्थानों पर मैंने गलतियाँ भी की थीं. लेकिन मैं यह नहीं मान सकती कि मैं अफ़्रीकी प्रामाणिकता को पाने में करने में असफल रही थी. असल में मैं यह जानती ही नहीं थी कि अफ़्रीकी प्रामाणिकता क्या होती है. मेरे प्रोफेसर ने कहा कि मेरे चरित्र बहुत हद तक उनकी ही तरह पढ़े-लिखे और मिडिल-क्लास से संबंधित थे. मेरे चरित्र कार चलाते थे. वे भूखे नहीं मर रहे थे. इसलिए उन्हें प्रमाणिक तौर पर अफ़्रीकी नहीं कहा जा सकता था.
लेकिन मैं यह भी स्वीकार करती हूँ कि मैं भी ऐसी ही एक अकेली कहानी रचने की दोषी हूँ. कुछ सालों पहले मैं अमेरिका से मैक्सिको की यात्रा पर गई थी. उन दिनों अमेरिका में राजनीतिक वातावरण तनावपूर्ण था और आप्रवासन के मुद्दे पर बहस छिड़ी थी. और जैसा कि अमेरिका में अक्सर होता है, आप्रवासन के विषय को मैक्सिकोवासियों से जोड़ दिया गया. वहाँ मैक्सिकोवासियों के बारे में बहुतेरी कहानियाँ कही जा रही थीं जैसे कि ये लोग स्वास्थ्य सुविधाओं को चौपट कर रहे थे, सीमाओं पर सेंध लगा रहे थे, उनकी गिरफ़्तारियां हो रहीं थी, ऐसी ही कई बातें. मुझे गुआडालाहारा में पहले दिन बाहर पैदल घूमना याद है जब मैंने लोगों को काम पर जाते, बाजार में टॉर्टिला बनाते, सिगरेट पीते, और हँसते हुए देखा. यह देखकर मुझे होनेवाला आश्चर्य मुझे याद आ रहा है. और फिर मैंने बहुत शर्मिंदगी भी महसूस की. मुझे लगने लगा कि मैं भी मीडियावालों द्वारा मैक्सिकोवासियों की गढ़ी गई छवि को सच मान बैठी थी. मैं भी मन-ही-मन उन्हें अधम आप्रवासी मान चुकी थी. मैंने अपने भीतर मैक्सिकोवासियों की एक कहानी घर कर ली थी और ऐसा करने पर मैं बहुत लज्जित अनुभव कर रही थी.
तो ऐसे ही अकेली कहानियाँ बनती रहतीं हैं जो व्यक्तियों को वस्तु की तरह दिखाती हैं - केवल एक वस्तु की तरह बार-बार दिखाती हैं, और वे अंततः वही बन जाते हैं.
शक्ति की चर्चा किए बिना अकेली कहानी की बात करना नामुमकिन है. जब भी मैं शक्ति के स्वरूप के बारे में सोचती हूं, तब पश्चिमी अफ़्रीकी भाषा इग्बो में एक शब्द “नकाली” मुझे ध्यान में आता है. यह संज्ञा शब्द है जिसका कुछ-कुछ अनुवाद है “दूसरों से अधिक बड़ा या महत्वपूर्ण होना”. हमारे आर्थिक व राजनीतिक जगत के सदृश कहानियों की व्याख्या भी नकाली के सिद्धांत द्वारा की जाती है. वे कैसे कही जाती हैं? उन्हें कौन कहता है? और जब वे कही जातीं हैं तो कितनी कही जाती हैं? इन सबका निर्धारण शक्ति द्वारा ही होता है. शक्ति संपन्न होने का अधिकार केवल किसी व्यक्ति की कहानी कहने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इसे उस व्यक्ति की निर्णायक कहानी भी बना सकता है. फ़िलिस्तीनी कवि मौरीद बरघूती ने लिखा है कि यदि तुम किन्हीं व्यक्तियों का स्वत्व हरना चाहते हो तो इसका सबसे आसान तरीका है कि तुम उनकी कहानी कहो, और इसे “दुसरे स्थान में” से शुरु करो. अमेरिकी मूल निवासियों के तीरों की बात से कहानी शुरु करो, ब्रिटिश दस्तों के आगमन से नहीं, और तुम्हारे पास एक बिल्कुल अलग कहानी होगी. कहानी की शुरुआत करो अफ़्रीकी राज्यों की विफलताओं से, और अफ़्रीकी राज्यों के औपनिवेशीकरण को दरकिनार कर दो और तुम्हारे पास एक बिल्कुल अलग कहानी होगी.
मैंने हाल में ही एक विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया जहां एक विद्यार्थी ने मुझसे कहा कि यह बहुत शर्म की बात है कि नाइजीरियाई पुरुष स्त्रियों का उसी प्रकार शारीरिक शोषण करते हैं जिस तरह मेरे एक उपन्यास में एक पिता का चित्रण किया गया है. मैंने उसे कहा कि हाल में ही मैंने एक उपन्यास पढ़ा है जिसका नाम है “अमेरिकन साइको” — (हँसी) — और यह बड़े शर्म की बात है कि युवा अमेरिकी सीरियल किलर होते हैं. (हँसी) (तालियाँ) देखिए, मैंने यह थोड़ा चिढ़कर कहा था. (हँसी) मैं इस तरह की बात नहीं सोच सकती थी कि किसी अमेरिकी उपन्यास में एक क्रमिक हत्यारे का पात्र होने के नाते वह अकेला आदमी पूरे अमेरिकियों का कुछ-कुछ प्रतिनिधित्व करने लगेगा.
परंतु ऐसा इसलिए नहीं है कि मैं उस विद्यार्थी से बेहतर व्यक्ति हूं, बल्कि इसलिए कि मैं अमेरिका की सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति की बहुत सारी कहानियाँ सुन चुकी थी. मैं टाइलर, अपडाइक, स्टाइनबैक, और गैट्सकिल को पढ़ चुकी थी. मेरे पास अमेरिका की कोई एकमात्र कहानी नहीं थी. बरसों पहले जब मैंने यह सुना कि लोग यह मानते थे कि सफल लेखक वे होते हैं जिनका बचपन बहुत बुरा होता है, तो मैं सोचने लगी कि मैं किस तरह उन बुरी बातों की खोज करूं जो मेरे माता-पिता ने मेरे साथ की हों. (हँसी) लेकिन सच यह है कि मेरा बचपन बहुत सुखद था. हमारा परिवार बहुत प्रेम और आनंद के साथ एकजुट रहता था. लेकिन मेरे पितामह आदि भी थे जिनकी मृत्यु शरणार्थी कैंप में हुई थी. मेरा कज़िन पोल मर गया क्योंकि उसे पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं नहीं मिलीं. मेरी बहुत करीबी दोस्त ओकोलोमा विमान दुर्घटना में जलकर मर गई क्योंकि हमारी अग्निशमन गाड़ियों में पानी नहीं था. मैं दमनकारी सैनिक शासन के बीच बड़ी हुई जिसने शिक्षा को चौपट कर दिया. कभी-कभी मेरे माता-पिता को वेतन भी नहीं मिलता था. फिर मैंने बचपन में नाश्ते की टेबल से जैम की बोतल गायब होते देखी, उसके बाद मारजारिन भी गायब हो गया. फिर ब्रैड बहुत महँगी हो गई, और दूध राशन से मिलने लगा. और इससे भी अधिक, किसी मामूली बात की तरह स्वीकार कर लिए गए राजनीतिक भय ने हमारे जीवन को घेर लिया.
इन सभी कहानियों ने ही मुझे वह बनाया है जो मैं आज हूँ. लेकिन इन नकारात्मक कहानियों को ही महत्व देना मेरे अनुभवों को कम करके आंकना होगा और इससे वे दूसरी कहानियाँ अनदेखी रह जाएंगीं जिन्होंने मुझे आकार दिया है.
एक अकेली कहानी रूढ़ियों का निर्माण करती है. और रूढ़ियों के साथ समस्या यह नहीं है कि वे सत्य नहीं होतीं, बल्कि यह है कि वे अपूर्ण होतीं हैं. वे एक अकेली कहानी को एकमात्र कहानी बना देतीं हैं. बेशक, अफ़्रीका दुःख और दुर्गति की महागाथा है. कुछ बातें जैसे कांगो के वीभत्स बलात्कार अत्यंत घृणास्पद हैं. और कुछ अवसादपूर्ण हैं, जैसे नाइजीरिया में एक भर्ती के लिए 5,000 लोग आवेदन करते हैं. लेकिन वहाँ कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जो दर्दनाक नहीं हैं, और यह कहना ज़रूरी है कि वे इतनी महत्वपूर्ण ज़रूर हैं कि उनकी भी चर्चा हो.
मैं हमेशा से यह मानती आई हूँ कि किसी परिवेश या व्यक्ति से भली-भांति जुड़े बिना उस स्थान या व्यक्ति की सभी कहानियों से संबद्ध हो पाना संभव नहीं है. एक अकेली कहानी की परिणति यह होती है कि यह मनुष्य को उसकी गरिमा से वंचित कर देती है. यह हमारी समतुल्य मानवता की पहचान को कठिन बना देती है. यह दर्शाने की बजाय कि हम कितने एक-जैसे हैं, यह ये दिखाती है कि हमारे बीच कितने भेद हैं. तो इससे क्या फ़र्क पड़ता है यदि मैक्सिको जाने से पहले मैंने आप्रवासन पर हुए वाद-विवादों में सं. रा. अमेरिका और मैक्सिको दोनों ही पक्षों का साथ दिया? क्या हुआ जो मेरी माँ ने मुझे बताया कि फ़ीडे का परिवार बहुत गरीब और मेहनती है? और क्या होता यदि हमारे पास अफ़्रीकी टीवी नेटवर्क होता जो विविध अफ़्रीकी कहानियों को दुनिया भर में प्रसारित करता? यह वही होता जिसे नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे ने “कहानियों का संतुलन” कहा है.
क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को नाइजीरियाई प्रकाशक मुक्ता बकारे के बारे में पता होता? इस असाधारण आदमी ने बैंक की नौकरी छोड़कर अपने सपनों की राह पर चलकर प्रकाशनगृह चालू किया. लेकिन आम धारणा तो यह थी कि नाइजीरियाइ लोग साहित्य नहीं पढ़ते. उसने इसका विरोध किया. उसे लगा कि जो लोग पढ़ना जानते थे वे ज़रूर पढ़ेंगे यदि हम खरीद पाने लायक मूल्य में उन्हें साहित्य उपलब्ध कराएँ. उसने मेरा पहला उपन्यास छापा और इसके कुछ समय भीतर ही मैं लागोस में एक टीवी स्टेशन में साक्षात्कार देने गई. वहां मैसेंजर का काम करनेवाली एक महिला मेरे पास आई और मुझसे बोली, “मुझे आपका उपन्यास अच्छा लगा, पर मुझे उसका अंत पसंद नहीं आया. अब आप उसका सिक्वेल ज़रूर लिखें, और उसमें ऐसा होना चाहिए कि…”. (हँसी) वह मुझे बताने लगी कि मुझे सिक्वेल में क्या लिखना चाहिए. उसकी बातों ने मुझे न सिर्फ़ मोहित किया बल्कि भीतर तक छू लिया. वह एक आम औरत थी, नाइजीरियाई जनता का एक अंशमात्र जिसे हम अपने पाठकवर्ग में नहीं गिनते थे. उसने न सिर्फ़ वह पुस्तक पढ़ी, बल्कि उसे वह उसकी पुस्तक जैसी लगी. मुझे यह बताना उसे तर्कसंगत लगा कि मुझे पुस्तक का सिक्वेल लिखना चाहिए.
क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को लागोस में एक टीवी कार्यक्रम की होस्ट मेरी निडर मित्र फूमी ओंडा के बारे में पता होता? वह उन कहानियों को सामने लाना चाहती है जिन्हें हम भूलना ही ठीक समझते हैं. क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को हृदय के उस ऑपरेशन के बारे में पता होता जिसे लागोस के अस्पताल में पिछले सप्ताह अंजाम दिया गया? क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को समकालीन नाइजीरियन संगीत के बारे में पता होता जिसमें प्रतिभाशाली गायक अंग्रेजी और पिजिन में, इग्बो में, योरूबा में, और इजो में, जे-ज़ी से लेकर फ़ेला, और बॉब मार्ली से लेकर अपने पितामहों के सुमेलित प्रभाव में गाते हैं. क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को उन महिला वकीलों के बारे में पता होता जो हाल में ही नाइजीरिया की अदालत में एक हास्यास्पद कानून को चुनौती देने गईं जिसके अनुसार किसी स्त्री को अपने पासपोर्ट के नवीनीकरण के लिए अपने पति की स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया था. क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को नॉलीवुड के बारे में पता होता, जहां विशाल तकनीकी कठिनाइयों के बाद भी मौलिकता से तर लोग फ़िल्म बना रहे हैं. ये पॉपुलर फ़िल्में इस बात का बेहतरीन उदाहरण हैं कि नाइजीरियाइ लोग भी हावी करनेवाली चीजें बना सकते हैं. क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को मेरी चोटी बनानेवाली प्यारी व महत्वाकांक्षी लड़की के बारे में पता होता जिसने हाल में ही बालों में लगाई जानेवाली चीजों का व्यापार शुरु किया है. क्या होता यदि मेरी रूम-मेट को उन लाखों नाइजीरियाइ लोगों के बारे में पता होता जो कामधंधा शुरु करते हैं और कभी-कभी असफल हो जाते हैं, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षाओं का पोषण करते रहते हैं?
हर बार जब मैं घर जाती हूँ तो मेरा सामना होता है नाइजीरियाई लोगों की आम शिकायतों से, जैसे हमारा बुनियादी ढाँचा खराब है, हमारी सरकार नाकारा है. लेकिन मैं उनके अविश्वसनीय लचीलेपन को भी देखती हूं. वे शासन व्यवस्था के साए में नहीं बल्कि उसके अभाव में पनपते हैं.
मैं हर गर्मियों में लागोस में लेखन कार्यशाला में पढ़ाती हूँ. और यह देखकर हैरत होती है कि कितने लोग आवेदन करते हैं, कितने सारे लोग लिखने के लिए व्यग्र हैं, अपनी कहानियां कहना चाहते हैं. मैंने अपने नाइजीरियाइ प्रकाशक के साथ हाल में ही एक नॉन-प्रॉफ़िट ट्रस्ट बनाया है जिसका नाम फ़ाराफ़िना ट्रस्ट है. हमारा बड़ा सपना यह है कि हम नए पुस्तकालय बनाएँ, पुराने पुस्तकालयों का नवीनीकरण करें, उन शासकीय विद्यालयों को पुस्तकें उपलब्ध कराएँ जिनके पुस्तकालयों में कुछ भी नहीं है, और पठन-पाठन से संबंधित अनेकानेक कार्यशालाओं का आयोजन करें, ताकि अपनी कहानियां कहना चाहनेवाले व्यक्तियों को अवसर मिलें.
कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं. असंख्य कहानियों का महत्व है. कहानियों का उपयोग वंचित करने व मलिन करने के लिए होता आया है. लेकिन कहानियाँ सामर्थ्यवान बनातीं हैं और मानवीकरण करतीं हैं. कहानियाँ लोगों की गरिमा को भंग कर सकतीं हैं. पर वे उनकी खंडित गरिमा का उपचार भी कर सकतीं हैं.
अमेरिकी लेखिका ऐलिस वॉकर ने उनके दक्षिणी संबंधियों के बारे में लिखा है जो उत्तर में जाकर बस गए थे. उन्होंने अपने संबंधियों को एक पुस्तक सुझाई जिसमें पीछे छूट गए उनके दक्षिणी जीवन का वर्णन था. “वे मेरे इर्द-गिर्द बैठे, खुद उस पुस्तक को पढ़ते हुए, और मुझसे उस पुस्तक को सुनते समय, लगा जैसे स्वर्ग की पुनःप्राप्ति हो गई”.
मैं इस विचार के साथ समापन करना चाहूँगी - जब हम किसी अकेली कहानी को ठुकरा देते हैं, और जब हम यह जान जाते हैं कि किसी स्थानविशेष की कभी कोई अकेली कहानी नही होती, तो हम भी अपने स्वर्ग की पुनःप्राप्ति कर लेते हैं.
धन्यवाद.
(तालियाँ)
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आप ने इतनी लम्बी हाँक को सुना, इसके लिये धन्यवाद। इसमें मनन करने लायक बहुत सी बातें हैं, कभी कभी कर लेना अच्छा होता है :)
इतना तो स्पष्ट ही होगया होगा कि ब्लॉग जगत भी एक स्थान विशेष है और इसकी कोई 'अकेली कहानी' नहीं हो सकती।
इसलिये दशकपूर्ति का उत्सव आप भी अपनी विधि से मनाइये, दूसरे मनायें तो कोहनाइये मत, उत्साह बढ़ाइये। नहीं बढ़ायेंगे तो भी मनाने वाले मनायेंगे ही।
वैसे भी इस ब्लॉग की तो यह खासियत है कि उत्सव अकेले भी मना लेता है। होली के अवसर तो याद हैं न? :)
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अगली पोस्ट कोणार्क यात्रा पर।
ऐसी लम्बी हाँक पढने से आँखे चौंधिया जाती हैं. स्किप भी तो नहीं कर सकते :)
जवाब देंहटाएंअब तक आप को सोना मानते थे, आज आप का लोहा भी मान गये :)
हटाएंशुभारम्भ अत्युत्तमम्।
Main benami hoon,bau ko chahne wala.aap ka likha sab padh raha hoon,aayojan par bhi nigahen tiki raheen.aapke man ki uthal puthal ,kalam ki raftaar aur bhoot,bhavishya evam vartmaan par nazar....lagta hai aap likhte rahen aur main padhta rahoon.
जवाब देंहटाएं:) आप की प्रतीक्षा रहती है। उपस्थिति जता जाते हैं तो लगता है जैसे देवविग्रह ने स्वयं आ कर दर्शन दे दिये!
जवाब देंहटाएंअडीची के भाषण का इस पोस्ट में सार्थक उपयोग करने के लिए आपका धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंयह अनुवाद वीडियो में subtitles डालने के लिए किया गया था इसलिए इसमें वाक्यों की संरचना कहीं अटपटी और कहीं जटिल हो गयी है.
पोस्ट भले लंबी है पर रोचक है। जेहन में कई बातें अब भी घूमती हैं, डिस्कवरी देखते हुए कई बार लगता है कि अफ्रीका ऐसा ही है या अलग ।
जवाब देंहटाएंअपने ज्ञानचक्षु भी खुले यह विशद आलेख पढकर! शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंतालियाँ!! और कुछ कहना आवश्यक है?
जवाब देंहटाएं:)
उथल पुथल के दौरान कैवल्य प्राप्त प्रज्ञावान जन मौन रहना ही ठीक समझते हैं
जवाब देंहटाएंमैं सोच रहा था कि सृजन शिल्पी ने क्या सोचा होगा... :)
रोचक,
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