शुक्रवार, 30 नवंबर 2012
छीन लो पुस्तकें उनसे!
सोमवार, 26 नवंबर 2012
26/11/2008 के हुतात्माओं को श्रद्धांजलि
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जहाँ भी यह आन्दोलन सफल हुआ वहाँ जीवन की गुणवत्ता गर्त में गयी। वहाँ स्त्रियों, बच्चों और निर्बलों पर हो रहे बर्बर अत्याचार आज भी जारी हैं।
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मैं यहाँ मजहब नहीं, अरबी हीनता को स्थापित करने के उद्देश्य से जारी उस राजनैतिक-मजहबी आन्दोलन की बात कर रहा हूँ जिसने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर असम तक हमें घाव दिये हैं और दिये जा रहा है।
इस आन्दोलन ने कश्मीरियों को अपने देश में शरणार्थी बनने को बाध्य किया। इस आन्दोलन ने बंगलादेश और पाकिस्तान में अन्य मतावलम्बियों का समूल नाश करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी, अब वे वहाँ लुप्तप्राय हैं। संसार में चल रहे हर बड़े संघर्ष में दूसरा पक्ष चाहे जो हो, एक पक्ष या तो यह बेहूदा आन्दोलन है या उससे बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है।
रविवार, 25 नवंबर 2012
बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 22
पिछले भाग से आगे...
पलँगरी पर भउजी को लिटाने में देह धौंकनी हो गई। मन के बवंडर से बेचैन सी मतवा उखड़ी साँसों को थामने हेतु बाहर आँगन में आ खड़ी हो गईं। दृष्टि अनायास ही घर को सहलाती घूम गई। नथुने हल्के से रमते धूप गन्ध से भीनते चले गये - ई अँगना त रोज धुपियारी होत होई! (इस आँगन तो रोज धूप जलती होगी!)
काठ के खम्भे पर बना सुग्गा जूठी थाली को निहार रहा था जिसके बगल में अगियारी अभी भी सुलग रही थी। पहिले गरास से पहिले लछमी ने अन्न को अगिनदेव को अर्पित किया था - सब जीवों की छुधा शांत करने की प्रार्थना! तुलसी बिरवे की पत्तियों पर चन्दन के निशान थे जिन पर खुला आसमान नील नील बरस रहा था। मतवा ने जाना कि देवी गीत के कुछ बोल अभी भी वहीं ठिठके हुये थे।
नीचे पैकरमा (परिक्रमा) पर चूने की सफेदी थी जिस पर सरसो और चावल बिखरे पड़े थे – खाउ रे चिरइया भर भर पेट! पूरे घर की जमीन कठभट्ठा माटी से लिपाई सब ओर बराबर थी - एकसार और सिलवट को घेरे आगे तक पियरी माटी की लिपाई। कूँची पीसी गई सुभ हरदी की छिटकन उस घेरे में बिला गई थी। एक गाँठ अभी भी लोढ़े पर पड़ी बता रही थी कि सुभ यहाँ रहने को है!
काँच भीत (कच्ची दीवार) पर चहुँओर घेर उज्जर(उजला, सफेद) , उज्जर घेर। घेर के भीतर सुग्गा, फूल पतई, दीया, सीता राम, सीताराम, खरइट(अतिबला, एक वनस्पति) के छपिया, पुरइन दल फूल लेकिन नाग नागिन नपत्ता(लापता), कइसन सुभ रे (यह कैसा शुभ)? दीठ किनारे अटक गई। पास जा कर देखीं तो पता लगा कभी गोबर से बने नाग नागिन झड़ चुके थे और भीत का वह हिस्सा भउजी ने ऐसे ही छोड दिया था। नीचे हाथ के ताजे छापे थे – पीयर, उज्जर, लाल नपत्ता। मतवा को पुरानी गोधन पूजा याद आई, साँसों ने राहत सी पाई और टीसता दुख उँसास के साथ निकल पड़ा – कवन सोहागिन अइसन घर रखले होई रे सोगही! मँगधोवनी रे, तोर छहाँरी छोड़ सोहाग कइसे भागि गइल? सुघर घर घरनी, चलनी भागि! (किस सुहागन ने अपना घर ऐसे रखा होगा रे शोकमयी! माँगधोई रे, तुम्हारी छाया छोड़ सौभाग्य कैसे पलायन कर गया? सुघड़ घर और गृहिणी लेकिन चलनी जैसा भाग्य)
मटिहा कराही में धूप राख हो चुकी थी। करसी(एक तरह का उपला) के टुकड़े मन को तोड़ चले और चेतना ने करवट ली। संयोग ही था कि दुपहर में सोहित और नौकर इसरभर दोनों खेतों को निकल गये थे। मतवा सतर्क हो छिपते छिपते आई थीं कि राह में भी कोई आते न देख ले! पति का संकेत याद आया तो मन मन भर भारी हो गया। अगर सचमुच ऐसा है तो किसी को पता नहीं चलना चाहिये। देह गनगनाने लगी, पेशानी रिस उठी – वह तो अनर्थ के केन्द्र में खड़ी थीं! लछमिनिया की सुघरता से जो मुग्ध भाव उमड़ पड़ा था उस पर अब भय भारी था। जैसे भी हो जल्दी से हाल चाल ले यहाँ से जाना होगा, जाने कब सोहित या इसरभर धमक पड़े! अइले से समियो नाइँ रोकलें, ऊनहूँ के बुद्धी...(आने से स्वामी ने भी नहीं रोका, उनकी बुद्धि भी ...) ।
पीठ पर स्पर्श से मतवा ऐसे चिहुकीं जैसे किसी ने अचानक ठंढा पानी डाल दिया हो! मुड़तीं तब तक हाथों में आँचल जोड़े भउजी जमीन पर प्रणाम मुद्रा में आ चुकी थी। होश आ गइल! (होश आ गया!) मतवा ने राहत की साँस लेते बस इतना कहा – उठावs और आगे का आशीर्वाद नयनों से निकल भउजी के हाथ टपका – टप्प! दोनों चुपचाप भीतर चली गईं। मतवा पलँगरी पर और भउजी नीचे पीढ़े पर।
“हम अभागी के दुआरे राउर गोड़ परल, हम तरि गइनी ए मतवा!” (मुझ अभागी के घर आप के पाँव पड़े, मैं तर गई मतवा!)
मतवा की आँखों में आश्वस्ति का वह भाव था जो बस सहज मानुष विश्वास को निथार लेता है। भउजी कहती चली गई। बियाह, सँवाग का प्रेम, वैधव्य, गाँव और नैहर की उपेक्षा, प्रताड़ना, अपना दुर्भाग्य, देवर की नालायकी और कुल खानदान पर नाश का घिरता अन्धेरा – का पुरनियन के केहू नामलेवा नाहीं बची? हमार जिनगी बिरथा जाई? (क्या पुरखों का कोई नामलेवा नहीं बचेगा? मेरी ज़िन्दगी व्यर्थ ही चुक जायेगी?)
“जौने घरे अइसन पतोहि, वो घरे नास, नाहीं रे!” (जिस घर में ऐसी बहू हो, उस घर में नाश, नहीं रे!)
“जनि धीरज धराव ए मतवा!” (धैर्य मत बँधाइये मतवा!) यम माँग पोंछ ले गये, देवर लखेरा।
“...हम का करतीं ए मतवा? बबुना न बियाह करें, न कवनो के अइसहीं राखें। आपन मोहिनी देखवलीं कि दीया त जरे! फसिल हो गइले पर खेत्ते के काच कीच केकरा के मन परेला? अकेल बबुना के हाथे खेत नाहीं रुकिहें ...हम से पाप भइल ए मतवा! दियना जरा के हम बुता जाइब, हमार मुगती कइसे होई ए मतवा, बाबा से पूछबि!” “(मैं क्या करती मतवा? देवर न विवाह करे और न किसी को ऐसे ही रख ले। अपनी मोहिनी दिखाई कि दीप तो जले! फसल हो जाने पर खेत की कीच काच किसको याद रहती है? अकेले देवर के हाथ खेती नहीं रुकने वाली ...मुझसे पाप हुआ है मतवा! दीप जला कर मैं बुझ जाऊँगी, मेरी मुक्ति कैसे होगी मतवा, बाबा से पूछियेगा!)”
भउजी डहँको पहँको(फूट फूट)रोने लगी। नीचे उतर कर मतवा ने उसे गोद में ले लिया। जैसे वर्षों बाद माँ की छाँव मिली हो, भउजी बच्चे सी सिमट कर गोल हो गई। पियरी को निहारती मतवा के मन में सुवास उठी – गेना फूल (गेंदे का फूल)।
उन्हों ने समझाना और सांत्वना देना शुरू किया – सोहित आ इसरभर कवने ओर गइल बाँड़े (सोहित और इसरभर किस ओर गये हैं)? मतवा को यह जान राहत हुई कि साँझ तक वापस नहीं आने वाले।
“जौन भइल तौन भइल। खुश रहल कर। भगवान सब ठीक करिहें। रहता निकली न! कवनो बाति होखे त हमके जरूर जनइहे। खबरदार जो मुअले के बाति सोचलू! (जो हुआ सो हुआ। प्रसन्न रहा करो। भगवान सब ठीक करेंगे। रास्ता निकलेगा न! कोई बात हो तो मुझे अवश्य खबर करना। खबरदार जो मरने की बात सोची!”
“कइसे जनाइब ए मतवा? के हमार निस्तार करी? (मैं कैसे खबर करूँगी मतवा? मेरा निस्तारण कौन करेगा?)”
मतवा ने गाढ़ी पियरी को एक बार पुन: देखा और उत्तर दिया – ई लुग्गा अब जनि पहिर। सहेज के राखि ल। कब्बो हमार ताक लागे त बइठका के छान्ही एके पसार दीह, हम चलि आइब। ... अब हम जाइबि (यह धोती अब मत पहना करो। सँभाल कर रख लो। कभी मेरी आवश्यकता हो तो बैठक की फूस वाली छत पर इसे फैला देना, मैं आ जाऊँगी। ... अब मैं चलूँ)।
लछ्मी उठी और आँचल की खुँटिया खोल मुट्ठी भर ली। घरदुआरी से मतवा को विदा करती भउजी ने सिर को भूमि पर नवाया और उनके पाँवों पर सिक्के रख दिये। मतवा ने उठाया। चाँदी का रुपया और चवन्नी, कुल बीस आना।
“ई का ए पतोहा (यह क्या बहू)?”
“घरे आइल देवता खाली हाथ नाहिं बिदा कइल जाला। ... राखि लेईं, कामे आई। बस बीस डग बाकी बा अब (घर आये देवता को खाली हाथ विदा नहीं किया जाता।... रख लीजिये, काम आयेंगे। अब तो बस बीस पग चलने को बाकी हैं)।“ और भउजी मुड़ गई।
लौटती मतवा को किसी ने नहीं देखा। रस्ते के पिछुउड़ एक लँगड़ा उचका भर था। तेज कानों ने गोड़हरा पछेले(एक तरह के पाँव के आभूषण)के स्वर पहचान लिये थे – खदेरन इहाँ के मतवा, एँहर? का करे? (खदेरन के घर की मतवा, इधर? क्या करने?)
तकिये के नीचे से उसने बही निकाला। खोल कर पुराना पड़ गया ललछौंहा कपड़ा फेंका और नये कपड़े पर लाल टीका लगा उसमें बही को लपेटने लगा। कपड़े का रंग पीला था - शुभ गाढ़ा पीला।
...पियरी को उतार गगरी में रख पलँगरी के नीचे छिपाने के बाद भउजी की नज़र सोहित के अँगरखे पर पड़ी। सुई में धागा पिरो मुस्कुराती उसने खुद से कहा – मतवा! और सिलने लगी।
बाहर ललछौंह कपड़े को खींचते फाड़ते कुकुरों की रार थी लेकिन कुकुरझौंझ से बेखबर भउजी गीत तुरुप रही थी:
साँझ सेनुरवा नयन भरमावेला, अँखिया अँसुवन लोर रे
हमरे बोलवले सजना न आवें, भुइयाँ भइल बिना छोर रे!
(जारी)
शनिवार, 24 नवंबर 2012
स्त्री पाठ और बन्द द्वार
गुरुवार, 22 नवंबर 2012
सुदास चचा और शीरत खाँ
अब इस पे क़यामत है कि हम चुप नहीं रहते।
बुधवार, 21 नवंबर 2012
तुम आशा विश्वास हमारे
शनिवार, 17 नवंबर 2012
कातिक कान्ह गोधन देवउठान
महाविषुव की खिसकन पर्याप्त हो चुकी थी और ऋतुचक्र आधारित सत्रों के पुनर्नियोजन की आवश्यकता बढ़ गई थी। वह संक्रमण समय हर क्षेत्र में संघर्षों का काल था। एक ओर कुरुओं, पांचालों और नागों में वर्चस्व का बहुकोणीय संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर त्रयी नाम से प्रसिद्ध वैदिक वाङ्मय के पुनर्सम्पादन/संकलन का आर्ष संघर्ष। वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों के पुरोहित काल के पहरुवे भी होते थे पर वे कहीं और व्यस्त थे। एक वर्ग ऋषि कृष्ण द्वैपायन व्यास (यह योद्धा कृष्ण से भिन्न हैं और बाद में वेदव्यास कहलाये) के नेतृत्त्व में अथर्व आंगिरस की वनस्पति औषधि अभिचार परम्परा को अलग अथर्ववेद में संकलित करने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग कुरुवंश के परम्परा प्रेमी पुरोहितों का था जो स्थिति को यथावत रखने के पक्ष में था। वर्षों तक चले संघर्षों का अन्त व्यास की विजय से हुआ, चार संहितायें संकलित हुईं और अथर्वण शाखा को यथोचित सम्मान मिला।
आगे की शताब्दियों में एक बड़ी प्रगति यह हुई कि सत्रों का प्रारम्भ शीत अयनांत (आज का 22 दिसम्बर) से होने लगा और पुराने विषुव आधारित सत्रों से नये सत्रों के समायोजन प्रयासों के कारण तमाम जटिलतायें उत्पन्न हुईं। देवयान और पितृयान की अवधारणा लुप्त हो गई, सूर्य के अयनांत सापेक्ष उत्तरायण और दक्षिणायन अंतराल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। संवत्सर का प्रारम्भ करने वाला अग्रहायण यानि मृगशिरा नक्षत्र अब स्वनामधारी महीने मार्गशीर्ष का पर्याय हो गया। चन्द्रगति आधारित मास तंत्र में यह एकमात्र महीना है जिसके दो नाम 'लोक प्रचलित' हैं - अगहन और मार्गशीर्ष।
ऐसे में कुरुवंश की जटिल राजनीति से दूर एवं द्वैपायन की वैदिक पुनर्संकलन की चिंताओं से अनभिज्ञ किशोर कृष्ण ने दूर देहात में एक व्यावहारिक एवं जन से जुड़ा विकल्प दिया। उसकी उपासना पद्धति में वैदिक सत्रों का सार तो था लेकिन सरल कर्मकांड सामान्य गोचारण से सीधे जुड़ते थे, पुरोहित और धनिक प्रतिष्ठित यजमानों की आवश्यकता नहीं थी। मूलत: 'गोकुल' की घुमन्तू जीवन शैली से जुड़ी यह पद्धति आगे किसानों से जुड़ गई। उसके व्यक्तित्त्व में वह चमत्कारी आकर्षण था जिसने व्यास से बहुत पहले ही परिवर्तन के बीज बो दिये।
वहीं छ्ठे मंत्र में घोर आंगिरस ऋषि द्वारा देवकी पुत्र कृष्ण को यह ज्ञान देने की बात कही गयी है जिससे वह अन्य दर्शनों की पिपासा से मुक्त हो जाते हैं:
तद्धैतद्घोर आंगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रा...यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं - घोर का आंगिरस होना जो कि अथर्वण परम्परा है और कृष्ण का पिता के स्थान पर माँ के नाम से पहचाना जाना। स्थापित कर्मकांडी व्यवस्था से भेद स्पष्ट हैं। संभवत: मात्र 8800 श्लोकों वाली जयगाथा में कृष्ण द्वारा वैदिक कर्मकांडों के प्रति विरक्ति और अनासक्ति के प्रति स्वीकार भाव देख परवर्ती विद्वानों ने उसे विस्तृत कर एक पूर्ण शास्त्र के रूप में व्यवस्थित कर दिया।
कालांतर में राम और कृष्ण का आश्रय ले इन्द्र के छोटे भाई विष्णु की अवतारी परम्परा स्थापित हुई जो वैदिक कर्मकांडों से परे जन से जुड़ी थी।
उस समय पुरोहितों के शास्त्रीय सत्रों से प्रेरणा ले आने वाले अगहन के महीने में उपजने वाले नये धान 'अगहनी' की अच्छी उपज की मंगल कामना और कृषिभूमि पर सँवागों को पुन: प्रवृत्त करने हेतु घरनियों के सूप कातिक के महीने में बज उठते- उठो!
दीपपर्व की भोर में गृहिणियाँ ईश को बुलाने और दरिद्रता को भगाने की बुदबुदाहटों से उषा का स्वागत करतीं थीं। यह नये वर्ष में वैदिक सत्रों के प्रारम्भ होने से पहले की तैयारियों जैसा था। अगला दिन प्रतिपदा का था। पशु कृषकों के जीवन आधार थे। वर्ष में उनके विश्राम के लिये वह दिन सुरक्षित कर दिया गया। प्रतिपदा से बना – परुआ, जिस दिन आज भी पशुओं को मनुष्यवत सेवा और आदर सत्कार दिया जाता है।
उस आग में अन्न नहीं कन्द मूल जैसे सुथनी, शकरकन्द आदि भुने जाते हैं। जलकन्द सिंघाड़ा और नई ईंख के साथ उनका रात में पारण किया जाता है और वर्षा के चातुर्मास में सोये विष्णु जाग जाते हैं - प्रबोधिनी एकादशी। इस शेषशायी विष्णु का बिम्ब वैदिक गाथाओं जैसा ही विराट है।
सूर्यस्वरूप और काल से परे विष्णु अंतरिक्ष सागर में पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी क्षितिज तक महासर्प राशि पर लेटे हुये हैं। उनकी नाभि से प्रजापति यानि वही पुराना मृगशिरा निकलता दिख रहा है और पैरों से स्रोतस्विनी। तमाम ग्रह नक्षत्र जगते देव की वन्दना में लीन हैं।
उठहु हे देव उठहु, सुतल भइलें छौ मास
तोहरे बिना ए देव, बारी न बियहल जा, बियहल ससुरा न जाय
कारी जे पहिरे कारी कमरिया, निरसइल पिपरा के पात
झम झम झमकी मानर बाजी, मंगल यहि छौ मास। इस देवउठान के साथ ही देवयानी छ: महीने प्रारम्भ हो जाते हैं जब विवाहादि मंगल कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। यमप्रतीक गोधन को कूटने के एक गीत का अंश निम्नवत है:
ऐरो के कूटीलें, भैरो के कूटीलें, कूटीलें जम के दुआर
कूटीलें भइया के दुसमन, सातो पहर दिन रात। ... भइया दूज से प्रारम्भ हो अगहन पूर्णिमा तक चलने वाला भाई बहन का पर्व पिड़िया अगले अंक में।
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अगले अंक में: पिड़िया में यम-यमी, प्रेम, नरबलि और अथर्ववेद की वनस्पति स्त्री परम्परा