मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
.. यह सम्बन्ध भगवान ने सोच समझ कर तोड़ा है ? - एक सिपाही की गोली बिंधी डायरी..
मेरी प्यारी प्यारी लक्ष्मी!
मेरी प्यारी प्यारी मीठी पत्नी, आय लव यू।..
मैं जहाँ भी रहूँगा तुम्हें प्यार करता रहूँगा, सातो जनम तुम्हें प्यार करता रहूँगा, मर भी गया तो भी तुम्हें प्यार करता रहूँगा...
लक्ष्मी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ..तुमने मुझे एक बेटा और एक बेटी दिया है। मेरे जीवन का सबसे सुखद समय था 15 दिसम्बर 1988, जब मुझसे तुम्हारी शादी हुई थी...
अगर मैं न रहूँ ..तुम बेटा बेटी दोनों की अच्छी तरह परवरिश करना ..मेरा हर समय यहाँ जान का खतरा रहता है, कभी कहीं कुछ भी हो सकता है.. ड्यूटी पे जान हाथ में लेके चलना पड़ता है। ...
माई डियर लक्स, मैं तुम्हारे बिना एक पल भी जी नहीं सकूँगा। तुमसे मेरा जो सम्बन्ध भगवान ने जोड़ा है, शायद कुछ सोच समझ के ही जोड़ा है...
संग-संग चलूँगा बन के तेरा साजन
आ तेरी माँग भर दूँ मेरी दुल्हन...
.. मैं जानता हूँ कि मैं परिवार के लिए कुछ खास नहीं कर सकता और तुम हो जिसे सभी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं... मैं तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहता हूँ..जब मैं तुम्हें खुश देखता हूँ तो मुझे शांति मिलती है..जो प्यार तुमने दिया है लक्ष्मी, पैदा होने से अब तक किसी से नहीं मिला.. बहुत कम लोग ऐसे भाग्यशाली होते हैं जिन्हें तुम सी पत्नी मिलती है..
अभी देश का हाल खबर ठीक नहीं है .. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ लेकिन अपने देश को भी प्यार करता हूँ। अपने देश की स्थिति दिनों दिन खराब होती जा रही है। ..कुछ लोगों की पार्टी पॉलिटिक्स ने अपने देश के वजूद को ही खतरे में डाल दिया है। हम झेल रहे हैं।....
नरक के रस्ते से निकलना मेरे लिए कठिन है। ये फागुन, ये बसंती बयार ... मन हिलोर लेता है कि फिर वे रस्ते खींच लेते हैं अपनी तरफ ... ये दुनिया इतनी असंगत क्यों है? ...
आज सुबह से ही ...
माओवादियों के अपने तर्क हैं.. राज्य के अपने तर्क हैं.. सबकी अपनी अपनी लड़ाई है ... कोई लक्ष्मी कोई रोहन कोई ईशा क्यों इन लड़ाइयों की परिणति से ..? क्यों ??
मन सूख गया है। मैं कुछ नहीं लिख सकता। 'प्यासा' का गीत टुकड़ा टुकड़ा हो मेरे मस्तिष्क मेरे भाव सबको सुखा रहा है:
ये इंसा के दुश्मन समाजों की दुनिया
..एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनियां है या आलम-ए-बदहवासी
.. ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से मौत सस्ती
... ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है।
मेरी प्यारी प्यारी मीठी पत्नी, आय लव यू।..
मैं जहाँ भी रहूँगा तुम्हें प्यार करता रहूँगा, सातो जनम तुम्हें प्यार करता रहूँगा, मर भी गया तो भी तुम्हें प्यार करता रहूँगा...
लक्ष्मी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ..तुमने मुझे एक बेटा और एक बेटी दिया है। मेरे जीवन का सबसे सुखद समय था 15 दिसम्बर 1988, जब मुझसे तुम्हारी शादी हुई थी...
कॉंस्टेबल सूरज बहादुर थापा की गोली बिंधी डायरी : चित्र और सामग्री इंडियन एक्सप्रेस से साभार |
अगर मैं न रहूँ ..तुम बेटा बेटी दोनों की अच्छी तरह परवरिश करना ..मेरा हर समय यहाँ जान का खतरा रहता है, कभी कहीं कुछ भी हो सकता है.. ड्यूटी पे जान हाथ में लेके चलना पड़ता है। ...
माई डियर लक्स, मैं तुम्हारे बिना एक पल भी जी नहीं सकूँगा। तुमसे मेरा जो सम्बन्ध भगवान ने जोड़ा है, शायद कुछ सोच समझ के ही जोड़ा है...
संग-संग चलूँगा बन के तेरा साजन
आ तेरी माँग भर दूँ मेरी दुल्हन...
.. मैं जानता हूँ कि मैं परिवार के लिए कुछ खास नहीं कर सकता और तुम हो जिसे सभी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं... मैं तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहता हूँ..जब मैं तुम्हें खुश देखता हूँ तो मुझे शांति मिलती है..जो प्यार तुमने दिया है लक्ष्मी, पैदा होने से अब तक किसी से नहीं मिला.. बहुत कम लोग ऐसे भाग्यशाली होते हैं जिन्हें तुम सी पत्नी मिलती है..
अभी देश का हाल खबर ठीक नहीं है .. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ लेकिन अपने देश को भी प्यार करता हूँ। अपने देश की स्थिति दिनों दिन खराब होती जा रही है। ..कुछ लोगों की पार्टी पॉलिटिक्स ने अपने देश के वजूद को ही खतरे में डाल दिया है। हम झेल रहे हैं।....
यह अंश है माओवादियों द्वारा मार दिए गए इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के जवान सूरज बहादुर थापा की डायरी से ..15 फरवरी को वह वीरगति को प्राप्त हुए।
..रोहन और ईशा थापा के साथ अब कौन फोटो खिंचाएगा ? लक्ष्मी की माँग अब कौन भरेगा ?
____________________________________________________________नरक के रस्ते से निकलना मेरे लिए कठिन है। ये फागुन, ये बसंती बयार ... मन हिलोर लेता है कि फिर वे रस्ते खींच लेते हैं अपनी तरफ ... ये दुनिया इतनी असंगत क्यों है? ...
आज सुबह से ही ...
माओवादियों के अपने तर्क हैं.. राज्य के अपने तर्क हैं.. सबकी अपनी अपनी लड़ाई है ... कोई लक्ष्मी कोई रोहन कोई ईशा क्यों इन लड़ाइयों की परिणति से ..? क्यों ??
मन सूख गया है। मैं कुछ नहीं लिख सकता। 'प्यासा' का गीत टुकड़ा टुकड़ा हो मेरे मस्तिष्क मेरे भाव सबको सुखा रहा है:
ये इंसा के दुश्मन समाजों की दुनिया
..एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनियां है या आलम-ए-बदहवासी
.. ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से मौत सस्ती
... ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है।
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
खम्भे जैसी खड़ी है ...
.
.
.
उस समय जब कि महीने के अंतिम सप्ताह पर्स वेतन का चेक अगोरता था - तुम थी
और तुम्हारी पायलों की खनक सिक्कों सी थी।
सामने तो तुम खनकती रहती थी लेकिन अकेलेपन के उन
क्षणों में तुम्हारी उदास आँखें सूनी दीवार तकती थीं, शायद
तुम्हें उदासी का भान भी नहीं था - सैंया नादान, बेटी तो थी
ही। दीवार पर कोई चित्र न सही उससे लग कर एक टी वी तो आ ही सकता था। तुमने कभी कुछ नहीं कहा।
फर्श पर सोना ठीक था कि टी वी न देखना ? विकल्प विकल्पहीन, दोनों ठीक थे।
तुमने अपने योगी पति से कुछ नहीं कहा - जोगिया रंग की चादर बिछा हम फर्श पर
सोते रहे।
बी पी एल वन्दे मातरम सीरीज का 14" टी वी बॉस की बाइक पर सवार होकर घर आया - उस दिन
समझ नहीं पाया कि तुम खुश हुई या नहीं? लेकिन सूनी दीवार के
दोनो तरफ के आर सी सी खम्भे इंजीनियर की दृष्टि में पहली बार आए थे। देख कर भी न देखना और देखने देखने में अंतर होना - तड़ित द्युति सा आलोकित हो गया
था मन।
तुम्हारी साँस सहारे दो और जीवन जीते रहे। ..और वह दिन जब नन्हीं सी बेटी
के साथ बाज़ार गया था। सौ की नोट को सब्जी वाले ने लेने के बाद पचास का बताया था, खूब कहासुनी हुई - उस समय पचास रुपए
बड़ी सम्पति थे। घर आने पर बताने की गलती कर बैठा और
तुमने योगी का सब्जी लाना बन्द करा दिया। ...उस दौरान योगी ज़मीन में कांक्रीट के
खम्भे ढलवा रहा था - उसे शक्ति देने के लिए ...
..दूसरी संतान के समय और बाद में भी कुछेक दिनों को छोड़ तुम
अकेली रही। अब आर्थिक तंगी जैसी बात नहीं लेकिन समय की तंगी थी। योगी दौरे पर था -
सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के लिए पाइपलाइनों में ईंधन बहाना था लेकिन मन की नेह
नहर सूखी ही रही, कभी सोचा ही
नहीं कि ऊर्जा और ऊष्मा की आवश्यकता उस समय घर में अधिक थी। तुम चुप रही - घर आने
पर नेह नीर चेहरे पर छलकता था, आँखों में नहीं ...उस मकान
में खम्भे नहीं बस दीवारें थीं, क्या सचमुच ?
.. याद आता है दिल्ली में भतीजे के जन्म के बाद हिजड़ों के
आगे दीवार बन कर तुम्हारा खड़ा हो जाना। मेरी सारी क़ानूनी करामातों को धता
बताते हुए कितनी गरिमा और औदार्य से तुमने उनको संतुष्ट कर विदा किया था !
उल्लास की बेला का तुमने मान रखा था ... दिल्ली
पुलिस आधे घंटे बाद आई थी।
... लखनऊ की डेढ़ साल की भटकन - एक अदद 'अपने घर' की तलाश और सैंया ग़जब का सनकी। उसे तो
सिविल इंजीनियरिंग और वास्तुविद्या की सारी मान्यताएँ बस एक घर में ही चाहिए थीं -
जेब में बस कौड़ियाँ खड़कती थीं और मन में मिस्री मन्दिरों जैसे विशाल खम्भे आकार
लेते थे!
... हुँह .. याद नहीं आता कभी तुमने ये कहा हो। छ्ल क्षद्म
झेल, काले धन का खेल देख और शुभचिंतकों की मिट्टी पलीद कर जब
झुके मन निराश आता तो तुम्हारे आस जगाते एक दो बोल सुनता और तन जाता एक खम्भा - झुका मन खुल कर आकाश हो जाता।
.. आज 'अपना घर' है
जिसमें सिविल इंजीनियरिंग और वास्तुविद्या की मान्यताएँ नहीं के बराबर हैं - अनगढ़
घर लेकिन अनेकों आर सी सी के खम्भों के बीच एक घूमता खम्भा है, वह इस 'अनगढ़' को 'गढ़' बनाता है - वह तुम हो।
तुम्हारे सहारे ढेरों भंगिमाएँ बना सकता हूँ, निभा सकता हूँ। हाँ, पीछे झुकता जा
सकता हूँ - पता जो है कि गतिशील खम्भा सम्हाल लेगा। आवश्यकता पड़ने पर आगे भी खड़ा
हो जाएगा - मैं चुपचाप ओट ले सकूँगा। ..तुम हो तो सब हैं - घर, दीवार, बच्चे, रसोई,
सेमिनार, ट्रेनिंग, प्रोजेक्ट,
फाइनेंस, निगोसिएसन, ब्लॉगरी
... तुम हो सब है..
शब्दचिह्न :
खम्भा,
वास्तु,
श्रीमती जी,
सिविल इंजीनियरिंग
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
हे देश शंकर !
चित्र - सम्बन्धित इंटरनेट साइटों से साभार
हे देश शंकर!
फागुन माह होलिका, भूत भयंकर -
प्रज्वलित, हों भस्म कुराग दूषण अरि सर -
मल खल दल बल। पोत भभूत बम बम हर हर ।
हे देश शंकर।
स्वर्ण कपूत सज कर
कर रहे अनर्थ, कार्यस्थल, पथ घर बिस्तर पर ।
लो लूट भ्रष्ट पुर, सजे दहन हर, हर चौराहे वीथि पर
जगे जोगीरा सरर सरर, हर गले कह कह गाली
से रुचिकर।
हे देश शंकर।
हर हर बह रहा रुधिर
है प्रगति क्षुधित बेकल हर गाँव शहर
खोल हिमालय जटा जूट, जूँ पीते शोणित
त्रस्त प्रकर
तांडव हुहकार, रँग उमंग धार, बह चले सुमति गंगा
निर्झर
हे देश शंकर।
पाक चीन उद्धत बर्बर
चीर देह शोणित भर खप्पर नृत्य प्रखर
डमरू डम घोष गहन, हिल उठें दुर्ग
अरि, छल कट्टर ।
शक्ति मिलन त्रिनेत्र दृष्टि, आतंक
धाम हों भस्म भूत, ढाह कहर
हे देश शंकर।
~~~~~~~~~~~~~~~~~
-
गिरिजेश राव
मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010
सिपाही मेरे
सिपाही मेरे ! तुम हो फ्रंट पर
तो रंग है, फागुन है, सावन है।
बर्फीला मौसम लगातार वहाँ
यहाँ विविधता मनभावन है।
याद आते होंगे इस समय
सरसो और टेसू के फूल
किसी के जूड़े में सजे बेला फूल
खीझ आती जो होगी
बहलाती होगी कठिन नौकरी।
क्या उठती होगी उमंग सीने में
हिमाच्छादित शैल शृंगों को देख?
देश के भीतर फैला कुकुर झौंझ
रेडियो पर सुन तुम खौलते होगे
अकेले में चट्टान पर पैर मार
ब्लडी ईडियट्स कहते होगे।
फिर याद आते होंगे जूड़े के फूल
अकेले में कोई खिलखिल सुनते होगे !
अनजान भाव - सीना तन जाता होगा।
ऐसे में कल परवाना आया था -
छुट्टी की मंजूरी का
तुमने अकेले में ही बूट खटकाया था,
कैम्प में लौट जश्न मनाया था ।
तुम्हारी बूटों का यूँ खटकना,
वज्र हृदय हिमवान को न भाया था।
रौद्र रूप दिखा हिमस्खलन हुआ
दब गए तुम अनजान भाव संग
अपने जैसे कितने साथियों संग।
सरसो टेसू फूल
खिलखिल बेला फूल
फागुन उमंग
बह गए सब आँसू संग ।
रंग उतरा किसी की माँग सूनी कर ।
मैं इन पंक्तियों को लिख
श्रद्धांजलि की खानापूरी कर
खो गया फागुन की तुकबन्दियों में ।
..
तो रंग है, फागुन है, सावन है।
बर्फीला मौसम लगातार वहाँ
यहाँ विविधता मनभावन है।
याद आते होंगे इस समय
सरसो और टेसू के फूल
किसी के जूड़े में सजे बेला फूल
खीझ आती जो होगी
बहलाती होगी कठिन नौकरी।
क्या उठती होगी उमंग सीने में
हिमाच्छादित शैल शृंगों को देख?
देश के भीतर फैला कुकुर झौंझ
रेडियो पर सुन तुम खौलते होगे
अकेले में चट्टान पर पैर मार
ब्लडी ईडियट्स कहते होगे।
फिर याद आते होंगे जूड़े के फूल
अकेले में कोई खिलखिल सुनते होगे !
अनजान भाव - सीना तन जाता होगा।
ऐसे में कल परवाना आया था -
छुट्टी की मंजूरी का
तुमने अकेले में ही बूट खटकाया था,
कैम्प में लौट जश्न मनाया था ।
तुम्हारी बूटों का यूँ खटकना,
वज्र हृदय हिमवान को न भाया था।
रौद्र रूप दिखा हिमस्खलन हुआ
दब गए तुम अनजान भाव संग
अपने जैसे कितने साथियों संग।
सरसो टेसू फूल
खिलखिल बेला फूल
फागुन उमंग
बह गए सब आँसू संग ।
रंग उतरा किसी की माँग सूनी कर ।
मैं इन पंक्तियों को लिख
श्रद्धांजलि की खानापूरी कर
खो गया फागुन की तुकबन्दियों में ।
..
सिपाही मेरे ! तुम थे फ्रंट पर...
रंग है, सावन है, फागुन है।
शब्दचिह्न :
श्रद्धांजलि
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
ब्लॉगर की अम्माँ गोंइठी दे।
फाग महोत्सव में अब तक:
(1) बसन तन पियर सजल हर छन
(2) आचारज जी
(3) युगनद्ध-3: आ रही होली
(4) जोगीरा सरssरsर – 1
(5) पुरानी डायरी से - 14: मस्ती के बोल अबोल ही रह गए
(6) आभासी संसार का होलिका दहन
_________________________________________________________________
(1) बसन तन पियर सजल हर छन
(2) आचारज जी
(3) युगनद्ध-3: आ रही होली
(4) जोगीरा सरssरsर – 1
(5) पुरानी डायरी से - 14: मस्ती के बोल अबोल ही रह गए
(6) आभासी संसार का होलिका दहन
_________________________________________________________________
होलिका दहन के सामान जुटाने हेतु दूसरों के मचान, झोंपड़ी, चौकी, दरवाजे पर पड़ी लकड़ी, पतहर, यहाँ तक कि फर्नीचर भी सहेज देने की पुरानी परिपाटी अब समाप्तप्राय हो रही है। लोग इस अवसर पर वैमनस्य भी साधते रहे हैं।
इसके साथ ही एक परम्परा रही है - गोंइठी जुटाने के लिए भिक्षाटन जैसी। गोंइठी कहते हैं छोटे उपले को। पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में इसे चिपरी भी कहते हैं।
नवयुवक गोलबन्दी कर हर दरवाजे पर जा जा कर कबीरा के साथ एक विशिष्ट शैली का गान भी करते थे जिसमें गृहिणियों से होलिका दहन के ईंधन हेतु गोइंठी की माँग की जाती थी। इस गान में 'गोंइठी दे' टेक का प्रयोग होता था। लयात्मक होते हुए भी कई लोगों द्वारा समूह गायन होने के कारण इसमें बहुत छूट भी ले ली जाती थी। जाति और समाज बहिष्कृत लोगों के यहाँ इस 'भिक्षा' के लिए नहीं जाया जाता था। किसी का घर छूट जाता था तो वह बुरा मान जाता था।
.. समय ने करवट बदली और कई कारणों से, जिसमें अश्लीलता सम्भवत: मुख्य कारण रही होगी, यह माँगना धीरे धीरे कम होता गया। आज यह प्रथा लुप्त प्राय हो चली है।
लेकिन कभी इस अवसर का उपयोग पढ़े लिखे 'सुसंस्कृत ग्रामीण लंठ जन' लोगों के मनोरंजन के लिए भी करते थे। गाँव समाज से जुड़ी बहुत सी समस्याओं और बातों को जोड़ कर गान बनाते और घर घर सुनाते। इन गीतों में बहुत चुटीला व्यंग्य़ होता था।
मेरे क्षेत्र के एक गाँव चितामन चक (चक चिंतामणि) में एक अध्यापक ऐसे ही थे जिनके मुँह से कभी कुछ बन्दिशें मैंने सुनी थीं। आभासी संसार के इस फाग महोत्सव में आज की मेरी प्रस्तुति उन्हें श्रद्धांजलि है, एक प्रयत्न है कि आप को उसकी झलक दिखा सकूँ और यह भी बता सकूँ कि होलिकोत्सव बस लुहेड़ों का उच्छृंखल प्रदर्शन नहीं था, उसमें लोकरंजन और लोक-अभिव्यक्ति के तत्त्व भी थे। क्या पता किसी गाँव गिराम में आज भी हों !
_____________________________________________________
तुमको लगाएँ दाल का गुलाल
जल गइ बजरिया फागुन की आग
महँगा बुखार महँगा इलाज
अब की हम फूँके शरदी बखार
राउल की अम्माँ गोंइठी दे।
आज नहिं जाना पास नहिं जाना
कोठरी के भीतर बड़ा मेहमाना
घट गइ आग सीने में
अरे सीने में भठ्ठी में
हमको चिकन तन्दूरी बनाना
चिद्दू की चाची गोंइठी दे।
बोले मराठी हिन्दी न(?) आती
जल गई जुबाँ अँगरेजी में
अँगरेजी में गाली मराठी में गाली
हिन्दी हो गइ ग़रीब की लाली
आँसू चढ़े बटलोई में
मनमोहना अब गोंइठी दे।
दो कदम आए एक कदम जाए
करांति की खातिर कौमनिस्ट बुलाए
अरुणाँचल भी आए लद्दाख भी आए
ग़ायब मिठाई चीनी में ।
हुजूर की कमाई जी जी में
सुलगे सिपहिया बरफीली में
एंटी की लुंगी में गोंइठी दे।
बिस्तर पे खाना बिस्तर पे पाना
सारा अखबार बस कूड़े में जाना
गैस है खत्तम और खाना बनाना
खाना चढ़ाया चूल्हे पे ।
लकड़ी न लाए बस टिपियाए
झोंक दूँ कम्पू चूल्हे में
ब्लॉगर की अम्माँ गोंइठी दे।
_________________________________________________
लद्दाख और अरुणांचल में रोज़मर्रा सी हो चुकी घुसपैठों के मद्देनज़र पसरा हुआ सन्नाटा डराता है। . . .
जल गइ बजरिया फागुन की आग
महँगा बुखार महँगा इलाज
अब की हम फूँके शरदी बखार
राउल की अम्माँ गोंइठी दे।
आज नहिं जाना पास नहिं जाना
कोठरी के भीतर बड़ा मेहमाना
घट गइ आग सीने में
अरे सीने में भठ्ठी में
हमको चिकन तन्दूरी बनाना
चिद्दू की चाची गोंइठी दे।
बोले मराठी हिन्दी न(?) आती
जल गई जुबाँ अँगरेजी में
अँगरेजी में गाली मराठी में गाली
हिन्दी हो गइ ग़रीब की लाली
आँसू चढ़े बटलोई में
मनमोहना अब गोंइठी दे।
दो कदम आए एक कदम जाए
करांति की खातिर कौमनिस्ट बुलाए
अरुणाँचल भी आए लद्दाख भी आए
ग़ायब मिठाई चीनी में ।
हुजूर की कमाई जी जी में
सुलगे सिपहिया बरफीली में
एंटी की लुंगी में गोंइठी दे।
बिस्तर पे खाना बिस्तर पे पाना
सारा अखबार बस कूड़े में जाना
गैस है खत्तम और खाना बनाना
खाना चढ़ाया चूल्हे पे ।
लकड़ी न लाए बस टिपियाए
झोंक दूँ कम्पू चूल्हे में
ब्लॉगर की अम्माँ गोंइठी दे।
_________________________________________________
लद्दाख और अरुणांचल में रोज़मर्रा सी हो चुकी घुसपैठों के मद्देनज़र पसरा हुआ सन्नाटा डराता है। . . .
इस पोस्ट को लिखते समय मुझे भारत के रक्षा मंत्री का नाम नेट पर ढूँढना पड़ा :(
जब मैं मराठी और हिन्दी की गुथ्थी सुलझाने के लिए अंग्रेजी का अखबार पढ़ रहा होता हूँ , उस समय मेरे कान सन्नाटे में सीमा से आती मंडारिन की फुसफुसाहट सुनते हैं । अपने बच्चे की साथ खेलने की माँग पर मैं मुँह बा देता हूँ - आवाज़ नहीं निकलती । भाषाओं ने मुझे मूक बना दिया है ..
कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को कृषि मंत्री तक पहुँचा दे? - चूल्हे जलाने हैं।
कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को गृहमंत्री तक पहुँचा दे ? - क़ानूनी रवायतों के चिथड़े जलाने हैं।
कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को प्रधानमंत्री तक पहुँचा दे ? - भारत माता की सूज गई आँखों को सेंकना है।
कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को रक्षामंत्री तक पहुँचा दे ? -भारत की सीमाओं पर होलिकाएँ सजानी हैं।
कोई है जो गोंइठी की मेरी मूक माँग को ब्लॉगर तक पहुँचा दे ? - टिप्पणियों के भर्ते के लिए पोस्ट का 'बेगुन' भूनना है।
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
आभासी संसार का होलिका दहन
जो आ रही है वह ब्लॉगरी प्रारम्भ करने के बाद की मेरी पहली होली होगी। छोटे समयांतराल में ही मैंने हिन्दी ब्लॉगरी को समृद्ध होते देखा है - एक से बढ़ कर एक नगीने जुड़ते रहे हैं। इस आभासी संसार में उत्सव भी तो होने चाहिए। होली आ रही है, क्यों न यहाँ भी मनाएँ ?
आप को पता ही होगा कि होलिका दहन के दिन शरीर में उबटन लगा कर उसकी झिल्ली (छुड़ाया हुआ भाग) होलिका के साथ जला दी जाती है।मंगल कामना रहती है कि घर के हर सदस्य के सारे दु:ख दर्द भस्म हो जाँय।
आप को पता ही होगा कि होलिका दहन के दिन शरीर में उबटन लगा कर उसकी झिल्ली (छुड़ाया हुआ भाग) होलिका के साथ जला दी जाती है।मंगल कामना रहती है कि घर के हर सदस्य के सारे दु:ख दर्द भस्म हो जाँय।
.. ब्लॉगरी को घर परिवार मानने से कई वस्तुनिष्ठ लोगों को आपत्ति हो सकती है लेकिन फागुन बयार शास्त्रीयता की परवाह ही कहाँ करती है ! जैसे घर के सदस्यों में होता है, मन में ढेर सारा अवसाद का कूड़ा इकठ्ठा हो गया है। कतिपय चर्चाएँ,टिप्पणियाँ और लेख आप के लिए कष्टकारी रहे होंगे। दिख ही रहा है कि बात अब न्यायालय के द्वार पहुँचाने की हो रही है। ऐसे में एक निवेदन है - उन लोगों से जो स्वार्थ वश भद्दी चर्चाएँ, लेख और टिप्पणियाँ करते, लिखते रहे हैं और उनसे भी जो इन सबसे सुलगते रहे हैं, कष्ट पाते रहे हैं - सारे छ्ल, अमंगल, दुर्वाद, कष्ट, क्रोध, आभासी संसार की होलिका में जला दें। उल्लास की नई हवा बह चले।
पुन: आपसी संवाद की बसंती बयार बह चले।
इस पुनीत कर्म के लिए एक ई मेल पता सृजित किया गया है:
स्पैम से बचने के लिए चित्र में दिखाया गया है। आप को टाइप करना पड़ेगा।
अपने सारे छ्ल, अमंगल, दुर्वाद, कष्ट, क्रोध इस पते पर भेज दें। उन्हें भेजने के साथ ही उनसे मुक्त हो जाँय। बढ़िया हो कि जिनसे कष्ट है और जिन्हें कष्ट दिया है, उन्हें मेल, फोन द्वारा - "बुरा न मानो" कह कर हँस हँसा लें।
होलिका दहन के दिन इस आभासी संसार की आभासी होली जलेगी जिसमें सारी नकारात्मक बातों, भावनाओं को भस्म कर दिया जाएगा। कृपया गालियों को होलिका दहन के दिन चौराहे पर गाने के लिए बचा कर रखें, उन्हें मेल न करें।
मेरे कविता ब्लॉग पर फाग महोत्सव जारी है। शुरुआत यहाँ से है, आगे भी रचनाएँ हैं और जारी भी रहेंगीं । आनन्द उठाते रहें - लेख, कविता, फाग गीत, बन्दिशों का भी और टिप्पणियों का भी।
शब्दचिह्न :
आभासी होली,
दहन,
बुरा न मानो,
समाज,
होली
सदस्यता लें
संदेश (Atom)