घर के सामने का पार्क मेरे लिए कुरुक्षेत्र जैसा है।

जब आया तो इस विशाल पार्क में गाजर घास का बोलबाला था। एलर्जी की बिमारी के कारण घास के पौधों को छूते भी घबराता था। लेकिन आँखों की चुभन कुछ ही दिनों में एक अलग ही बिमारी हो गई। नई बिमारी से छुटकारा पाने को एक दिन अकेले ही इस घास के पौधों को उखाड़ने लगा। पहले दिन तो नहीं लेकिन दूसरे दिन से देखादेखी तीन चार लोग और धर्मप्राण माली भी आ जुटे। देखते ही देखते सात दिनों के भीतर ही पार्क गाजर घास से खाली हो गया। ...
पार्क के एक किनारे खाली प्लॉट पड़े हैं। अन्य एकांत जगहें होने पर भी सुविधा (?) और साफ जगह पर हगने के सनातन भारतीय चरित्र को चरितार्थ करते हुए आम जनता उन में सुबह शाम हगने का दैनिक देहकर्म सम्पन्न करती थी। कॉलोनी के लोग बदबू को सहते थे । महिलाएँ निर्लज्ज नंगई के कारण टहलने नहीं आती थीं। मुझे बड़ा अजीब लगता था कि कोई उन्हें टोकता नहीं था। एकाध से बात की तो ये सद्विचार आए:
- इस परम गोपनीय (खुले में हगना ?) कार्य करते हुओं को टोकना बेशर्मी होगी (गोया लाज शरम का हम ठेका लिए हैं और वे बेशर्मी का)
- अरे भाई, टोकने से सटक जाती है। बहुत स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।(जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ?)
- कोई व्यवस्था नहीं है, कहाँ जाएँ सब ? ( तो यह है व्यवस्था! थोड़ी दूर जाएँ तो प्रकृति की व्यवस्था ही व्यवस्था है लेकिन कौन चल कर दूर जाय जब बगल में ही हगने की व्यवस्था है? व्यवस्था के वाहक झेल लेंगे लेकिन व्यवस्था बनाए रखेंगे ?) ...
हार कर(?) अर्जुन ने गांडीव उठाया। रोकना, डाँटना, समझाना, लानत भेजना .. तुणीर के शस्त्रास्त्र निकलने प्रारम्भ हुए। एक बार फिर उन्हीं तीन चार लोगों ने साथ देना शुरू किया और दस दिनों में ही हगने वाले दूर दीवार के पीछे सिमट गए। ..
जाड़ा आया। मेरे लिए प्रकृति का अभिशाप। घर की ऊष्मा के सुरक्षा कवच में मैं दुबका रहा। बचा रहा। डाक्टर की सलाह को मानते हुए मार्च और करीब पूरा अप्रैल सुबह शाम पुष्प पराग सुवासित वायु से बचता रहा। पिछ्ले सप्ताह से निकलना प्रारम्भ किया तो देखा कि कुरुक्षेत्र फिर से तैयार है। गाजर घास के सफेद फूल अपने चरम पर हैं। यही समय है कि उन्हें नष्ट किया जाय। श्रीमती जी कहती रहती हैं - एक अकेला क्या कर लेगा? कोई पुरुष मेरी बैचैनी देखता तो कहता - अकेले क्या उखाड़ लोगे ?
मुझे सेतु बन्ध की गिलहरी के गुण गाते विवेकानन्द याद आते रहते हैं। .. अभियान का प्रारम्भ घर के सामने की सड़क के लम्बे गलियारे से हुआ। एक सौ रूपए और दो दिनों में यह इलाका गाजर घास से साफ हो गया। ये रूपए तो किसी मद में बचाए ही जा सकते हैं।

पार्क के भीतर से माली ग़ायब हो गया है। गाजर घास बढ़ी हुई है और पौधे दो तीन दिनों के अंतराल पर पानी पा रहे हैं - कैजुअल व्यवस्था। लिहाजा जी रहे हैं, मर रहे हैं। पानी के लिए तो शिकायत ही की जा सकती है। इतना बड़ा पार्क कोई लॉन तो है नहीं कि पाइप उठाया और सींचने लगे!

एकड़ों में पसरी गाजर घास ने पहले तो हिम्मत पस्त कर दी लेकिन गिलहरी कहाँ बाज आती है ! लिहाजा कल से अकेले उखाड़ रहा हूँ । आज अनुमान लगाया कि करीब आठवाँ हिस्सा साफ हो गया। दाईं ओर एक छोटे भाग का चित्र लगा है। आज फिर से दो लोगों ने वाह वाही दी है और कल से हाथ बँटाने का वादा किया है। तो आशा कर रहा हूँ कि एक सप्ताह में पार्क गाजर घास से मुक्त हो जाएगा।
हगने वाले फिर से अपने कर्म में लग गए हैं। कल से टोका टोकी, समझाना और लानत मलामत शुरू कर दिया है। प्रभाव पड़ रहा है। आज टहलते दो अजनबियों ने भी मेरे साथ मोर्चा सँभाला। उम्मीद है कि कुछ दिनों में ही कौरव सेना समाप्त तो नहीं लेकिन पीछे जरूर हट जाएगी।
एक प्रश्न है - क्या आप भी कहीं उखाड़ते हैं ? यदि हाँ, तो यहाँ अपने अनुभव बताइए। यदि नहीं तो nice, सुन्दर प्रयास, लगे रहो जैसी फालतू टिप्पणियों के बजाय कहीं उखाड़ना शुरू कीजिए। आप के आस पास कुरुक्षेत्र अवश्य होगा।