चित्राभार : इंडियन एक्सप्रेस
सोमवार, 31 मई 2010
मंगलवार, 25 मई 2010
अथ ब्लॉगर जनगणना
आज हमारे गाँव में जनगणना का प्रथम चक्र प्रारम्भ हुआ। नए प्रावधान के अनुसार हम 4 प्राणियों को फॉर्म 2 में प्रवेश दे सदा सदा के लिए हमारी जड़ काट दी गई। मुझे आज दुहरा दु:ख है - जड़ से कट जाने का कम और गाँव जवार में राजपूतों की संख्या में 4 की कमी का अधिक । मैंने यह पता लगाने को कहा है कि जो जनगणना करने आया था वह किस जाति का था (बहुत गहरा पेंच है इसमें, आप लोग समझ रहे होंगे)?
जाति की संख्या कम होने के बहुत नुकसान होते हैं । कलऊ में संख्याबल ही बल है। संघे शक्ति कलौयुगे -यहाँ संघ से अर्थ आर एस एस या भारत नहीं है। हमारे महाज्ञानी पुरखों ने यह भाँप लिया था कि कलऊ में संघ का अर्थ जातिगत संख्या होगा सो यह बता गए कि शक्ति का स्रोत क्या होगा ! अब यह हमलोगों की बेवकूफी कि सदियों की ग़ुलामी और तिरसठ सालों की आ-जा-दी के कारण उनकी सीख के मर्म को भूलने लगे थे। संघी लोगों को जनता की इस भुलक्कड़ी पर बहुत मलाल था। पंचायतें कर कर जवान जवानियों को लटकाने, झोपड़ी फूँकने, जिन्दा जलाने, नंगे दौड़ाने आदि आदि के बाद भी जनता को अपना बल याद नहीं रह पा रहा था सो बिचारे बहुत दु:खी थे कि जनगणना का साल आ गया ! कहीं किसी संघी को सूझा और वह चिल्लाया - "पौ बारह" ... शुरू हुई जाति आधारित जनगणना । संघी लोग बहौत खुश हैं। अब यह उल्लू की दुम सरीखी जनता कभी जाति भूल नहीं पाएगी। पता नहीं जो कारड बन रहा है उसमें जाति का कॉलम होगा कि नहीं ? गिरिजेश राव राजपूत, सतीश यादव अहिर, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ब्राह्मण (बहुत बड़ा हो गया लेकिन दक्खिनी नामों से छोटा ही है) - कितना क्यूट लगेगा ! हम अपनी परम्परा को भूल चले थे, अब याद रहेगी हमेशा - वो ही परम्परा, समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा।
तो आज मुझे सूझा कि क्यों न ब्लॉगरों की भी जाति आधारित गणना की जाय ? अब सबसे पूछना ठीक नहीं (मुई अभी तक इस मामले में सीखी गई शरम नहीं गई जब कि मास्साब लोग गली मोहल्ले एकदम बेहिचक पूछे जा रहे हैं - का हो ज्ञान चचा ! तोहार जात का है?) । इसलिए अनुमान के आधार पर सूची लगा रहे हैं। जिन्हें आपत्ति हो वे अपनी आपत्ति टिप्पणियों के माध्यम से दर्ज करा सकते हैं। उनकी जाति 'बदल' मेरा मतलब 'सही' कर दी जाएगी । जो लोग अपने को किसी जाति का नहीं मानते वे लोग यह बता सकते हैं कि वे क्या लिखाना चाहेंगे लेकिन 'जाति' होनी ज़रूर चाहिए। कॉलम खाली मत छोड़ना सुद्धन ! जिनके नाम छूट गए हैं वे अपना नाम दर्ज करा सकते हैं। हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों के लोगों का भी आह्वान है, अपनी जाति अवश्य लिखाएँ। तो शुरू करते हैं :
नाम | जाति |
सिद्धार्थ | ब्राह्मण |
सतीश | यादव |
अरविन्द | ब्राह्मण |
स्वप्न मं | ब्राह्मण |
अभय | ब्राह्मण |
अनुराग | |
राजीव | ब्राह्मण |
अभिषेक | ब्राह्मण |
वाणी | ब्राह्मण |
मनोज | ब्राह्मण |
शास्त्री | ब्राह्मण |
पंकज | ब्राह्मण |
पंकज | ब्राह्मण |
पूजा | ब्राह्मण |
प्रवीण | ब्राह्मण |
प्रवीण | ब्राह्मण |
दिनेश | ब्राह्मण |
मीनू | कायस्थ |
अनूप | ब्राह्मण |
अशोक | ब्राह्मण |
रचना | ब्राह्मण |
संजीव | ब्राह्मण |
रवीन्द्र | कायस्थ |
पंकज | ब्राह्मण |
राज | राजपूत |
अमरेन्द्र | ब्राह्मण (फोन द्वारा नाम ग़ायब रहने की शिकायत के बाद प्रविष्टि की गई। क्षमा प्रभु! ) |
महफूज | राजपूती पठान ((टिप्पणी के बाद जोड़ा गया। अर्ज किया है,"लागी छूटे ना sss") |
सतीश | कायस्थ |
दिव्या (टिप्पणीकार) | गर्वीली भारतीय ( Proud Indian) - जिस तरह से ब्राह्मण, राजपूत, पठान आदि कई प्रकार के होते हैं वैसे ही भारतीय कई प्रकार के होते हैं जिनमें 'गर्वीला/ली' भी एक प्रकार है। |
समीर लाल | कायस्थ (टिप्पणी में अनुरोधात्मक आदेश के बाद जोड़ा गया। अनजाने में छूट गया था। अन्यथा न लेते हुए कृपा दृष्टि बनाए रखें।) |
अली सैय्यद | नामालूम |
प्रशान्त | पता नहीं |
प्रवीण | गर्वीला विशुद्ध भारतीय शू्द्र (इत्ता बड़ा जाति नाम पहली बार देखे हैं) |
फ़िरदौस | आदम |
डी. के. | ब्राह्मत्व |
पंकज | ई |
अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और यादवों, कायस्थों आदि का इतना कम प्रतिनिधित्त्व देखते हुए मैं जयचन्दी इस्टाइल में इन जातियों के लिए ब्लॉग जगत में आरक्षण का प्रस्ताव रखता हूँ। साथ ही ये प्रस्ताव भी रखता हूँ:
(1) ब्राह्मणों ने इस मुफ्त सुविधा को हड़प लिया है। लिहाजा यह तय पाया जाय कि ब्राह्मण ब्लॉगरों को प्रतिदिन कुल पोस्ट संख्या की 10% से अधिक पोस्ट संख्या की अनुमति न दी जाय। इस संख्या में भी सरयूपारीण, कान्यकुब्ज, मैथिल, नम्बूदरी, गौड़ीय आदि की संख्या के हिसाब से आंतरिक आरक्षण तय किया जाय।
(2) टिप्पणियों की संख्या में भी यही सिस्टम लागू किया जाय। ब्राह्मण ब्लॉगरों के लिए यह आवश्यक कर दिया जाय कि 9 ग़ैरजातीय ब्लॉगों पर टिप्पणी करने के बाद ही सजातीय ब्लॉग पर टिप्पणी कर सकें।
(3) जाति आधारित ब्लॉग संघ बनाए जाँय - राजपूत चिट्ठाकार संघटन, कान्यकुब्ज ब्राह्मण ब्लॉगर महासभा, श्रीवास्तव कायस्थ ब्लॉग असोसिएशन । ब्लॉगस्पॉट पर इस तरह के पंजीकृत संघटनों को स्पेस आवंटन उनकी जाति संख्या के व्युत्क्रमानुपाती हो ताकि कम प्रतिनिधित्त्व वाली जातियाँ आगे आ सकें।
(4) ब्लॉगवाणी पर पसन्द/नापसन्द के लिए हर व्यक्ति को पहले अपनी जाति बतानी होगी। उसके बाद यदि वह किसी सजातीय पर एक पसन्द का चटका लगाता है तो किसी विजातीय ब्लॉग पर स्वचालित प्रक्रिया से दो नापसन्दगी का चटका लग जाएहा। यदि कोई किसी विजातीय को पसन्द करता है तो उसकी ब्लॉग पोस्ट पर दो नापसन्दगी का चटका लगेगा। यदि कोई किसी विजातीय पर नापसन्द का चटका लगाता है तो उसके सजातीय किसी अन्य ब्लॉग पर स्वचालित प्रक्रिया के तहत दो पसन्द का चटका लग जाएगा...
ब्लॉग प्लेटफॉर्म की इस छोटी सी जगह में जाति आधारित गणना करते दिमाग इतनी खुराफातें सोच बैठा। जब लोगों के पास अरबों का डाटा बेस हो जाएगा तो क्या कुछ नहीं सोचा जा सकता !
इस देश को चला रहे और उनकी सरपरस्ती में चल रहे बन्दरों के हाथ एक बहुत घातक उस्तरा लगने वाला है। आस्तिकों से निवेदन है कि अपने भगवान से इस देश की पहले से ही बहुत गहरी खुद चुकी जड़ों के लिए दुआ करें। नास्तिकों से अपील है कि जन को शिक्षित करें। सवर्णों से अपील है कि यह सुनिश्चित करें कि उनकी संख्या अधिक से अधिक लिखाई जाय। ज़रूरत पड़े तो तफरीह करते बंगलादेशियों की मदद लें। अवर्णों से अपील है कि जाति आधारित जनगणना के विरोधियों को भरे चौराहे पकड़ पकड़ पीटें । ... हद है ऐब्सर्डिटी की !
शब्दचिह्न :
जाति व्यवस्था,
व्यंग्य
शनिवार, 22 मई 2010
इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत - 2
पहले भाग से जारी
[अपनी बात: पिछली कड़ी में अमरेन्द्र जी ने अपनी टिप्पणी और बाद के व्यक्तिगत संवाद के दौरान अनुवाद में सरलता की आवश्यकता बताई। अंग्रेजी और हिन्दी के व्याकरण और अभिव्यक्ति विधि परम्पराओं में बहुत असमानताएँ हैं जिनके कारण सरलता का निर्वाह मुझे बहुत कठिन लगता है ।प्रशिक्षित अनुवादकों के लिए सम्भवत: यह कठिन न होता हो।
एक ओर तो भाषिक सम्प्रेषणीयता की बात है तो दूसरी ओर यह डर कि जाने कौन सा तकनीकी शब्द आनुवादिक सरलीकरण की प्रक्रिया में वधित हो जाए ! ... इतने वर्षों के बाद मार्क्सवादी धार पर पुन: चलते हुए लुहलुहान हो रहा हूँ जिसके बारे में फिर कभी बात करूँगा। सम्प्रति यही निवेदन है कि यत्र तत्र मैंने अपनी समझ के अनुसार भावानुवाद का प्रयास किया है। कहीं कहीं अपनी ओर से स्पष्टीकरण भी जोड़े हैं जो चिह्नित है। शुद्धता के आग्रही जन डा. केली रॉस के मूल अंग्रेजी लेख को देख सकते हैं। अनुवाद के छोटे छोटे अंश ही दूँगा ताकि ब्लॉग प्लेटफॉर्म की सीमा में भी पाठकों को पढ़ने, गुनने और समझने में आसानी हो।]
मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार हमारे कुछ निर्णयों के कारण नहीं बल्कि आर्थिक परिस्थितियों में अंतर्निहित कारकों के कारण संसार बदलेगा। उनका सिद्धांत मानव स्वभाव (1) या मानव मनोविज्ञान (1) का सिद्धांत न होकर यह बताता था कि माल और सेवा उत्पादन की आर्थिक विधियाँ एक समाज की अन्य सभी राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक संरचनाओं को तय करती हैं ( हालाँकि कुछ मार्क्सवादी इसे पूर्ण रूप से सही मानने में संकोच करते हैं)। इस प्रकार मार्क्स के नकार के बावजूद ‘क्षुद्र अंग्रेजी बुर्जुआ’ की आवश्यकताएँ ‘अवास्तविक (false) आवश्यकताएँ (1)’ न होकर उत्पादन के पूँजीवादी विधि से सम्बन्धित ‘वास्तविक आवश्यकताएँ’ हैं – वे आवश्यकताएँ जो ऐतिहासिक सूझ के अनुसार समय के साथ साथ उत्पादन विधियों के बदलने पर ही बदलेंगी। इतिहास के ‘विज्ञान’ के रूप में मार्क्सवाद की सफलता या असफलता इस बात से तय होती है कि यह उत्पादन के विकास और उसके विभिन्न प्रभावों की भविष्यवाणी किस सीमा तक कर सकता है।
मार्क्स के अनुसार जिस तरह से सामंतवाद को पूँजीवाद ने एक नई, बेहतर और दक्ष उत्पादन विधि के रूप में प्रतिस्थापित किया, उसी तरह से पूँजीवाद को विस्थापित करती एक दूसरी व्यवस्था भी जन्म लेगी। अंतत: मजदूरी के निरंतर कम होते जाने से निर्धन होते जाते मज़दूर और प्रतिस्पर्धा की जगह वृहद एकाधिकारी प्रवृत्तियों के आने से पूँजीपतियों की घटती संख्या के कारण पूँजीपतियों को सामान बेचने के लिए कोई नहीं बचेगा और उनके पास लाभांश द्वारा जमा की गई पूँजी निरर्थक हो जाएगी। यह स्थिति क्रेडिट और बैंकिंग की उत्तरोत्तर कठिन परिस्थितियाँ तब तक उत्पन्न करती जाएगी जब तक कि सर्वहारा सड़ चुके पूरे तंत्र को आसानी से ध्वस्त कर एक वर्गविहीन समाज की स्थापना नहीं कर लेंगे।
"उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण और श्रमिकों का सामाजीकरण अंतत: उस बिन्दु तक पहुँचेगा जहाँ वे अपने पूँजीवादी खोल को बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। तब यह खोल खण्ड खण्ड हो बिखर जाएगा।"
[द कैपिटल, भाग एक, पृ.837, चार्ल्स एच. केर एण्ड कं., शिकागो, 1906, एडवर्ड अवेलिंग द्वारा अनुवादित और थॉमस सोवेल द्वारा ऑन क्लासिकल इकोनॉमिक्स , येल,2006, पृ.170 पर उद्धृत]
मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की भ्रांति का सार हमें इसमें मिल जाता है। मार्क्स का यह विश्वास है कि इतिहास की द्वन्द्वात्मकता के विकास के साथ साथ उत्पादन की नई विधियों का विकास होगा। इससे उत्पादकता बढ़ेगी और अधिक पूँजी का सृजन होगा जिससे अंतत: मज़दूर को अलगाव और शोषण से मुक्ति मिलेगी। लेकिन, मार्क्सवादी मूल्य सिद्धांत में इस बढ़ी हुई उत्पादकता को सुनिश्चित करने वाला कोई कारक (variable) नहीं है। यदि श्रमिक ( या ‘सामाजिक रूप से आवश्यक’ श्रम) मूल्य का सृजन करता है तो अधिक श्रम अधिक मूल्य सृजित करेगा लेकिन यह वैविध्य लिए हुए न होकर केवल मात्रात्मक होगा। पिरामिड बनाने के लिए किया जाने वाला अधिक श्रम केवल अधिक पिरामिडों की ही रचना करेगा (कुछ और नहीं**)। अत: यह सिद्ध हो जाता है कि (गुणात्मक मूल्य संवर्धन के लिए**) श्रम के अलावा कोई और कारक भी है। यह कारक ‘पूँजी’ है। श्रमाधिक्य वाला उत्पादन तंत्र पूँजी आधिक्य वाले तंत्र द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। पूँजी के आधिक्य से केवल मात्रात्मक ही नहीं बल्कि गुणात्मक उत्पादन की अधिकता भी सुनिश्चित होती है। लेकिन मार्क्स पूँजी के अस्तित्त्व में विश्वास नहीं रखते इसीलिए (अपने वाद से अलगाव जताने के लिए**) ‘पूँजीवाद’ नाम का प्रयोग करते हैं। इससे यह अर्थ निकलता है कि मार्क्सवाद उत्पादन में बढ़ोत्तरी को व्याख्यायित नहीं कर सकता (क्यों कि इसमें उसके लिए किसी अतिरिक्त कारक की व्यवस्था ही नहीं है**)। (जारी)
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** अनुवादक द्वारा जोड़े गए अंश इस रंग के फॉण्ट में हैं और दो ताराओं द्वारा चिह्नित हैं।
(1) ये पद आचारनीति ( Ethics) की पुस्तक मॉरल रिजनिंग, विक्टर ग्रैसियन, पृ. 59 पर परिभाषित और व्याख्यायित हैं।
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मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार हमारे कुछ निर्णयों के कारण नहीं बल्कि आर्थिक परिस्थितियों में अंतर्निहित कारकों के कारण संसार बदलेगा। उनका सिद्धांत मानव स्वभाव (1) या मानव मनोविज्ञान (1) का सिद्धांत न होकर यह बताता था कि माल और सेवा उत्पादन की आर्थिक विधियाँ एक समाज की अन्य सभी राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक संरचनाओं को तय करती हैं ( हालाँकि कुछ मार्क्सवादी इसे पूर्ण रूप से सही मानने में संकोच करते हैं)। इस प्रकार मार्क्स के नकार के बावजूद ‘क्षुद्र अंग्रेजी बुर्जुआ’ की आवश्यकताएँ ‘अवास्तविक (false) आवश्यकताएँ (1)’ न होकर उत्पादन के पूँजीवादी विधि से सम्बन्धित ‘वास्तविक आवश्यकताएँ’ हैं – वे आवश्यकताएँ जो ऐतिहासिक सूझ के अनुसार समय के साथ साथ उत्पादन विधियों के बदलने पर ही बदलेंगी। इतिहास के ‘विज्ञान’ के रूप में मार्क्सवाद की सफलता या असफलता इस बात से तय होती है कि यह उत्पादन के विकास और उसके विभिन्न प्रभावों की भविष्यवाणी किस सीमा तक कर सकता है।
मार्क्स के अनुसार जिस तरह से सामंतवाद को पूँजीवाद ने एक नई, बेहतर और दक्ष उत्पादन विधि के रूप में प्रतिस्थापित किया, उसी तरह से पूँजीवाद को विस्थापित करती एक दूसरी व्यवस्था भी जन्म लेगी। अंतत: मजदूरी के निरंतर कम होते जाने से निर्धन होते जाते मज़दूर और प्रतिस्पर्धा की जगह वृहद एकाधिकारी प्रवृत्तियों के आने से पूँजीपतियों की घटती संख्या के कारण पूँजीपतियों को सामान बेचने के लिए कोई नहीं बचेगा और उनके पास लाभांश द्वारा जमा की गई पूँजी निरर्थक हो जाएगी। यह स्थिति क्रेडिट और बैंकिंग की उत्तरोत्तर कठिन परिस्थितियाँ तब तक उत्पन्न करती जाएगी जब तक कि सर्वहारा सड़ चुके पूरे तंत्र को आसानी से ध्वस्त कर एक वर्गविहीन समाज की स्थापना नहीं कर लेंगे।
"उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण और श्रमिकों का सामाजीकरण अंतत: उस बिन्दु तक पहुँचेगा जहाँ वे अपने पूँजीवादी खोल को बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। तब यह खोल खण्ड खण्ड हो बिखर जाएगा।"
[द कैपिटल, भाग एक, पृ.837, चार्ल्स एच. केर एण्ड कं., शिकागो, 1906, एडवर्ड अवेलिंग द्वारा अनुवादित और थॉमस सोवेल द्वारा ऑन क्लासिकल इकोनॉमिक्स , येल,2006, पृ.170 पर उद्धृत]
मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की भ्रांति का सार हमें इसमें मिल जाता है। मार्क्स का यह विश्वास है कि इतिहास की द्वन्द्वात्मकता के विकास के साथ साथ उत्पादन की नई विधियों का विकास होगा। इससे उत्पादकता बढ़ेगी और अधिक पूँजी का सृजन होगा जिससे अंतत: मज़दूर को अलगाव और शोषण से मुक्ति मिलेगी। लेकिन, मार्क्सवादी मूल्य सिद्धांत में इस बढ़ी हुई उत्पादकता को सुनिश्चित करने वाला कोई कारक (variable) नहीं है। यदि श्रमिक ( या ‘सामाजिक रूप से आवश्यक’ श्रम) मूल्य का सृजन करता है तो अधिक श्रम अधिक मूल्य सृजित करेगा लेकिन यह वैविध्य लिए हुए न होकर केवल मात्रात्मक होगा। पिरामिड बनाने के लिए किया जाने वाला अधिक श्रम केवल अधिक पिरामिडों की ही रचना करेगा (कुछ और नहीं**)। अत: यह सिद्ध हो जाता है कि (गुणात्मक मूल्य संवर्धन के लिए**) श्रम के अलावा कोई और कारक भी है। यह कारक ‘पूँजी’ है। श्रमाधिक्य वाला उत्पादन तंत्र पूँजी आधिक्य वाले तंत्र द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। पूँजी के आधिक्य से केवल मात्रात्मक ही नहीं बल्कि गुणात्मक उत्पादन की अधिकता भी सुनिश्चित होती है। लेकिन मार्क्स पूँजी के अस्तित्त्व में विश्वास नहीं रखते इसीलिए (अपने वाद से अलगाव जताने के लिए**) ‘पूँजीवाद’ नाम का प्रयोग करते हैं। इससे यह अर्थ निकलता है कि मार्क्सवाद उत्पादन में बढ़ोत्तरी को व्याख्यायित नहीं कर सकता (क्यों कि इसमें उसके लिए किसी अतिरिक्त कारक की व्यवस्था ही नहीं है**)। (जारी)
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** अनुवादक द्वारा जोड़े गए अंश इस रंग के फॉण्ट में हैं और दो ताराओं द्वारा चिह्नित हैं।
(1) ये पद आचारनीति ( Ethics) की पुस्तक मॉरल रिजनिंग, विक्टर ग्रैसियन, पृ. 59 पर परिभाषित और व्याख्यायित हैं।
शब्दचिह्न :
मार्क्स,
मार्क्सवाद,
लेनिन,
लेनिनवाद
गुरुवार, 20 मई 2010
पुरानी दुपहरी के कुछ बिम्ब - टिकिर टिक्क टिक्क टिक्क
गरमी की दुपहर की अपनी सुन्दरता होती है। आज मुझे एक गुजरा दौर याद आ गया। गाँव में तब संयुक्त परिवार थे और लोग डट कर खेती करते कराते थे। सिंचाई के लिए धनिक पट्टिदारों ने पक्की नालियों का जाल बनवाया था जो जमीन से उपर थीं। जहाँ रास्ते क्रॉस होते थे वहाँ साइफन विधि से पानी इस पार से उस पार पहुँचाया जाता था। जब सिंचाई के लिए डीजल इंजन से बोरिंग चालू किया जाता तो हम लोग भाग कर सड़क किनारे चैम्बरों तक जाते थे और आँखें फाड़े पानी को इस पार एक चैम्बर में गिरते और उस पार दूसरे में उठते देखते थे। छापक छूपक और कागज की नावों के खेल होते थे।
इंजन से धनकुट्टी भी चलती थी जिसके इक्झास्ट पर उल्टी कब्जेदार टिमकी लगी रहती थी। चालू होने पर जोर जोर से टिक्क टिक्क की आवाज़ आती, लोग जान जाते कि धनकुट्टी चालू हो गई है और धान कुटाने आ पहुँचते थे। एक तरफ पानी नालियों में चलता तो दूसरी तरफ कोठरी में धनकुट्टी से चावल गिरता।
लोग पूरे सिस्टम को 'सइफन' के नाम से जानते थे। नन्दलाल मेरे यहाँ सेवक थे जिन्हें 'नन्नन' कह कर बुलाया जाता था।
..तो संत जनों ! यह पुरनिया उसी जमाने की दुपहर के कुछ बिम्ब उकेर रहा है।
____________________________________________(1)
सइफन बोले टिक्क टिक्क
टिकिर टिक्क टिक्क टिक्क
पानी के साथ साथ
दाना भी झर रहा।
खेत और थाली
दोनों की फिकर है
सइफन की टिकिर है।
(2)
खेत से लौटे काका
दुपहर में कुएँ नहाए
गमछा लपेटे भोजन कर रहे।
ग़जब गर्मी !
नंगे पिठासा पर पसीने की बूँदे
यत्र तत्र टपक रहीं
काकी पंखा डोला रहीं
भीग रहे दोनों
जो नेह बदली बरस रही।
(3)
हुई रड़हो पुतहो
घर में सास पतोहू लड़ीं।
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी।
(4)
ललमुनिया ** की थाली
नन्नन भोजन कर रहे
घेर बैठे जो कुत्ते दुआरे
नज़र बचा रोटी फेंक रहे ।
बड़की दुलहिन
परोस देती हैं कितना !
समा गईं अन्नपूर्णा
दाल भात में -
दुलार की हद है !!
_________________
**अल्मुनियम
बुधवार, 19 मई 2010
आलसी पोस्ट - 2
आलसी पोस्ट - 2
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क्या ऐसा कुछ लिखा जा सकता है जिस पर एक भी टिप्पणी न आए ?
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क्या ऐसा कुछ लिखा जा सकता है जिस पर एक भी टिप्पणी न आए ?
मंगलवार, 18 मई 2010
सबरन मंजूर मिसरा नामंजूर
मेरे ससुर जी करीब करीब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। बेटे बेटियाँ सब अपनी अपनी जगह जीवनयापन में लगे हैं। घर में कुल जमा दो परानी। बड़े शौक से शहरी मॉडल पर आधुनिक घर बनवाए - बेटे , बहुएँ, बेटियाँ आएँ तो कोई कष्ट न हो। पॉवर बैक अप की चौचक व्यवस्था - दो इनवर्टर, एक जनरेटर और अब सोलर की तैयारी है। मतलब कि गुड़गाँव से भी बेहतर। डिश टीवी, वाशिंग मशीन वगैरह सब लगे हैं।
बेटों के यहाँ गुड़गाँव में एजेंसी द्वारा रखा गया सेवक शादी में गाँव आया तो प्रस्ताव हुआ कि वहीं रह जाय। गुड़गाँव में तो दूसरे भी मिल जाएँगे। गाँव देहात में तो अब ढूँढ़े नहीं मिलते। टंच व्यवस्था देख कर और वेतन भी उतना ही जारी रखने की बात पर असमिया सेवक 'सबरन' गाँव में ही रह गया। साल भर के भीतर ही अपने व्यवहार और ईमानदारी के कारण घर का सदस्य जैसा हो गया। साले जब आते तो मजाक करते - कुछ दिनों में ही यह हमलोगों को घर में घुसने नहीं देगा ! ...
दूर देस के ये जवान साल भर में एक बार अपने गाँव जाते हैं। सबरन भी गया और अब लौट कर आने का नाम नहीं ले रहा। पता चला है कि उसकी माँ चाय बगान में काम करती थी। अब सेवानिवृत्त हुई है तो अपनी जगह उसे लगा दिया है। रु.300 प्रति सप्ताह और राशन मिलेगा। सुबह 5 बजे से रात तक की ड्यूटी। यहाँ मिलते थे रु.2500 प्रति माह और रहना, खाना, कपड़ा लत्ता सब मुफ्त। पाँच में से एक यह बेटा भी घर रहेगा, अब शादी भी होगी ...
... स्वाभाविक है कि दूसरे सेवक की खोज हो। गोरखपुर किसी एजेंसी में कहा गया था। बहुत खोज के बाद कोई मिला तो एजेंसी वाले ने फोन किया। ससुर जी ने फोन उठाया ,
" ... ज़रा लड़के से बात कराइए।"
" ए मिसरा! हे आव, बतिया ल sss"
ससुर जी ने सुना और मना कर दिया।
"अरे ! जब उसे कोई समस्या नहीं तो आप को क्या आपत्ति?"
"नहीं, दूसरा ढूँढ़िए।"
सासू जी ने पूछा तो उन्हों ने बताया कि पंडित (ब्राह्मण) था। दोनों सहमत हैं कि जूठा धोना, पोंछा लगाना, झाड़ू देना यह सब काम ब्राह्मण से नहीं कराएँगे। तब तक गाँव से ही ढूँढ़ कर किसी औरत को पार्ट टाइम लगा लेंगे। हालाँकि उसके लिए निहोरा भी करना पड़ेगा।
सबरन मंजूर है और मिसरा नामंजूर। सोच रहा हूँ ससुर जी से पूछूँ," सबरन की जाति आप पूछे थे? कहीं वह भी तो... "
शब्दचिह्न :
जाति,
जाति व्यवस्था
रविवार, 16 मई 2010
राग यमन को सुनते हुए
यह बंदिश राग यमन को सुनते हुए रची गई:
जागो जागो देश महादेव
बन्द आँख कैसा ये ध्यान
जपते जो उद्दाम काम
कामारि तुम भूले उदात्त भाव
खोलो त्रिनेत्र नंग भस्म, अनंग
जागो जागो देश महादेव।
जटाजूट सँभारो अधोमुख गंगा
पतित न हो पावनी ज्ञानगंगा
सँभारो हे देश तुम शंकर
शमन करो दुर्वह वेग
जागो जागो देश महादेव ।
शंकर भारत के प्रतीक पुरुष हैं। बचपन से ही उनकी परिकल्पना मुझे मुग्ध करती रही है। . ..
सरस्वती के किनारे का पशुपति, वैदिक बलियूप विकसित लिंग, देवासुर रुद्र और गाँव गाँव हिमालय सुता गौरा पार्वती के साथ भटकता लोककथाओं का महादेव - खेतों में बैल की पीठ पर श्रमसीकर बहाता, जंगलों के साँप बिच्छू धारण करता सबका शमन करता भोगी विलासी महात्यागी महायोगी महादेव ।
काम को अपने उपर सवारी नहीं करने देने वाला शंकर, कामदेव को भस्म करने वाला शंकर लेकिन लोकहित शक्ति के साथ हजारो वर्षों तक संभोगरत रहने वाला महादेव क्या कुछ संकेत नहीं देता!
यौन उच्छृंखलता और मध्ययुगीन/विक्टोरियन नैतिकता के पाखंड के दो अतिवादी किनारों के बीच ज्ञान गंगा का प्रबल प्रवाह है। उसके वेग, उसकी उद्दामता को थाम नई दिशा देने को यह देश उठ क्यों नहीं पा रहा?
किसकी प्रतीक्षा है ?
बुधवार, 12 मई 2010
बच्चों को बचाइए
मुझे नहीं पता कि नारीवादी क्या कहेंगे? वैचारिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के झण्डाबरदारों को कैसा लगेगा? बस हक़ीकत बयाँ कर रहा हूँ:
घटना 1:
समय : रात 11 बजे
स्थान : पार्क
सिर पर जेबकतरों की स्टाइल में रुमाल बाँधे पुरुष, टिपिकल टपोरी । जींस टी शर्ट पहने उससे आधी उमर की लड़की। बेंच पर प्रेम लीला करते पाए गए। दूसरी लड़की और एक और लड़का भागने में सफल।
"इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?"
"इसे मोबाइल देने आया था"
"नाम?"
"...(मुस्लिम नाम)"
"कहाँ से आए हो?"
".... (करीब 5 किमी. दूर)
लड़की से "तुम्हारा नाम क्या है?
"...(हिन्दू नाम)
"कहाँ से आई हो?"
"... (पास की ही एक कॉलोनी)"
भीड़ बढ़ चुकी है।
"साले! इतनी दूर से इसे मोबाइल देने के लिए यही समय और यही ज़गह मिली थी? जो कर रहे थे वह तो सबने देखा।
शरम नहीं आती ? "
"भाईजान! ऐसी कोई बात नहीं।"
"साले ! पूरे आधे घंटे झेलने के बाद परेशान सामने के घर वाले ने फोन किया तो लोग इकट्ठे हुए हैं और तुम कह रहे हो, ऐसी कोई बात नहीं? कान पकड़ कर उठो बैठो। फिर मत आना यहाँ!"
अकड़ दिखाता है। भीड़ में से एक शख्स निकल कर चार पाँच तमाचे जड़ देता है। तत्काल उठक बैठक शुरू। पुलिस बुलाने की बात होती है, कोई कहता है कि लड़की की ज़िन्दगी नरक हो जाएगी। साथ में जोड़ता है - इसके घर वालों को कोई ऑबजेक्सन नहीं , आप लोग आसमान सिर पर उठाए हैं।
कोई लड़की को 'रंडी' कहता है।
"ज़बान सँभाल कर बात करो!"
"अरे खुद को तो सँभाल नहीं पा रही, हमें सँभलने को कह रही है!"
घटना 2:
समय: शाम के पाँच
स्थान: पार्क के बाहर का कोना
स्कूटी पर लड़की आगे, लड़का पीछे। उम्र इतनी कि दसवीं या ग्यारहवीं में होंगे। लड़का बेतहाशा वह किए जा रहा है जिसे मॉलेस्टेशन के आगे का स्टेज कहा जा सकता है। लड़की खिलखिलाए जा रही है। दोनो मस्त हैं।
मैं अकेला। पास जा कर स्कूटी का नम्बर देखता हूँ।
"यह तुम्हारी पढ़ने लिखने की उम्र है, शर्म नहीं आती? भाग यहाँ से!"
स्कूटी स्टार्ट । फुर्र....
घटना 3:
समय: रात के आठ
स्थान: पार्क और खाली प्लॉटों के बीच का सड़क का अन्धेरा हिस्सा । खिलखिलाहट , सिसकारी। ..
ठक! ठक!!
कार पर पुलिस विभाग का चिह्न लगा है। कार का शीशा थोड़ा और नीचे होता है। लड़की स्कूल ड्रेस में - शायद ग्यारहवीं बारहवीं में होगी । जल्दी जल्दी कपड़े ठीक कर रही है। एक बार फिर लड़का उससे बहुत अधिक उमर का ।
लड़का "जी ?"
"क्या कर रहे हो?"
"हमलोग अलबम देख रहे हैं।"
"रोशनी में देखो, अन्धेरे में कौन सा अलबम देख रहे हो? भैया! यहाँ मत आया करो। खामख्वाह फँस जाओगे।"
"जी अंकल !"
तीन चार दिन बाद, बाज़ार से लौटते - फिर वही गाड़ी, समय शाम के छ:। लड़का वही, लड़की बदल गई है। पास जा कर घूरते ही गाड़ी स्टार्ट, फुर्र।
घटना 4:
भरी दुपहरी। स्कूल कम्पाउंड से लगे दो बच्चे 'दोस्ताना' में संलग्न है। डाँटने पर जल्दी जल्दी निकर ठीक करते स्कूल भवन की तरफ भागते हैं।
घटना 5:
समय : सुबह छ: के आसपास
टहलते हुए श्रीमती जी तीन दिनों से देख रही हैं। लड़की साइकिल से स्कूल ड्रेस में - शायद दसवीं में भी नहीं होगी। अधेड़ मर्द उसका इंतजार करता है, दोनों कभी इस कोने कभी उस कोने एकांत देख 'फोरप्ले' करते हैं। लोग देखते हुए भी नहीं देखते। कुछ देर के बाद लड़की साइकिल पर अकेले रवाना हो जाती है।
...आज उन्हों ने बताया है। कल कॉलोनी की 'ऐक्टिव ब्रिगेड' हिसाब किताब करेगी।
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हॉर्मोन जनित सेक्स रिलेटेड इस तरह की घटनाएँ हमेशा होती रही होंगी लेकिन इतने खुले में और इतनी? मैं अब ही देख रहा हूँ। तकरीबन हर बार लड़की कम उमर है जब कि लड़के/पुरुष आयु में बहुत बड़े।
...नहीं! मैं किसी घेट्टो में नहीं रहता। अच्छी कॉलोनी है, थोड़ी कम बसी है, बस। यह सब बस मेरे अलावा दो तीन और लोगों को दिखता है, बाकियों को नहीं।
तब तक जब तक कि यौन शिक्षा लागू होती है, जब तक समाज उलट कर 'पुरुषवादी' से 'व्यक्तिवादी' नहीं होता; अपने बच्चों को संस्कारों की सीख दीजिए। बच्चों के उपर नज़र रखिए। उन्हें अपनी और दूसरों की निजता का सम्मान करना सिखाइए।
एक्सपोजर बहुत बढ़ गया है। हमारी ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ गई हैं। जो देखने के अभ्यस्त हैं, जो देखना चाहते हैं ; उससे इतर भी देखने की कोशिश कीजिए। कहीं उल्टा पुल्टा होता दिखता है तो टोकिए, समझाइए। हाँ, अकेले नहीं - अपने जैसे दो तीन को जुटा कर। यह 'मॉरल पुलिसिंग' नहीं, हमारे आप के बच्चों के भविष्य का मामला है। लड़कियों के मामले में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। माना कि यह एक हारी हुई लड़ाई है लेकिन कभी कभी ऐसे भी लड़ना ठीक होता है, अनजाने ही आप शायद भविष्य की किसी कल्पना चावला, किरण बेदी, इन्दिरा नुई .. को बचा लें। .. अभी मेरा साहस वहाँ तक नहीं पहुँचा कि मसीहा बनूँ, बच्चों के माँ बाप या पुलिस तक पहुँचने की ज़हमत उठाऊँ लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं इस प्रयास में सार्थकता तो है... वक़्त भी कैसा हो चला है, जो बातें सीना तान कर की जाती थीं, उन्हें अब स्पष्टीकरण के साथ कहना पड़ रहा है। दकियानूसी पुरनियों की तुलना में शायद हम बहुत डरे हुए लोग हैं।
शब्दचिह्न :
उच्छृंखलता,
पुरुषवादी समाज,
यौन शिक्षा
रविवार, 9 मई 2010
इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत - 1
- हम जिन अपराधों की पोल खोलेंगे उनका फैसला कम्युनिस्ट सत्ताओं के मानकों से नहीं बल्कि मानवता के अलिखित प्राकृतिक नियमों से होना चाहिए। स्टीफेन कोर्टवोइस
[द ब्लैक बुक ऑफ कम्युनिज्म, क्राइम्स, टेरर, रिप्रेशन , निकोलस, जीन-जुइस पन्ने, अन्द्र्ज़ेज चकोवस्की आदि, अनुवादित जोनाथन मरफी और मार्क क्रेमर, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999, पृ.3 ]
- एक अपराधी को छोड़ना ठीक नहीं भले सौ निर्दोषों की हत्या करनी पड़े। डोलोरेस इबर्रुरी ("ला पैसनरिआ"), स्पेनी कम्युनिस्ट [वही, पृ.343]
- हमने पर्याप्त लोगों को नहीं मारा ... क्रांतियाँ तभी सफल होती हैं जब नदियाँ खून से लाल हो जाती हैं और जब आप का उद्देश्य मानव जाति की सम्पूर्ण उत्तमता का हो तो खून बहाना अनिवार्य हो जाता है। अरेस वेलूचिओटेस, ग्रीक कम्युनिस्ट, [वही, पृ.329]
- कम्युनिज्म आर्थिक उत्पाद की उत्कृष्ट्ता सुनिश्चित करने में उन्नीसवीं सदी की असफलता के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं है। यह इसकी तुलनात्मक सफलता के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। यह आर्थिक कल्याण के खोखलेपन के विरुद्ध प्रतिवाद है, हम सबके भीतर के तपस्वी के लिए एक अपील है ... आदर्शवादी युवा कम्युनिस्ट अवधारणा को आजमाते हैं क्यों कि यह एकमात्र आध्यात्मिक आकर्षण है जो उन्हें समकालीन लगता है। जॉन मेनार्ड कीनेस, 1934
- किसी भी बुद्धिजीवी के लिए यह कोई बचाव का रास्ता नहीं है कि उसे [कम्युनिज्म के द्वारा] ठग दिया गया। एक बुद्धिजीवी के रूप में उसे ऐसा कत्तई घटित नहीं होने देना चाहिए था। ग्रेनविल हिक्स
- यह अजीब है कि राजनैतिक रूप से सही (अवसरवादी) समतावाद बहुतेरे विद्वज्जनों के बौद्धिक दम्भ और उच्छिष्टवर्गवाद को आकर्षित करता है; साहित्यिक मार्क्सवाद के प्रति उनका झुकाव इसके आर्थिक सिद्धांत पर आधारित न हो कर इसके व्यापार (पण) और मध्य वर्ग के विरोध के कारण है। इसीलिए इस बुर्जुवाविरोधी भावना के चरित्र की संगति समतावाद के बजाय निचले तबके के प्रति इनके कुलीन तिरस्कार से अधिक बैठती है। जॉन एम. एल्लिस, लिटेरेचर लॉस्ट [येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1997], पृ.214
- कॉस्मिक अंतर्दृष्टि(विजन) वालों का मध्यवर्ग - बुर्जुवा - के प्रति करीब सर्वव्यापी तिरस्कार भाव इससे समझा जा सकता है कि ये विजन व्यक्तिगत संतुष्टि और व्यक्तिगत वैधता प्रदान करते हैं। निचले और धनाढ्य़ कुलीन दोनों वर्गों की तुलना में परम्परा से ही मध्य वर्ग नियमों और परम्पराओं को मानने वाले और आत्मानुशासित लोगों का रहा है। जहाँ निचला तबका मध्य वर्ग जैसा आत्मानुशासित न होने की कीमत ग़रीबी और कैदखाने के रूप में अदा करता है वहीं धनाढ्य और शक्तिशाली लोग बहुधा नियम और क़ानून को बिना कुफल भुगते धता बता सकते हैं। सामाजिक अनुशासन और बन्धनों को स्वाभाविक के बजाय मनमाना मानने वाले कॉस्मिक अंतर्दृष्टिप्राप्त लोग उनसे मुक्ति चाहते हैं। वे निचले तबके की उच्छृंखलता और कुलीनों की खुद को नियमों से उपर मानने की प्रवृत्ति का रोमानीकरण करते हैं। थॉमस सोवेल्ल, द क्वेस्ट फॉर कॉस्मिक जस्टिस [द फ्री प्रेस, 1999], पृ. 139-140.
- बहुतेरे जिनकी निष्ठा सोवियत संघ के साथ थी अपने देश और लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रति गद्दार की तरह देखे जाते हैं। लेकिन उनका सबसे बड़ा दोष और भी बुनियादी था। खुद को स्वतंत्र मस्तिष्कधारी की तरह देखते, एक समझदार की तरह अपने विकल्प चुनते उन्हों ने अपने मानदंडों की ही अवहेलना की। कम्युनिस्ट शासन की वास्तविकताओं पर तीसरे दशक में पहले से ही उपलब्ध बहुआयामी सबूतों की उन्हों ने जाँच पड़ताल नहीं की। यह कहा जा सकता है कि वे मानव मस्तिष्क के और स्वयं चिंतन के भी गद्दार थे। रॉबर्ट कॉंक़्वेस्ट, रिफ्लेक्संस ऑन अ रैवेज्ड सेंचुरी [डब्ल्यू ड्ब्ल्यू नॉर्टन एण्ड कम्पनी, 2000], पृ.118
- एक बौद्धिक रचना के रूप में द कैपिटल (मार्क्स) उत्कृष्ट कृति थी। लेकिन कुछ और बौद्धिक उत्कृष्ट कृतियों की तरह ही यह एक विस्तृत और परिष्कृत शिल्प था जिसकी नींव एक आदिम मिथ्या अवधारणा थी।
... विचारों के क्षेत्र में मार्क्स की अंतर्दृष्टि, उनके इतिहास के सिद्धांत के साथ, न केवल विभिन्न कालों में बहुआयामी क्षेत्रों में अपनी धाक जमाए रखी है, बल्कि पूँजीवाद की फलती फूलती समृद्धि और समाजवाद के आर्थिक पतन दोनों के दरम्याँ बची रही है। प्रमाण और तर्क के क्षयकारी प्रभावों से अभेद्य यह बुद्धिजीवियों की जमात के बीच स्वयंसिद्ध सी हो गई है।
लेकिन अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मार्क्स का क्या योगदान था? योगदान केवल प्रस्ताव पर नहीं बल्कि स्वीकार पर भी आधारित होता है, और आज के अर्थशास्त्र में कोई प्रमुख आधार वाक्य, मत, सिद्धांत या विश्लेषण यंत्र मार्क्स की रचनाओं से नहीं आया है। यह नकारने की कोई जरूरत नहीं है कि कई अर्थों में मार्क्स उन्नीसवीं सदी के एक प्रमुख इतिहास पुरुष थे, जिनकी लम्बी छाया इक्कीसवीं सदी की दुनिया पर अभी भी पड़ रही है; फिर भी शायद यह कहना कठोर हो, अर्थशास्त्र प्रोफेसनल के लिहाज से, जैसा कि प्रो. पॉल सैमुएल्सन ने कहा है, मार्क्स एक "अदने उत्तर-रिकार्डियन" थे। थॉमस सोवेल्ल, ऑन क्लासिकल इकोनॉमिक्स [येल, 2006] पृ.184-186
"तुम जो आ रहे हो, हर आशा का त्याग कर दो"
दांते एल्लीघीरी, द डिवाइन कॉमेडी, इंफर्नो, 3:9
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कार्ल मार्क्स (1818-1883) के पास नैतिकता का सिद्धांत नहीं था; उनके पास इतिहास का सिद्धांत था। इस प्रकार, मार्क्सवाद सही या ग़लत का सिद्धांत न होकर इतिहास में क्या घटेगा इसका सिद्धांत था। मार्क्स उन लोगों के प्रति निन्दा भाव रखते थे जो बात, वस्तु या तथ्य को नैतिक अवधारणाओं से परखते थे। लेनिन, स्टेलिन, माओ, कास्त्रो, हो और डेनियल ओरटेगा की अपने कृत्यों के प्रति अवधारणा के बावजूद भी जब कट्टर अनुयायी यह कहते हैं कि मार्क्सवाद वास्तव में कभी 'आजमाया' नहीं गया, वे यह नहीं समझते कि मार्क्सवाद व्यवहार या कर्म के कार्यक्रम का कोई नियम नहीं बल्कि निश्चयात्मक क्रियातंत्र का सिद्धांत था, यह क्रियातंत्र भविष्य का 'उत्पादक' होने वाला था, ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण सहज स्वाभाविक तरीके से उठ खड़े होने वाली क्रियाओं का सिद्धांत -- हालाँकि हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि लोग , जिनमें हम भी सम्मिलित हैं, किस तरह के कर्म करेंगे -- जैसा कि, मार्क्स ने कहा था कि उनके काम का उद्देश्य संसार को केवल समझना नहीं, बदलना था। (जारी)
पूर्वानुमति के बाद डा. केली रॉस के अंग्रेजी लेख के अंश का ब्लॉग लेखक द्वारा अनुवाद
शब्दचिह्न :
मार्क्स,
मार्क्सवाद,
लेनिन
...रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा
वाराणसी। अर्धरात्रि। छ: साल पहले की बात। सम्भवत: दिल्ली से वापस होते रेलवे स्टेशन पर उतर कर बाहर निकला ही था कि कानों में कीर्तन भजन गान के स्वर से पड़े:
“....रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा”
इतनी करुणा और इतना उल्लास एक साथ। कदम ठिठक गए। गर्मी की उस रात मय ढोलक झाल बाकायदे बैठ कर श्रोताओं के बीच मंडली गा रही थी। पता चला कि शौकिया गायन है, रोज होता है। धन्य बाबा विश्वनाथ की नगरी ! रुक गया - सुनने को।
“भादो के अन्हरिया
दुखिया एक बहुरिया
डरपत चमके चम चम बिजुरिया
केहू नाहिं आगे पीछे हो हो ऽऽऽ
गोदि के ललनवा लें ले ईं ना
रोवे देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽ”
जेलखाने में दुखिया माँ रो रही है। प्रकृति का उत्पात। कोई आगे पीछे नहीं सिवाय पति के। उसी से अनुरोध बच्चे को ले लें, मेरी स्थिति ठीक नहीं है। मन भीग गया। लेकिन गायक के स्वर में वह उल्लास। करुणा पीछे है, उसे पता है कि जग के तारनहार का जन्म हो चुका है। तारन हार जिसके जन्म पर सोहर गाने वाली एक नारी तक नहीं ! क्या गोपन रहा होगा जो बच्चे के जन्म के समय हर नारी का नैसर्गिक अधिकार होता है। कोई धाय रही होगी? वैद्य?
देवकी रो रही है। क्यों? शरीर में पीड़ा है? आक्रोश है अपनी स्थिति पर ? वर्षों से जेल में बन्द नारी। केवल बच्चों को जन्म दे उन्हें आँखों के सामने मरता देखने के लिए। तारनहार को जो लाना था। चुपचाप हर संतान को आतताई के हाथों सौंपते पति की विवशता ! पौरुष की व्यर्थता पर अपने आप को कोसते पति की विवशता !! देवकी तो अपनी पीड़ा अनुभव भी नहीं कर पाई होगी। कैसा दु:संयोग कि एक मनुष्य विपत्ति में है लेकिन पूरा ज्ञान होते हुए भी अपने सामने किसी अपने को तिल तिल घुलते देखता है - रोज और कौन सी विपत्ति पर रोये, यह बोध ही नहीं। मन जैसे पत्थर काठ हो गया हो। देवकी क्या तुम पहले बच्चों के समय भी इतना ही रोई थी ? क्यों रो रही हो? इस बच्चे के साथ वैसा कुछ नहीं होगा
“ले के ललनवा
छोड़बे भवनवा कि जमुना जी ना
कइसे जइबे अँगनवा नन्द के हो ना”
इस भवन को छोड़ कर नन्द के यहाँ जाऊँ कैसे? बीच में तो यमुना है।
“रोए देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽऽ”
माँ समाधान देती है।
“डलिया में सुताय देईं
अँचरा ओढ़ाइ देईं
मइया हई ना
रसता बताय दीहें रऊरा के ना,
जनि मानिं असमान के बचनवा ना
रोएँ देवकी रनिया जेहल खनवा ऽऽ”
जेल मे रहते रहते देवकी रानी केवल माँ रह गई है। समाधान कितना भोला है ! कितना भरोसा । बच्चे को मेरा आँचल ओढ़ा दो ! यमुना तो माँ है आप को रास्ता बता देंगी। लेकिन यहाँ से इसे ले जाओ नहीं तो कुछ हो जाएगा।
तारनहार होगा कृष्ण जग का, माँ के लिए तो बस एक बच्चा है।
आकाशवाणी तो भ्रम थी नाथ ! ले जाओ इस बच्चे को ।. . . मैं रो पड़ा था।
..उठा तो गाँव के कीर्तन की जन्माष्टमी की रात बारह बजे के बाद की समाप्ति याद आ गई। षोडस मंत्र 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।' अर्धरात्रि तक गाने के बाद कान्हा के जन्म का उत्सव। अचानक गम्भीरता समाप्त हो जाती थी। सभी सोहर की धुन पर नाच उठते थे। उस समय नहीं हुआ तो क्या? हजारों साल से हम गा गा कर क्षतिपूर्ति कर रहे हैं।
“कहँवा से आवेला पियरिया
ललना पियरी पियरिया
लागा झालर हो
ललना . . .”
उल्लास में गवैया उत्सव के वस्त्रों से शुरू करता है।
"बच्चे की माँ को पहनने को झालर लगा पीला वस्त्र कहाँ से आया है?"
मुझे याद है बाल सुलभ उत्सुकता से कभी पिताजी से पूछा था कि जेल में यह सब? उन्हों ने बताया,
"बेटा यह सोहर राम जन्म का है।"
"फिर आज क्यों गा रहे हैं?"
"दोनों में कोई अंतर नहीं बेटा"
आज सोचता हूँ कि उनसे लड़ लूँ। कहाँ दिन का उजाला, कौशल्या का राजभवन, दास दासियों, अनुचरों और वैद्यों की भींड़ और कहाँ भादो के कृष्ण पक्ष के अन्धकार में जेल में बन्द माँ, कोई अनुचर आगे पीछे नहीं ! अंतर क्यों नहीं? होंगे राम कृष्ण एक लेकिन माताएँ? पिताजी उनमें कोई समानता नहीं !
हमारी सारी सम्वेदना पुरुष केन्द्रित क्यों है? राम कृष्ण एक हैं तो किसी का सोहर कहीं भी गा दोगे ? माँ के दु:ख का तुम्हारे लिए कोई महत्त्व नहीं !
वह बनारसी तुमसे अच्छा है। नया जोड़ा हुआ गाता है लेकिन नारी के प्रति सम्वेदना तो है। कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?
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