...यह भी जायेगा।
किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा।
घिसी पिटी बात है-सड़ी हुई सी। जाने कितने समय से मनुष्यों की चेतना में मलबे सी दबी पड़ी है। अब तक तो इसे कम्पोस्ट हो कर उपयोगी की श्रेणी में आ जाना चाहिये था। लेकिन मुझे इससे दुर्गन्ध आती है। दुर्गन्ध सक्रियता का अनुभव कराती है। जताती है कि कुछ घटित हो रहा है लेकिन कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?
यह सामान्य है। संसार केवल तुम्हारे लिये नहीं बना और न इसे बस तुम्हारे अनुसार होना है। तुम जिसे वांछनीय मानते हो, भवितव्य मानते हो, तार्किक परिणति कहते हो, हो सकता है वह और भी जनों के लिये सच हो लेकिन सब के लिये सच हो, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे समझो कि जो सबके लिये लागू हो वह सच नहीं होता। नहीं, ऐसे समझो। असल में उस तरह का सच नहीं होता जो सबके लिये सम हो।
स्याद में न उलझाओ। मुझे लगता है कि मानव जीवन में 'विराम' जैसा कुछ होना ही नहीं चाहिये। उसी समय वह इस तरह सोचता है। हाड़ तोड़ शारीरिक श्रम करने के बाद गहरी नींद सोना, उठना और फिर काम में लग जाना ही अच्छा है। समय समय पर एकाध दिन का विराम समझ में आता है लेकिन विराम क्रमिक और नियमित हो जाय तो वृथा सोच उभरने लगती है।
तुम फिर वही तर्क भूल कर रहे हो। सब तुम्हारी सोच की तरह नहीं हो सकता और न हो सकते हैं। जो है जिस तरह है वह तार्किक परिणति है। विराम है इसलिये श्रम है और इसलिये उठान की लगन है, उठान है। विराम न हो तो गति भी न हो।
तर्क का नाम न लो। तर्क सबसे बड़ा धोखा है। तर्कशील होना और उसे झेलना सबसे बड़े छलावे हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं जिसके ठीक उलट और उतना ही प्रबल कोई तर्क न हो।
तर्क न सही, स्वभाव कह लो। स्वाभाविक परिणति।
यह तो जो जिस तरह है, जैसा है, वैसे ही स्वीकारना हुआ। मेरा दाय क्या रहा?
वही जो इस 'स्वभाव' के अनुसार तुम कर रहे हो या करते हो।
मेरा नियंत्रण, मेरी इच्छायें, मेरी परिकल्पनायें ... इनका क्या? क्या मैं कुछ भी नहीं?
तुम हो इसलिये संसार है। तुम तो सब कुछ हो। जिस दिन नहीं रहोगे, संसार भी नहीं रहेगा।
पहले तुमने क्या कहा था? किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा। अब उसके उलट बात क्यों?
मैं तुम्हारी बात को ही पुख्ता कर रहा हूँ कि ऐसा कोई भी तर्क नहीं जिसके ठीक उलट और उतना ही प्रबल कोई तर्क न हो।
घुमा फिरा कर वहीं के वहीं।
यह सहज है। संसार ऐसे ही प्रक्षेपित है। काल, दिनमान, स्थान, स्थावर, जंगम आदि सब इस आयाम में ऐसे ही हैं कि सब सम्मिलित हैं। स्वयं सोचो - क्या इसके अतिरिक्त कुछ हो सकता था? अतिरिक्त नहीं, इससे अलग कुछ हो सकता था क्या?
तो तुम कहोगे कि विभिन्न समूहों में एक दूसरे को परास्त करने, अपना प्रभुत्त्व स्थापित करने और विपरीत का उन्मूलन करने की प्रवृत्ति भी सहज है, स्वाभाविक है। मैं कहूँगा कि असंगत है।
देखो, तुम्हारे शब्द सीमित हैं। सीमित अर्थ देते हैं। 'असंगत' को ही लो। तुम जो कहना चाह रहे हो वह उसको सम्प्रेषित नहीं करता बल्कि सामने वाले को उलझाता है। वह संगति क्या है या होनी चाहिये, इसमें उलझता है फिर 'अ' के लिये अपने निष्कर्ष का विलोम ढूँढ़ता है। अंतत: वह जो कुछ समझता है, वह वैसा नहीं होता जैसा तुम बताना चाह रहे थे।
इस तरह से संवाद कभी नहीं हो सकता।
हाँ, संवाद एक काल्पनिक अवधारणा है। आदर्श स्थिति जैसा कह सकते हो जिसके पास, बहुत पास तो पहुँचा जा सकता है लेकिन उसे पाया नहीं जा सकता। हर उठान के अंत में जो होने से, उठने से बचा रह जाता है; वह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कथित सम्वाद का स्तर ऊँचा होता जाता है और पुन: पुन: वही प्रयास। वास्तव में तुम्हें लगता है कि तुम ऊँचे उठ रहे हो लेकिन ऊँचा और नीचा जैसा कुछ नहीं होता। जो होता है वह बस यही है कि उसे पाया नहीं जा सकता।
तुम उलझा रहे हो।
सही कहे। शब्दों और वाक्यों की सीमा है। मैं जो कहना चाह रहा हूँ, वह तुम्हें नहीं सम्प्रेषित कर पा रहा तो यह हमारी सीमायें नहीं, हमारी इन्द्रियों की सीमायें हैं। इनसे सम्वाद नहीं हो सकता। नहीं हो सकता तो हम दोनों अपने अपने सोच कवच में सिमटे रहेंगे। तुम्हें दुर्गन्ध आती रहेगी और मुझे कुछ भी अनुभव नहीं होता रहेगा। बात वहीं की वहीं।
हद है! ऐसे ही रहें?
यह बेचैनी तुम्हारी प्रकृति, परिवेश और तुम्हारी जीवन शैली से उपजी है। मैं यह भी कह सकता हूँ कि बेचैनी थी और है इसलिये तुम्हारी प्रकृति, परिवेश और जीवन शैली इस तरह हैं। तब भी तुम्हें समझा नहीं पाऊँगा। असल में हम जिस माध्यम का प्रयोग कर रहे हैं, वह इसके लिये बना ही नहीं। इसके लिये ध्वनि नहीं मौन माध्यम है। बाहर नहीं भीतर देखना है। स्वअस्तित्त्व में गोता लगाना है ताकि 'पर' से सम्वाद हो सके। सम्वाद शब्द भी त्रुटिपूर्ण है। इसमें ध्वनि की आहट है। सही तो सम्प्रेषण कहना होगा। कहना भी इसलिये कि अभी कोई और मार्ग नहीं। जब मौन होगे, गोते लगाओगे और द्रष्टा बनोगे तो कहने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। कहना जो कि अभी अपर्याप्त है, तब निरर्थक हो जायेगा। अनुभूति। सम्प्रेषण। नहीं, वह भी नहीं। मौन, शून्य।
तुम शून्य में मौन विचरते रहोगे और कोई तुम्हारा सिर काट कर ले जायेगा।
हाँ, इस संसार में उसके लिये भी स्थान है। वह उसका गोता है।
और तुम्हारी? कटते जाना?
इसमें मेरी, तुम्हारी, उसकी जैसा कुछ नहीं। यह बस ऐसा है। स्वीकार से चेतना और चेतना से सिद्धि। सिद्धि अलगाव की नहीं, लगाव की। स्तर अलग अलग दिखते भर हैं, होते नहीं। दिखना भी संसार का सच है और कटना काटना भी। तुम अस्वीकार करो, स्वीकार करो, मौन रहो, कुछ भी करो। सबके लिये स्थान है। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनते हो? विश्वास करो कि जो भी चुनोगे वह सच होगा लेकिन उसका ठीक उलट भी सच होगा। ऐसे में संसार में कुछ भी झूठ नहीं है। लेकिन जैसा कि तुमने ही कहा ...यह भी जायेगा।
हाँ, किसी दिन तुम भी चले जाओगे और यह संसार चलता ही रहेगा।
नहीं, तुम हो इसलिये संसार है। तुम तो सब कुछ हो। जिस दिन नहीं रहोगे, संसार भी नहीं रहेगा।
हाँ, नहीं दोनों के लिये स्थान है।