सोमवार, 18 जून 2012

कोणार्क सूर्यमन्दिर - 5 : अपराधी कौन?

 

भाग 12, 3 और 4 से आगे...

 

3609612817_71b08f1233_zखिडकियों के काँच ऊपर करवा दिये हैं। ए सी तीन पर है और टैक्सी में नींद झपकियाँ – नहीं, मुझे इस मार्ग का सब देखना है, जगे रहना होगा। बन्द करो ए सी!

ब्लैक पैगोडा यानि काला देवमन्दिर। काले मन्दिर से याद आता है काला पहाड़, बंगाल का अभिशाप। सोचता हूँ कि कुछ अधिक ही पढ़ लिख गया...

 

...काल में बहुत दूर पहुँच गया हूँ – सम्भवत: 1986 या 87। टाउन में दशहरे का पर्व उत्सव है। धूम धाम थम चुके हैं। रात की नीरवता में 50-60 प्रबुद्ध स्त्री पुरुषों की छोटी सी सभा है और दूर पंजाब से आये ऋषितुल्य वृद्ध पराशर जी प्रवचन दे रहे हैं। प्रवचन नहीं कह सकते, कथा वार्ता कर रहे हैं... पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं के मिश्रित वाक्य, थीम है – ‘अपराधी कौन?’

 

तेज प्रकाश में सफेद दाढ़ी से घिरे प्रशांत मुखमंडल से आता एक वाक्य जम गया, आज जैसे कैमरे का फ्लैश चमका हो – कालीचन्द्र को कालापहाड़ बनाने का अपराधी कौन?

प्रकट में बुदबुदाता हूँ – सूर्यमन्दिर को खंडहर बनाने का अपराधी कौन?

 

प्रेम या प्रतिशोध, संकीर्णता या कट्टरता? उत्तर में सहम कर मनधुन को चुप कर बैठा हूँ, आज तक जिन प्रश्नों से जूझे जा रहा हूँ, उन्हें यहाँ भी उठना था!

 

उदास दृष्टि पथ की वनस्पतियों पर चली गई है, मैं मौन हूँ, मानस की अतल गहराइयों तक ...आँखों में पहचान धीरे धीरे उठने लगी है, मदार के फूल पथ के दोनों ओर खिले हुये हैं।

मदार यानि अर्क, अर्कक्षेत्र है यह, कोई आश्चर्य नहीं!

 

...लेकिन अर्क के साथ कहीं कतारबद्ध कहीं यूँ ही तितर बितर, दूर तक फैली यह दूसरी वनस्पति कौन है? पहचान गया हूँ।

हे देव! यह कैसा संयोग? पुन: स्मृति की वीथियों में!

 

... दिन है। ऑफिसर्स क्वार्टरों की पंक्तियाँ हैं। वह कोना अभी भी याद है -एक मोहक दृष्टि,”गिरिजेश, यह देखो फूल! कितनी अच्छी महक है।“  पौधे के साथ फूल है - बड़ा जड़ सहित पौधा, विचित्र जड़। तीखी मधुर गन्ध, रूप कमल की पंखुड़ियों जैसा कुछ। किसे देखूँ? फूल को या दिखाने वाले को?...

 

...चड्ढा भैया आये हैं। पूजा की चौकी पर पिताजी विराजमान हैं। पूरा कमरा महमह है – गुरु जी! यह आप के लिये। कई दिनों तक ऐसे ही सुगन्धित रहेगा।...  

...पुस्तक के वल्मीक। पन्नों से सूखे फूल की पंखुड़ियाँ झर रही हैं। मैं लिखते हुये किसी और लोक में हूँ। कैसे कैसे लोग, कैसी कैसी बातें! – देखते देखते सब बदल गया।...अभिशप्त है यह फूल! अभिशप्त है प्रेम, गिरिजेश! यह प्रेम अभिशप्त है...अभिशापों के अनन्त आवर्त। यहाँ, अर्कभूमि में आशीर्वाद ढूँढ़ रहे हो पगले!...

 

... जाने वहाँ सूर्यमन्दिर पर पहुँच कर क्या हो! अभी घर से लिखे जा रहे यात्रावृत्त में तन और मन दोनों हैं लेकिन मन कुछ अधिक ही बौराया हुआ है...

 

संकीर्णता का अभिशाप, क्रूर अट्टहास है, रह रह अल्ला हो अकबर का घोष है।

“बुतपरश्तों ने यहाँ हजारो बुत तामीर किये हैं। बुतखाना ही ढहा दो!”

“दीवारें बहुत मोटी हैं। यह बंगाल नहीं कलिंग है। बुतपरस्तों को अधिक देर रोक पाना मुमकिन नहीं है।“

“हुजूर! यह काफिर बोलता है कि सही रकम मिले तो बता सकता है कि बुतखाना कैसे नेस्तनाबूत हो।“ काफिर ने रकम के वादे पर बताया और बदले में मृत्यु पाया। काला पहाड़ ने उसका स्वयं शिरच्छेद कर दिया...

... मन्दिर के गर्भगृह शिखर का दधिनौति पत्थर यानि key stone - वह पत्थर जो विभिन्न भार विन्दुओं से आती दबाव रेखाओं को एक स्थान बाँधे रखता है ताकि बिना गारे मसाले के जमाये गये पत्थर अपने स्थान पर संतुलित बने रहें।

काला पहाड़ के सिपाहियों ने उसे ढीला करना शुरू कर दिया। हिला हिला कर उसका सारा जोर खत्म कर दिया। गिरा नहीं पाये थे कि उन्मत्त उड़िया सनातनी टूट पड़े। भयंकर प्रतिरोध युद्ध हुआ। काला पहाड़ चला गया लेकिन अपना काम कर गया। संकीर्णता, कट्टरता के अभिशाप काले देवमन्दिर पर अपना रंग भविष्य में दिखाने वाले थे।...

आज लिखते हुये उसके अभिशाप की कथा तो सुना ही दूँ।

...सम्भ्रांत कुल का युवक कालीचन्द्र ढाका की गलियों में काम की तलाश में घूम रहा था। नवाब की पर्दानशीं पुत्री की दृष्टि उस पर पड़ी। दोनों की नजरें चार हुईं और प्रथम दृष्टि का प्रेम हो गया। युवक में इतना साहस कहाँ कि आगे की सोचे? लेकिन आग दोनों ओर थी बराबर लगी हुई। प्यारी पुत्री ने पिता को मजबूर कर दिया।  कालीचन्द्र की बुलाहट हुई, प्रस्ताव रखा गया – इस्लाम स्वीकार करो और मेरी पुत्री से निकाह पढ़ो।

काली ने इस्लाम कुबूलने से मना कर दिया। क्रुद्ध नवाब ने उसके कत्ल का हुक्म दे दिया। ऐन मौके पर पुत्री आ पहुँची – पहले मैं फिर ये। अगर इन्हें मार दिये तो आप मेरा मरा हुआ मुँह देखेंगे।

 

नवाब को झुकना पड़ा। बस अग्नि को साक्षी मान हुये विवाह के साथ ही उठे सनातन धर्म के अभिशाप। धर्म धुरन्धरों ने मलेच्छ यवन कन्या के साथ विवाह को मान्यता देने से मना कर दिया। काली जाति बहिष्कृत हो गया। तड़पती माँ की परवाह किये बगैर पिता ने नवदम्पति को घर में प्रवेश तक नहीं करने दिया। उन्हें तालाब और कुआँ तक की मनाही हो गई।

काली चाहता तो नवाब की शरण में रह सकता था लेकिन उस स्वाभिमानी पर जाने कौन सी धुन सवार थी! पत्नी को साथ ले नवद्वीप के पंडितों के यहाँ पहुँचा – मनाही, तिरस्कार। जिस जगन्नाथ के यहाँ कोई भेद नहीं रह जाता, वहाँ पहुँचा। पंडों ने अपमानित किया, प्रवेश तक नहीं करने दिया!

 

क्षुब्ध प्रतिहिंसा में कालीचन्द्र ने ढाका लौट कलमा पढ़ लिया। उसके बाद उसकी तलवार जिस तरह से काफिरों के गले चली, जिस तरह से इस्लामी परचम का आतंक उसने फहराया और जिस तरह से पूरे पूर्वी बंगाल की बहुसंख्य आबादी को इस्लाम कुबूलने पर उसने मजबूर किया; सबका निचोड़ उसके नये नाम में समाया दिखता है – काला पहाड़!

पराशर अक्सर कहा करते थे –

दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग से,

इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।...

 

... पुरानी पुस्तक के पीले पड़ चुके पन्ने आज भी हाथ में हैं। इनसे उस अभिशप्त फूल की सूखी पंखुड़ियाँ नहीं झड़ रहीं जिसकी कथा आगे कहनी है, इनके शब्दों से अभिशाप झड़ रहे हैं। ऋषि पराशर की मेघ ध्वनि आज भी कानों में गूँज रही है – अपराधी कौन?

 

2012-06-18-930

18 टिप्‍पणियां:

  1. अपराधी कौन है गिरिजेश जी ? अपराध है ही नहीं - अपराधी कौन होगा ? सब समय के पहिये का घुमाव है - चक्र अपनों धुरी पर घूमता ही रहता है | जहां इतनी जानें गयीं, वहां किसी पत्थर के ढह जाने का इतना मोह ?

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    1. ज्ञान का वह स्तर जहाँ सभ्यता के चरमोत्कर्ष और संस्कृति उपलब्धि के प्रतीक पत्थर भर लगें, घटित होते हुये को यूँ साक्षी भाव से देखा जा सके कि बस समय का चक्र भर लगे; वहाँ नश्वर प्राणियों के जीवन भी माया मोह ही होते हैं।
      उस स्तर पर कुछ भी मायने नहीं रखता - इतिहास, विज्ञान, गणित, साहित्य, ब्लॉगरी सागरी सब माया! ब्रह्म सत्यं जगन्नमिथ्या...सीताराम सीताराम

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    2. ज्ञान का वह स्तर ??
      no - it is not gyaan.

      गिरिजेश जी - मैं कह कुछ और रही हूँ - आप समझ कुछ और रहे हैं |

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    3. :) हाँ, एक बात और हो सकती है कि इन अपराधों में जीवन का कितना ह्रास होता है! मानव की अनंत यात्रा राह में कितने रोड़े अटकते हैं; बजाय उस पर लिखने के लिये मैं पत्थर ढहने पर संतप्त हो रहा हूँ। सही है।
      उस पर भी लिखता रहा हूँ, कभी सीधे कभी कथा कहानियों के माध्यम से। लेकिन यह लेखमाला तो पत्थरों में/के जीवन पर ही है। उसके साथ हैं अपनी अनुभूतियाँ। घेरा है।
      आप ने अपनी बात स्पष्ट की, आभार।

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    4. इस पर जो मेरे मन में है - वह कहने के लिए टिपण्णी कम है - पूरी पोस्ट ही लिखनी होगी | यहाँ तो बस इतना ही लिख सकती हूँ - कि - नहीं, मैं यह भी नहीं कह रही थी, ( though that is quite true) |

      और हाँ - उन मंदिरों को मैं सिर्फ पत्थर भर नहीं समझती हूँ - न उनके ढहाए जाने को कमतर मानती हूँ | मैं कुछ और कह रही थी | हाँ - मेरी ऊपर की टिपण्णी से ऐसा ही आभास होता है - क्षमाप्रार्थी हूँ |

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    5. प्रेम को मान्यता न देने से बड़ा अपराध और कौन सा है / हो सकता है ?

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  2. अपराधी कौन?


    आचार्य ... इतिहास चीख चीख कर इस प्रशन का उत्तर स्वयं दे रहा है

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  3. काला पहाड़ की कहानी पढ़ी थी, अपना ही रक्त हर रक्त का कारण बना..

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  4. ये तो एकदम अनसुनी अनजानी यात्रा रही मेरे लिए, बहुत रोचक!
    १९८६ बहुत दूर है? वाकई, अधिक उम्र निकल आयी मेरी।

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  5. मेरा अज्ञान देखिये, मैं काला पहाड़ को कश्मीर से सम्बंधित जान रहा था|
    'अपराधी कौन है?' ये ध्वनि तो गूंजती ही रहेगी|

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  6. अपराधी धार्मिक संकीर्णता है. जिस कालीचंद्र ने मृत्यु के भय से भी धर्म परिवर्तन नहीं किया उसको अपने लोगो के व्यवहार ने बदलने पर मजबूर किया

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    1. शोभा जी आप से सहमत हूँ | प्रश्न "अपराधी कौन" की अपेक्षा "अपराधी क्या ? कौनसी प्रवृत्तियां?" अधिक औचित्यपूर्ण है शायद इस परिपेक्ष्य में | :(

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    2. संकीर्णता ही एकमात्र अपराधी नहीं, हिंसक मान्यताएं और द्वेषी धारणाएँ भी अपराधी है। संकीर्णता का यह अपराध है कि निमित बनी।

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  7. क्षमा चाहूंगा, मैं काले पहाड़ का जिक्र पहली बार आपसे ही सुना हूं, इसे प्रामाणिक रूप से, पूरी गाथा को किस पुस्तक में? बताएँ।

    कला पहाड़ ही क्या, यह तो आज भी है कि मुस्लिम से विवाह किये को हिन्दू समाज नहीं स्वीकार पाता। उल्टे मुस्लिम समाज में यह उत्साहवर्धक कार्य माना जाता है। शुचिता के ये फर्जी चोचले हिन्दू समाज के बंटाधार के मूल कारण हैं।

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    1. ये शुचिता सिर्फ यहीं(विवाह) बस नहीं कर देती अमरेन्द्र| हर क्षेत्र में चाहे वो ज्ञान झाड़ने का मामला हो, नेतृत्व करने का मामला हो, श्रेय लेने का मामला हो ऐसा लगता है जैसे circles within circle. एक और सन्दर्भ याद आ रहा है बल्कि आता रहा है लेकिन नैट पर ढूंढा तो मिला नहीं इसलिए कभी कहीं जिक्र नहीं कर पाया| 'आठ कन्नौजिये नौ चूल्हे' सुना है? मैंने कभी पढ़ा था इस वाक्य के पीछे का इतिहास लेकिन सहेजकर नहीं रखा|

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    2. @ काला पहाड़ पहली बार - कोई आश्चर्य नहीं। इतिहास की सरकारी और वामपंथी किताबों में ऐसी सचाइयाँ नहीं बताई जातीं जिनसे छ्द्म सेकुलरी ढाँचा दरकने लगे। आप ने नेट सर्च किया होता तो हजार लिंक मिलते। अस्तु...
      ये लिंक देखियेगा:
      (1) पुरातत्त्व विभाग की सरकारी साइट पर
      http://konark.nic.in/fall.htm

      (2) विकिपीडिया पर
      http://en.wikipedia.org/wiki/Oriya_Muslims

      (3) संघ विरोधी एक आलेख में ;)
      http://www.sacw.net/DC/CommunalismCollection/ArticlesArchive/Kanungo2003.html

      पुस्तकें ढूँढ़ियेगा, लाल विश्वविद्यालय की चहारदीवारी के बाहर बहुत सी मिलेंगी।

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  8. दोष तो हिन्दुओं का ही है.काश उन दिनों आर्य समाज होता.

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  9. जाने किस लोक में पहुँच गुम गया मन ...ओह

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