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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

... उधार की लंठई :)

आज उधारी की लंठई :)

इंटरनेट पर उपलब्ध हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट स्थलों में  कविताकोश  एक है। लोकगीतों पर अपनी शृंखला के लिये सामग्री ढूँढ़ते मुझे यह संस्कृत लोकगीत [ ;) वहाँ यही बताया गया है।]  दिखा। शास्त्री नित्यगोपाल कटारे की लंठई के हम मुरीद हो गये। आप भी आनन्द लीजिये। मूल गीत यहाँ है।


वैभवं कामये न धनं कामये
केवलं कामिनी दर्शनं कामये
सृष्टि कार्येण तुष्टोस्म्यहं यद्यपि
चापि सौन्दर्य संवर्धनं कामये।

रेलयाने स्थिता उच्च शयनासने
मुक्त केशांगना अस्त व्यस्तासने
शोभिता तत्र सर्वांग आन्दोलिता
अनवरत यान परिचालनं कामये।

सैव मिलिता सड़क परिवहन वाहने
पंक्ति बद्धाः वयं यात्रि संमर्दने
मम समक्षे स्थिता श्रोणि वक्षोन्नता
अप्रयासांग स्पर्शनं कामये।

सैव दृष्टा मया अद्य नद्यास्तटे
सा जलान्निर्गता भाति क्लेदित पटे
दृशयते यादृशा शाटिकालिंगिता
तादृशम् एव आलिंगनं कामये।

एकदा मध्य नगरे स्थिते उपवने
अर्धकेशामपश्यम् लता मण्डपे
आंग्ल शवानेन सह खेलयन्ती तदा
अहमपि श्वानवत् क्रीडनं कामये।

नित्य पश्याम्यहं हाटके परिभ्रमन्
तां लिपिष्टकाधरोष्ठी कटाक्ष चालयन्
अतिमनोहारिणीं मारुति गामिनीम्
अंग प्रत्यंग आघातनं कामये।

स्कूटी यानेन गच्छति स्वकार्यालयं
अस्ति मार्गे वृहद् गत्यवरोधकम्
दृश्यते कूर्दयन् वक्ष पक्षी द्वयं
पथिषु सर्वत्र अवरोधकम् कामये।
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अर्थ पूछ कर खुद को 'बोका' न सिद्ध करें। 
श्रम करें। श्रमजनित काव्यानन्द की अनुभूति होगी। स्वस्ति! ;)



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डिस्क्लेमर:
 इहलोक, परलोक, द्युलोक, ऊ लोक, ई लोक, लोकालोक आदि; वर्तमान, भूत, भविष्यादि और भी आदि आदि जोड़ते हुये समझ लें - किसी को भी ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से यह 'लोकगीत' प्रस्तुत नहीं किया गया है। किसी भी तरह के स्पष्टीकरण के लिये शास्त्री नित्यगोपाल कटारे से सम्पर्क करें। 

चेतावनी: 
अगर विवाद की स्थिति आई तो इस पोस्ट को हटा दिया जायेगा। इसलिये शीघ्रातिशीघ्र पारायण कर आनन्द प्राप्ति कर लेवें ;) ब्लॉग लेखक टिप्पणियों का भूखा नहीं है इसलिये वाह, अद्भुत आदि आदि टाइप की टिप्पणियाँ न करें। मौन रसास्वादन करें। 
सौहार्द्र, सज्जनता और वस्तुनिष्ठता बनायें रखें। धन्यवाद। 


मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 3


भाग- 1 और 2 से आगे... 

स्त्री पुरुष का आपसी आकर्षण, जिसकी चरम परिणति दैहिक समागम और संतति मे होती है, संसार का सबसे बड़ा सच है। नियमन की प्रक्रिया में समाज ने समागम को निकृष्ट कर्म बना दिया जिसका पार्श्व प्रभाव गालियाँ थी। विवाह स्त्री पुरुष सम्बन्ध को एक नैतिक और स्वीकार्य धरातल देता है लेकिन इसके बाद बहुसंख्य समाज सेक्स शिक्षा का कोई आयोजन नहीं करता। स्त्री को यह शिक्षा माँ और सहेलियों से मिलती है तो पुरुष को अंतरंग मित्रों से। सही गलत की बात नहीं, जो है सो है। विवाह के मांगलिक अवसर पर निकट सम्बन्धों का आलम्बन ले कर होने वाला गाली गायन नई पीढ़ी को परम्परा के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों के निकृष्ट न होने का सूक्ष्म संकेत होता है। नई पीढ़ी मैथुन क्रिया का आलम्बन ले घृणित गालियाँ रोज कहती सुनती रहती है। क्रिया आधारित जुगुप्सित गालियों के बजाय सम्बन्ध आधारित सरस गालियों का सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार अनुष्ठान में आवश्यक अंग बनना मस्तिष्क के भीतर की उस स्वाभाविक रागात्मकता को स्वास्थ्य प्रदान करता है जिसे दैनन्दिन निषेध रोग की तरह घोषित किये रहते हैं।
वैवाहिक अनुष्ठान में ‘माटिकोड़वा’ के अवसर पर केवल स्त्रियाँ होती हैं। बुआ या बहन मिट्टी खोद कर गड्ढा बनाती है जिसमें पानी भर कर सिक्के डाल दिये जाते हैं और उन्हें ढूढ़ने के कौतुक होते हैं। सिक्के रत्नगर्भा की क्षमता के प्रतीक होते हैं जिसका दोहन नया परिवार बसाने जाते दम्पति को करना होता है। इस अवसर पर बेहिचक और बिन्दास लैंगिक गालीगलौज होता है। मैथुन के प्रत्यक्ष सन्दर्भ वाली गालियाँ भी खूब चलती हैं। कृषि के पुरुषकेन्द्रित होते जाने और पैतृक भूमि सम्पत्ति से स्त्री को बेदखल कर दिये जाने के प्रति यह कहीं स्त्री का विरोध प्रदर्शन तो नहीं? ठीक वैसे ही जैसे आम पुरुष हताशा में गाली बक कर, नपुंसक ही सही, प्रतिरोध का संतोष कर लेता है और आगे के संघर्ष के लिये तैयार हो जाता है। यह क्रिया इतनी स्वाभाविक है कि पुरुष व्यक्तित्त्व का अंग सी हो गई है। घर में केन्द्रित स्त्री या कृषि कर्म में सहयोगी लेकिन उपेक्षिता स्त्री को अपने लिये सम्भवत: विरोध प्रदर्शन का यही अवसर मिला।
विवाह के बाद, जब कि एक नया परिवार बनता है, स्त्री धरती माँ की तरह ही बीज को गर्भ में सहेज सृजन करती है। स्त्री के लिये धरती से बेहतर अपनापन क्या हो सकता है? विवाहोपरांत स्त्री पैतृक भूमि अधिकार से वंचित होकर ससुराल की भू सम्पत्ति में भागीदार बनती है। कहीं गालीबाजी विरोध प्रदर्शन के साथ नई सम्भावना के लिये उल्लास प्रदर्शन तो नहीं? प्रश्न उठता है कि गाली ही क्यों? किसी और कथ्य में कठोरता से नियमित समागम क्रिया केन्द्रित गालियों जैसी तीव्रता कहाँ? वह भी पुरुष केन्द्रित समाज में जहाँ गाली बकना पौरुष का प्रतीक माना जाता हो और गाली देना स्त्री के लिये एक निहायत ही गलीज निकृष्ट कर्म।
ऐसी प्रथायें नगरीकरण के साथ साथ ‘सभ्यता’ के तकाजे को ध्यान में रखते हुए लुप्त हो रही हैं – अप्रासंगिक हो गई हैं। कुंठा और आक्रोश अभिव्यक्ति के तमाम साधन उपलब्ध हैं। हिंसक प्रमोद का अपना आनन्द है। स्त्री बराबरी के प्लेटफॉर्म पर उतनी ही बर्बर या क्रूर हो रही है जितना पुरुष। यहाँ के नियम और विधियाँ अलग हैं।
 निकट सम्बन्धों जैसे देवर भाभी में गालीबाजी मनोविनोद का साधन तो है ही, समाज द्वारा इसकी स्वीकृति एक तरह से सम्भावित विपत्ति से निपटने की परोक्ष व्यवस्था भी। यह मनोविनोद पारिवारिक दायरे के भीतर एक अलग सी रागात्मक निकटता गढ़ता है। देवर शब्द से ही दूसरा पति ध्वनित होता है। ऐसी तमाम घटनायें हैं जहाँ अकाल मृत्यु की स्थिति में समाज ने स्त्री को देवर से विवाह की अनुमति दे दी। कई मामलों में तो स्त्री संतानवती भी थी।
 कोई आवश्यक नहीं कि दैनन्दिन गाली बकने वाला स्त्री जाति के प्रति अनादर का भाव रखता हो। जैसा कि पहले कहा, यह क्रिया उसके संस्कारों और परिवेश से अनुकूलित मस्तिष्क में स्वचालित सी आती है और अप्रत्यक्ष रूप से अवसाद या क्रोध का निवारण कर उसे आगे के संघर्ष के लिये तैयार कर देती है। अपने परिवार के और दीगर स्त्रियों के प्रति वह आदर, अनादर या तटस्थता का वही भाव रखता है जो पुरुषों के लिये रखता है।
अब सवाल यह कि स्त्रियाँ गाली क्यों बकती हैं? पुरुष केन्द्रित समाज में अगर पुरुष को झटका देना है या उसके ऊपर ‘विजय’ प्राप्त करनी है तो उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं जिनका प्रयोग वह स्त्री को पीड़ित करने के लिये करता है? बहुधा स्त्री के मुँह से लैंगिक गालियाँ निरर्थक लगती हैं लेकिन पुरुष के लिये स्त्री की यह ‘निर्लज्जता’ एक जोरदार झटका होती है, साथ ही समागम क्रिया में पुरुष वर्चस्व को चुनौती भी – फक यू! चोद तुम ही नहीं मैं भी सकती हूँ, तुम्हें आनन्द आता है तो मुझे भी आता है। ऐसी स्त्री प्रतिद्वन्द्वी को मानसिक रूप से हीन भाव ग्रसित कर देती है। लड़ाई में शत्रु का यही हाल होना चाहिये न। परिणाम देखो, अपनाया गया मार्ग नहीं।
गाँव गिराम में तो ऐसी स्त्रियाँ हमेशा से रही हैं, महानगरीय संस्कृति में उच्च शिक्षित प्रोफेशनल स्त्री तबके में भी इस प्रवृत्ति का अवतरण सबको चौंका रहा है।  इसमें चौंकने जैसी कोई बात नहीं है। स्त्री पुरुष से कन्धा मिला कर साथ चल रही है। उसे भी उन्हीं चुनौतियों और निराशाओं का सामना करना है जिनका सामना पुरुष करता रहा है। अपने लिये कुछ नया ढूँढने की उसे कहाँ फुरसत? गाली दे देना अच्छा है या घुटते हुये मनोरोगी होना? बहुतेरी के लिये तो यह स्वाभाविक बात है, ठीक पुरुषों की तरह वे इसके बारे में सोचती भी नहीं। हाँ, यह प्रवृत्ति बहुधा इतनी स्वस्थ मनोवृत्ति को नहीं दर्शाती। इसका उल्टा कुछ अधिक ही सच है। लेकिन ऐसा स्त्री पुरुष दोनों के लिये है। अभी संक्रमण काल है, आगे बदलाव होंगे। परिवेश का ‘लिंग्वा फ्रैंका’ ऐसी कामकाजी स्त्रियों का भी है। सामाजिक वर्गानुसार संस्कृत और प्राकृत सम्वाद विभेद साहित्य में चल सकता है, दैनिक जीवन में नहीं।   
 गालियों को लेकर सारी चिंतायें मध्य वर्ग की ही हैं। निम्न और उच्च वर्ग इनसे अधिक हलकान नहीं होते। मध्य वर्ग ने सारी अच्छाइयों का ठीका जो ले रखा है! प्रश्न यह है कि समाज या साहित्य में गालीबाजी क्या एक चिंतनीय विषय है? हिन्दी पट्टी के परिप्रेक्ष्य में गालियों का साहित्य में उतरना कहाँ तक उसके छिछलेपन से जुड़ता है? कहीं यह महज उसकी निराशाओं और यथार्थ को चित्रित करने की एक विधि तो नहीं? हम किसी साहित्य का क्या याद रखते हैं – गालियाँ या उनसे जुड़ी सम्वेदनशीलता? गालियों के बिना भी साहित्य रचा जा सकता है लेकिन क्या बस इसे न मानने के कारण कोई साहित्य या साहित्यकार छिछ्ला और त्याज्य हो जाता है? ...(अगला भाग) 
लेंठड़े की पुरानी बातें:

शनिवार, 22 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 2

पहले भाग से आगे...
लेंठड़े ने मुझे पार्क के किनारे पेंड़ के नीचे बुला लिया। पूछ बैठा – यह किसका पेंड़ है? मुझे प्रश्न से आश्चर्य हुआ। मंतव्य न समझते हुए भी मैंने बता दिया,“आम का।“
“कभी आम के पेंड़ पर चढ़े हो?”
मैं जोश में आ गया – जाने कितनी ही बार चढ़ा हूँ!
“बड़े चूतिये हो!”
सुबह सुबह किसी केंकड़े से ऐसा सुन कर मैं हैरान भौंचक्का रह गया! उसने अपने पंजे कड़कड़ाये और कहा – सिर्फ मनुष्य ही गालियाँ बकते हैं क्यों कि उनके पास भाषा है, यह एक अज्ञानी का तर्क है।...
चूतांकुरा स्वादकषायकंठ:... चूत माने आम का वृक्ष। इसका एक अर्थ गुदा या गुह्यांग भी होता है। दूसरे अर्थ की उपेक्षा कर अगर मैं ‘आम’ अर्थ का आश्रय ले, वह भी एक अप्रचलित भाषा से, किसी को यह गाली देने के बाद उसे बहलाने का प्रयास करूँ कि मैंने आम के पेंड़ पर चढ़ने वाले के लिये कहा तो मेरे कुतर्क और बलात-कुविद्या को वह मानेगा या मुझे मारने दौड़ेगा?... गायत्री मंत्र के प्रेरित अर्थ वाले ‘चोद’ और मैथुन की शारीरिक धकेल को व्यक्त करने वाले गाली की ‘चोद’ में अंतर है। कहने वाले की भावना देखी जाती है, शब्द नहीं। ‘साले’ में मित्रों का प्रेम भी है और किसी अजनबी के प्रति प्राथमिक गाली भी। असल में तुम मनुष्यों की बहुत सी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं। मैं बात करते गोबर..नहीं हिन्दी पट्टी पर केन्द्रित रहूँगा। ठीक है न?
... मेरा मन ऐसा हो गया जैसे सुबह सुबह किसी ने जबरिया ब्लैक कॉफी पिला दी हो, वह भी बिना शक्कर की! उसने अपनी बकवास को आगे बढ़ाया...
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प्रहार शारीरिक और मानसिक दोनों होते हैं। जिस सम्बन्ध या वस्तु के प्रति जितना अधिक सम्मान और अपनत्त्व का भाव होता है, वह प्रहार के लिये उतनी ही उपयुक्त होती है। किसी को कष्ट पहुँचाना हो तो उसके लिये जो परम आदरणीय है, उसका परम अनादर कर दो गालियों के पीछे यह मानसिकता काम करती है। आश्चर्य नहीं कि माँ की गाली सबसे तीखी और खराब मानी जाती है। अंतरंग मित्र जो बिना गालियों के एक दूजे से एक वाक्य भी नहीं बोल पाते, वे भी इससे परहेज करते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो कोई भी गाली सह लेते हैं लेकिन माँ की गाली मिलते ही क्रोधोन्मत्त हो जाते हैं। न्यूनाधिक रूप में ऐसा पिता केन्द्रित गाली के साथ भी होता है। ऐसा क्यों है?
भावनायें अपनी जगह हैं लेकिन उसके पीछे वर्चस्व और प्रतिष्ठा की मानसिकता काम करती है। माँ की गाली देने वाला यह जताता है कि देखो इस नपुंसक को! इसके सबसे प्रिय व्यक्ति को मैंने गाली दे दी। उसे गाली दी जो इसे इस संसार में ले आई। यह पुरुष प्रधान समाज में सम्पत्ति और भावना के जटिल मिश्रण वाले सबसे प्रिय स्त्री सम्बन्ध पर प्रहार कर सामने वाले को मानसिक रूप से पीड़ित करने का उद्योग होता है। गाली देने वाला अपनी जान सामने वाले की प्रतिष्ठा को क्षतिग्रस्त कर रहा होता है। प्रतिष्ठा में जो महाप्राण है, उसमें बहुत ठसक है। इतनी ठसक है कि बहुत बार भाव को स्थानच्युत और ठरका देता है लेकिन समझते ही कितने हैं? आक्रामकता को दर्शाते और सराहते हुये प्रतिष्ठा का मूल स्थान ही खिसक जाता है। गाली देते हुए वह अपनी जननी को भी कहीं आक्षेपित कर रहा होता है, यह उसकी समझ में नहीं आता।
लेकिन उन गालियों का क्या जो लोकभाषाओं का अंग हो गई हैं? वास्तव में बहुधा इन गालियों में उन सभी पुरानी लुप्तप्राय भाषाओं के अंश सुरक्षित रह जाते हैं जिनसे लोकभाषा विकसित हुई संस्कृत के चूत या चोद उदाहरण हैं।
यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत संस्कृतभाषा साहित्य में कहीं भी लैंगिक, यौनांगों या यौन सम्बन्ध आख्यानक गालियाँ नहीं हैं। व्यक्ति के बजाय उसके सम्बन्धियों पर प्रहार करती गालियाँ भी नहीं पायी जातीं। प्रताड़ित करने के लिये व्यक्ति केन्द्रित अपशब्द भर मिलते हैं जैसे पामर, नीच, कुलटा, दुष्ट, दुर्मति, लंपट आदि आदि। संस्कृत में लोकभाषा के लिये तिरस्कार का भी भाव मिलता है। उसे ग्राम्याकह कर उपेक्षित किया गया है। परवर्ती नाटकों में ग्रामीण, अशिक्षित या निम्न वर्ग के सम्वादों के लिए प्राकृत या पाली का प्रयोग हुआ है और नागर या सुशिक्षित व्यक्ति सम्वादों के लिये संस्कृत का। प्रश्न यह है कि समाज की वास्तविक स्थिति से परहेज क्यों? इसके कई कारण हैं - समाज को संस्कारशील बनाये रखने के लिये एक मानक की आवश्यकता (नाटकों में हत्या, चुम्बन आदि मंच पर दिखाने पर निषेध); श्रेष्ठताबोध और नागर दम्भ; भाषा को पवित्र और अति विकसित देवसभ्यता से जोड़ा जाना आदि आदि। यह प्रवृत्ति संसार की अन्य प्राचीन भाषाओं में भी पायी जाती है।
हिन्दी के समूचे भक्ति साहित्य में भी लैंगिक या यौन सम्बन्धों वाली गालियाँ नहीं हैं, अपशब्द भले हों। रीतिकाल में भी कमोबेश ऐसा ही है। इन सबके पीछे शुचिता की यह अवधारणा कि साहित्य समाज को संस्कारित करने वाला होना चाहिये, काम करती रही लेकिन साहित्य में नागर, शिक्षित और अभिजात्य वर्ग का पाखंड भी प्रवेश कर गया। परिणामत: यौन सम्बन्धों, अवैध सम्बन्धों आदि के चमत्कारिक और जुगुप्सा की हद तक जा कर ग्राफिक वर्णन हुए। स्त्री पुरुष सम्बन्धों की उद्दाम रागात्मकता और रोगी मनोवृत्ति के बीच के अंतर को भुला दिया गया। साहित्य सरस्वती धनपशुओं की चेरी हो गई। ग्राम्याकी उपेक्षा की अगली परिणति हुई आम जन जीवन की उपेक्षा, तब जब कि रचनाभाषा ग्राम्याही थी। साहित्य में संस्कार उड़ेनले वाले संत व्यक्तित्त्व तो रहे नहीं, साहित्य समाज को दिशा क्या देता, उसका दर्पण भी नहीं रहा और उससे कट गया।
एक बात अनुकूलन पर भी। स्त्री को लालित्य का प्रतीक माना गया। प्रकृति-पुरुष द्वय में कोमल भाव की वाहिका स्त्री रही। इसे शिशु पालन की नैसर्गिक मातृ/ममत्त्ववृत्ति का तार्किक विकास मानना चाहिये। साहित्य, संगीत, कलादि को स्त्री तत्त्व से जोड़ दिया गया। लोककथाओं में भले मिल जाय लेकिन इस सभ्यसमाज में विद्या की देवी ही मिलेगी, देवता नहीं। यह सब जनमानस में इतना पैठ गया कि अनुकूलित हो सोच, समझ, व्यवहार, बोली आदि का अंग हो गया और बहुतेरे इससे इतर सोच ही नहीं सकते। स्त्री केन्द्रित गालियाँ उस सोच का विस्तार हैं जो सुसंस्कृत व्यवहार को पुरुष प्रधान समाज में स्त्रैण और निष्प्रभावी मानती है और भद्दे, कटु, जुगुप्सित बोली व्यवहार को पुंसत्त्व (फलत: प्रभावी) का प्रतीक। विवादों की स्थिति में ऐसी गालियाँ प्रतिद्वन्द्वी के सामने चुनौती रखती हैं है मर्दानगी तुममें? और सामने वाला अपने पौरुष को दर्शाने के लिये विरोधी की माँ बहन ...करने लगता है। ऐसा करते हुये वह अपने भीतर की कथित स्त्रैणतासे उबर रहा होता है। बहुधा विवाद इस शक्ति प्रदर्शनके आगे नहीं जाते। उनका यूँ शमित हो जाना गालियों के विधेयात्मक पक्ष को उजागर करता है लेकिन सामाजिक सोच के ठहराव को भी दिखाता है और स्त्री तत्त्व के प्रति अनादर भाव को भी। सोच और व्यवहार में स्त्री-पुरुष तत्त्व का असंतुलन सीमित प्रभाव नहीं रखता बल्कि हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ता है। पौरुष की भ्रामक अवधारणा को महिमामंडित कर पुरुष प्रधान समाज की गति और प्रगति दोनों को पंगु बनाता है।
वर्तमान समय तेज परिवर्तन का समय है। गालियाँ के कई प्रकार हो गये हैं। गालियों के अलावा गाली देने वाले/वालियों पर भी ध्यान देना होगा। कई बाते हैं गाली बकने वाले क्या इतना सोचते हैं? इसकी आवश्यकता भी है? गालियाँ की स्वीकार्यता और उनसे घृणा, जुगुप्सा किस स्तर की है? क्या गाली देने वाले के मन में वाकई स्त्री या स्त्रीजाति के प्रति अनादर का भाव ही होता है? क्या स्त्री वाकई अनादर का अनुभव कर याद रखती है या लैंगिक संकेतों पर मुँह बिचका कर उपेक्षित करते हुए भूल जाती है? स्त्री का गाली पर इतना सम्वेदनशील होना उचित है क्या, तब जब कि वह स्वयं बकती है? यह सम्वेदनशीलतापुरुष प्रधान समाज में अपने पैर जमाती स्त्री के बराबरी के दावे से कितनी और कैसे जुड़ती है? गालियों के प्रयोग का विरोध करने वाले पुरुष स्त्रैण हैं? क्या गालियाँ इतनी आवश्यक हैं कि उनके बिना काम ही नहीं चल सकता? क्या यह समाज गालीबाज समाज है? ऐसा क्यों है कि परिवार बन्धन में बँधने के बाद बहुसंख्य जन गाली बकना अत्यल्प कर उसे अंतरंग मित्रों की बैठकी के लिये सुरक्षित कर देते हैं? गालियाँ रागात्मकता और मित्रवत प्रेम से क्यों जुड़ती हैं? कुछ निकट सम्बन्धों में गालियाँ स्वीकार्य क्यों हैं? वैवाहिक अनुष्ठानों में कुछ अवसर गालियों के कर्मकांड के लिये सुरक्षित क्यों हैं? धीरे धीरे वे लुप्त क्यों हो रहे हैं? गालियाँ सार्वकालिक और सार्वदेशिक क्यों हैं? सिनेमा, टीवी, इंटरनेट के जमाने में साहित्य में गालियों का प्रयोग समाज को कितना दूषित कर सकता है? गालियों को सहेजने की साहित्य की प्रवृत्ति समाज की स्थिति और सोच को कितना दर्शा रही है और उन्हें कितना बदल सकती है? इस युग में साहित्य समाज को दिशा देने और सामाजिक परिवर्तन करने में क्या वाकई सक्षम है?   (अगला भाग)
लेंठड़े की पुरानी बातें:

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 1

आज सुबह लेंठड़े से मुलाकात हुई। वातानुकूलित लाइब्रेरी से बाहर आ कर सर्दी में काँप रहा था। पंजे कड़कड़ा रहा था। वह जगदीश्वर चतुर्वेदी, मृणाल पाण्डेय, अरविन्द मिश्रादि के गाली विषयक लेख पढ़ कर  विमर्शी मुद्रा में था। दुखी भी था कि एक ओर वादी लोग 'भोजपुरी के पथभ्रष्टक दुअर्थी विशारद बलेसर 'के महिमा गायन में लगे हैं तो दूसरी  ओर गालियों से परहेज करने की सलाह दे रहे हैं। गुड़ खाओ और गुलगुल्ले से .... हाँ कुछ वैसा ही जैसे कृष्ण करें तो लीला हम करें तो व्यभिचार! 
लंठ केंकड़े के साथ विमर्श क्या होता, वह अपनी ही हाँकता चला गया। सोचा कि साझा कर दूँ। आप इसे पढ़ें तो अपने पूर्वग्रहों को ताख पर रख कर चुभलाते हुए पढ़ें ताकि रस परिपाक हो सके। पहले बताना ठीक होता है ताकि बाद में यह कह कर कि बताया नहीं, आप _रियाने न लगें। मैं अज्ञानी मन्दमति हूँ, बस उसकी बात कह रहा हूँ। मुझे वाकई इस विषय में कुछ नहीं पता। हाँ, गालियाँ दे लेता हूँ।  
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आम समझ में गाली का अर्थ यौनांगों और यौन सम्बन्धों से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी उस अभिव्यक्ति से लिया जाता है जो लक्षित व्यक्ति की प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास या आत्मबल पर सीधा असभ्य सा प्रहार करती है। यह प्रहार लैंगिक, सामाजिक आदि पक्षों के अतिसम्वेदनशील मार्मिक बिन्दुओं पर होता है, परिणामत: शारीरिक प्रहार से भी भयानक हो जाता है।
पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के जननी स्वरूप का बहुत आदर है। स्त्री प्रधान समाज में भी होता लेकिन        शायद उतना नहीं होता। उस स्थिति में पुरुष के जनक स्वरूप का अधिक आदर होता। यहाँ ‘प्रधान’ से ‘शासित’ का भी अर्थ समझें। समाज का नारी अर्धांश कहीं पुरुष के स्वामित्त्व के दम्भ से जुड़ता है और घर परिवार के नारी सम्बन्ध जैसे माँ, पत्नी, बहन, बेटी आदि अकथित सम्पत्ति की श्रेणी में आ जाते हैं। किसी को यदि अपने प्रतिद्वन्द्वी को चोट पहुँचानी है तो उसकी एक विधि सम्पत्ति पर प्रहार है। अकथित सम्पत्ति का सबसे सम्वेदनशील पहलू उसका जननी होना है जो अति आदृत भी है। वह सम्पत्ति निर्जीव नहीं, सजीव है। उसके साथ तमाम भावनायें भी जुड़ी हैं। पशुओं की तरह उसका व्यापार नहीं होता (मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा)। चोट पहुँचाने के लिये इससे उपयुक्त क्या ‘चीज’ हो सकती है? 
चूँकि स्त्री समान रूप से सोचने समझने की और भावनामयी शक्तियाँ रखती है इसलिये उसे भी इस प्रहार से अपार चोट पहुँचती है। इसके कारण प्रहार का प्रभाव कई गुना हो जाता है। गाली देने में किसी तरह के शारीरिक उद्योग की भी आवश्यकता नहीं लिहाजा तत्काल निकल आती है, बाद में भले उसके कारण हत्या तक हो जाय!
हजारो वर्षों से हो रहे अनुबन्धन या अनुकूलन के कारण स्त्रियाँ भी वह गालियाँ देती हैं जो स्वयं स्त्री जाति के लिये अनादरसूचक और हिंस्र होती हैं। इसे पुरुष सत्ता का प्रभाव भी कहा जा सकता है और नौ महीने सबकी दृष्टि में गर्भ भार ढोने को लेकर अवचेतन में बैठे हीन भाव का प्रभाव भी। यौन सम्बन्धों के नियमन की प्रक्रिया में उन सम्बन्धों को गोपनीय, गुह्य, अवांछनीय और पापमूलक संज्ञायें दे दी गईं। पुरुष तो शुक्राणु देकर निश्चिंत हो जाता है लेकिन स्त्री उस ‘पापक्रिया’ के भार को तीन चौथाई वर्ष तक झेलती है और बाद में प्रसव प्रक्रिया को भी जो उसके यौनांग और पूरे शरीर को क्षत भी करती है। स्त्री ‘पापक्रिया’ की प्रत्यक्ष वाहिका होने के कारण पुरुष प्रधान समाज में घृणा का केन्द्र हो जाती है। सृष्टि चलती रहे इसके लिये गर्भ ढोना गर्भाधान से अधिक महत्त्वपूर्ण है। जो सृजन स्त्री को मातृत्त्व की गरिमा और आदर से अलंकृत करता है, वही उसके लिये घोर अनादर का कारण भी बन जाता है। इस अनादर के पीछे पुरुष अवचेतन का यह हीन भाव भी है कि स्त्री का दाय उस सृष्टि को जारी रखने में उससे बहुत अधिक है जिसका वह स्वामी बना बैठा है। सम्पत्ति न हो तो स्वामी कैसा? हीन भाव हिंसा को जन्म देता है। विवादों और असहमतियों की स्थिति में गालियाँ छिपे हुए इस हिंस्र भाव की अभिव्यक्ति हो जाती हैं।
गालियों से और भी पहलू जुड़े हैं। (अगला भाग) 
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लेंठड़े की पुरानी बातें: 

सोमवार, 3 जनवरी 2011

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 6

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग–1, भाग-2, भाग–3भाग-4, भाग-5  से आगे...
खदेरन की जब नींद खुली तो ऊषाकाल था। देह इतनी हल्की लग रही थी जैसे उड़ने को तैयार हो। भूख मुरमुरा चुकी थी, शिथिलता थी और मन प्रशांत था - किसी लम्बी व्रत साधना की समाप्ति की तरह। मन में एक लहर आई – इन मायावियों ने नींद में कुछ खिला दिया था क्या? या जठराग्नि भी किसी साधना में है? अग्नि से अग्निहोत्र ध्यान में आया और साथ ही भिनसहरी के सुर कानों में पड़े – उठs देव चुचुही चँवर चहुँ दिसि राम, रैना बीतल बैना बहुरि आई याम राम।
इतनी दूर इस भूमि पर यह गायन? यह दोनों हमारी बोली भी बोलती हैं! मायानगरी है यह! स्वर खुले आँगन से लगी एक दूसरी झोपड़ी से आ रहा था। सुभगा झाड़ू लगा रही थी और गा भी रही थी।
“मुझे जल चाहिये और आग भी।“
“आग पानी एक साथ माँगते हो जोगीड़े! यहाँ तुम्हारी घरवाली बैठी है क्या? बाहर कुआँ है और वेदी पर आग। निर्बल तन मन की पूजा! कर लो, कर लो। वेदी पर सब मिलेगा।“
नित्यकर्म के बाद खदेरन ने अग्नि का आह्वान किया। प्राची का मोहक नभ सामने था। लगा जैसे बहुत दिनों के बाद सन्ध्योपासना कर रहे हों। मन कोरा था और होठों पर गायत्री। बाकी सब भूल चले...
“मुझे तुम्हारा नाम नहीं जानना। कामाख्या के आँगन में अपनी सुध? तुम पितृभूमि के एक ब्राह्मण हो, बस।”
वृद्धा ने दूध से भरा कटोरा सामने सरकाते हुए कहा था। खदेरन ने देखा – तेजस्वी मुख, ललाट पर बड़ा सा रक्त गोला, आँखों में लुकाछिपी खेलते मद, ममत्त्व और सिर पर श्वेत केश राशि का जूड़ा। त्रिपुर सुन्दरी!
सुभगा उनकी यौवन मूर्ति थी, आँखों में अपार मद।
“तुम्हारी देह गन्ध और चिह्नों से जाना ... किससे भाग कर यहाँ आये हो? भैरवी साधना करनी है क्या?”
खदेरन के हाथों से कटोरा छूटते छूटते बचा।
“एक ओर वैदिक सन्ध्या और दूसरी ओर वामाचार? दो नावों में पैर? खण्ड खण्ड हो जाओगे मूर्ख! ...भैरवी साधना करनी है क्या? सुभगा तुम्हारी भैरवी होगी। सह पाओगे? लौट नहीं पाओगे।...”
वृद्धा ने विराम लिया। कठोर स्वर में करुणा घुलती चली गई,“...कनफट्टे जोगियों के देश से एक ऐसे ही आया था। काम साधना और नारी से घृणा! उस पाखण्डी की मैं भैरवी बनी और ब्याहता अंकशायिनी भी। लौट नहीं सका। सुभगा उसी का प्रसाद है।...मरते मरते कह गया कि इसका विवाह वहीं के किसी पुरुष से करना जैसे यहाँ पुरुष होते ही नहीं।...किसी के शुभ कर्म तुम्हें लग गये जो मुझे मिले नहीं तो अब तक किसी तांत्रिक की बलि भेंट बन गए होते।“
खदेरन फफक पड़े।
“हाँ माँ, मैं अभागा भागा ही हूँ। सुभगा के लिए मैं सुपात्र नहीं।“
खदेरन अपनी सुनाते चले गए।
अंत आते आते वृद्धा क्रोध से फुफकार उठी,”पापी! कायर!! दो दो स्त्रियों को किसके भरोसे छोड़ आये? तुम्हारा दोष नहीं, वहाँ का अन्न जल ही ऐसा है। वहाँ के जोगीड़े मछिन्दर नाथ के बहाने जिस त्रिया राज की बात करते हैं ,  यह वही धरती है। माया से असंग और सृष्टि का लास्य जानने का मोह!... हा,हा,हा। पाखंडी जोगीड़े! तुमने दुख भोगा, आवश्यक था। लेकिन उनका क्या जो अभी भी भोगे जा रही हैं? कुछ दिन विश्राम कर लो। घूम घाम लो। सुभगा तुम्हें सब बता देगी। लेकिन तुम्हें लौटना होगा।...एक बात का ध्यान रखना। लबार भंडों को घूमते देख भले यह लगे कि यहाँ पंचमकारों की वैतरणी बह रही है लेकिन कामाख्या के आँगन में स्त्रियों का शासन है। पौरुष प्रदर्शन करने वालों को पालतू तोता बनते देर नहीं लगती। तुम्हें बचाने तो कोई गोरखनाथ भी नहीं आएगा ... समझ गए कि नहीं?”
जाने कितने दिन खदेरन सुभगा सौन्दर्यमूर्ति के साथ घूमते रहे। हर रात जैसे दीक्षा की रात होती। मन ठाँव पाता गया। कुछ ही दिनों में जैसे किसी और संसार के जीव हो गए।
लौटने की बेला आशीर्वाद मिला,”घृणा और ईर्ष्या के अतिरेक मनुष्य को राक्षस बना देते हैं। तुम अपने पीछे जिनके लिए जो रच आये हो उसे भोगना उनकी नियति है और अपने रचे ध्वंस को सामने घटित देखना तुम्हारी नियति। कर्म नष्ट नहीं होते, उनके फल घूम फिर कर वापस आते ही हैं। उनसे मुक्ति ही तो सिद्धि है। जाने माँ मेरी कब सुनेंगी? ...घबराओ नहीं, देवी कामाख्या की धरती का पुण्य खाली नहीं जायेगा। अपने जीवनकाल में ही समाहार देखोगे...”
वापस होते खदेरन को दो जोड़ी आँखें दिखती रहीं और उनमें नृत्यरत मद और ममता। फेंकरनी और मतवा।
लौटता जोगीड़ा गुरु मछिन्दर भी था और चेला गोरख भी। प्रकृति की लीला, पुरुष की सीख।
चेत मछिन्दर गोरख आया, अगम निगम हिय खेला जी, एतियो नींद क्यूँ सोया नाथ जी, आप गुरु हम चेला जी... 
खदेरन को नहीं पता था कि दूर भविष्य में एक बनमानुख होने वाला था जिसके गुरु गोनई नट्ट ने उसे नाथ होने की शिक्षा बखूबी दी थी। (जारी)

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 3

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग –1, भाग -2 से आगे...
(ओ)
अधराति1। पंडित के दिए लाल कपड़ों में सजी फेंकरनी। गोड़2 के नीचे धरती नहीं, आसमान। आसमान देखा तो सग्गर बाबू की दुलहिन याद आ गईं। जोन्हिया बनारसी3 – सुरुज किरिन4 चकमक दकमक।
अरे! ई त अन्हरिया हे रे? (अरे यह तो कृष्ण पक्ष है?)
त का भइल? (तो क्या हुआ?)
चकमक दकमक रे, चकमक दकमक।
तिनजोन्हिया5 बुला रही थी, चल पंडित के भेष। फुसऊ6 घर से बाहर निकली और ऊँख7 के खेतों से आती सियारों की हुआँ हुआँ तेज हो गई। अचानक ही कहीं खेंखरि8 फेंकरने9 लगी।
अरे हमार नउवे फेंकरनी, का फेंकरतड़े रे खेंखरिया?(अरे मेरा नाम ही फेंकरनी है, लोमड़ी क्यों विलाप कर रही हो?)
कोई परवाह नहीं, चली जा रही है। जिससे ब्याह हुआ उसका नाम रामकिसुन। गवना हुए पाँच बरस बीत गए। कइसन राति रहे? एतना दुलार लेकिन बेदम...फेंकरनी भागी जा रही है भिन्सहरे10। उठानी उमर11 से ही माई के साथ रह कर कितने ही बच्चों को जनाया है। छठिहार, बरही12 भर सोहर गाया है।... अपनिए कोखि बन्जर! बंजर नाहीं रे, बियवे नाइं परल..बोल रे सियरा, फेंकरि रे खेंखरि...हमरे अंगना बधावा। आई रे,आई!(मेरी ही कोख बंजर! बंजर नहीं है, अरे बीज ही नहीं पड़ा.. बोलो सियार, विलाप करो लोमड़ी...मेरे आँगन तो बधावा आएगा, जरूर आएगा)
के भेजी? ससुरा? (कौन भेजेगा? तुम्हारा ससुर?)
बियाह के बाद बस एक बार मिले मरद रामकिसुन पर जाने क्यों दुलार उमड़ आया।...हुआँ! हुआँ!! फें फें कचकच फें फें... रामकिसुन। राम और किसना जैसे लाल। काले लाल।
पंडित हो! चन्दन गाछ13 बनबss? अरे कटवाइब नाहीं हो, कटि जाइब...चेंचरा खींच ढेबरी के लग्गे माई सोहर गावतिया (पंडित! मेरे चन्दन के पेंड़ बनोगे? अरे कट जाऊँगी लेकिन कटवाऊँगी नहीं...छप्पर घर का द्वार लगा माँ सोहर गा रही है) ...फेंकरनी कल्पना में मगन हो चली।
मोरे पिछवरवाँ चन्दन गाछ औरन से चन्दन हो
रामा सुघर बढ़ैया मारे छेव लालन जी के पालन हो
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो
रामा ठाढ़ि जशोदा झुलावें लालन जी के पालन हो
झूलहु हे लाल झूलहु... झूलो साँवरे लाल! झूलो राम! झूलो कन्हैया! ...रामकिसुन... खदेरन हो!
(औ)
तंत्र अभिचार की सामग्री झोले में रखने के बाद खदेरन पंडित ने जब अग्निशाला से चलने को लाठी उठाई तो चीखती लोमड़ी का स्वर सुनाई दिया। आकाश में व्याध नक्षत्र के तीन तारे बता रहे थे- समय हो गया। मन के भीतर अग्नि दहक उठी। राख सी धूनी को लाठी से कुरेदा तो चिंगारियाँ चमक उठीं। अग्निहोत्र सुरक्षित है खदेरन!
...चंडी चाचा के किस्से सुनाती माँ की आँखें बरस रही हैं।
“बेटा! तोहरे खातिर हम जौन भोगनी शायदे कौनो महतारी भोगले होई। चंडिया के कब्बो माफ नाहीं करबे।(बेटे! तुम्हारे लिए जो दु:ख मैंने भोगा शायद ही किसी माँ ने भोगा हो। चंडी को कभी क्षमा नहीं करूँगी।)...
...क्षमा तो मैं भी नहीं करूँगा। आज विनाश की नींव पड़ेगी। निपूता14 खदेरन तुम्हारे रक्षवंश को खोद डालेगा चंडी! खदेरन ने आकाश की ओर फिर देखा। यह क्या? रक्तबाण! लाल धूमकेतु!! मनोनुकूल। उस अन्धेरे में अकेले खदेरन कटु हँसी हँसते हुए चल पड़े।
नींबू का कँटीला पौधा। हा, हा, हा।
रक्तबाण। हा, हा, हा। अग्नि भभक दहक लहक उठी है। स्वाहा, स्वाहा। ...स्वधाहम, स्वाहा स्वाहा...
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित? (पंडित! राम कृष्ण काले क्यों थे?)
करिया नाहीं रे – साँवर (काले नहीं साँवले थे)।
एक्के बाति (एक ही बात।)...
सिरजन बिनास एक्के बाति। (सृजन विनाश एक ही बात)
(अं)
तब जब कि सियार हुँड़र रहे थे, खेंखरि फेंकर रही थी, तिनजोन्हिया और सग्गर के पिछवाड़े की नीम पर बैठा गुड़ेरवा15 उस रात के अभिचार के गवाह बने। ...रक्तबाण चुका था।
कड़ुवे तेल का दिया जला, अघोर चक्र खींच पंडित ने अपने बायें हाथ की कानी अंगुली को क्षत किया। रक्त की बूँदें टपक पड़ीं। शरीर के बाहर रक्त मृत हो जाता है। मदार की लकड़ी, मानुख रक्त। स्वधाप्रिय अर्पित रक्त बूँदें। आहुति। नींबू के पौधे तले अब श्मशान था।
दीप के धीमे प्रकाश में रक्तवसना फेंकरनी दिखाई दी। आग भभक उठी। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें...
खाली दिये में रखी रक्त की बूँदों से स्वयं का अभिषेक करने का खदेरन ने इशारा किया।
बाभन को तिलक!.. ठिठक।
कर्ण कटु धीमी फुफकार - लगाउ उढ़रनी!देरी नाहिं।
तिलक। शीतलता नहीं आज्ञाचक्र16 पर जैसे जलता हुआ अंगार रख दिया हो!
चंडी विनाश!
ध्यान को न भटका मूढ़!
इंगला, पिंगला, सुखमन17 सब स्वाहा। कोई चक्र नहीं, बस अगिन - खदेरन जल उठे। दाह बुझाने को पात्र में रखी मदिरा गट, गट गटक गए। भीतर की आग और दहक उठी। फिर से इशारा किया और भीत सी खदेरनी उत्तर दक्षिण दिशा में लेट गई।...
अड़हुल के लाल फूल हैं। पंडित एक एक अंग की पूजा कर रहा है। फेंकरनी तो जैसे मृत हो गई है। साँसों में सोहर अभी भी जीवित है–
पंडित हो! जौन चाह कss लss लेकिन ...(पंडित जो चाहो कर लो, लेकिन ...)
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो।
तू हमार चन्दन गाछ, काटब नाहीं हो बस झुलबे (तुम मेरे चन्दन वृक्ष हो, काटूँगी नहीं। बस झूलूँगी।)
झूलहु हो लाल झुलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो!
मसानी मंतर, सोहर। आगी पानी। बिनास सिरजन । खदेरन और फेंकरनी की जुगलबन्दी।
हा, हा, हा। माथा बरमंडा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु, झुलुवा झुलाइब जमुन जल लाइब...(झूलो लाल, झूलो। झूला झुलाऊँगी, यमुना जल लाऊँगी)
आँखि सुरुज चनरमा ॐ फट् स्वाहा
जमुना पहुँचहूँ न पवलीं, घड़िलओ न भरलीं महल मुरली बाजे हो  (न यमुना तक पहुँच पाई, न घड़ा भर पाई। महल में मुरली बजने लगी) 
मूहें छेदा बरह्मा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो! (कन्हैया जी पालना, झूलो मेरे लाल! ए पंडित!)
कुम्भे पीए जीए परजा ॐ फट् स्वाहा
चुप रहु जशुमति चुप रहु दुशमन जनि सुने हों, जशुमति ईहे कंस के मरिहें गोकुला बसैहें हो  (चुप रहो यशोमति! चुप रहो! दुश्मन सुन न लें। यशोदा! यही कंस को मारेंगे और गोकुल को गुलजार करेंगे)
जोनी जग जाया भोगा पाया ॐ फट् स्वाहा...
गुह्य अंग के स्पर्श पर फेंकरनी सिहर उठी। मन के अरमान पेंग भरने लगे। झूलहु हो लाल!
खदेरन जाने कितनी देर क्या क्या पूजते रहे, आहुति देते रहे और मंत्र पढ़ते रहे। अभिचार समाप्त हुआ -
ॐ ह्रीं स्त्रीं तारायै हुं ॐ फट् स्वाहा।...
“पंडित हो! खतम हो गइल?”(समाप्त हो गया?)
“हँ, जो अब!”(हाँ, जाओ अब)
“आप सवारथी बाड़ तू! हे अन्हरिया में हे तरे कौन मेहरारू टोना करवावे आई हो?” (बड़े स्वार्थी हो! इस अन्धेरी रात में इस तरह से कौन स्त्री टोना टोटका करवाने आएगी?)
“हो गइल। जो अब!” (हो गया, जाओ अब)
“अरे कइसे चलि जाईँ? जिन्दा पुजल ह कि मुर्दा?” (कैसे चली जाऊँ? जिन्दे की पूजा किए हो या मुर्दे की?)
“जिन्दा।” (जिन्दे की)
“त हमार कार करे के परी नाहीं त सब भरस्ट हो जाई।“ (तो मेरा काम करना पड़ेगा नहीं तो सब भ्रष्ट हो जाएगा।)
पंडित धर्मसंकट में और फिर आत्मकरुणा में बह चला। रतिदान माँगती स्त्री को निराश नहीं करते खदेरन! स्मृति वाणी या नीति शास्त्र? ब्राह्मण शूद्रा संगम – हा हा कार।
खदेरन! चंडी चाचा का खानदान तो खत्म हो जाएगा लेकिन तुम्हारे बाद तुम्हारे यहाँ? कोई रहेगा भी? क्षेत्र स्वयं चल कर आया है। बीजदान दो!
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित?
करिया नाहीं रे – साँवर।...
फेंकरनी! साँवर कन्हैया मिलेगा तुम्हें।
अथ च इच्छेत्पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत...
खदेरन श्मशान की अग्नि पर अक्षत को पानी में डाल पकने को रख दिए। आग दहकती रही। प्रतिशोध की अग्नि, कामाग्नि, कृष्णाग्नि। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें सब शांत हो गए। पहली बार फेंकरनी ने जाना कि पुरुष क्या होता है। शीतल हवा की सिसकारियाँ... गुड़ेरवा उड़ गया, निर्लज्ज तिनजोन्हिया को भी आखिर लाज आई,  छिप गई।......समय ने तो बहुत कुछ दिखाया होगा लेकिन उस रात तिनजोन्हिया ने जिस जुगलबन्दी को देखा, दुबारा नहीं देखेगी और गुड़ेरवा? वह तो आगे पीढ़ियों तक नींबू पर पहरा देने वाला था।...
...आगे बढ़ने को विनाश ने सृजन को पूजा लेकिन वाह रे सृजन! ऐसा प्रश्न सामने रख दिया कि स्वयं विनाश को उसे बढ़ाना पड़ा। ... पीढियों की साँसें कम और गुड़ेरवा की आयु ही कितनी? तिनजोन्हिया तो अमर है। प्रलय के बाद भी भूमि को ताकती रहती है, कोई न कोई बीज बो ही देता है। ...   
(अ:)
फेंकरनी को अपने हाथों से भात खिलाते खदेरन ने कहा,“खो अब! जौन चहले ऊ हो गइल।“(खाओ अब! जो चाहती थी वह हो गया।)
फिर झोला सँभाला और लाठी लिए चल पड़े। प्रायश्चित। अन्न जल उतना ही ग्रहण करना जितने में चल सकें।...मन में निश्चय, खदेरन चलते चलते मर जाएगा।
फेंकरनी मगन सी लौट चली – झूलहु हो लाल! कि अन्धेरे में घात लगाए किसी ने दबोच लिया। बलिष्ठ हाथ। फेंकरनी का मन हाहाकार कर उठा। हम एतना अभागा नाहीं रे! (मैं इतनी अभागी नहीं!)
सूझ नहीं रहा था कि कौन है। गुत्थमगुत्था होते पापी की आँख हाथ तले आई और फेंकरनी ने अंगुली उसकी आँख में घुसेड़ दी। उसके नाखून कटते नहीं टूटते थे। मारे जाते सुअरा की तरह डकारते हुए वह छोड़ कर भागा। नींबू के पौधे ने पहली बलि ले ली थी – मनुष्य न सही, उसकी आँख ही सही। ...अभी तो पौधा था! चन्दन गाछ किसने देखा?
...प्रात:काल गाँव में घमघमहट मच गई। नींबू के पौधे तले तांत्रिक वामाचार के चिह्न थे। खदेरन, माधव, फेंकरनी और उसकी माई लापता थे। मतवा18 का विलाप सहा नहीं जा रहा था।...
रास्ता बन्द हो गया और मौका ठीक देख रामसनेही ने कुछ रास्ता और कुछ खिरकी का हिस्सा घेरते हुए बाड़ लगा दिया। किसी ने नहीं रोका। (जारी)
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शब्द सम्पदा: (1) अर्ध रात्रि (2) पैर (3) बनारसी साड़ी जिस पर सलमा सितारे जड़े हों (4) सूर्य किरण (5) व्याध नक्षत्र। पुराने समय में उसे देख रात में समय का अनुमान लगाया जाता था (6) छप्पर (7) ईंख (8) लोमड़ी (9) लोमड़ी का बोलना जिसे विलाप जैसा माना जाता है (10) भोर (11) रजस्वला होने की उम्र (12) शिशु के जन्म के छ्ठे और बारहवें दिन के उत्सव (13) चन्दन का पेंड़ (14) पुत्रहीन (15) उल्लू (16) दोनो भौहों के बीच का स्थान जिसे तंत्र या योग साधना में बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। (17) इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ (18) ब्राह्मण की पत्नी

शुक्रवार, 11 जून 2010

लंठ महाचर्चा : बाउ और नेबुआ के झाँखी - 1

समय:ब्रिटिश काल                                                                       परम्परा: श्रौत
(अ)
कुआर का अँजोरपितरपख  बीत चुका था। भितऊ  बैठके में चौकी बिछी थी। पँचलकड़ियों  से बनी चौकी पर ऐसे मौकों पर ही निकाले जाने वाले तोषक, मसनद, बनारस की धराऊ  चादर और उनके उपर विराजमान थे शास्त्र, तंत्र, मंत्र सर्वज्ञाता खदेरन पंडित। पत्रा और एक लाल बस्ते में रखे भोजपत्र के टुकड़े खुले थे। पंडित तल्लीन थे। उनकी चुप्पी माहौल में फैले तनाव को और गम्भीर बना रही थी।
कोई खास उमस न थी लेकिन सग्गर बाबू धीरे धीरे उनके उपर बेना  झल रहे थे जिसमें आदर प्रदर्शन का भाव अधिक था। उनके बाप ,रामसनेही, पंडित जी के सामने नीची और छोटी चौकी पर बैठे जनेऊ से कभी पीठ खुजाते तो कभी सग्गर बाबू को इशारा करते।
जुग्गुल की तैनाती नीम के नीचे थी। कोई ऐसा वैसा छूत छात वाला मनई  न आ जाय! घर के भीतर सग्गर की महतारी आड़ किए लतमरुआ पर बैठी थीं। हाथ में लकड़ी लिए लँगड़ी पिल्ली को डराए हुए थीं जो बार बार खिरकी  के रस्ते दुआर  की ओर जाने की कोशिश में थी।
खदेरन पंडित बड़े जोगियाह थे। सिले कपड़े नहीं पहनते थे और ऐसे मौकों पर अस्पृश्य की ओर दृष्टि पड़ जाने पर तुरंत काम बन्द कर स्नान करने चल देते थे। रमल, लाल किताब, रोमक और जाने कितने टोटके उनके बाएँ हाथ के खेल थे और सनकें मशहूर थीं।
उनके आने का कारण एक दिन पहले की घटना थी । जंत्री सिंघ बरदेखाई के लिए सुबह सुबह निकले ही थे कि सग्गर सामने पड़ गए।
"धुर बहानचो ! कौनो सुभ कार करे निकल त ई निस्संतानी जरूर समने परि जाला।"
"धुत्त बहनचो! कोई शुभ काम करने निकलो तो यह नि:संतानी जरूर सामने पड़ जाता है।"
जंत्री सिंघ ने जाना टाल दिया और घर के भीतर से जवान सोनमतिया की महतारी सग्गर को कोसने लगी। अठारह बरस से निस्संतानी सग्गर के लिए यह सब सुनना आम हो चला था लेकिन सोनमतिया पट्टीदारी की ही सही उनकी प्यारी भतीजी थी।
उसका विवाह खोजा जा रहा था और उन्हें खबर ही नही !
उनके सामने पड़ जाने से निकलना तक टाल दिया जा रहा है !!
दोहरे धक्के ने कुछ अधिक ही हिला दिया। खटवासि  ले पड़ गए तो दिन भर कुछ नहीं खाए। संझा के बेरा आँख लग गई जो महतारी की फजिहत से खुली,
"ए बेरा सुत्तता। लछमी का अइहें। जाने कौन बाँझ कुलछनी घर में आइल कि एकर सगरी बुद्धी हरि लेहलसि। नाती नतकुर नाही होइहें। निरबंसे होई।" "इस समय सो रहा है। धन सम्पदा क्या आएगी? जाने कौन कुलक्षणा घर में आई कि इसकी सारी बुद्धि ही हर ली। नाती पोते नहीं होंगे, वंश डूब जाएगा।"
प्राणप्यारी सोझवा पत्नी के लिए ऐसी भाखा  सुन सग्गर तमतमा उठे। पहाड़ की तरह उन्हों ने पिछले पन्द्रह वर्षों से दूसरे विवाह के दबावों को झेला था - बिना टसके मसके। लेकिन आज जाने क्या हुआ था, अमर्ष ?... संझा के बेरा  फूट फूट कर रो पड़े थे। बाप ने सुना और वज्र निर्णय लिया।
(आ)

महामहोपाध्याय चण्डीदत्त शुक्ल। गाँव की भाखा में महोधिया चंडी पंडित। गोरख पीठ, काशी और उज्जैन से शिक्षा दीक्षा। भृगु संहिता, रावण संहिता, ज्योतिष और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान। मलेच्छ भाषा पर भी अधिकार लेकिन वाणी दोष की आशंका के कारण बोलने से बचते थे। महोधिया उपाधि उनकी शोहरत और अंग्रेज बहादुर को भूमि शोधन कर मदद करने से मिली थी। घोड़े पर चलते थे और यजमानों के यहाँ उनके लिए छ्त्र, चँवर अनिवार्य थे।
ऐसे चंडीदत्त के खानदान के थे भ्रष्ट विद्या आचार्य श्मशान साधक खदेरन पंडित। शव साधना, लाल किताब और ऐसे ही जाने कितनी गुप्त विद्याओं के अध्ययन साधन ने उन्हें गाँव का पतित बना दिया था। एक दिन तो हद ही हो गई जब तेलिया मसान  की हड्डी लिए घूमते अघोरी को उन्हों ने भोजन करा दिया।
उग्रधर्मा वयोवृद्ध महोधिया ने निर्णय लिया और बाकी घरानों के साथ खदेरन का खान पान बन्द हो गया। जजमानी टूट गई जिसमें सग्गर का खानदान भी था।
लेकिन खदेरन तो खदेरन थे। बचपन से ही आक्रोश को अग्नि की तरह धारण किए थे। अपने को सच्चा अग्निहोत्री बताते वह अपनी साधना में लगे रहे - एकमात्र उनका ही घर था जिसमें अग्निशाला कभी ठंडी नहीं पड़ी थी। उनकी दृष्टि में चंडी चाचा भ्रष्ट और मलेच्छतुल्य थे और वह खुद खेतिहर अग्निहोत्री ब्राह्मण। जिस ब्राह्मण के घर अग्निहोत्र न हो वह कैसा ब्राह्मण ?
ऐसे पंडित का खदेरन नाम कैसे पड़ा ?
(इ)
" कुलटा ! निकल घर में से। हमरे बीज से चरि चरि गो भवानी होइहें?""कुलटा ! घर में से बाहर निकलो। मेरे वीर्य से चार चार लड़कियाँ होंगी?"   
रात का समय। चतुर्भुज पंडित अपनी घरैतिन को घसीटते घर में से निकाल रहे थे। माँ बाप की रोज रोज की चख चख की अभ्यस्त हो चली चार भवानियाँ सहमी सी दुबकी हुई थीं और मतवा पति से निहोरा कर रही थी,
"राति के बेरा कहाँ जाईं? बिहाने अपने लइकनिन के ले के पोखरा में कूदि जाइब। रउरे मुकुत हो जाइब लेकिन ए बेरा छोड़ि देईं।" "रात के समय कहाँ जाऊँ? सबेरे अपनी बेटियों के साथ पोखरे में कूद जाऊँगी। आप मुक्त हो जाएँगे लेकिन इस समय रहने दीजिए।" 
घर से बाहर अकेली स्त्री का रात बिताना! लोकापवाद की आशंका ने मतवा को निरीह बना दिया था। पति के पैर पकड़ धाड़े मार रो रही थीं लेकिन चतुर्भुज के मन में वही चोर था जिसका मतवा को डर था। घसीटते हुए घर से बाहर ला एक लात जमाया और चाँचर बन्द कर दिया। चारो भवानियाँ चीख चीख रोने लगीं लेकिन पंडित टोले के किसी घर से कोई बाहर नहीं निकला।
रात कुछ अधिक ही काली हो चली थी। रोती बिलखती मतवा बबुआने  पहुँच गई, सीधे भिक्खन के महतारी के पास।


गाँव भर की काकी भुनभुनाई,
" कठमरद चतुर्भुजवा। अरे ! औलाद औलाद होले। हमार बोक्का बा तब्बो मालिक कब्बो कुच्छू नाहीं कहलें।"
"कठमर्द चतुर्भुज। अरे! औलाद औलाद होती है। मेरी औलाद तो मन्दबुद्धि है लेकिन मेरे स्वामी ने तो कभी कुछ नहीं कहा !" 
"ए भिखना ! लुकारा धराउ।" "भिक्खन! मशाल जलाओ!" काकी ने अपने मन्दबुद्धि जवान बेटे को जगाते हुए आदेश दिया।      
पोरसा भर लम्बा पहाड़ सा शरीर लिए भिखना मातृ आदेश के पालन हेतु तत्पर हुआ। पति को माजरा बता-समझा कर भिखना और मतवा के साथ काकी चतुर्भुज की अक्ल दुरुस्त करने चल दी।
" ए पंडित ! इ कौनो कायदा हे ? मेहरारू के राति के घर से निकाल देहल ह।"
"ऐ पंडित  ! ये कोई तरीका है ? अपनी स्त्री को रात में घर से बाहर निकाल दिए ?" 

" काकी हो, तू बिच्चे में न पर sss" "काकी! तुम बीच में न पड़ो"
"काकी परिहें बिच्चे में पंडित ! पयलग्गी करिहें लेकिन बइयो झरिहें। भिखना के देखतल कि नाहीं ? अब्बे इशारा करब। बम्मड़ मनई, तोहार पहँटा लगावत देरि नाइ लागी।" "काकी तो बीच में पड़ेगी पंडित! प्रणाम करेगी लेकिन तुम्हारी अक्ल भी दुरुस्त करेगी। भिक्खन को देख रहे हो न ? अभी इशारा करूँगी। मन्दबुद्धि जवान है, तुम्हारी ऐसी तैसी करते देर नहीं लगेगी।" 
चतुर्भुज ने साँड़ सरीखे भिक्खन को लुकारा लिए देखा तो पुत्र की कामना बिला गई। काकी का यह पुत्र काकी को भले नरक से न तार पाए लेकिन चतुर्भुज जैसों को एक इशारे पर नरक में झोंक सकता था।
धमकी काम कर गई। मतवा को गृहप्रवेश मिला और चतुर्भुज को भविष्य में फिर कभी ऐसा न करने की चेतावनी।
लेकिन मतवा का दु:ख और बढ़ गया। पुत्र प्राप्ति हेतु घर और घरैतिन में तारतम्य न होने का कारण बताते हुए महामहोपाध्याय चण्डीदत्त शुक्ल ने व्यवस्था दी,
"चतुर्भुज की स्त्री घर से, ग्राम सीमा से बाहर रहेगी। उत्तरायण सूर्य के रहते हुए पति पत्नी शास्त्रोक्त ऋतुकाल सम्बन्धी मर्यादाओं का पालन करते हुए समागम करेंगे। यदि वर्षांत में भी गर्भ नहीं ठहरा तो चतुर्भुज दूसरे विवाह के लिए स्वतंत्र होंगे।"
चण्डी के मन में चोर था। चतुर्भुज का दूसरा विवाह वह अपने रिश्ते में कराना चाहते थे। उन्हें डर था कि चार चार पुत्रियों को जन्म देने वाली स्त्री पुत्र को भी जन्म दे सकती है। यदि पति पत्नी में अलगाव डाल दिया जाय तो बात बन सकती थी। उन्हों ने तदनुकूल व्यवस्था दी। मतवा गाँव के बाहर 'खदेरा गई'।
नियति के आगे किसी का बस नहीं चलता भले वह महामहोपाध्याय ही क्यों न हो!
काकी ने यह सुना तो मन ही मन चंडी को खूब कोसा। उस रात बिन बुलाए काकी चतुर्भुज के यहाँ गई। भिक्खन दुआरे चतुर्भुज को बिठाए रहा। भीतर काकी मतवा को भूले पाठ याद कराती रही। सोहागिन नारी का कर्तव्य है कि अपना आकर्षण बनाए रखे। 
उस साल सूर्य के उत्तरायण रहते, बस तीन महीने तक भिक्खन रात का सूरज बन चतुर्भुज के दरवाजे आता रहा। मन्दमति की नींद कच्ची थी। मारे डर के चतुर्भुज चुपचाप गाँव के बाहर अपनी निष्कासित पत्नी की झोपड़ी में जाते रहे और रात बिता सुबह घर वापस आते रहे।
इस तरह की अनूठी रखवाली शायद पहले कभी नहीं हुई थी। ..
मतवा गर्भवती हुईं और...
... पुत्र ने जन्म लिया। चंडी के चेहरे पर कालिमा पोतते आह्लादित चतुर्भुज काकी के यहाँ पधारे और अद्भुत बात हुई।
नामकरण बिना किसी आडम्बर कर्मकांड के हो गया।
काकी ने खदेड़ी गई स्त्री के बेटे का नाम रखा "खदेरन"।
उन्हें नहीं पता था कि यह नाम माता के अपमान और पीड़ा की अग्नि को हमेशा हमेशा के लिए पुत्र के मनोमस्तिष्क में स्थापित कर देगा। बड़े होने पर भी खदेरन ने नाम नहीं बदला। यज्ञोपवीत के तुरंत बाद ही खदेरन ने अग्नि की स्थापना की थी। बचपन में न मंत्र आते थे और न कर्मकाण्ड लेकिन अग्नि हमेशा जीवित रही -उनके मन में भी और शाला में भी।
(ई) 
अठ्ठारह वर्ष। पुत्र कामना कामना ही रही।
बन्ध्या धरती - खरपतवार तक न हो!
सग्गर सिंघ के यहाँ कन्या तक का जन्म न हुआ।
पहले वयोवृद्ध चंडी शुक्ल कर्मकाण्ड कराते रहे फिर उनके बेटे भतीजे लेकिन विधाता की लेखनी पुन: स्याही में न डूबी। दबी जुबान से घरैतिन ने कई बार खदेरन पंडित का नाम लिया पर स्वामी की वर्जन दृष्टि के आगे बात बढ़ नहीं सकी।
लेकिन आज ?
... पुत्र की आँखों में आँसू और वंश न चलने के भय ने पिता को परम आदरणीय चण्डी पंडित की व्यवस्था का उल्लंघन करने को बाध्य कर दिया।
गाँव में सर्व बहिष्कृत और गाँव के बाहर सर्व पूजित खदेरन पंडित को बुलावा भेजने का वज्र निर्णय रामसनेही सिंघ ने लिया। जाति से बाहर किए जाने का खतरा कोई मायने नहीं रखता था तब जब कि वयस्क और परम स्नेही पुत्र को रोना पड़े।
(उ) 
सूरज देव बाँस भर आकाश में चढ़ आए थे। खदेरन पंडित ने दृष्टि उठाई तो सब कुछ ठहर गया - सग्गर का बेना, रामसनेही का जनेऊ से खुजलाना, महतारी की लकड़ी, जुग्गुल की चहलकदमी, यहाँ तक कि लँगड़ी पिल्ली भी खिरकी में पटा गई।
हवा ठहर गई जैसे किसी चक्रवात की प्रतीक्षा हो !
खदेरन पंडित ने रुक्ष स्वर में आदेश सुनाया,
" सनातन धर्म के शास्त्रों में मुझे कोई समाधान नहीं दिखता। यजमान ! लोकविद्या, गुह्य विद्या और वामविद्या के समन्वय से राह मिलेगी। पोते का दर्शन आप को होगा ..."
खदेरन ने रुक कर वातावरण के तनाव में उमड़ते घुमड़ते स्वीकार को महसूस किया और पुन: जारी हुए,
" किसी भी रविवार के दिन सूर्य उगने के पहले पूरब दिशा की ओर सागर सिंह प्रस्थान करें। किसी से कुछ न कहें और न किसी की पुकार का उत्तर दें। गाँव की सीमा से बाहर आने पर पहली किरण का दर्शन होने के तुरंत बाद जिस किसी पहले पौधे को देख मन में स्वीकार भाव आए उसे अपने घर आने के लिए निमंत्रित करें, उसे सुरक्षित करें और वापस आ जाँय। अगले रविवार को उसे लाकर पति पत्नी दोनों घर के बाहर रास्ते के किनारे रोपित करें। तत्पश्चात दिन में ही समागम करें।
ईश्वर कृपा से पुत्र की प्राप्ति होगी लेकिन ..."
"... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।
ईश्वर पर भरोसा रखें, सब शुभ होगा। मुझे दिख रहा है, यह वंश इतना बड़ा होगा कि रोज मनही भर  नमक लगेगा।" कहते हुए खदेरन ने आसन छोड़ दिया।
चरण छूने को उद्यत हाथों को बरजते और दक्षिणा को घर भेजवा देने का इशारा करते लगभग भागते हुए रुखसत हुए।
नियति भी कैसे कैसे खेल खेलती है!
सग्गर सिंघ को अगले रविवार को गाँव से बाहर गोंयड़े के खेत की मेड़ पर जो पौधा पहली किरण के साथ मिला और स्वीकार्य भी लगा, वह था - 'नींबू'
रामसनेही सिंघ ने सिर पीट लिया - नीबू। काँटेदार झाड़ियाँ, फल अफरात लेकिन बला की खटास ! और नींबू के पेंड़ का जीवन ही कितना ?
मन में खदेरन पंडित की रुक्ष वाणी गूँज उठी, "... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।" (अगला भाग)
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शब्द सम्पदा:
(1) कुआर का अँजोर - आश्विन (क्वार) मास का शुक्ल पक्ष (2) पितरपख - पितृपक्ष (3)  भितऊ - मिट्टी की दीवार वाला घर (4) पँचलकड़ियाँ - औषधीय गुणों वाली 5 लकड़ियाँ (5)  बेना - बाँस का या नारियल की पत्ती से बना हाथ का पंखा (6) मनई - व्यक्ति (7) लतमरुआ - खपरैल के घरों में प्रयुक्त मुख्य द्वार की भारी चौखट का निचला भाग (8) पिल्ली - कुतिया (9)  खिरकी - दो घरों के बीच का सँकरा रास्ता/खाली स्थान (10) दुआर - देहाती घरों में आगे छोड़ा गया बड़ा खाली स्थान जिसे बैठने और अन्न प्रसंस्करण के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। (11) जोगियाह - फालतू के नेम टेम मानने वाला (12)  खटवासि - चरम दु:ख के क्षणों में खाट पर पड़े रहना (13)  सोझवा - सीधी साधी (14) भाखा - भाषा, बोली (15) संझा के बेरा - शाम का समय  (16) मलेच्छ भाषा - अंग्रेजी (17)  तेलिया मसान की हड्डी - गुह्य साधना का एक अंग। तेली जाति  के लिए सुरक्षित श्मशान से अधजले शव से खींच लिया गया हड्डी का टुकड़ा (18)  भवानी - पुराने जमाने में बेटी के लिए प्रयुक्त (19) मतवा - ब्राह्मणी, आदर स्वरूप प्रयुक्त, इतर जातियों के लिए किसी भी आयु की विवाहिता ब्राह्मणी माता समान (20) बबुआने - गाँव की राजपूत बस्ती के लिए इतर जातियों द्वारा प्रयुक्त (21) पोरसा भर – हाथ को ऊपर की ओर सीधा फैलाने से हुई ऊँचाई  (22) बिला - खो जाना, भूल जाना (23) खदेरा गई - खदेड़ दी गई, निष्कासित किए जाने के अर्थ में प्रयुक्त (24) सोहागिन - सुहागिन  (25) मनही भर - एक चौथाई सेर, सेर तौल की पुरानी माप थी जो आज के एक किलोग्राम से कुछ कम होती थी। (26) नेबुआ - नींबू