पहले भाग से आगे...
लेंठड़े ने मुझे पार्क के किनारे पेंड़ के नीचे बुला लिया। पूछ बैठा – यह किसका पेंड़ है? मुझे प्रश्न से आश्चर्य हुआ। मंतव्य न समझते हुए भी मैंने बता दिया,“आम का।“
“कभी आम के पेंड़ पर चढ़े हो?”
मैं जोश में आ गया – जाने कितनी ही बार चढ़ा हूँ!
“बड़े चूतिये हो!”
सुबह सुबह किसी केंकड़े से ऐसा सुन कर मैं हैरान भौंचक्का रह गया! उसने अपने पंजे कड़कड़ाये और कहा – सिर्फ मनुष्य ही गालियाँ बकते हैं क्यों कि उनके पास भाषा है, यह एक अज्ञानी का तर्क है।...
चूतांकुरा स्वादकषायकंठ:... चूत माने आम का वृक्ष। इसका एक अर्थ गुदा या गुह्यांग भी होता है। दूसरे अर्थ की उपेक्षा कर अगर मैं ‘आम’ अर्थ का आश्रय ले, वह भी एक अप्रचलित भाषा से, किसी को यह गाली देने के बाद उसे बहलाने का प्रयास करूँ कि मैंने आम के पेंड़ पर चढ़ने वाले के लिये कहा तो मेरे कुतर्क और बलात-कुविद्या को वह मानेगा या मुझे मारने दौड़ेगा?... गायत्री मंत्र के प्रेरित अर्थ वाले ‘चोद’ और मैथुन की शारीरिक धकेल को व्यक्त करने वाले गाली की ‘चोद’ में अंतर है। कहने वाले की भावना देखी जाती है, शब्द नहीं। ‘साले’ में मित्रों का प्रेम भी है और किसी अजनबी के प्रति प्राथमिक गाली भी। असल में तुम मनुष्यों की बहुत सी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं। मैं बात करते गोबर..नहीं हिन्दी पट्टी पर केन्द्रित रहूँगा। ठीक है न?
... मेरा मन ऐसा हो गया जैसे सुबह सुबह किसी ने जबरिया ब्लैक कॉफी पिला दी हो, वह भी बिना शक्कर की! उसने अपनी बकवास को आगे बढ़ाया...
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प्रहार शारीरिक और मानसिक दोनों होते हैं। जिस सम्बन्ध या वस्तु के प्रति
जितना अधिक सम्मान और अपनत्त्व का भाव होता है, वह प्रहार के लिये उतनी ही उपयुक्त होती है। किसी को कष्ट
पहुँचाना हो तो उसके लिये जो परम आदरणीय है, उसका परम अनादर
कर दो – गालियों के पीछे यह मानसिकता काम करती है। आश्चर्य
नहीं कि माँ की गाली सबसे तीखी और खराब मानी जाती है। अंतरंग मित्र जो बिना
गालियों के एक दूजे से एक वाक्य भी नहीं बोल पाते, वे भी
इससे परहेज करते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो कोई भी गाली सह लेते हैं लेकिन माँ की
गाली मिलते ही क्रोधोन्मत्त हो जाते हैं। न्यूनाधिक रूप में ऐसा पिता केन्द्रित
गाली के साथ भी होता है। ऐसा क्यों है?
भावनायें अपनी जगह हैं लेकिन उसके पीछे वर्चस्व और प्रतिष्ठा की मानसिकता
काम करती है। माँ की गाली देने वाला यह जताता है कि देखो इस नपुंसक को! इसके सबसे
प्रिय व्यक्ति को मैंने गाली दे दी। उसे गाली दी जो इसे इस संसार में ले आई। यह
पुरुष प्रधान समाज में सम्पत्ति और भावना के जटिल मिश्रण वाले सबसे प्रिय स्त्री
सम्बन्ध पर प्रहार कर सामने वाले को मानसिक रूप से पीड़ित करने का उद्योग होता है।
गाली देने वाला अपनी जान सामने वाले की प्रतिष्ठा को क्षतिग्रस्त कर रहा होता है।
प्रतिष्ठा में जो महाप्राण ‘ठ’ है, उसमें बहुत ठसक है।
इतनी ठसक है कि बहुत बार भाव को स्थानच्युत और ठरका देता है लेकिन समझते ही कितने
हैं? आक्रामकता को दर्शाते और सराहते हुये प्रतिष्ठा का मूल
स्थान ही खिसक जाता है। गाली देते हुए वह अपनी जननी को भी कहीं आक्षेपित कर रहा
होता है, यह उसकी समझ में नहीं आता।
लेकिन उन गालियों का क्या जो लोकभाषाओं का अंग हो गई हैं? वास्तव में बहुधा इन गालियों में उन
सभी पुरानी लुप्तप्राय भाषाओं के अंश सुरक्षित रह जाते हैं जिनसे लोकभाषा विकसित
हुई – संस्कृत के चूत या चोद उदाहरण हैं।
यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत ‘संस्कृत’ भाषा साहित्य में कहीं भी
लैंगिक, यौनांगों या यौन सम्बन्ध आख्यानक गालियाँ नहीं हैं।
व्यक्ति के बजाय उसके सम्बन्धियों पर प्रहार करती गालियाँ भी नहीं पायी जातीं।
प्रताड़ित करने के लिये व्यक्ति केन्द्रित अपशब्द भर मिलते हैं जैसे पामर, नीच, कुलटा, दुष्ट, दुर्मति, लंपट आदि आदि। संस्कृत में लोकभाषा के लिये
तिरस्कार का भी भाव मिलता है। उसे ‘ग्राम्या’ कह कर उपेक्षित किया गया है। परवर्ती नाटकों में ग्रामीण, अशिक्षित या निम्न वर्ग के सम्वादों के लिए प्राकृत या पाली का प्रयोग हुआ
है और नागर या सुशिक्षित व्यक्ति सम्वादों के लिये संस्कृत का। प्रश्न यह है कि
समाज की वास्तविक स्थिति से परहेज क्यों? इसके कई कारण हैं -
समाज को संस्कारशील बनाये रखने के लिये एक मानक की आवश्यकता (नाटकों में हत्या,
चुम्बन आदि मंच पर दिखाने पर निषेध); श्रेष्ठताबोध
और नागर दम्भ; भाषा को पवित्र और अति विकसित देवसभ्यता से
जोड़ा जाना आदि आदि। यह प्रवृत्ति संसार की अन्य प्राचीन भाषाओं में भी पायी जाती
है।
हिन्दी के समूचे भक्ति साहित्य में भी लैंगिक या यौन सम्बन्धों वाली
गालियाँ नहीं हैं, अपशब्द भले हों। रीतिकाल
में भी कमोबेश ऐसा ही है। इन सबके पीछे शुचिता की यह अवधारणा कि साहित्य समाज को
संस्कारित करने वाला होना चाहिये, काम करती रही लेकिन
साहित्य में नागर, शिक्षित और अभिजात्य वर्ग का पाखंड भी
प्रवेश कर गया। परिणामत: यौन सम्बन्धों, अवैध सम्बन्धों आदि
के चमत्कारिक और जुगुप्सा की हद तक जा कर ग्राफिक वर्णन हुए। स्त्री पुरुष
सम्बन्धों की उद्दाम रागात्मकता और रोगी मनोवृत्ति के बीच के अंतर को भुला दिया
गया। साहित्य सरस्वती धनपशुओं की चेरी हो गई। ‘ग्राम्या’
की उपेक्षा की अगली परिणति हुई – आम जन जीवन
की उपेक्षा, तब जब कि रचनाभाषा ‘ग्राम्या’
ही थी। साहित्य में संस्कार उड़ेनले वाले संत व्यक्तित्त्व तो रहे
नहीं, साहित्य समाज को दिशा क्या देता, उसका दर्पण भी नहीं रहा और उससे कट गया।
एक बात अनुकूलन पर भी। स्त्री को लालित्य का प्रतीक माना गया।
प्रकृति-पुरुष द्वय में कोमल भाव की वाहिका स्त्री रही। इसे शिशु पालन की नैसर्गिक
मातृ/ममत्त्ववृत्ति का तार्किक विकास मानना चाहिये। साहित्य, संगीत, कलादि
को स्त्री तत्त्व से जोड़ दिया गया। लोककथाओं में भले मिल जाय लेकिन इस ‘सभ्य’ समाज में विद्या की देवी ही मिलेगी, देवता नहीं। यह सब जनमानस में इतना पैठ गया कि अनुकूलित हो सोच, समझ, व्यवहार, बोली आदि का अंग
हो गया और बहुतेरे इससे इतर सोच ही नहीं सकते। स्त्री केन्द्रित गालियाँ उस सोच का
विस्तार हैं जो सुसंस्कृत व्यवहार को पुरुष प्रधान समाज में स्त्रैण और
निष्प्रभावी मानती है और भद्दे, कटु, जुगुप्सित
बोली व्यवहार को पुंसत्त्व (फलत: प्रभावी) का प्रतीक। विवादों की स्थिति में ऐसी
गालियाँ प्रतिद्वन्द्वी के सामने चुनौती रखती हैं – है
मर्दानगी तुममें? और सामने वाला अपने पौरुष को दर्शाने के
लिये विरोधी की माँ बहन ...करने लगता है। ऐसा करते हुये वह अपने भीतर की कथित ‘स्त्रैणता’ से उबर रहा होता है। बहुधा विवाद इस ‘शक्ति प्रदर्शन’ के आगे नहीं जाते। उनका यूँ शमित हो
जाना गालियों के विधेयात्मक पक्ष को उजागर करता है लेकिन सामाजिक सोच के ठहराव को
भी दिखाता है और स्त्री तत्त्व के प्रति अनादर भाव को भी। सोच और व्यवहार में
स्त्री-पुरुष तत्त्व का असंतुलन सीमित प्रभाव नहीं रखता बल्कि हर क्षेत्र में अपनी
छाप छोड़ता है। पौरुष की भ्रामक अवधारणा को महिमामंडित कर पुरुष प्रधान समाज की
गति और प्रगति दोनों को पंगु बनाता है।
वर्तमान समय तेज परिवर्तन का समय है। गालियाँ के कई प्रकार हो गये हैं।
गालियों के अलावा गाली देने वाले/वालियों पर भी ध्यान देना होगा। कई बाते हैं – गाली बकने वाले क्या इतना सोचते हैं?
इसकी आवश्यकता भी है? गालियाँ की स्वीकार्यता
और उनसे घृणा, जुगुप्सा किस स्तर की है? क्या गाली देने वाले के मन में वाकई स्त्री या स्त्रीजाति के प्रति अनादर
का भाव ही होता है? क्या स्त्री वाकई अनादर का अनुभव कर याद
रखती है या लैंगिक संकेतों पर मुँह बिचका कर उपेक्षित करते हुए भूल जाती है?
स्त्री का गाली पर इतना सम्वेदनशील होना उचित है क्या, तब जब कि वह स्वयं बकती है? यह ‘सम्वेदनशीलता’ पुरुष प्रधान समाज में अपने पैर जमाती
स्त्री के बराबरी के दावे से कितनी और कैसे जुड़ती है? गालियों
के प्रयोग का विरोध करने वाले पुरुष स्त्रैण हैं? क्या
गालियाँ इतनी आवश्यक हैं कि उनके बिना काम ही नहीं चल सकता? क्या
यह समाज गालीबाज समाज है? ऐसा क्यों है कि परिवार बन्धन में
बँधने के बाद बहुसंख्य जन गाली बकना अत्यल्प कर उसे अंतरंग मित्रों की बैठकी के
लिये सुरक्षित कर देते हैं? गालियाँ रागात्मकता और मित्रवत
प्रेम से क्यों जुड़ती हैं? कुछ निकट सम्बन्धों में गालियाँ
स्वीकार्य क्यों हैं? वैवाहिक अनुष्ठानों में कुछ अवसर
गालियों के कर्मकांड के लिये सुरक्षित क्यों हैं? धीरे धीरे
वे लुप्त क्यों हो रहे हैं? गालियाँ सार्वकालिक और
सार्वदेशिक क्यों हैं? सिनेमा, टीवी,
इंटरनेट के जमाने में साहित्य में गालियों का प्रयोग समाज को कितना
दूषित कर सकता है? गालियों को सहेजने की साहित्य की प्रवृत्ति समाज की स्थिति और सोच को कितना दर्शा रही है और उन्हें कितना बदल सकती है? इस युग में साहित्य समाज को दिशा देने और सामाजिक परिवर्तन करने में क्या वाकई सक्षम है? (अगला भाग)
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