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गुरुवार, 27 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - अंतिम भाग

भाग- 1, 2 और 3 से आगे...
गालियाँ सीख कर उनका धड़ल्ले से प्रयोग कर लेने वाले भी समझते हैं कि गालियाँ संवाद की मुख्य धारा नहीं है। अधिकांश बाल बच्चेदार हो जाने के बाद गाली बकना अंतरंग मित्रों की बैठक के लिये सुरक्षित कर देते हैं। यह दर्शाता है कि परिवार के बाहर भी एक अलग सा रागात्मक परिवेश है जो एक दूसरे से इतना खुला है कि निषिद्ध सम्वाद भी बेहिचक कर लेता है। गालियाँ वहाँ सहज ही आती हैं चली जाती हैं। यह ‘निजी’ परिवेश परिवार इतना महत्त्वपूर्ण भले न हो, कम महत्त्व नहीं रखता। इस परिवेश में निराशायें, दुख, क्षोभ साझा किये जाते हैं और आगे के लिये महत्त्वपूर्ण बातें तय की जाती हैं। इस परिवेश से गालियाँ निकाल कर देखिये – औपचारिकता हाबी होने लगेगी।
हिन्दी साहित्यिक समाज छिछ्ला आत्ममुग्ध समाज है। अध्ययन, उदारता और आत्ममंथन का घोर अभाव है। मजे की बात यह है कि इससे जुड़े सभी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं लेकिन वे स्वयं छिछ्ले तर्कों और जुमलों का प्रयोग दूसरों के लिये करते हैं। समृद्ध परम्परा वाली भाषा बोलियों के स्थान पर एक नई भाषा खड़ी बोली को संस्कारित कर विकसित की गयी और देखते ही देखते सौ वर्षों से भी कम समय में इस पूरे क्षेत्र की सभ्य, असभ्य, औपचारिक, अनौपचारिक सब भाव की भाषा बन गई। यह चमत्कार नहीं था। इसकी सफलता के पीछे एक अंगड़ाई लेते समाज की आशायें थीं और कर्मयोगियों का श्रम था। लेकिन बाद की साहित्यिक पीढ़ी समाज से कटती चली गई। उसके कथित क्रांतिकारी साहित्य के पन्ने ‘दीवारी क्रांति’ तक सीमित रह गये। जनवाद की बातें तो खूब हुईं लेकिन उन्हें सुनने वाले जन कब ‘बतकही’ को छोड़ गए, पता ही नहीं चला।
आज हिन्दी समाज में सिनेमा और टी वी की पैठ साहित्य से अधिक है। पढ़े लिखे तबके में इंटरनेट का प्रयोग तेजी से फैल रहा है। हिन्दी क्षेत्र के बुद्धिजीवी वर्ग का बहुसंख्य अंग्रेजी में और अंग्रेजी को पढ़ता है। वह गम्भीर विमर्श अंग्रेजी में करता है। उसे अपने लिये अलग से न गढ़ना है और न अपनी भाषा को सक्षम बनाने का उद्योग करना है। इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बाद भी नेट पर स्तरीय हिन्दी सामग्री का अकाल है। साहित्य और लक्षित पाठक में एक दूसरे से कटाव की स्थिति है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिन्दी में ‘नया बेस्ट सेलर साहित्य’ नहीं के बराबर है। विश्वविद्यालयों में हिन्दी बची है तो उसका भी कमोबेश वही हाल है जो राज्य से आश्रय पाई ‘राजभाषा हिन्दी’ का है। अकादमिक गलियों में मेरिट के बजाय गोल और गोलबन्दी को आगे बढ़ाने का चलन है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य से क्रांति नहीं हो सकती। दूसरी भाषाओं में भी साहित्यिक कृतियों के कारण क्रांति का कोई उदाहरण नहीं मिलता, हाँ वन्दे मातरम जैसे विरल उदाहरण अवश्य हैं जिन्हों ने क्रांति के जुनून को स्वर और सहारे दिये। यह साहित्य की शक्ति और सीमा दोनों है लेकिन हिन्दी की स्थिति में केवल सीमा ही सीमा है।
यहाँ साहित्य समाज को दिशा नहीं दे सकता लेकिन अपने समाज का दर्पण तो बन ही सकता है। जिस समाज में सड़क किनारे या हर उस जगह पर जो साफ, समतल और चिकनी हो, हगने का रिवाज हो, गालियों का चलन सीधे मनोवृत्ति से जुड़ता है। अब साहित्य अपने समाज की ही बात करेगा, दूसरे समाज की नहीं। दूसरे साहित्य में भी ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं। जिनके यहाँ जैसी गालियाँ हैं, साहित्य में वैसी आती हैं। हिन्दी में भदेस और लैंगिक गालियाँ आनी कुछ अधिक ही स्वाभाविक हैं, जो समाज का सच हैं।
यह युग उदारीकरण के साथ साथ ध्रुवीकरण का भी युग है। जाति, लिंग, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र आदि को लेकर नित नई गोलबन्दियाँ हो रही हैं। ऐसे में साहित्य की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। क्या हिन्दी साहित्यिक समाज संवाद, संवेदना, सहानुभूति और उदात्त मानवीयता को स्वर देने को तैयार है? स्थापित साहित्यिक समाज सुविधापरस्त, भ्रष्ट और पाखंडी है और तकनीकी के कारण आम पढ़े लिखे लोगों को अभिव्यक्ति के जो नए प्लेटफॉर्म मिले हैं, उन पर हो रहे सृजन को देखकर भयभीत है। अनर्गल प्रलाप, जुमलेबाजी और आरोप शुरू हो गये हैं। ये सभी उनके छिछ्लेपन के प्रमाण हैं। वे यह भी भूल गये हैं कि काल की गति रोकना सम्भव नहीं।
साहित्य में गालियों के उन सीमित प्रयोगों पर हो हल्ला मचाना जो कि कथ्य को स्वाभाविकता और सम्वेदना से पूरित करती हैं, एक साजिश है और कुछ नहीं। पाठक वर्ग में तमीज थी और हमेशा रहेगी। उसे फुटपाथिये मस्तराम की गाली और ‘काशी का अस्सी’ की गाली में फर्क करना बखूबी आता है। साहित्यकारों से श्रम और ईमानदारी अपेक्षित है न कि एक दूजे का पीठ खुजाने की गोलबन्दी और सतही जुमलेबाजी। गालियाँ साहित्य से समाज में नहीं जातीं, समाज से साहित्य में आती हैं। समाज इतना संस्कारित हो जाय कि गाली बकना ही छोड़ दे, एक बहुत व्यापक फलक वाला विषय है और उसमें साहित्य का योगदान तो है लेकिन इतना भी नहीं कि उसे शुचितावादी होकर कृत्रिमता का चोला पहनने की आवश्यकता पड़े। (समाप्त)
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धूप खिल चुकी थी। लेंठड़े ने प्रवचन समाप्त करते हुये अपनी यह बात दुहराई कि उसे मानव समाज का बहुत कुछ समझ में नहीं आता। जानना एक बात है और समझना दूजी बात।
मुझे पढ़ने के लिये एक ब्लॉग लिंक देकर वह वापस लाइब्रेरी में चला गया।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 3


भाग- 1 और 2 से आगे... 

स्त्री पुरुष का आपसी आकर्षण, जिसकी चरम परिणति दैहिक समागम और संतति मे होती है, संसार का सबसे बड़ा सच है। नियमन की प्रक्रिया में समाज ने समागम को निकृष्ट कर्म बना दिया जिसका पार्श्व प्रभाव गालियाँ थी। विवाह स्त्री पुरुष सम्बन्ध को एक नैतिक और स्वीकार्य धरातल देता है लेकिन इसके बाद बहुसंख्य समाज सेक्स शिक्षा का कोई आयोजन नहीं करता। स्त्री को यह शिक्षा माँ और सहेलियों से मिलती है तो पुरुष को अंतरंग मित्रों से। सही गलत की बात नहीं, जो है सो है। विवाह के मांगलिक अवसर पर निकट सम्बन्धों का आलम्बन ले कर होने वाला गाली गायन नई पीढ़ी को परम्परा के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों के निकृष्ट न होने का सूक्ष्म संकेत होता है। नई पीढ़ी मैथुन क्रिया का आलम्बन ले घृणित गालियाँ रोज कहती सुनती रहती है। क्रिया आधारित जुगुप्सित गालियों के बजाय सम्बन्ध आधारित सरस गालियों का सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार अनुष्ठान में आवश्यक अंग बनना मस्तिष्क के भीतर की उस स्वाभाविक रागात्मकता को स्वास्थ्य प्रदान करता है जिसे दैनन्दिन निषेध रोग की तरह घोषित किये रहते हैं।
वैवाहिक अनुष्ठान में ‘माटिकोड़वा’ के अवसर पर केवल स्त्रियाँ होती हैं। बुआ या बहन मिट्टी खोद कर गड्ढा बनाती है जिसमें पानी भर कर सिक्के डाल दिये जाते हैं और उन्हें ढूढ़ने के कौतुक होते हैं। सिक्के रत्नगर्भा की क्षमता के प्रतीक होते हैं जिसका दोहन नया परिवार बसाने जाते दम्पति को करना होता है। इस अवसर पर बेहिचक और बिन्दास लैंगिक गालीगलौज होता है। मैथुन के प्रत्यक्ष सन्दर्भ वाली गालियाँ भी खूब चलती हैं। कृषि के पुरुषकेन्द्रित होते जाने और पैतृक भूमि सम्पत्ति से स्त्री को बेदखल कर दिये जाने के प्रति यह कहीं स्त्री का विरोध प्रदर्शन तो नहीं? ठीक वैसे ही जैसे आम पुरुष हताशा में गाली बक कर, नपुंसक ही सही, प्रतिरोध का संतोष कर लेता है और आगे के संघर्ष के लिये तैयार हो जाता है। यह क्रिया इतनी स्वाभाविक है कि पुरुष व्यक्तित्त्व का अंग सी हो गई है। घर में केन्द्रित स्त्री या कृषि कर्म में सहयोगी लेकिन उपेक्षिता स्त्री को अपने लिये सम्भवत: विरोध प्रदर्शन का यही अवसर मिला।
विवाह के बाद, जब कि एक नया परिवार बनता है, स्त्री धरती माँ की तरह ही बीज को गर्भ में सहेज सृजन करती है। स्त्री के लिये धरती से बेहतर अपनापन क्या हो सकता है? विवाहोपरांत स्त्री पैतृक भूमि अधिकार से वंचित होकर ससुराल की भू सम्पत्ति में भागीदार बनती है। कहीं गालीबाजी विरोध प्रदर्शन के साथ नई सम्भावना के लिये उल्लास प्रदर्शन तो नहीं? प्रश्न उठता है कि गाली ही क्यों? किसी और कथ्य में कठोरता से नियमित समागम क्रिया केन्द्रित गालियों जैसी तीव्रता कहाँ? वह भी पुरुष केन्द्रित समाज में जहाँ गाली बकना पौरुष का प्रतीक माना जाता हो और गाली देना स्त्री के लिये एक निहायत ही गलीज निकृष्ट कर्म।
ऐसी प्रथायें नगरीकरण के साथ साथ ‘सभ्यता’ के तकाजे को ध्यान में रखते हुए लुप्त हो रही हैं – अप्रासंगिक हो गई हैं। कुंठा और आक्रोश अभिव्यक्ति के तमाम साधन उपलब्ध हैं। हिंसक प्रमोद का अपना आनन्द है। स्त्री बराबरी के प्लेटफॉर्म पर उतनी ही बर्बर या क्रूर हो रही है जितना पुरुष। यहाँ के नियम और विधियाँ अलग हैं।
 निकट सम्बन्धों जैसे देवर भाभी में गालीबाजी मनोविनोद का साधन तो है ही, समाज द्वारा इसकी स्वीकृति एक तरह से सम्भावित विपत्ति से निपटने की परोक्ष व्यवस्था भी। यह मनोविनोद पारिवारिक दायरे के भीतर एक अलग सी रागात्मक निकटता गढ़ता है। देवर शब्द से ही दूसरा पति ध्वनित होता है। ऐसी तमाम घटनायें हैं जहाँ अकाल मृत्यु की स्थिति में समाज ने स्त्री को देवर से विवाह की अनुमति दे दी। कई मामलों में तो स्त्री संतानवती भी थी।
 कोई आवश्यक नहीं कि दैनन्दिन गाली बकने वाला स्त्री जाति के प्रति अनादर का भाव रखता हो। जैसा कि पहले कहा, यह क्रिया उसके संस्कारों और परिवेश से अनुकूलित मस्तिष्क में स्वचालित सी आती है और अप्रत्यक्ष रूप से अवसाद या क्रोध का निवारण कर उसे आगे के संघर्ष के लिये तैयार कर देती है। अपने परिवार के और दीगर स्त्रियों के प्रति वह आदर, अनादर या तटस्थता का वही भाव रखता है जो पुरुषों के लिये रखता है।
अब सवाल यह कि स्त्रियाँ गाली क्यों बकती हैं? पुरुष केन्द्रित समाज में अगर पुरुष को झटका देना है या उसके ऊपर ‘विजय’ प्राप्त करनी है तो उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं जिनका प्रयोग वह स्त्री को पीड़ित करने के लिये करता है? बहुधा स्त्री के मुँह से लैंगिक गालियाँ निरर्थक लगती हैं लेकिन पुरुष के लिये स्त्री की यह ‘निर्लज्जता’ एक जोरदार झटका होती है, साथ ही समागम क्रिया में पुरुष वर्चस्व को चुनौती भी – फक यू! चोद तुम ही नहीं मैं भी सकती हूँ, तुम्हें आनन्द आता है तो मुझे भी आता है। ऐसी स्त्री प्रतिद्वन्द्वी को मानसिक रूप से हीन भाव ग्रसित कर देती है। लड़ाई में शत्रु का यही हाल होना चाहिये न। परिणाम देखो, अपनाया गया मार्ग नहीं।
गाँव गिराम में तो ऐसी स्त्रियाँ हमेशा से रही हैं, महानगरीय संस्कृति में उच्च शिक्षित प्रोफेशनल स्त्री तबके में भी इस प्रवृत्ति का अवतरण सबको चौंका रहा है।  इसमें चौंकने जैसी कोई बात नहीं है। स्त्री पुरुष से कन्धा मिला कर साथ चल रही है। उसे भी उन्हीं चुनौतियों और निराशाओं का सामना करना है जिनका सामना पुरुष करता रहा है। अपने लिये कुछ नया ढूँढने की उसे कहाँ फुरसत? गाली दे देना अच्छा है या घुटते हुये मनोरोगी होना? बहुतेरी के लिये तो यह स्वाभाविक बात है, ठीक पुरुषों की तरह वे इसके बारे में सोचती भी नहीं। हाँ, यह प्रवृत्ति बहुधा इतनी स्वस्थ मनोवृत्ति को नहीं दर्शाती। इसका उल्टा कुछ अधिक ही सच है। लेकिन ऐसा स्त्री पुरुष दोनों के लिये है। अभी संक्रमण काल है, आगे बदलाव होंगे। परिवेश का ‘लिंग्वा फ्रैंका’ ऐसी कामकाजी स्त्रियों का भी है। सामाजिक वर्गानुसार संस्कृत और प्राकृत सम्वाद विभेद साहित्य में चल सकता है, दैनिक जीवन में नहीं।   
 गालियों को लेकर सारी चिंतायें मध्य वर्ग की ही हैं। निम्न और उच्च वर्ग इनसे अधिक हलकान नहीं होते। मध्य वर्ग ने सारी अच्छाइयों का ठीका जो ले रखा है! प्रश्न यह है कि समाज या साहित्य में गालीबाजी क्या एक चिंतनीय विषय है? हिन्दी पट्टी के परिप्रेक्ष्य में गालियों का साहित्य में उतरना कहाँ तक उसके छिछलेपन से जुड़ता है? कहीं यह महज उसकी निराशाओं और यथार्थ को चित्रित करने की एक विधि तो नहीं? हम किसी साहित्य का क्या याद रखते हैं – गालियाँ या उनसे जुड़ी सम्वेदनशीलता? गालियों के बिना भी साहित्य रचा जा सकता है लेकिन क्या बस इसे न मानने के कारण कोई साहित्य या साहित्यकार छिछ्ला और त्याज्य हो जाता है? ...(अगला भाग) 
लेंठड़े की पुरानी बातें:

शनिवार, 22 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 2

पहले भाग से आगे...
लेंठड़े ने मुझे पार्क के किनारे पेंड़ के नीचे बुला लिया। पूछ बैठा – यह किसका पेंड़ है? मुझे प्रश्न से आश्चर्य हुआ। मंतव्य न समझते हुए भी मैंने बता दिया,“आम का।“
“कभी आम के पेंड़ पर चढ़े हो?”
मैं जोश में आ गया – जाने कितनी ही बार चढ़ा हूँ!
“बड़े चूतिये हो!”
सुबह सुबह किसी केंकड़े से ऐसा सुन कर मैं हैरान भौंचक्का रह गया! उसने अपने पंजे कड़कड़ाये और कहा – सिर्फ मनुष्य ही गालियाँ बकते हैं क्यों कि उनके पास भाषा है, यह एक अज्ञानी का तर्क है।...
चूतांकुरा स्वादकषायकंठ:... चूत माने आम का वृक्ष। इसका एक अर्थ गुदा या गुह्यांग भी होता है। दूसरे अर्थ की उपेक्षा कर अगर मैं ‘आम’ अर्थ का आश्रय ले, वह भी एक अप्रचलित भाषा से, किसी को यह गाली देने के बाद उसे बहलाने का प्रयास करूँ कि मैंने आम के पेंड़ पर चढ़ने वाले के लिये कहा तो मेरे कुतर्क और बलात-कुविद्या को वह मानेगा या मुझे मारने दौड़ेगा?... गायत्री मंत्र के प्रेरित अर्थ वाले ‘चोद’ और मैथुन की शारीरिक धकेल को व्यक्त करने वाले गाली की ‘चोद’ में अंतर है। कहने वाले की भावना देखी जाती है, शब्द नहीं। ‘साले’ में मित्रों का प्रेम भी है और किसी अजनबी के प्रति प्राथमिक गाली भी। असल में तुम मनुष्यों की बहुत सी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं। मैं बात करते गोबर..नहीं हिन्दी पट्टी पर केन्द्रित रहूँगा। ठीक है न?
... मेरा मन ऐसा हो गया जैसे सुबह सुबह किसी ने जबरिया ब्लैक कॉफी पिला दी हो, वह भी बिना शक्कर की! उसने अपनी बकवास को आगे बढ़ाया...
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प्रहार शारीरिक और मानसिक दोनों होते हैं। जिस सम्बन्ध या वस्तु के प्रति जितना अधिक सम्मान और अपनत्त्व का भाव होता है, वह प्रहार के लिये उतनी ही उपयुक्त होती है। किसी को कष्ट पहुँचाना हो तो उसके लिये जो परम आदरणीय है, उसका परम अनादर कर दो गालियों के पीछे यह मानसिकता काम करती है। आश्चर्य नहीं कि माँ की गाली सबसे तीखी और खराब मानी जाती है। अंतरंग मित्र जो बिना गालियों के एक दूजे से एक वाक्य भी नहीं बोल पाते, वे भी इससे परहेज करते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो कोई भी गाली सह लेते हैं लेकिन माँ की गाली मिलते ही क्रोधोन्मत्त हो जाते हैं। न्यूनाधिक रूप में ऐसा पिता केन्द्रित गाली के साथ भी होता है। ऐसा क्यों है?
भावनायें अपनी जगह हैं लेकिन उसके पीछे वर्चस्व और प्रतिष्ठा की मानसिकता काम करती है। माँ की गाली देने वाला यह जताता है कि देखो इस नपुंसक को! इसके सबसे प्रिय व्यक्ति को मैंने गाली दे दी। उसे गाली दी जो इसे इस संसार में ले आई। यह पुरुष प्रधान समाज में सम्पत्ति और भावना के जटिल मिश्रण वाले सबसे प्रिय स्त्री सम्बन्ध पर प्रहार कर सामने वाले को मानसिक रूप से पीड़ित करने का उद्योग होता है। गाली देने वाला अपनी जान सामने वाले की प्रतिष्ठा को क्षतिग्रस्त कर रहा होता है। प्रतिष्ठा में जो महाप्राण है, उसमें बहुत ठसक है। इतनी ठसक है कि बहुत बार भाव को स्थानच्युत और ठरका देता है लेकिन समझते ही कितने हैं? आक्रामकता को दर्शाते और सराहते हुये प्रतिष्ठा का मूल स्थान ही खिसक जाता है। गाली देते हुए वह अपनी जननी को भी कहीं आक्षेपित कर रहा होता है, यह उसकी समझ में नहीं आता।
लेकिन उन गालियों का क्या जो लोकभाषाओं का अंग हो गई हैं? वास्तव में बहुधा इन गालियों में उन सभी पुरानी लुप्तप्राय भाषाओं के अंश सुरक्षित रह जाते हैं जिनसे लोकभाषा विकसित हुई संस्कृत के चूत या चोद उदाहरण हैं।
यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत संस्कृतभाषा साहित्य में कहीं भी लैंगिक, यौनांगों या यौन सम्बन्ध आख्यानक गालियाँ नहीं हैं। व्यक्ति के बजाय उसके सम्बन्धियों पर प्रहार करती गालियाँ भी नहीं पायी जातीं। प्रताड़ित करने के लिये व्यक्ति केन्द्रित अपशब्द भर मिलते हैं जैसे पामर, नीच, कुलटा, दुष्ट, दुर्मति, लंपट आदि आदि। संस्कृत में लोकभाषा के लिये तिरस्कार का भी भाव मिलता है। उसे ग्राम्याकह कर उपेक्षित किया गया है। परवर्ती नाटकों में ग्रामीण, अशिक्षित या निम्न वर्ग के सम्वादों के लिए प्राकृत या पाली का प्रयोग हुआ है और नागर या सुशिक्षित व्यक्ति सम्वादों के लिये संस्कृत का। प्रश्न यह है कि समाज की वास्तविक स्थिति से परहेज क्यों? इसके कई कारण हैं - समाज को संस्कारशील बनाये रखने के लिये एक मानक की आवश्यकता (नाटकों में हत्या, चुम्बन आदि मंच पर दिखाने पर निषेध); श्रेष्ठताबोध और नागर दम्भ; भाषा को पवित्र और अति विकसित देवसभ्यता से जोड़ा जाना आदि आदि। यह प्रवृत्ति संसार की अन्य प्राचीन भाषाओं में भी पायी जाती है।
हिन्दी के समूचे भक्ति साहित्य में भी लैंगिक या यौन सम्बन्धों वाली गालियाँ नहीं हैं, अपशब्द भले हों। रीतिकाल में भी कमोबेश ऐसा ही है। इन सबके पीछे शुचिता की यह अवधारणा कि साहित्य समाज को संस्कारित करने वाला होना चाहिये, काम करती रही लेकिन साहित्य में नागर, शिक्षित और अभिजात्य वर्ग का पाखंड भी प्रवेश कर गया। परिणामत: यौन सम्बन्धों, अवैध सम्बन्धों आदि के चमत्कारिक और जुगुप्सा की हद तक जा कर ग्राफिक वर्णन हुए। स्त्री पुरुष सम्बन्धों की उद्दाम रागात्मकता और रोगी मनोवृत्ति के बीच के अंतर को भुला दिया गया। साहित्य सरस्वती धनपशुओं की चेरी हो गई। ग्राम्याकी उपेक्षा की अगली परिणति हुई आम जन जीवन की उपेक्षा, तब जब कि रचनाभाषा ग्राम्याही थी। साहित्य में संस्कार उड़ेनले वाले संत व्यक्तित्त्व तो रहे नहीं, साहित्य समाज को दिशा क्या देता, उसका दर्पण भी नहीं रहा और उससे कट गया।
एक बात अनुकूलन पर भी। स्त्री को लालित्य का प्रतीक माना गया। प्रकृति-पुरुष द्वय में कोमल भाव की वाहिका स्त्री रही। इसे शिशु पालन की नैसर्गिक मातृ/ममत्त्ववृत्ति का तार्किक विकास मानना चाहिये। साहित्य, संगीत, कलादि को स्त्री तत्त्व से जोड़ दिया गया। लोककथाओं में भले मिल जाय लेकिन इस सभ्यसमाज में विद्या की देवी ही मिलेगी, देवता नहीं। यह सब जनमानस में इतना पैठ गया कि अनुकूलित हो सोच, समझ, व्यवहार, बोली आदि का अंग हो गया और बहुतेरे इससे इतर सोच ही नहीं सकते। स्त्री केन्द्रित गालियाँ उस सोच का विस्तार हैं जो सुसंस्कृत व्यवहार को पुरुष प्रधान समाज में स्त्रैण और निष्प्रभावी मानती है और भद्दे, कटु, जुगुप्सित बोली व्यवहार को पुंसत्त्व (फलत: प्रभावी) का प्रतीक। विवादों की स्थिति में ऐसी गालियाँ प्रतिद्वन्द्वी के सामने चुनौती रखती हैं है मर्दानगी तुममें? और सामने वाला अपने पौरुष को दर्शाने के लिये विरोधी की माँ बहन ...करने लगता है। ऐसा करते हुये वह अपने भीतर की कथित स्त्रैणतासे उबर रहा होता है। बहुधा विवाद इस शक्ति प्रदर्शनके आगे नहीं जाते। उनका यूँ शमित हो जाना गालियों के विधेयात्मक पक्ष को उजागर करता है लेकिन सामाजिक सोच के ठहराव को भी दिखाता है और स्त्री तत्त्व के प्रति अनादर भाव को भी। सोच और व्यवहार में स्त्री-पुरुष तत्त्व का असंतुलन सीमित प्रभाव नहीं रखता बल्कि हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ता है। पौरुष की भ्रामक अवधारणा को महिमामंडित कर पुरुष प्रधान समाज की गति और प्रगति दोनों को पंगु बनाता है।
वर्तमान समय तेज परिवर्तन का समय है। गालियाँ के कई प्रकार हो गये हैं। गालियों के अलावा गाली देने वाले/वालियों पर भी ध्यान देना होगा। कई बाते हैं गाली बकने वाले क्या इतना सोचते हैं? इसकी आवश्यकता भी है? गालियाँ की स्वीकार्यता और उनसे घृणा, जुगुप्सा किस स्तर की है? क्या गाली देने वाले के मन में वाकई स्त्री या स्त्रीजाति के प्रति अनादर का भाव ही होता है? क्या स्त्री वाकई अनादर का अनुभव कर याद रखती है या लैंगिक संकेतों पर मुँह बिचका कर उपेक्षित करते हुए भूल जाती है? स्त्री का गाली पर इतना सम्वेदनशील होना उचित है क्या, तब जब कि वह स्वयं बकती है? यह सम्वेदनशीलतापुरुष प्रधान समाज में अपने पैर जमाती स्त्री के बराबरी के दावे से कितनी और कैसे जुड़ती है? गालियों के प्रयोग का विरोध करने वाले पुरुष स्त्रैण हैं? क्या गालियाँ इतनी आवश्यक हैं कि उनके बिना काम ही नहीं चल सकता? क्या यह समाज गालीबाज समाज है? ऐसा क्यों है कि परिवार बन्धन में बँधने के बाद बहुसंख्य जन गाली बकना अत्यल्प कर उसे अंतरंग मित्रों की बैठकी के लिये सुरक्षित कर देते हैं? गालियाँ रागात्मकता और मित्रवत प्रेम से क्यों जुड़ती हैं? कुछ निकट सम्बन्धों में गालियाँ स्वीकार्य क्यों हैं? वैवाहिक अनुष्ठानों में कुछ अवसर गालियों के कर्मकांड के लिये सुरक्षित क्यों हैं? धीरे धीरे वे लुप्त क्यों हो रहे हैं? गालियाँ सार्वकालिक और सार्वदेशिक क्यों हैं? सिनेमा, टीवी, इंटरनेट के जमाने में साहित्य में गालियों का प्रयोग समाज को कितना दूषित कर सकता है? गालियों को सहेजने की साहित्य की प्रवृत्ति समाज की स्थिति और सोच को कितना दर्शा रही है और उन्हें कितना बदल सकती है? इस युग में साहित्य समाज को दिशा देने और सामाजिक परिवर्तन करने में क्या वाकई सक्षम है?   (अगला भाग)
लेंठड़े की पुरानी बातें:

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 1

आज सुबह लेंठड़े से मुलाकात हुई। वातानुकूलित लाइब्रेरी से बाहर आ कर सर्दी में काँप रहा था। पंजे कड़कड़ा रहा था। वह जगदीश्वर चतुर्वेदी, मृणाल पाण्डेय, अरविन्द मिश्रादि के गाली विषयक लेख पढ़ कर  विमर्शी मुद्रा में था। दुखी भी था कि एक ओर वादी लोग 'भोजपुरी के पथभ्रष्टक दुअर्थी विशारद बलेसर 'के महिमा गायन में लगे हैं तो दूसरी  ओर गालियों से परहेज करने की सलाह दे रहे हैं। गुड़ खाओ और गुलगुल्ले से .... हाँ कुछ वैसा ही जैसे कृष्ण करें तो लीला हम करें तो व्यभिचार! 
लंठ केंकड़े के साथ विमर्श क्या होता, वह अपनी ही हाँकता चला गया। सोचा कि साझा कर दूँ। आप इसे पढ़ें तो अपने पूर्वग्रहों को ताख पर रख कर चुभलाते हुए पढ़ें ताकि रस परिपाक हो सके। पहले बताना ठीक होता है ताकि बाद में यह कह कर कि बताया नहीं, आप _रियाने न लगें। मैं अज्ञानी मन्दमति हूँ, बस उसकी बात कह रहा हूँ। मुझे वाकई इस विषय में कुछ नहीं पता। हाँ, गालियाँ दे लेता हूँ।  
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आम समझ में गाली का अर्थ यौनांगों और यौन सम्बन्धों से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी उस अभिव्यक्ति से लिया जाता है जो लक्षित व्यक्ति की प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास या आत्मबल पर सीधा असभ्य सा प्रहार करती है। यह प्रहार लैंगिक, सामाजिक आदि पक्षों के अतिसम्वेदनशील मार्मिक बिन्दुओं पर होता है, परिणामत: शारीरिक प्रहार से भी भयानक हो जाता है।
पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के जननी स्वरूप का बहुत आदर है। स्त्री प्रधान समाज में भी होता लेकिन        शायद उतना नहीं होता। उस स्थिति में पुरुष के जनक स्वरूप का अधिक आदर होता। यहाँ ‘प्रधान’ से ‘शासित’ का भी अर्थ समझें। समाज का नारी अर्धांश कहीं पुरुष के स्वामित्त्व के दम्भ से जुड़ता है और घर परिवार के नारी सम्बन्ध जैसे माँ, पत्नी, बहन, बेटी आदि अकथित सम्पत्ति की श्रेणी में आ जाते हैं। किसी को यदि अपने प्रतिद्वन्द्वी को चोट पहुँचानी है तो उसकी एक विधि सम्पत्ति पर प्रहार है। अकथित सम्पत्ति का सबसे सम्वेदनशील पहलू उसका जननी होना है जो अति आदृत भी है। वह सम्पत्ति निर्जीव नहीं, सजीव है। उसके साथ तमाम भावनायें भी जुड़ी हैं। पशुओं की तरह उसका व्यापार नहीं होता (मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा)। चोट पहुँचाने के लिये इससे उपयुक्त क्या ‘चीज’ हो सकती है? 
चूँकि स्त्री समान रूप से सोचने समझने की और भावनामयी शक्तियाँ रखती है इसलिये उसे भी इस प्रहार से अपार चोट पहुँचती है। इसके कारण प्रहार का प्रभाव कई गुना हो जाता है। गाली देने में किसी तरह के शारीरिक उद्योग की भी आवश्यकता नहीं लिहाजा तत्काल निकल आती है, बाद में भले उसके कारण हत्या तक हो जाय!
हजारो वर्षों से हो रहे अनुबन्धन या अनुकूलन के कारण स्त्रियाँ भी वह गालियाँ देती हैं जो स्वयं स्त्री जाति के लिये अनादरसूचक और हिंस्र होती हैं। इसे पुरुष सत्ता का प्रभाव भी कहा जा सकता है और नौ महीने सबकी दृष्टि में गर्भ भार ढोने को लेकर अवचेतन में बैठे हीन भाव का प्रभाव भी। यौन सम्बन्धों के नियमन की प्रक्रिया में उन सम्बन्धों को गोपनीय, गुह्य, अवांछनीय और पापमूलक संज्ञायें दे दी गईं। पुरुष तो शुक्राणु देकर निश्चिंत हो जाता है लेकिन स्त्री उस ‘पापक्रिया’ के भार को तीन चौथाई वर्ष तक झेलती है और बाद में प्रसव प्रक्रिया को भी जो उसके यौनांग और पूरे शरीर को क्षत भी करती है। स्त्री ‘पापक्रिया’ की प्रत्यक्ष वाहिका होने के कारण पुरुष प्रधान समाज में घृणा का केन्द्र हो जाती है। सृष्टि चलती रहे इसके लिये गर्भ ढोना गर्भाधान से अधिक महत्त्वपूर्ण है। जो सृजन स्त्री को मातृत्त्व की गरिमा और आदर से अलंकृत करता है, वही उसके लिये घोर अनादर का कारण भी बन जाता है। इस अनादर के पीछे पुरुष अवचेतन का यह हीन भाव भी है कि स्त्री का दाय उस सृष्टि को जारी रखने में उससे बहुत अधिक है जिसका वह स्वामी बना बैठा है। सम्पत्ति न हो तो स्वामी कैसा? हीन भाव हिंसा को जन्म देता है। विवादों और असहमतियों की स्थिति में गालियाँ छिपे हुए इस हिंस्र भाव की अभिव्यक्ति हो जाती हैं।
गालियों से और भी पहलू जुड़े हैं। (अगला भाग) 
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लेंठड़े की पुरानी बातें: