शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

बड़ी होती स्कॉलर बेटी

आज बिटिया को स्कॉलर बैज मिला। कुल प्रतिशत 85%, किसी विषय में 60% से कम नहीं और उपस्थिति 90% - इन तीन प्रतिमानों पर खरे उतरने वाले छात्र छात्राओं को यह बैज दिया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए, शिक्षा अधिकारी और माता-पिता समुच्चय को जुटा कर जो माहौल बनाया गया था, उसमें विजयी स्कॉलर बहुत उत्साहित दिखे।
गला काटू प्रतिस्पर्धा के जमाने में प्रतिभाएँ संकुचित न हों, दूसरे प्रोत्साहित हों और ध्यान केवल सकल प्रतिशत मार्क्स पर आधारित पहले तीन स्थानों पर ही न हो -यह आयोजन इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता दिखा। अच्छा लगा। अच्छी बात यह लगी कि ग्रेडिंग सिस्टम लागू हो जाने पर भी यह व्यवस्था जारी रह सकती है।
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कार्यक्रम के पहले जो प्रार्थना बच्चों ने गाई, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:
    1

हम को मन की शक्ति देना ,मन विजय करें
दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें..
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें..
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें.
लगा कि प्रार्थनाएँ ऐसी होने के लिए अभिशप्त हैं। मन विजय, खुद पर जय, सच, हौसला, बदी से न डरना - हम जो स्कूलों में सिखाते हैं क्या उसका पालन करते हैं? ये आदर्श बस बच्चों के लिए ही हैं क्या? हम वयस्क कहीं डरे हुए हैं शायद कि हमारी हरकतों को बच्चे अपना कर हमारे लिए सिरदर्द न हो जाँय। बाद में वे असफल भी हो सकते हैं।
क्या सफल होने के लिए अच्छी और बुरी बातों का प्रयोग, समन्वय और संतुलन आवश्यक नहीं है?
हम उन्हें समय पड़ने पर बदी से डरने, झूठ बोलने, कायरता और कमजोरी दिखाने जैसी निवेदन वाली प्रार्थनाएँ क्यों नहीं सिखाते? तब जब कि वास्तविक जीवन में हम हमेशा यही होता देखते हैं। दुनिया चलती रहती है, झूठ बोलने या बदी से डरने या कायरता दिखाने से कहीं कोई प्रलय भी नहीं आता। समाज गतिशील बना रहता है। फिर ये और ऐसी प्रार्थनाएँ क्यों?
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एक दूसरे समवेत गायन की ये पंक्तियाँ चौंका गईं:
राम और मुहम्मद की धरती 

किसी से भेदभाव नहीं करती।

ये धरती मुहम्मद की कब से हो गई? अगर इस्लाम की ही बात करनी थी तो मुहम्मद ही मिले थे? राम और मुहम्मद को इकठ्ठा कर क्या कहना चाहता है रचयिता? दोनों की संगति कहाँ बैठती है? राम ने आदर्शों को जिया, मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। मुहम्मद ने एक मजहब चलाया और अपने जीवन काल में ही उसका बाइ हुक या क्रुक प्रचार प्रसार किया। मुहम्मद के चलाए मजहब में तो इंसानों को बाँट कर भेदभाव को क़ोडिफाई तक कर दिया गया है। फिर ये भेदभाव न होने के सन्दर्भ में वह कहाँ से संगत हो जाते हैं? सेकुलरी साधारणीकरण के जोश में हम जाने कितना कूड़ा करकट बच्चों के जेहन में भरते जा रहे हैं! उनके मन मस्तिष्क में एक निहायत ही अवास्तविक दुनिया बिठा रहे हैं। सचाई ठीक उलट है। ये बच्चे जब वास्तविकता का सामना करेंगे तो उन्हें अपने प्रतिमानों को बदलने और दुहराने में कितनी मानसिक यातना भुगतनी होगी - हम यह क्यों नहीं सोच पाते? हम उन्हें सही क्यों नहीं बताते? सच से कैसे नुकसान के होने से हमें डर है? हम इतने कमजोर हैं कि अपनी संतति को सच बता भी नहीं सकते और प्रार्थना सच का दम भरने की गवाते हैं ! हम किसे धोखा दे रहे हैं ?
     
जैसा कि होता है शिक्षा अधिकारी और प्रधानाचार्या जी आधे घण्टे विलम्ब से आईं - तब जब कि दोनों कार्यालय में ही विराजमान थीं। अभिभावक तो समय से आ ही गए थे - कुछेक विशिष्टों को छोड़ कर। अच्छा लगा कि इस एक हरकत से उन्हों ने बच्चों को जीवन की एक महत्त्वपूर्ण सीख दे दी - यदि समय वग़ैरह की पाबन्दी न माननी हो और फिर भी जलवे बनाए रखने हों तो विशिष्ट बनो। फिर अशिष्टता, झूठ वगैरह मायने नहीं रखते। उनके लिए प्रार्थनाएँ तो वाकई बेमानी हो जाती हैं।
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स्कॉलर बेटी जोर देती है
मम्मी अपनी बेस्ट ड्रेस में आना
पापा को कहना कि दाढ़ी बना लेंगे।
आज मुझे स्कॉलर बैज मिलेगा।



स्कॉलर बेटी पापा को टोकती है
आप की 'डबल चिन' हो रही है
च्युंगम चबाया कीजिए।



स्कॉलर बेटी बिना कहे
होम वर्क पूरा कर लेती है
निकाल लेती है समय
'फाइव प्वाइंट सम वन'
पढ़ने के लिए। 



जब कि मैं सोचता ही रह जाता हूँ कि उसे 'मुझे चाँद चाहिए' पढ़नी चाहिए कि नहीं?

जब भी पापा ऑफिस से आते हैं,
स्कॉलर बेटी चुपचाप
मेज पर पानी का गिलास और
किसमिस के दाने रख जाती है।






स्कॉलर बेटी मम्मी से लड़ती है 
भाई को इतना दुलार ? 
श्रीमती जी घबराती हैं - 
आज कल की ये लड़कियाँ 
भाइयों से इतनी जलन क्यों? 
बेटा तो कभी नहीं टोकता !


स्कॉलर बेटी सतर्क है
उसे श्रीमती जी नहीं
व्यक्ति बनना है
उसे सहचर भी शायद
श्रीमान नहीं
व्यक्ति ही चाहिए होगा !
 ...

2


बड़ी होती बेटियाँ
शंकालु बनाती हैं !
 ....
मैं समझाऊँगा - श्रीमान/मती भी व्यक्ति होते हैं।

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

पुरानी डायरी से - 5 : धूप बहुत तेज है।


07 जून 1990, समय: नहीं लिखा                                                     
                                                                                                                               'धूप बहुत तेज है'


इस लाल लपलपाती दुपहरी में
काले करियाए तारकोल की नुकीली
धाँय धाँय करती सड़कों पर
नंगे पाँव मत निकला करो
क्यों कि
धूप बहुत तेज है।


लहू के पसीने से नहा कर  
तेरी शरीर जल जाएगी इन सड़कों पर ।
लद गए वो दिन
जब इन सड़कों की चिकनाई
देती थी प्यार की गरमाई।
बादलों की छाँव से
सूरज बहुत दूर था।
मस्त पुरवाई के गुदाज हाथ
सहला देते थे तेरे बदन को ।


आज सब कुछ लापता है
क्यों कि 
धूप बहुत तेज है।


सुबह के दहकते उजाले में
तीखी तड़तड़ाती आँधी                                      (मुझे याद आ रहा है कि ये पंक्तियाँ किसी दूसरे की कविता से ली गई थीं)
भर देती है आँखों में मिर्च सी जलन।
छटपटाता आदमी जूझता है अपने आप से।
काट खाने को दौड़ता है अपने ही जैसे आदमी को। 


नहीं जानता है वह
या जानते हुए झुठलाता है
कि
सारा दोष इस कातिल धूप का है।


निकल पड़ो तुम 
इस धूप के घेरे से।
क्यों कि यह धूप !
नादानी है
नासमझी है।
क्यों कि
तेरे मन के उफनते हहरते सागर के लिए
यह धूप बहुत तेज है।
धूप बहुत तेज है।

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

इलाहाबाद से 'इ' गायब - अंतिम भाग

... ब्लॉगर संगोष्ठी में जाने के तमाम कारणों में एक था अपने प्रिय ब्लॉगरों से मिलना।
भारी भरकम बड़के भैया आइ मीन अरविन्द मिश्र - गम्भीरता और हँसोड़पन का यिंग यांग टाइप संतुलन। ऑंखों में नाचती बच्चों सी शरारत। बच्चों को शायद मच्छर अधिक सताते हैं। जिस मनोयोग से प्रस्तुतियों को नोट करते रहे उससे मैं हैरान था।
अरुण प्रकाश - ग़जब का हास्य बोध! मैं तो दंग रह गया। पोस्ट लिखने में सुस्त हैं लेकिन इनके ब्लॉग पर जो मिलता है वह शायद ही कहीं मिले।
हिमांशु - रसिक कवि ऐसा ही होना चाहिए। हेमंत को मिलाने के बाद हम पाँच जितनी हा हा ही ही किए - शायद ही किसी ग्रुप (गुट नहीं) ने किया हो! भैया को मच्छर और जाली वगैरह तो याद रहे लेकिन सुबह कपड़ों पर लगे रक्त धब्बों के बहाने जो हंसी ठठ्ठा हुआ, भूल गए। अरे काहे इतना. . ?
अजित वडनेरकर से मिलना एक सपना पूरा होने जैसा था। एक अनूठा शब्द साधक जो मेरे मन द्वारा बनाई आभासी इमेज से एकदम अलग निकला - अपने बीच का - बिना सींग पूँछ का आदमी, सुना है मिर्ची और नीबू का शौकीन पाया गया। अपन से अधिक घुलान नहीं किए लेकिन हमारी तो एक साध पूरी ही हो गई।
ज्ञान चचा ;) ने जब गले लगाया तो आत्मीयता ही साक्षात थी। 
कृष्ण मोहन मिश्र - व्यंग्य का मास्टर ब्लॉगर- एकदम उलट ! इतना सौम्य और गम्भीर! मेरी इतनी तारीफ कर दी कि मैं मारे डर के दूसरे दिन उनसे भागता फिरा।
साथ गए थे ज़ाकिर अली 'रजनीश', ओम और मीनू खरे। ज़ाकिर भाई ऊर्जा से लवरेज ग़जब के जवान  - जाने कितने सपने सँजोए हुए। भैंसासुर मर्दन के आह्लाद से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। मीनू जी ने जब _तियापा बार बार कहने पर हड़काया तो संभल गए - जरूरी था। ऐसे ऊर्जावान आदमी को बगल की खुदकी का पता ही नहीं चलता। ओम यात्रा भर बीच बीच में आइ टी ज्ञान देते रहे, ये बात अलग है कि मोबाइल पर नागरी दिखे - ऐसा जावा स्क्रिप्ट देने का वादा कर भूल गए (मैं ही कौन फॉलोअप किया?)
प्राइमरी के मास्टर प्रवीण त्रिवेदी से मिलना वैसा ही रहा जैसा वडनेरकर के साथ। एक कामना पूरी हुई। वह गम्भीर बने रहे और वाचाल लंठ को कोई खास भाव नहीं दिए। हमको अपने आचार्य जी याद आ गए। सो बाद में हम सहमे ही बैठे रहे, जाने कब मास्साब कान उमेठना शुरू कर दें (वैसे ऐसा कुछ नहीं हुआ।)
अनूप शुक्ल और रवि रतलामी
फ्रंट पर डटे हुए सिपाही।
धड़ाधड़ रपट। बड़े रपटी हैं !
वह लोग भी मिले जिनसे मिलने की तमन्ना नहीं थी लेकिन जब मिल गए तो बस हम फैन हो गए - अभिषेक त्रिपाठी, प्रियंकर, .  .
वे जिनसे बात तक नहीं हुई लेकिन उनकी बातों ने मन को बेंत सा पीट दिया - देख इसे कहते हैं मेधा! अब तो अकड़ना छोड़ दे -  मसिजीवी, विनीत, भूपेन, हर्षवर्धन, अफलातून।   
अभय तिवारी . . . - अबे, वह तो आए ही नहीं थे! पता है।... हमरे ऊ पी के वासी सरपत काटने की मेहनत में बेराम हो गए थे सो खुद न आकर फिलिम ही भेज दिए। सौन्दर्य और अनुपात के भक्त हैं - उनके फिल्मी कैमरे से यह एक नई बात पता चली। बाकी ब्लॉगरी की भाषा पर एक नई राह की सम्भावना दिखी। क्या कहा?. . .  देखो, हम जुमला उछाल दिए हैं, बाकी उनसे पूछ लो। फिलम बढ़िया लगी सो कह दिया। वैसे देहातन शुरू में सहज नहीं दिखी..
... करीब आधे उपस्थित ब्लॉगरों को समेट दिया है। भूल चूक लेनी देनी। जो छूट गए वे या तो ऐसे ही छूट गए होंगे या उन्हें हम घूरते ही रह गए या खौफ खाते रहे। एक सज्जन तो घोषित कर ही चुके हैं कि वे बेनामी गए थे। बता दिए रहते तो तिरछे अक्षरों में लिखी जाती टिप्पणियों के रहस्यों से भी परदा उठ जाता. .

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... अस्सी साल के कलमघुसेडू द्वारा हिन्दी चिट्ठाकारी की अस्मिता के साथ बलात्कार, मंच खरीदे जाने, ब्लॉगरों के बिक जाने, हिन्दुत्त्व वाले ब्लॉगरों की उपेक्षा करने (किराना घराना शिकायतहीन है), एक वृद्ध का पिछवाड़ा धो उसके जल से आचमन करने .. और जाने कैसी कैसी बातें कही जा रही हैं। इस संगोष्ठी की यह एक उपलब्धि ही रही जो इसने ब्लॉगरों की अद्भुत कल्पनाशीलता, दूरदृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, अन्धदृष्टि, मूकदृष्टि, हूकदृष्टि, चूकदृष्टि, कदृष्टि, खदृष्टि....ज्ञदृष्टि...अल्ल, बल्ल... हाँ हाँ हाँ ... से परिचय करा दिया। अब तो ब्लॉगरों की जुटान करने की सोच को भी पहले दस बार (कम कहा क्या?) सोचना होगा। अच्छा ही है पता चल गया कि रस्ते में और रस्ते के किनारे पट्टी (वहीं जहाँ लोग निपटते हैं !) पर माइनें कहाँ कहाँ बिछी हो सकती है !यह भी पता चल गया कि ये माइनें फुस्स पटाखा हैं, डरने की कौनो जरूरत नाहीं।     
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सुना जा रहा है कि बस चुनिन्दा ब्लॉगरों को बुलाया गया था। तो का सबको नेवत देते? अबे तुम लोग हजार तो हो ही! तीस चालिस आए तो यह हाल है अधिक आ जाते तो गंगा यमुना भी प्रयाग छोड़ भाग लेतीं। ग़िरेबान में झाँको भइए और बहिनी माई सब। इतना टंटा इसलिए कर पा रहे हो कि सैकड़ा हजार में हो। लाख में होते तो क्या ...? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम लोगों की ही वजह से हजार लाख नहीं हो पा रहा?
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...गोबर पट्टी के अलावा इनको भी नेवता गया था – शास्त्री जी (कोच्चि), दिनेश राय द्विवेदी (कोटा), शिव कुमार मिश्र (कलकता), रंजू भाटिया-व्यक्तिगत नेवता (झारखण्ड, दिल्ली), प्रमोद सिंह, अभय तिवारी (मुम्बई), मनीषा, अजित वडनेरकर (भोपाल), संजय बेंगाणी (अहमदाबाद) आदि आदि  – कुछ आए और बहुतेरे नहीं आए। क्यों नहीं आए? व्यक्तिगत कारण, कम समय, मानदेय नहीं, यात्रा के क्लास का खुलासा नहीं.... लम्बी लिस्ट है। कुछ सच्ची कुछ झूठी। कौन क्या है क्या पता? लेकिन आयोजकों का इसमें क्या दोष? ... जाने भी दो यारों ! पाखंड की भी एक हद होती है। सही सही कहो न !
... महिला ब्लॉगर तीन ही आ पाई थीं । व्यक्तिगत अनुरोध भी किए गए लेकिन वही गृहिणी की व्यावहारिक सीमाएँ ! पुरुष प्रधान समाज ने न्यौतने का पाखण्ड तो दिखाया लेकिन घरनी को घर से मुक्त नहीं कर पाया। बड़ी नाइंसाफी है। नारी मुक्ति के झण्डा बरदारों !एक महिला ब्लॉगर सम्मेलन कर दिखाओ। मार तमाचे पुरुषवादी नारी शोषकों पर !...    
... नमूना बद-इंतजामी। चार जगहों पर प्रवास की व्यवस्था। सरकारी गेस्ट हाउस, एल आइ सी गेस्ट हाउस, विश्राम होटल और प्रयाग विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस। अनाहूत ब्लॉगर भी (हाँ गए थे) ठहरा दिए गए। कमरे खाली भी रह गए। खाना आदमी के खाने लायक था - ब्लॉगर के नहीं (एक अलग जीव होता है शायद)।
सबने मौज ली मुझे तो कोई दु:खी नहीं दिखा। ...धन्यवाद हिन्दी एकेडमी, धन्यवाद अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, धन्यवाद नामवर, धन्यवाद ब्लॉगर जानवर, धन्यवाद ज्ञान, धन्यवाद विज्ञान, धन्यवाद फलाने, धन्यवाद ढेमाके... हम तो धनाधन धन्न हैं। .....
... गरिया रहे हो सरकारी टैक्स पेयर के पैसे फिजूल में उड़ाए गए। इस देश में और कहाँ कहाँ ऐसे कुकर्म होते हैं? जरा बताइए तो! नहीं होते न !बस ब्लॉगरी ही भ्रष्ट है।... क्या कहा? ऐसी बात नहीं लेकिन ब्लॉगरी को इन दोषों से बचना/बचाना चाहिए। अच्छा, पवित्र गैया की बड़ी चिंता है आप को ! बड़ा आत्मविश्वास है अपने उपर! जमाने को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखेंगे! दुर्भाग्य(या सौभाग्य) से बहुत लोग ऐसे नहीं हैं। भ्रष्ट हैं न ! सुविधाजीवी प्रलापी। ...
... आप क्यों नहीं आए इसे गम्भीर दिशा देने? नेवता अगोर रहे थे - हजाम से भिजवाना था शायद। अव्वल तो कुछ करोगे नहीं और कोई करेगा तो दूर से नंगे होकर ढेला फेंकोगे। कर के दिखाओ न ! पता चलेगा कि मास्टर, वैज्ञानिक, अधिकारी, विद्यार्थी, मीडियाकर्मी, पत्रकार, प्रोफेसर, बेकार, प्रबन्धक और जाने क्या क्या टाइप के लोगों की जमात कैसे इकठ्ठी करनी होती है! इकठ्ठी हो भी जाय तो संभाला कैसे जाता है।...  
.. हम तो कहेंगे फले फूले अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और हिन्दी एकेडमी जो ऐसी हिम्मत की। बस हिम्मत ही की नजर नहीं दी। छोटी छोटी बातें ऐसी विविध जुटान में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं – क्यों नहीं समझ पाए? बारात स्वागत में भारतीय सजगता ही याद रखते! थोड़ा और प्रोफेसनलिज्म दिखाते जैसा कि यात्रा व्यय का रिफंड करने की त्वरित कार्यवाही में दिखाए! सोने में सुहागा हो जाता. . .परफेक्सनिस्ट टाइप बड़के भैया तो खुश हो जाते (रास्ते में मीनू जी ने बताया था कि कैसे साइंस ब्लॉगर्स की बनारस मीट में उन्हों ने छोटी छोटी बातों तक का ख्याल रखा था और कितनी सफाई से समय का प्रबन्धन हुआ था।) भैया, आप का गुस्सा जायज ही सही अब थूक दीजिए।...   
....  सिद्धर्थवा तो बड़ा अवसरवादी है किताब भी छपवाया और नामवर से विमोचन भी कराया। आप को कहाँ कष्ट है? कोषाध्यक्ष हो कर पद का दुरुपयोग किया। आप नहीं करते क्या? क्यों नहीं करते? आदर्श महिला/पुरुष हैं आप। पढ़ा है आप ने उसके ब्लॉग को? छपने लायक नहीं लगा क्या? अपना संकलन कभी कहीं भेजे क्या छपने को? नहीं। क्यों? आप को छपास नहीं है। दूसरों को भी नहीं होनी चाहिए क्यों कि आप को नहीं है - यह ब्लॉगरी की  लोकतांत्रिक सोच है।...
आप से भी तो लेख माँगे गए थे – दूसरे संकलन के लिए। क्यों नहीं भेजे? भेजे भी तो इतनी हुज्जत के बाद – क्यों? अच्छा वह अपनी कुकरनी पर परदा डालने के लिए ऐसा कर रहा है और आप पर्दा प्रथा के खिलाफ हैं ! ... कब तक अपने अन्ध मानदण्डों से सबको नाप कर जात बाहर करते रहेंगे? ... देखिए एक दिन आप अकेले बचेंगे और खुद जाति बाहर हो जाएंगे। नहीं, आप बचेंगे ही नहीं क्यों कि आप को चाहे जो भ्रम हो यह समय बड़ा छिनार है, हरजाई है – किसी का नहीं हुआ और बहुत कम हुए जो इसके प्रवाह को मोड़ या तोड़ पाए। लेकिन वह लोग हरगिज आप जैसे न थे. . .
... मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना! एकेडमी, विश्वविद्यालय और सिद्धर्थवा का चमचा हूँ। बड़ा फायदा मिलता है मुझे इनसे। सुना है कि ब्लॉग रत्न के लिए हमरा नाम प्रस्तावित किया है। प्राइवेट बात है – किसी को बताइएगा मत ! ....
... टुटपुँजिया हूँ जो लखनऊ से प्रयाग अपने खर्च पर नहीं जा सकता था और ठहर नहीं सकता था। चार पैसों के लिए जमीर  बेंच दिया मैंने! हिन्दी के लिक्खाड़ों का तमाशा देखने के लिए अपने को बेंच दिया मैंने! हिन्दी के शलाकापुरुषों के हृदयपरिवर्तन या मजबूर स्वीकार को देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! साहित्य की गन्दगी का ब्लॉगरी गंगा यमुना से संगम देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! ब्लॉगरी को ही दलाल हिन्दी साहित्यकारों के हाथ बेंच दिया मैने! इतने गुनाह एक साथ !. . कुंठासुर नहीं मैं शक्तिशाली गुनाहासुर हूँ। हा ! हा!! हा!!! ...
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किसी ब्लॉगर ने संगोष्ठी में कहा था कि वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी हिन्दी वालों से आजाद होगी। उसकी बागडोर गैर हिन्दियों और सारे संसार के हाथ होगी। मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की।
आओ बालसुब्रमण्यमों! आओ शास्त्री फिलिपों !! गोबर पट्टी से एक अदना आह्वान कर रहा है।

अंग्रेजी के e का कमाल तो देख लिया – धड़ाधड़ लाइव सी रिपोर्टिंग में लेकिन हिन्दी की छोटी ‘इ’ का कमाल देखना बाकी है। उस मात्रा का कमाल देखना बाकी है जिसने e कोड वालों को बहुत दु:ख दिए, इतनी विनम्र कि पहले लगती है, फिर उच्चरित होती है- मतलब कि काम पहले बात बाद में। ...
.... हाँ इलाहाबाद से ‘इ’ गायब थी।   

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

इलाहाबाद से 'इ' गायब, भाग -1


प्रयाग ब्लॉगर संगोष्ठी (जी हाँ ब्लॉगरी में इलाहाबाद को प्रयाग कहने वालों के लिए भी जगह है।) के बारे में सोचा था कि नहीं लिखूँगा लेकिन बहुत बार अपना सोचा नहीं होता।
(पहला दिन)  
हिन्दुस्तानी एकेडमी के सभागार में प्रेमचन्द, निराला, राजर्षि टंडन और हिन्दी के कितने ही आदि पुरुषों के साए तले हिन्दी आलोचना के एक पुरनिया स्तम्भद्वारा उद्घाटन - देख सोच कर ही रोंगटे खड़े हो गए। (वक्त ने खम्भे पर बहुत दाग निशान लगाए हैं - बहुत बार खम्भा भी इसके लिए जिम्मेदार रहा है)। लेकिन अभी तो बहुत कुछ बाकी था।...
ब्लॉगरी अभिव्यक्ति, संप्रेषण, सम्वाद और जाने क्या क्या (इसलिए लिख रहा हूँ कि आगम का नहीं पता) की एक नई और अपारम्परिक विधा है। लिहाजा इससे जुड़े सम्मेलन का प्रारम्भ और उद्घाटन ही पारम्परिकों को चिकोट गया। उद्घाटन के पहले वरिष्ठ ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय द्वारा विषय प्रवर्तन और फिर रवि रतलामी द्वारा पॉवर प्वाइण्ट प्रस्तुति! पुरनिया नामवर जी भन्ना गए। वे इतना भी नहीं सोच पाए कि इस निहायत ही नई विधा से सबका चीन्हा परिचय कराने के लिए यह आवश्यक था। चिढ़ को उन्हों ने पहले से ही उद्घाटित विषय का उद्घाटन करने की बात कह कर व्यक्त किया। बाद में नामवर जी ने तमाम अच्छी बातें भी  कहीं। ब्लॉगिंग की सम्भावना को स्वीकारा। चौथे पाँचवें स्तम्भ वगैरह जैसी बातें भी शायद हुईं। फिर खतरों की बात उठाई गई। राज्य सत्ता के भय, दमन वगैरह बातों के साथ सावधान किया गया - पुरनिए कर ही क्या सकते हैं? ब्लॉगिंग क्या है- इसका कख उन्हें कहाँ पता है? जो चीज न पता हो उससे खतरा तो लाजमी है। 
ये वही पुरनिए हैं जो मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति के खतरे उठाने और गढ़ मठ तोड़ने वाली कविता की दिन में चार बार जरूर सराहना करते हैं। ऐसा करने से उनकी मेधा शायद तीखी बनी रहती है।  
सम्प्रेषण,संवाद,खतरा,भय। ब्लॉग पर लिखने के लिए यह चतुष्ट्य मुझे बड़ा सम्भावनाशील लगता है। 
आप पैदा होने के बाद जब पहली बार रोते हैं तो खतरा मोलना शुरू करते हैं और जारी रहते हैं मृत्यु के पहले की अंतिम हिचकी तक। खतरा कहाँ नहीं है? जीना छोड़ दें इसके कारण? 
ब्लॉगिंग में ऐसा अभी तक नहीं आया है जिस पर मुक्तिबोध की आत्मा खुश हो रही हो। वैसे भी ब्लॉगरी को मुक्तिबोधी मानकों की नहीं, अपनी परम्परा से विकसित मानकों की आवश्यकता है। लेकिन जब तक परम्परा न विकसे तब तक तो पुरनियों की अच्छी बातों का ही सहारा रहेगा। है कि नहीं?
अब आइए सिखावन पक्ष पर। हमारे बहुत से ब्लॉगर यह समझते हैं कि कुछ भी लिखो, कोई कुछ कर नहीं सकता। इस गलतफहमी को दूर करने के लिए पुरनियों की सिखावन पर ध्यान देना चाहिए। राज्य सत्ता वाकई शक्तिशाली है और आप का गला पकड़ कर पुलिस वैन में बैठाने में उसे देर नहीं लगती। इस लिहाज से ब्लॉगरों को स्व-अनुशासित रहना चाहिए। बस उतना अनुशासन कि अपराध न हो। अपराध क्या हो सकते हैं इसके लिए थोड़ी समझ का प्रयोग और थोड़ा अध्ययन आवश्यक है। कानूनी बैकग्राउण्ड वाले ब्लॉगर इस पर प्रकाश डाल सकते हैं।     
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सभा का स्थल उद्घाटन के बाद बदल कर महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रयाग केन्द्र कर दिया गया। निहायत ही अनुपयुक्त स्थान - किसी भी तरह से इस स्तर के जमावड़े के लायक नहीं। ब्लॉगरों के इकठ्ठे होने लायक तो हरगिज नहीं। सभागार जो कि एक पुराने घरनुमा भवन में बनाया (?) गया है कहीं से भी सभागार नहीं लगा। बन्दिशें न मानने के आदी ब्लॉगरों के अराजक व्यवहार का मार्ग इसने सुगम कर दिया। पहला दिन जुमलों का दिन रहा। इस तरह के जुमले उछाले गए:
- ब्लॉगर खाए,पिए और अघाए लोग हैं।
- ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है।
- अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा।
- पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है।
- एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं।
- इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है।
- एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। 
- औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)  


जुमले बड़े लुभावने होते हैं। ये आप को विशिष्ट बनाते हैं। आप जब इन्हें उछालते हैं तो असल में आप अपने आम जन होने के इम्प्रेशन को फेंक रहे होते हैं। कई बार आमजन की वकालत के बहाने अपने को विशिष्ट बना रहे होते हैं। . . . 
ब्लॉगर खाया, पिया और अघाया टाइप का आदमी है। बिल्कुल है। प्राइमरी का मास्टर जब 250 रुपए प्रति माह के बी एस एन एल कनेक्शन की धीमी स्पीड और आती जाती लाइट को कोसता पोस्ट लिख रहा होता है तो वह अघाया ही रहता है। चन्दौली जिले के हेमंत जब मोबाइल की रोशनी में अगले दिन की पोस्ट लिख रहे होते हैं तो अपनी आर्थिक स्थिति पर एकदम निश्चिंत होते हैं। 10/-रुपए प्रति आधे घंटे की दर से जब कोई आर्जव अपने ब्लॉग पर लेख लिख रहा होता है तो अपने बाप की कमाई को एकदम कोस नहीं रहा होता है। वैसे अखबार पढ़ने वालों, टी वी देखने वालों, रेडियो सुनने वालों के बारे में क्या खयाल है? खाए पिए अघाए लोग हैं?...  एलीट क्लास के जुमलाबाजों! दरवाजा खोल कर हमने अपने गोड़ अड़ा दिए हैं। (मैं भी जुमला तो नहीं उछाल रहा? नहीं भाई एक अभिनेता का डायलॉग अपनी भाषा बोली में दुहरा रहा हूँ।) अब हमसे सहानुभूति जताती बकवासें बन्द कमरे में जब होंगी तो हम सुनेंगे और उन्हें नकारेंगे। हम जोर से अपनी बात खुद कहेंगे। तुम्हारा एसी कमरों में बैठ कर बदहाली का रोमानीकरण करना हमें हरगिज बर्दास्त नहीं है। उपर चहारदीवारी को तोड़ता पेंड़ का फोटो देख रहे हो? (सभास्थल के पास ही था - तुम्हें नहीं दिखा होगा, सामने गोबर पट्टी का जानवर जो है। अरे!उस पर तो इंग्लिश स्पीकिंग कोचिंग का प्रचार टँगा है।) जब वह कर सकता है तो हम तो आदमी हैं।  काट सकते हो क्या? 


ब्लॉग बहस का प्लेटफॉर्म नहीं है। तो क्या है भाई? अगर नहीं भी है तो उससे क्या होता है? किस लिए यह कह रहे हो? मैं जब किसी बालसुब्रमण्यम या 'मैं समय हूँ'जैसे छ्द्मनामी के साथ बतकही करता हूँ तो क्या वह बहस नहीं होती? सही है तुम हर ब्लॉग तो देख नहीं सकते लेकिन ऐसे शक्तिशाली से दिखते खोखले जुमले क्यों उछालते हो भाई? 


अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। ये अनामी दूसरे ग्रह से आता है क्या जो इसे आदमियों जैसे चलने की तमीज नहीं है? भैया, सारे अनामी/बेनामी/छ्द्मनामी ब्लॉग जगत से ही आते हैं। उन्हें चलना बखूबी पता है। आप इसकी फिकर करें कि कैसे गैर ब्लॉगर आप के ब्लॉग पर आए, पढ़े और आप की बात पर टिप्पणी करने को या आप से संवाद करने के लिए बाध्य हो ! वह बेनामी भी कर जाय तो उसे सीसे में मढ़ा कर रखिए। अगर आप उसे नहीं ला सकते तो अपने ब्लॉग को आलमारी में रखी डायरी की तरह बन्द कर दीजिए। खुद लिखिए और खुद पढ़िए। (यह बात सबके उपर लागू होती है।)


पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है। वह कुछ क्या है, थोड़ा समझाएंगे? आप का पिछड़ेपन का पैमाना क्या है? अगड़े समाज (अंग्रेजी ब्लॉगिंग) की बात बताइए। वहाँ लैंगिक पूर्वग्रह नहीं हैं? वहाँ जूतम पैजार नहीं होती? रेप नहीं होता? छेड़खानी नहीं होती? यौन शोषण नहीं होता? वहाँ साइबर अपराध नहीं होते? जरा बताइए तो हम पिछ्ड़ों में (आप तो अगड़ी जमात से हैं, मजबूरी में हिन्दी में ब्लॉगिंग कर हम पिछड़ों को तार रहे हैं।)ऐसी क्या बात है जो हमें उनकी तुलना में (जी हाँ मानक तो होना ही चाहिए)पिछड़ा बनाती है। एके लउरी सबको हाँकना बन्द कीजिए। हाँकना आप को शोभा नहीं देता क्यों कि वह कला आप को नहीं हम देहातियों को आती है।


एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। कोई मर्द यह भी नहीं स्वीकारता कि रोज रोज मानसिक घुटन और सौम्य (नहीं फेयर?)अत्याचार झेलते उसका जीना मुहाल हो गया है। उसको इस बात की आदत सी हो गई है - वैसे ही जैसे उस सौम्य अत्याचार और षड़यंत्रकारी की जननी को पीटने की हो गई है। परिवार नाम की किसी संस्था का पता है आप को? अगर हाँ तो वह कैसे चलाई जाती है? आप के साधारणीकरण द्वारा? ..क्या कहा? मैं मर्दवादी हूँ जो सन्दर्भ से बात को अलग कर के कह रहा है। जी नहीं महाशय मुझे आप के बात कहने के इस 'व्याकरण (गलत प्रयोग! मेरी मर्जी)' पर आपत्ति है। आप इसे किसी और तरीके से कह सकते थे। लेकिन क्या करिएगा आप भी मजबूर हैं - कहने में पंच नहीं आता। कुछ पूर्वग्रह और पुख्ता हो जाँय तो आप को क्या फर्क पड़ता है?    
                                  
इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। बाजार....वाद..... यह इस सभ्यता का सबसे बड़ा जुमला है लेकिन घिस चुका है। कहीं भी चल जाता है, पोस्ट की जगह भले सचाई ही क्यों न कह दो! क्या बुराई है भाई प्रोडक्ट होने में? अगर हम फोकट में उड़ा रहे हैं और बाजार उसे इकट्ठा कर रहा है तो शिकायत क्यों भाई? और अगर हम उड़ा नहीं रहे, पगहा पकड़ कर तमाशा दिखा रहे हैं तो पगहा की मजबूती को हम, चोर और दारोगा जी समझ लेंगे। आप क्यों चेता रहे हैं? मलाई आप चाभें और हमें बताएँ कि बड़ी खुन्नुस लगती है - बड़ी गन्दी बात है। आप के प्रयाग तक आने, ठहरने, खाने पीने, प्रलाप करने और फिर वापस जाने में बाजार के जितने प्रोडक्ट काम आए उनकी लिस्ट लगा दीजिए। क्या कहा? नहीं लगा सकते? अच्छा सिर में दरद है। ठीक है हम ठीक होने तक इंतजार कर लेंगे। 


एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं।  हम जब यहाँ आए तो अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर दाढ़ी वगैरह बना कर आए थे। आइने में जब जब अपने को देखे मुग्ध हो गए। यह भी आत्ममुग्धता है क्या? हम कुछ ऐसा करते हैं जो हमें संतुष्टि देता है और दूसरों को नुकसान भी नहीं पहुँचाता। हम प्रसन्न हो जाते हैं। आप दु:खी क्यों हो जाते हैं? बुद्ध के खानदान से हैं क्या? हम बड़े बेहूदे नासमझ हैं - अज्ञानी। लेकिन क्या करें? मन मानता ही नहीं। बहुत दिनों तक अगोरने के बाद तो कुछ हाथ लगा है। उत्सव मना लेने दीजिए न। उसके बाद तो आप जैसा कहेंगे वैसा होगा। हम मुँह गाड़े कोने में बैठे कभी खुद को कभी दूसरों को गरियाते रहेंगे। आप के उपदेश सुनेंगे और पालन भी करेंगे। अब देखिए न कोई पीछे से आप का परिचय पूछ रहा है। बता दूँ?


औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। दुपट्टा औरत का सबसे बड़ा दुश्मन है। (आज कल कपड़ा ही दुश्मन हो गया है। सुना है कि पूरे संसार में कपास का उत्पादन कम हो गया है। इस प्रोडक्ट की कमी से बाजार खुश है। अजीब स्थिति है।... ससुरी ये तो कविता हो गई। कोई इसका बहर शहर बताइए।) हाँ, दुपट्टा न रहने से हमरे बापू की आँखों को बहुत तकलीफ होती है। अम्माँ तो गरियाने लगती हैं । पता नहीं दोनों को दुपट्टे से इतना प्रेम क्यों है? बड़े पिछड़े हैं बेचारे। हमको भी कुछ कुछ ...। कल सल्लू मियाँ कह रहे थे कि हम तो बिना बुशट पहने सड़क पर चलना चाहते हैं। हमने उनको कह दिया - बिन्दाश चलो।आजाद जमाना है। वैसे दुपट्टा और नारी की स्वतंत्रता पर एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने लेख प्रतियोगिता आयोजित की है। आप जरूर भाग लीजिएगा। . . .पुरुषवादी,बैकवर्ड, मेल सुविनिस्ट ... खुसफुसाते चिल्लाते रहिए, हम सुन रहे हैं। अब कुछ दिनों में आँख पर पट्टी बाँध चलेंगे तो उसके लिए कानों को तेज होना ही चाहिए। एक्सरसाइज हो रही है उनकी... 


... जुमले बहुत खतरनाक होते हैं। ओरेटरों की जुबान पर चढ़े हथियार होते हैं। आप घायल नहीं होते बल्कि अपना दिमाग टुकड़ा टुकड़ा काट रहे होते हैं। सुना है दिमाग काटने पर दर्द भी नहीं होता।


(दूसरा दिन )             


हिमांशु जी को बोलने के लिए 'हिन्दी ब्लॉगिंग और कविता'विषय दिया गया था। एक कवि हृदय ब्लॉगर जिसका कविता/काव्य ब्लॉग सर्वप्रिय हो, उसे इस विषय पर कहने के लिए चुनना स्वाभाविक ही था।(मुझे पता है कि कीड़ा कुलबुलाया होगा,अरे ब्लॉगिंग करते ही कितने हैं जो सर्व की बात कर रहे हो - भाई अल्पसंख्यकों को ही गिन लो। वैसे भी कविता पर ब्लॉगिंग सम्भवत: सबसे अधिक होती है।) हिमांशु जी इस विषय पर दूसरे वक्ता थे। उनके पहले हेमंत जी ब्लॉगरी की कविताओं के नमूने सुना चुके थे। उसके बाद समय था विवेचन और बहस का और हिमांशु जी से बेहतर विकल्प उपस्थित ब्लॉगरों में नहीं था। अपनी भावभूमि में मग्न हिमांशु जब कहना प्रारम्भ किया तो ब्लॉगर श्रोताओं  (जी हाँ, गैर ब्लॉगर श्रोता बहुत कम थे) के मीडियाबाज और इसी टाइप के वर्ग के सिर के उपर से बात जाती दिखी। एक दिन पहले जिन लोगों ने इस प्लेटफॉर्म का उपयोग निर्लज्ज होकर अपनी कुंठाओं और ब्लॉगरी से इतर झगड़ों को परोक्ष भाव से जबरिया अभिव्यक्त करने के लिए किया था और सबने उन्हें सहा सुना था, उनमें इतनी भी तमीज नहीं थी कि चुपचाप सुनें। बेचारे हिमांशु जी तो पूरी भूमिका देने के मूड में थे, सो दिए। समस्या गहन होती गई। 
गलती उनसे यह हुई कि इस युग की जटिल परिस्थितियों से जूझते आम आदमी की जटिल सी झुंझलाहट  को व्यक्त करती इस नाचीज की कविता को ही उन्हों ने पहले उठाया। मैं चौंका - इतना भोलापन कि बवालियों के चेहरों पर नाचते असहजता के भावों को पढ़ ही नहीं पाए! इतना भी नहीं समझ पाए कि यह वर्ग अपनी बात सुनाने को व्यग्र तो रहता है और अवसर न मिलें तो छीन भी लेता है लेकिन दूसरों की बात सुनने की परवाह ही नहीं करता, गम्भीर विमर्श तो दूर की बात है। ...
मेरे मन में अब दूसरे भाव उमड़ने लगे। वक्ताओं के लिए निर्धारित मंच (पता नहीं सही शब्द है कि नहीं?) पर मैं हिमांशु की बगल में बैठा था और पहली बार मिले होने के कारण बीच बीच में अंतरंग सी दिखती खुसुर पुसुर में व्यस्त हो जाता था। गोबर पट्टी के इस देहाती के दिमाग में आशंका उठी - तमाम कविताओं में से मेरी ही कविता क्यों? वह भी इतनी अपारम्परिक? लोग क्या सोचेंगे? ... मेरी छठी इन्द्रिय सही चल रही थी।
एक तरफ से ऑबजेक्शन उठा। उन्हें बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ाते रामचन्द्र शुक्ल याद आ गए थे। बड़ा ऑबजेक्सन था उन्हें? (ब्लॉगरी में क्या सचमुच रामचन्द्र शुक्ल का स्थान नहीं? अरुन्धती रॉय के बारे में क्या ख्याल है?) ये वही थीं जो पहले भी और बाद में भी तमाम असम्बद्ध सी अनर्गल बातें धड़ल्ले से कहती रहीं और पब्लिक सुनती रही थी। हिमांशु जी ने विषय की प्रकृति को बताते हुए उन्हें समझाया लेकिन उन्हें समझ में शायद ही आया हो। भोला चन्दौलीवासी अभी भी समझ नहीं पाया। उसके उपरांत फिर मेरी ही एक अत्यंत ही दूसरे मिजाज की कविता की बात उठाई ही थी कि बगल से आवाज आई ,"आप कहना क्या चाहते हैं?" जो कथ्य को विषय से जोड़ सुनने की कोशिश भी नहीं कर रहे थे उन्हें कथ्य के बारे में तफसील चाहिए थी। [अरे हिमांशु भैया! मुझे बाद में लगा कि एक ही कवि (गुस्ताखी कर रहा हूँ, ब्लॉगर कहना अधिक उपयुक्त होता। नहीं?) की दो आम जीवन से जुड़ी और एकदम विपरीत भावभूमियों की कविताओं द्वारा आप यह दर्शाना चाहते थे कि ब्लॉगरी की कविता की भावभूमि कितनी विविध है और ब्लॉगर कवि कितने विविध तरीकों से अपनी बात कहते हैं. . .लेकिन देखनहार देखना चाहें तब न !]
मंचासीन ब्लॉगर की ही कविताएँ सुनाई जा रही हैं! स्वप्रचार?
शायद हिमांशु जी को सामने वालों की मन: स्थिति और उथली सोच का अहसास अब हो चला था। 
तुरंत उन्हों ने संभालने की कोशिश की और दूसरी कविता पर बहस शिफ्ट करने की बात की कि संचालक महोदय को 13 मिनट नजर आने लगे। टोक बैठे। यह 13 का अंक ससुरा बहुत अपशकुनी होता है। मुझे पूरा विश्वास हो आया है। 
भावुक कवि अब समझ गया। दिल वाले जब दिमाग पर आ जाते हैं तो फिर उन्हें सँभालना कठिन होता है। हिमांशु जी ने मंच छोड़ दिया। जिन संचालक महोदय को 13 मिनट भारी लगे वे इंटर्लूड के बहाने हर वक्ता के बदलाव पर जाने कितने मिनटों तक अपनी बातें कहते रहे। तब उन्हें घड़ी के मिनट नहीं दिखे - नजर सामने हो तो कहाँ और कैसे जा रहे हैं,नहीं दिखते क्या? बाद में उन्हों ने (उन्हीं का शब्द है) अपने इस  कमीनेपन को स्वीकारा भी। मैं उनकी निर्लज्जता की निर्लज्ज स्व-स्वीकृति पर निहाल हो गया। लेकिन हिमांशु जैसों की बात तो रह ही गई न । .... बात अभी बाकी है।             

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

आओ गड्ढा सजाएँ


       भारतीय शहरों में गढ्ढे कई  प्रकार के होते हैं, नई कॉलोनियों में कूडा फेंकने वाली जगह (नगर निगम का कचरा डिब्बा तो बहुत बाद में आता है) के पास का उथला गढ्ढा जिसमें सूअर लोटते हैं; टेलीफोन/बिजली विभाग द्वारा खोदा गया सँकरा लेकिन लम्बोतरा गढ्ढा जो सड़क के बीचो बीच विराजमान होता है; नगर निगम द्वारा पानी सप्लाई और सीवर को ठीक करने और उस प्रक्रिया में दोनों को मिलाने के लिए किया गया गढ्ढा जिसे मैनहोल भी कहा जा सकता है।
                गढ्ढे का यह प्रकार जनता के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होता है। यह शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है साथ ही आवश्यक मिनरल, लवण वगैरह की पूर्ति करता है। आप ने देखा होगा कि झुग्गियों वाले जो इस प्रकार से एनरिच किए पानी को वैसे ही पीते हैं, बँगलों में रहने वालों की तुलना में कम बीमार होते हैं। असल में अक्वा गॉर्ड वगैरह के कारण पानी से सारे पोषक तत्त्व निकल जाते हैं.।
                इस तरह के गढ्ढे की एक और खासियत होती है। इसमें शराबी कभी नहीं गिरते। इसमें केवल शरीफ किस्म के कम या बिल्कुल दारू नहीं पीने वाले इंसान या जानवर ही गिरते हैं। दारू पीकर टल्ली हुआ इंसान हमेशा सड़क के किनारे सुरक्षित रूप से उथली नाली में ही गिरता है। यह रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया। बहुत विद्वान लोगों से पूछने पर भी जब इससे पर्दा नहीं उठा तो मैंने एक शराबी से ही इसका राज उस समय पूछा जब वह सुबह सुबह ठर्रे से कुल्ली कर रहा था। उसने सरल शैली में बताया कि जो इंसान दारू नहीं पीता वह जानवर ही होता है. उसकी बुद्धि और चेतना बहुत सीमित होते हैं इसीलिए जानवर और गैरदारूबाज इंसान दोनों इस तरह के गढ्ढे में गिरते हैं। मैं उसका कायल हो गया।
                हम शहरियों को गढ्ढों से बहुत प्रेम है। हम उनके साथ अकोमोडेट कर लेते हैं। अब देखिए सड़क पर एक तरफ खुला सीवर हो, दूसरी तरफ पानी सप्लाई का खुला मैन्होल हो और बीच में गौ माता पगुरा रही हों तो भी हमलोग कितनी कुशलता से गाड़ी निकाल ले जाते हैं - बिना गड्ढों और गौ को क्षति पहुँचाए ! कभी कभी चूकवश हम अपना नुकसान कर लेते है, हॉस्पिटल पहुँच जाते हैं| यह हमारे प्रेम की प्रचण्डता को ही दर्शाता है।   हमारा खयाल करते हुए सरकार ने महकमें बना रखे हैं जैसे नगर निगम, जल संस्थान, दूरसंचार, बिजली विभाग, जाने कितने ! इन महकमों में ऐसे कर्मचारी हैं जो गढ्ढों को उत्पन्न करने और उनका पोषण करने की क्रिया में एक्सपर्ट हैं। उनको देख कर मुझे सरकारी ट्रेनिंग की सार्थकता और इफेक्टिवनेस पर कई बार गर्व हुआ है।
हम को गढ्ढों पर गुमान भी रहता है। जिसके जितने पास गढ्ढा होता है, वह उतना ही सीना फुलाए रहता है – “अरे! हमारे घर के पास तो ऐसा सीवर खुला हुआ है कि हाथी समा जाय। बदबू की तो पूछो मत !” लोग जब आँखें फाड़े तारीफ के साथ देखते हैं तो कितनी खुशी मिलती है !
मैं भी एक ऐसे ही गढ्ढे का पड़ोसी हूँ। जब नया नया आया तो बहुत क़ोफ्त हुई, हरदम मुँह चिढ़ाता था। लेकिन यह सोच कर  कि आप अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते, मैंने उससे प्रेम कर लिया है। बगल से गुजरते लोग जब उस खुले सीवर मैनहोल को हसरत से देखते हैं तो मैं अपनी किस्मत पर बाग बाग हो जाता हूँ।
बुरा हो इस दिवाली का जो श्रीमती जी को चिंता सताने लगी – लक्ष्मी जी घर में प्रवेश करने के पहले ही सीवर में समा जाएँगी। अब मेरा जीना हराम हो गया। मर्दानगी को चुनौती दी जाने लगी। सीने पर पत्थर रख कर मैंने नगर निगम को ई मेल लिखा। फॉलोअप पर जब श्रीमती जी को बताया तो वह आपे से बाहर हो गईं – अरे, सामने रोता आदमी तो इन्हें दिखता नहीं, आप ई मेल की बात करते हैं। अब दौड़ान शुरू हुई। नगर निगम ने बताया कि इसका महकमा जल संस्थान है। लोकल जल संस्थान गया तो बताया गया कि ऐप्लिकेसन की पावती मुख्य ऑफिस में मिलेगी, हाँ काम यहीं से होगा। रिक्शे से मैनहोल का कवर मंगा लीजिए। यह बताने पर कि ढक्कन तो है लेकिन फेंका हुआ है क्यों कि चैम्बर की जुड़ाई पूरी नहीं हुई है, सामने वाले के चेहरे पर नाग़वारी के आसार नजर आए। उन्हों ने कहा कि बात को ठीक से बताइए और पान खाने चल दिए।
               उसी दिन एक गाय उसमें गिर गई। गाय वाले को तो पता ही नहीं चला लेकिन प्रेमी जनता ने गाय को बाहर निकाल पुण्य़ लाभ लिया। मैं भन्नाया, पत्र लिखा जिसमें इस घटना का जिक्र करते हुए बच्चों के गिरने और जान जाने की भी शंका जताई। जल संस्थान ऑफिस फोन किया तो अधिशासी अभियंता महोदय का नम्बर मिला। उन्हों ने तसल्ली से सुना और त्वरित कार्यवाही का आश्वासन दिया।
अगले दिन सरकार द्वारा ट्रेंड एक सज्जन पधारे। बड़े खफा थे, आप ने गाय गिरने और बच्चों के गिरने की आशंका वाली बात क्यों लिखी? इतना किनारे तो है, ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे अपने उपर ग्लानि हो आई। जो प्रेमी न हो और अकोमोडेटिव न हो उसे गिल्टी फील तो करना ही चाहिए। श्रीमती जी को लक्ष्मी मैया के सीवर गढ्ढे में गिरने की चिन्ता है, मुझे बच्चों की चिंता है और जल संस्थान को एक असामाजिक और नॉन अकोमोडेटिव शहरी की मानसिकता बदलने की चिंता है। सभी चितित हैं। आप ने सुना ही होगा – चिंता से चतुराई घटे सो काम कैसे हो? खुला सीवर गढ्ढा जस का तस है। अब देखना है कि लक्ष्मी जी से पहले जल संस्थान के कर्मचारी आते हैं या नहीं? मैंने तो रास्ता सोच लिया है। दिवाली के दिन खुले सीवर के चारो ओर दिया जलाएंगे। लक्ष्मी जी को चेतावनी भी मिल जाएगी और हमारा यह पड़ोसी गढ्ढा भी खुश हो जाएगा । किसी ने आज तक ऐसा प्रेम नहीं दिखाया होगा कि पड़ोसी गढ्ढे को दियों से सजाया हो ! कहिए आप का क्या खयाल है ?
                

दिवाली की पाती- अम्माँ के नाम


. . . अम्माँ, आज जब तुम दिया जलाओगी तो मुझे पता है कि आंसुओं को रोके रखोगी। दो बेटे, बहुएँ, नतिनियाँ और पोते लेकिन बरम बाबा के बगल का गँवारू मकान सूना रहेगा। अकेले पिताजी से इधर उधर की बातें कर अपना और उनका मन बहलाओगी। मुझे पता है अम्माँ कि त्यौहार के दिन रोना अच्छा नहीं होता - तुमसे ही सीखा है। इसीलिए आज तुम आँख नम नहीं करोगी।
 मुझे पता है अम्माँ कि कल दलिद्दर खेदते वक्त तुमने जब सूपा खटकाया होगा तो मन ही मन गाजियाबाद और लखनऊ के घरों से भी दु:ख दलिद्दर खेद दिया होगा। नए जमाने की बहुएँ और बीबियों के गुलाम बेटों को इन रस्मो रिवाजों से क्या मतलब? एक क्षण के लिए तुम्हारे मन में ये बात आई होगी लेकिन झट तुमने खुद को धिक्कारा होगा और धर्मसमधा की दुर्गा माई से लेकर गाँव की हठ्ठी माई तक उन घरों की मंगल कामना के लिए कपूर और जेवनार भाखा होगा। मुझे पता है अम्माँ।
 अम्माँ  दियों को धोने के बाद सुखाते समय तुम सोच रही होगी कि रोशनी के इस त्यौहार में डूबते सूरज सरीखे बूढ़ों का क्या काम ? लेकिन फिर मन मार कर तुम पाँच कच्चे दियों में गंगा, यमुना और जाने कितनों के लिए शुभ के घी दीपक बारोगी।
 मुझे याद है अम्माँ दिए में तेल भरते तुम सिखाती रहती थी जाने कितनी बातें जो तुम्हारे हिसाब से लड़कियों को जानना जरूरी था। तुम्हारी कोई बेटी न थी सो बेटों को ही यह सब सिखा कर संतोष कर लेती थी। तुम्हारे बेटे नालायक निकले अम्माँ क्या करोगी ? उन्हें कुछ याद नहीं रहा।
 अम्माँ, तुम्हारी एक बात याद है कि दिये की लौ पूरब की तरफ होनी चाहिए। मैंने अपनी बीबी को बता दिया है, बच्चे भी जानते हैं – बस उन्हें बताना पड़ता है अम्माँ कि पूरब किधर है !
 अम्माँ, मुझे याद है घर की हर महत्त्वपूर्ण चीज पर दिया रखना – जाँता, ढेंका, चूल्हा, बखार, नाद, खूँटा, घूरा, इनार, नीम .... अम्माँ ! मुझे पता है कि कितनी सहजता से तुमने बदलावों को अपनाया है। जाँता की जगह मिक्सी, चूल्हे की जगह गैस स्टोव, बखार की जगह टिन का ड्रम ....
ढेंका, नाद, खूँटा, इनार ..सब अगल बगल रहते हुए भी खो गए अम्माँ! आज इन्हें कोई नहीं पूछता लेकिन मिक्सी, गैस स्टोव और ड्रम के साथ खो चुके निशानों पर भी आज तुम दिया जरूर बारोगी। अम्माँ मुझे पता है।
 बगल के बरम बाबा का अस्थान टूट चुका है। गढ्ढा हो गया है वहाँ। मुझे पता है कि तुम्हें ‘नरेगा’ नाम नहीं मालूम लेकिन ये पता है कि गाँव में खूब पैसा आ रहा है और लूट खसोट मची है। आज बरम बाबा के अस्थान दिया बारते तुम एक क्षण नासपीटों को कोसोगी कि मुए यहाँ तो मिट्टी पटवा देते, फिर राम राम कहोगी। त्यौहार के दिन बद् दुआ? अरे सभी फलें फूलें! अम्माँ एक बार फिर तुम गाँव के सारे देवी देवताओं को गोहराओगी। मुझे मालूम है अम्माँ।
 काली माई के अस्थान पानी भरा है। नवेलियाँ नहीं जाएँगी वहाँ लेकिन कोसते हुए भी तुम किसी लौण्डे को पकड़ कर वहाँ दिया जरूर रखवाओगी। अम्माँ, मुझे पता है।
 परम्परा से ही हठ्ठी माई का अस्थान पट्टीदार के घर में है। आज वहाँ तुम जब दिया जलाने जाओगी तो वह दिन याद करोगी जब बहुरिया बन उस घर में उतरी थी। तब बंटवारा नहीं हुआ था और सात सात भाइयों वाला आँगन कितना गुलजार रहता था ! अम्माँ तुम याद करोगी कि हठ्ठी माई वाले कोठार में तुम कितनी सफाई रखती थी ! आज उस घर की औरतों के फूहड़पने को कोसोगी, और एकाध को खाने भर को झाड़ दोगी, फिर जुट जाओगी सलाना सफाई में – जल्दी जल्दी।
 दिया बार कर चुप चाप अपने घर जब वापस आओगी तो पिताजी को ओसारे में उदास बैठा पाओगी – मेरा इतना बड़ा परिवार और आज कोई नहीं यहाँ ! पिताजी भावुक हो कहेंगे और तुम समझाओगी कि नये बसे घरों में दिवाली के दिन घर की लक्ष्मी को वहीं रहना होता है नहीं तो दिवाला पिट जाता है। दशहरे में ही तो आए थे सभी!  और फिर बच्चों की पढ़ाई, आने जाने का खर्च, छुट्टी . . . जाने कितनी बातें तुम ऐसे बताओगी जैसे उन्हें मालूम ही नहीं ! मुझे पता है अम्माँ !
और फिर घर के भीतर चली जाओगी क्यों कि तुम्हारी सिखावन को भुला कर आँसू ढलक आए होंगे और तुम्हें उन्हें एकांत में पोंछना होगा !
 अम्माँ! मुझे पता है कि घर से बाहर तुम पूजा का प्रसाद और दिया वाली थाली लेकर ही निकलोगी। पूरे दुआर पर पिताजी से जगह जगह दिये रखवाओगी। उन्हें काम में उलझाए रखोगी। दिल के मरीज का बहुत खयाल रखना पड़ता है। अम्माँ, मुझे पता है।
 सबके घर परदेसी बेटे बहुएँ कमा कर आए होंगे। गाँव गुलजार होगा और तुम्हारा घर उदास होगा। अम्माँ कहीं मन के किसी कोने में तुम सोचोगी कि बच्चे अब दशहरे में गाँव क्यों नहीं आते? तुम्हें समझ भले न आए अम्माँ लेकिन इस पाती में मैं समझाता हूँ।
अम्माँ अब गाँव बदल गया है। बताओ अम्माँ अष्टमी के दिन अब कीर्तन क्यों नहीं होता? होली के दिन लोग फगुआ क्यों नहीं गाते ? लोगों में अब प्रेम नहीं रहा सो दशहरे का मिलना जुलना बस दिखावा और लीक पीटना रह गया है। दिवाली में आना तो बस बहाना है अम्माँ, उन्हें अपना नया कमाया धन चमकाना है, लुटाना है और फिर चले जाना है एक साल के लिए ...
अम्माँ ! तुम्हारे राम लक्ष्मी मइया से हार गए। अब दशहरे के दिन जवान गाँव नहीं आएँगे। . . . .
   

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

पहेली - दु:ख को भगाने के लिए चैट ...


रात बेचैनी थी। कुछ था जो मन से जा नहीं रहा था। मन कह रहा था बेकार टेंसन ले रहे हो। दु:ख को भगाने के लिए ब्लॉगर वरिष्ठों को पकड़ कर चैट शुरू की। मौज आया सो यहाँ चिपका रहा हूँ। आप लोग अनुमान लगाइए कि ये महारथी कौन लोग हो सकते हैं। एक के साथ की गई चैट तो चिपका भी नहीं रहा। आप लोग लिंक वगैरा ढूढ़ ढाढ़ कर उनका भी नाम पता लगाइए। 
कुल पाँच ब्लॉगरों का पता लगाना है। विजेताओं के पुरस्कार नीचे बताए गए हैं। ...न न  नहीं! अभी मत जाइए। पहले पढ़ तो लीजिए।
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(1)         me:नमस्कार, सोने का समय हो गया।
दीवाली सफाई कर रहा हूँ
 'क':  to so jaayiye
 Sent at 10:27 PM on Tuesday
 me:  ई कुवन बात हुई। किसी से दुखड़ा रोवो तो पब्लिक उसी में अउर ढकेलती है।
 'क':  dukhda tha yah?
 me:  अउर क्या? न देख पा रहे और न लिख पा रहे।
 'क':  oh ! main kya kar saktaa hoon?
 Sent at 10:30 PM on Tuesday
 me:  कुछ नहीं बस सुन लीजिए, हमें सिखाया जाता है कि सुनना बड़ी बात है। मतलब बड़ा गुन है।  एकेदमी में रचना भेज दीजिए। रचना से याद आया - रचना जी की रचना आ रही है कि नहीं?
 'क':  apne gurubhai se poonchhiye mujhe nahee pata ...
कॉपी करते गलती से लिंक कट गई। महोदय ऑफलाइन हो चुके थे, सो अधूरा ही रह गया।
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(2) 'ख'      dekha apna comment
khoob kahi likhiye paisa milega
Sent at 10:56 PM on Tuesday
 me:  किसका?  कहाँ। ऊ तो कोई गिरजेश था, मैं नहीं। ही ही ही... गिरजेश बौत हैं, गिरिजेश वह भी राव नखलौ में एक ही है। Sent at 10:57 PM on Tuesday
'ख'      maaf kijiyega lagata to nahi kabhi kabhi aap thodi lete honge he he he
Sent at 10:58 PM on Tuesday    
me:  भाई जी, गिरजेश, गृजेश, ग्रिजेश वगैरह निरर्थक नाम हैं। माबदौलत संस्कृत की कृपा से निरर्थक नहीं - इसीलिए गिरिजेश है। - गिरिजा+ईश।
Sent at 11:01 PM on Tuesday
 me:  सब चुप खामोश हैं। मन की बकवास ससुरी बौत प्रबल है। ...ले लोटा
Sent at 11:02 PM on Tuesday
'ख"     achch ab samjha ee gir kya hamare sathi se . ,aine bhi dyan nahi diya deshaj me to chlta hai . maine sathi ko tight kar diya hai ki party naraz ho gai tumhari bewkufi se :)
Sent at 11:04 PM on Tuesday
 me:  एक ठो कवितानुमा टिप्पणी पोस्ट लिखे हैं, देख लीजिए:http://kavita-vihangam.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html
'ख': ok
Sent at 11:06 PM on Tuesday
'ख'     kavita raat me dekhenge khoob kahi likhiye aap me jhas hai
 me:  रात? ई का दिन के बेरा है?
Sent at 11:11 PM on Tuesday
'ख'      arre office me blog nahin khulta. raat matlab office ke baad
Sent at 11:13 PM on Tuesday
 me:  रात की ये परिभाषा अगर कालिदास या भारवी की आत्माएँ सुन लें तो जागरण चौराहे पर अवतरित हो जाँय। ...बहुत ही अकाव्यमय पुरुख हैं आप ! इसीलिए लिफ्ट नहीं मिली।
Sent at 11:14 PM on Tuesday
'ख'     naukari jo na karaye .koi doosari dila dijiye . :0 kavita likhne lagoonga
Sent at 11:16 PM on Tuesday
me:  अब तो अदनान सामी आप को लिफ्ट कराएँगे। वहीं कालिदास की किसी अप्सरा को चुन लीजिएगा। मैं सोच रहा हूँ कि चैट को भी ब्लॉग पोस्ट बना दिया जाए। आप की सहमति है?
Sent at 11:17 PM on Tuesday
'ख'      jo man me aye kariye
 me:  आपो नाराज हो गए। आज रात 3 को नाराज कर चुका हूँ।
Sent at 11:20 PM on Tuesday
'ख'      aap bhi lagata hai hostel me nahi rahe guddu samaj rakha hai kya jo lanth ki baat ko seriously lene laga. so jaiye nahi to raat me bhoot dikhenge
Sent at 11:22 PM on Tuesday
me:  पेंचकस से लैप टॉप खोल उसे विकलांग बना चुका हूँ। अब सोच रिया हूँ कि कल IBM वाले को क्या फंडा दूँ? हाई फाई कि वह नाच जाए।
Sent at 11:24 PM on Tuesday
'ख'      ha ha aap bhi hamre yaha ke computer msitri jaise hi hain:)
Sent at 11:25 PM on Tuesday
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(3)     me:  एक ठो कवितानुमा टिप्पणी पोस्ट लिखे हैं, देख लीजिए:http://kavita-vihangam.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html  इसे कहते हैं आ बैल मुझे मार। एक नहीं दो दो ..खूँखार बाउ के बैलों जैसे? न उनमें एक तो सीधा था।
'ग'      जी जरूर अभी देखता हूं
Sent at 11:32 PM on Tuesday
'ग      क्या आपके यहां ब्लोगवाणी खुल रहा है
Sent at 11:34 PM on Tuesday
me:  नहीं। अमाँ इत्ती रात गए वो लोग अपनी अपनी वाणी के साथ होंगे। दुकान पर ताला लगा होगा। आप भी न !
'ग'     हा....हा...हा..ये बात है क
Sent at 11:36 PM on Tuesday
'ग' : चर्चा देखिये
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Sent at 11:59 PM on Tuesday
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(4) 'घ': ________'s new status message - Overqualified? [इसीलिए कहा गया है बाली उमर में बड़े काम नहीं करने चाहिए :)]http://news.efinancialcareers.co.uk/newsandviews_item/newsItemId-21777?efc_eu=2949&om_rid=DTyRz0&om_mid=_BK1JFwB7biBog$&   10:23 PM
me:  छ: महीने रात में भैस की दही से भात खाया करो। सब ठीक हो जाएगा। पुरनियों का आजमाया नुस्खा है।
'घ'     :)
Sent at 10:25 PM on Tuesday
me:  गरम पकौड़ी, खजोहरा - निराला की कविताएँ, पढ़े हैं?
Sent at 11:16 PM on Tuesday
'घ'      Nahin !
me:  पढ़ लीजिएगा। सौन्दर्य का अनर्थ शास्त्र है। शुभ रात्रि
'घ'      ji bilkul
shubh ratri
Sent at 12:11 AM on Wednesday
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(5)  'ङ' : ङ  के साथ पूर्वानुमति लेकर मात्र पांच लाइनें बात हुई, हालाँकि अनुमति 4 की ही थी। उनके बारे में संकेत उपर के लिंक और वहाँ की टिप्पणियों में हैं। अब आप लोग क, ख, ग,घ, ङ की पहचान कीजिए।
पुरस्कार: प्रथम 3 विजेताओं को 'आलसी' के साथ चैट का मौका मिलेगा -पूरी रात। पाँच प्रश्नों में से कोई चार  के उत्तर देने अनिवार्य हैं .....
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भाग गिरिजेश  . . . .   पब्लिक पीटने आ रही है।....