... ब्लॉगर संगोष्ठी में जाने के तमाम कारणों में एक था अपने प्रिय ब्लॉगरों से मिलना।
भारी भरकम बड़के भैया आइ मीन अरविन्द मिश्र - गम्भीरता और हँसोड़पन का यिंग यांग टाइप संतुलन। ऑंखों में नाचती बच्चों सी शरारत। बच्चों को शायद मच्छर अधिक सताते हैं। जिस मनोयोग से प्रस्तुतियों को नोट करते रहे उससे मैं हैरान था।
अरुण प्रकाश - ग़जब का हास्य बोध! मैं तो दंग रह गया। पोस्ट लिखने में सुस्त हैं लेकिन इनके ब्लॉग पर जो मिलता है वह शायद ही कहीं मिले।
हिमांशु - रसिक कवि ऐसा ही होना चाहिए। हेमंत को मिलाने के बाद हम पाँच जितनी हा हा ही ही किए - शायद ही किसी ग्रुप (गुट नहीं) ने किया हो! भैया को मच्छर और जाली वगैरह तो याद रहे लेकिन सुबह कपड़ों पर लगे रक्त धब्बों के बहाने जो हंसी ठठ्ठा हुआ, भूल गए। अरे काहे इतना. . ?
अजित वडनेरकर से मिलना एक सपना पूरा होने जैसा था। एक अनूठा शब्द साधक जो मेरे मन द्वारा बनाई आभासी इमेज से एकदम अलग निकला - अपने बीच का - बिना सींग पूँछ का आदमी, सुना है मिर्ची और नीबू का शौकीन पाया गया। अपन से अधिक घुलान नहीं किए लेकिन हमारी तो एक साध पूरी ही हो गई।
ज्ञान चचा ;) ने जब गले लगाया तो आत्मीयता ही साक्षात थी।
कृष्ण मोहन मिश्र - व्यंग्य का मास्टर ब्लॉगर- एकदम उलट ! इतना सौम्य और गम्भीर! मेरी इतनी तारीफ कर दी कि मैं मारे डर के दूसरे दिन उनसे भागता फिरा।
साथ गए थे ज़ाकिर अली 'रजनीश', ओम और मीनू खरे। ज़ाकिर भाई ऊर्जा से लवरेज ग़जब के जवान - जाने कितने सपने सँजोए हुए। भैंसासुर मर्दन के आह्लाद से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। मीनू जी ने जब _तियापा बार बार कहने पर हड़काया तो संभल गए - जरूरी था। ऐसे ऊर्जावान आदमी को बगल की खुदकी का पता ही नहीं चलता। ओम यात्रा भर बीच बीच में आइ टी ज्ञान देते रहे, ये बात अलग है कि मोबाइल पर नागरी दिखे - ऐसा जावा स्क्रिप्ट देने का वादा कर भूल गए (मैं ही कौन फॉलोअप किया?)
प्राइमरी के मास्टर प्रवीण त्रिवेदी से मिलना वैसा ही रहा जैसा वडनेरकर के साथ। एक कामना पूरी हुई। वह गम्भीर बने रहे और वाचाल लंठ को कोई खास भाव नहीं दिए। हमको अपने आचार्य जी याद आ गए। सो बाद में हम सहमे ही बैठे रहे, जाने कब मास्साब कान उमेठना शुरू कर दें (वैसे ऐसा कुछ नहीं हुआ।)
अनूप शुक्ल और रवि रतलामी
फ्रंट पर डटे हुए सिपाही।
धड़ाधड़ रपट। बड़े रपटी हैं !
वह लोग भी मिले जिनसे मिलने की तमन्ना नहीं थी लेकिन जब मिल गए तो बस हम फैन हो गए - अभिषेक त्रिपाठी, प्रियंकर, . .
वे जिनसे बात तक नहीं हुई लेकिन उनकी बातों ने मन को बेंत सा पीट दिया - देख इसे कहते हैं मेधा! अब तो अकड़ना छोड़ दे - मसिजीवी, विनीत, भूपेन, हर्षवर्धन, अफलातून।
अभय तिवारी . . . - अबे, वह तो आए ही नहीं थे! पता है।... हमरे ऊ पी के वासी सरपत काटने की मेहनत में बेराम हो गए थे सो खुद न आकर फिलिम ही भेज दिए। सौन्दर्य और अनुपात के भक्त हैं - उनके फिल्मी कैमरे से यह एक नई बात पता चली। बाकी ब्लॉगरी की भाषा पर एक नई राह की सम्भावना दिखी। क्या कहा?. . . देखो, हम जुमला उछाल दिए हैं, बाकी उनसे पूछ लो। फिलम बढ़िया लगी सो कह दिया। वैसे देहातन शुरू में सहज नहीं दिखी..
... करीब आधे उपस्थित ब्लॉगरों को समेट दिया है। भूल चूक लेनी देनी। जो छूट गए वे या तो ऐसे ही छूट गए होंगे या उन्हें हम घूरते ही रह गए या खौफ खाते रहे। एक सज्जन तो घोषित कर ही चुके हैं कि वे बेनामी गए थे। बता दिए रहते तो तिरछे अक्षरों में लिखी जाती टिप्पणियों के रहस्यों से भी परदा उठ जाता. .
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... अस्सी साल के कलमघुसेडू द्वारा हिन्दी चिट्ठाकारी की अस्मिता के साथ बलात्कार, मंच खरीदे जाने, ब्लॉगरों के बिक जाने, हिन्दुत्त्व वाले ब्लॉगरों की उपेक्षा करने (किराना घराना शिकायतहीन है), एक वृद्ध का पिछवाड़ा धो उसके जल से आचमन करने .. और जाने कैसी कैसी बातें कही जा रही हैं। इस संगोष्ठी की यह एक उपलब्धि ही रही जो इसने ब्लॉगरों की अद्भुत कल्पनाशीलता, दूरदृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, अन्धदृष्टि, मूकदृष्टि, हूकदृष्टि, चूकदृष्टि, कदृष्टि, खदृष्टि....ज्ञदृष्टि...अल्ल, बल्ल... हाँ हाँ हाँ ... से परिचय करा दिया। अब तो ब्लॉगरों की जुटान करने की सोच को भी पहले दस बार (कम कहा क्या?) सोचना होगा। अच्छा ही है पता चल गया कि रस्ते में और रस्ते के किनारे पट्टी (वहीं जहाँ लोग निपटते हैं !) पर माइनें कहाँ कहाँ बिछी हो सकती है !यह भी पता चल गया कि ये माइनें फुस्स पटाखा हैं, डरने की कौनो जरूरत नाहीं।
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सुना जा रहा है कि बस चुनिन्दा ब्लॉगरों को बुलाया गया था। तो का सबको नेवत देते? अबे तुम लोग हजार तो हो ही! तीस चालिस आए तो यह हाल है अधिक आ जाते तो गंगा यमुना भी प्रयाग छोड़ भाग लेतीं। ग़िरेबान में झाँको भइए और बहिनी माई सब। इतना टंटा इसलिए कर पा रहे हो कि सैकड़ा हजार में हो। लाख में होते तो क्या ...? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम लोगों की ही वजह से हजार लाख नहीं हो पा रहा?
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...गोबर पट्टी के अलावा इनको भी नेवता गया था – शास्त्री जी (कोच्चि), दिनेश राय द्विवेदी (कोटा), शिव कुमार मिश्र (कलकता), रंजू भाटिया-व्यक्तिगत नेवता (झारखण्ड, दिल्ली), प्रमोद सिंह, अभय तिवारी (मुम्बई), मनीषा, अजित वडनेरकर (भोपाल), संजय बेंगाणी (अहमदाबाद) आदि आदि – कुछ आए और बहुतेरे नहीं आए। क्यों नहीं आए? व्यक्तिगत कारण, कम समय, मानदेय नहीं, यात्रा के क्लास का खुलासा नहीं.... लम्बी लिस्ट है। कुछ सच्ची कुछ झूठी। कौन क्या है क्या पता? लेकिन आयोजकों का इसमें क्या दोष? ... जाने भी दो यारों ! पाखंड की भी एक हद होती है। सही सही कहो न !
... महिला ब्लॉगर तीन ही आ पाई थीं । व्यक्तिगत अनुरोध भी किए गए लेकिन वही गृहिणी की व्यावहारिक सीमाएँ ! पुरुष प्रधान समाज ने न्यौतने का पाखण्ड तो दिखाया लेकिन घरनी को घर से मुक्त नहीं कर पाया। बड़ी नाइंसाफी है। नारी मुक्ति के झण्डा बरदारों !एक महिला ब्लॉगर सम्मेलन कर दिखाओ। मार तमाचे पुरुषवादी नारी शोषकों पर !...
... नमूना बद-इंतजामी। चार जगहों पर प्रवास की व्यवस्था। सरकारी गेस्ट हाउस, एल आइ सी गेस्ट हाउस, विश्राम होटल और प्रयाग विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस। अनाहूत ब्लॉगर भी (हाँ गए थे) ठहरा दिए गए। कमरे खाली भी रह गए। खाना आदमी के खाने लायक था - ब्लॉगर के नहीं (एक अलग जीव होता है शायद)।
सबने मौज ली मुझे तो कोई दु:खी नहीं दिखा। ...धन्यवाद हिन्दी एकेडमी, धन्यवाद अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, धन्यवाद नामवर, धन्यवाद ब्लॉगर जानवर, धन्यवाद ज्ञान, धन्यवाद विज्ञान, धन्यवाद फलाने, धन्यवाद ढेमाके... हम तो धनाधन धन्न हैं। .....
... गरिया रहे हो सरकारी टैक्स पेयर के पैसे फिजूल में उड़ाए गए। इस देश में और कहाँ कहाँ ऐसे कुकर्म होते हैं? जरा बताइए तो! नहीं होते न !बस ब्लॉगरी ही भ्रष्ट है।... क्या कहा? ऐसी बात नहीं लेकिन ब्लॉगरी को इन दोषों से बचना/बचाना चाहिए। अच्छा, पवित्र गैया की बड़ी चिंता है आप को ! बड़ा आत्मविश्वास है अपने उपर! जमाने को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखेंगे! दुर्भाग्य(या सौभाग्य) से बहुत लोग ऐसे नहीं हैं। भ्रष्ट हैं न ! सुविधाजीवी प्रलापी। ...
... आप क्यों नहीं आए इसे गम्भीर दिशा देने? नेवता अगोर रहे थे - हजाम से भिजवाना था शायद। अव्वल तो कुछ करोगे नहीं और कोई करेगा तो दूर से नंगे होकर ढेला फेंकोगे। कर के दिखाओ न ! पता चलेगा कि मास्टर, वैज्ञानिक, अधिकारी, विद्यार्थी, मीडियाकर्मी, पत्रकार, प्रोफेसर, बेकार, प्रबन्धक और जाने क्या क्या टाइप के लोगों की जमात कैसे इकठ्ठी करनी होती है! इकठ्ठी हो भी जाय तो संभाला कैसे जाता है।...
.. हम तो कहेंगे फले फूले अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और हिन्दी एकेडमी जो ऐसी हिम्मत की। बस हिम्मत ही की नजर नहीं दी। छोटी छोटी बातें ऐसी विविध जुटान में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं – क्यों नहीं समझ पाए? बारात स्वागत में भारतीय सजगता ही याद रखते! थोड़ा और प्रोफेसनलिज्म दिखाते जैसा कि यात्रा व्यय का रिफंड करने की त्वरित कार्यवाही में दिखाए! सोने में सुहागा हो जाता. . .परफेक्सनिस्ट टाइप बड़के भैया तो खुश हो जाते (रास्ते में मीनू जी ने बताया था कि कैसे साइंस ब्लॉगर्स की बनारस मीट में उन्हों ने छोटी छोटी बातों तक का ख्याल रखा था और कितनी सफाई से समय का प्रबन्धन हुआ था।) भैया, आप का गुस्सा जायज ही सही अब थूक दीजिए।...
.... सिद्धर्थवा तो बड़ा अवसरवादी है किताब भी छपवाया और नामवर से विमोचन भी कराया। आप को कहाँ कष्ट है? कोषाध्यक्ष हो कर पद का दुरुपयोग किया। आप नहीं करते क्या? क्यों नहीं करते? आदर्श महिला/पुरुष हैं आप। पढ़ा है आप ने उसके ब्लॉग को? छपने लायक नहीं लगा क्या? अपना संकलन कभी कहीं भेजे क्या छपने को? नहीं। क्यों? आप को छपास नहीं है। दूसरों को भी नहीं होनी चाहिए क्यों कि आप को नहीं है - यह ब्लॉगरी की लोकतांत्रिक सोच है।...
आप से भी तो लेख माँगे गए थे – दूसरे संकलन के लिए। क्यों नहीं भेजे? भेजे भी तो इतनी हुज्जत के बाद – क्यों? अच्छा वह अपनी कुकरनी पर परदा डालने के लिए ऐसा कर रहा है और आप पर्दा प्रथा के खिलाफ हैं ! ... कब तक अपने अन्ध मानदण्डों से सबको नाप कर जात बाहर करते रहेंगे? ... देखिए एक दिन आप अकेले बचेंगे और खुद जाति बाहर हो जाएंगे। नहीं, आप बचेंगे ही नहीं क्यों कि आप को चाहे जो भ्रम हो यह समय बड़ा छिनार है, हरजाई है – किसी का नहीं हुआ और बहुत कम हुए जो इसके प्रवाह को मोड़ या तोड़ पाए। लेकिन वह लोग हरगिज आप जैसे न थे. . .
... मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना! एकेडमी, विश्वविद्यालय और सिद्धर्थवा का चमचा हूँ। बड़ा फायदा मिलता है मुझे इनसे। सुना है कि ब्लॉग रत्न के लिए हमरा नाम प्रस्तावित किया है। प्राइवेट बात है – किसी को बताइएगा मत ! ....
... टुटपुँजिया हूँ जो लखनऊ से प्रयाग अपने खर्च पर नहीं जा सकता था और ठहर नहीं सकता था। चार पैसों के लिए जमीर बेंच दिया मैंने! हिन्दी के लिक्खाड़ों का तमाशा देखने के लिए अपने को बेंच दिया मैंने! हिन्दी के शलाकापुरुषों के हृदयपरिवर्तन या मजबूर स्वीकार को देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! साहित्य की गन्दगी का ब्लॉगरी गंगा यमुना से संगम देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! ब्लॉगरी को ही दलाल हिन्दी साहित्यकारों के हाथ बेंच दिया मैने! इतने गुनाह एक साथ !. . कुंठासुर नहीं मैं शक्तिशाली गुनाहासुर हूँ। हा ! हा!! हा!!! ...
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किसी ब्लॉगर ने संगोष्ठी में कहा था कि वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी हिन्दी वालों से आजाद होगी। उसकी बागडोर गैर हिन्दियों और सारे संसार के हाथ होगी। मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की।
आओ बालसुब्रमण्यमों! आओ शास्त्री फिलिपों !! गोबर पट्टी से एक अदना आह्वान कर रहा है।
अंग्रेजी के e का कमाल तो देख लिया – धड़ाधड़ लाइव सी रिपोर्टिंग में लेकिन हिन्दी की छोटी ‘इ’ का कमाल देखना बाकी है। उस मात्रा का कमाल देखना बाकी है जिसने e कोड वालों को बहुत दु:ख दिए, इतनी विनम्र कि पहले लगती है, फिर उच्चरित होती है- मतलब कि काम पहले बात बाद में। ...
.... हाँ इलाहाबाद से ‘इ’ गायब थी।