रविवार, 31 जनवरी 2010

गिरिजेश रिपोर्टिंग - मछली बाजार से ...

मछलियाँ - सम्भवत: एकमात्र जीव जिनके सान्निध्य में समूचे विश्व में मानव समाज की एक जाति ही बन गई - मछुआरे। दूर देश की यात्राओं में नदियों की भूमिका ने मछुआरों मल्लाहों को गरिमा दी। विश्व सभ्यता, इतिहास और साहित्य के विकास में मछलियों और मछुआरों का बड़ा योगदान रहा है। IMG222-01
आज के दौर में भी करीब रोज ही मन में आ ये पंक्तियाँ उसे जाने कैसा कर जाती हैं:
"एक बार फिर जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो !"
और फिर बर्मन दा का "ओ रे माझी... मेरे साजन हैं उस पार ..”
... भारतीय सन्दर्भ देखें तो वर्ण और  जाति व्यवस्था पर बड़ी रोचक बातें नज़र आती हैं। मत्स्यगन्धा धीवर कन्या के साथ नाव में पराशर का संयोग और जन्म कृष्ण काया, द्वीप के निवासी द्वैपायन का जो व्यास बना। ऋचाओं को संहिताबद्ध किया, अथर्वण परम्परा को त्रयी परम्परा में स्थान दिलाया और रच गया वह महाकाव्य जैसा फिर नहीं रचा जा सका - महाभारत।
... ब्राह्मण पिता और मछुआरिन माता के संयोग का सुफल द्वैपायन कुरुओं और भरतों की गर्वीली क्षत्रिय परम्परा के लिए नियोग द्वारा संतति देता है - पांडु और धृतराष्ट्र। अपने समय का सर्वश्रेष्ठ ऋषि बनता है - मछुआरिन का बेटा।  
कहाँ हो जाति और वर्ण शुद्धता के धुरन्धरों !
.. आज कृषि की वैश्य परम्परा अपनाए ब्राह्मण, क्षत्रिय, भूमिहार ... सब एक जाति हो गए हैं - खेतिहर।
मिल गए हैं कोइरी, कुर्मी, आभीर परम्परा से - बन गए हैं किसान।
एक दु:ख दर्द, एक खुशी, कमोबेश एक सा जीवन .. लेकिन 
3,13 की माला जपते हैं पंडित मार्तण्ड शुक्ल 'शास्त्री' ; सूर्य और चन्द्र से नाता जोड़ते हैं ठाकुर जनार्दन सिंह; कृष्ण भगवान के डी एन ए खोजते रहते हैं कन्हैया सिंह यादव और वृषल चन्द्रगुप्त की जन्मपत्री लिए घूमते हैं ज्वाला प्रताप मौर्य...
धन्य भारत भू ! जय हो !!

... बंगाली लोग कहते हैं मछली खाने से दिमाग तेज होता है। उपर की बातें बड़के भैया के निमंत्रण पर उत्तर प्रदेश मीन महोत्सव में खाई गई मछली से उपजी दिमागी तेजी से आई हैं। हमार कउनो कसूर नाहीं । ... हम तो बंगाली दादाओं की बात के कायल हो गए हैं लेकिन दाल में सुम्हा मछली पका कर तो नहिंए खा पाएँगे। 
कल डा. अरविन्द मिश्र जी के निमंत्रण पर मोतीमहल लॉन, लखनऊ में आयोजित मीन महोत्सव में मैं सपरिवार गया था। भव्यता, विविधता और व्यवसायिकता देख कर हम लोग दंग रह गए। माया मैम की लाठी का असर हो या साल में एक बार ही सही, जग जाने की परम्परा का पालन हो, लग गया कि राज्य सरकार के अधिकारियों में दम है। ये बात और है कि वहाँ से लौटने के बाद घटित दुर्घटना ने उन्हें गरियाने का मौका दे ही दिया और एक बार फिर मैं अपने पूर्वग्रह के किले में बन्द हो गया – ये सब बस वैसे ही हैं। 
- वैसे दम कुछ ही लोग लगाते हैं और बाकी ?
- बस 'जोर लगा के हंइसो हंइसो' कहते रहते हैं जब कि असल में अपने दम को स्वयं और आका के दमदमी टकसाल में सिक्के जमा करने के लिए बचा रखते हैं।
पूर्वांश की अनुभूति बड़के भैया को मंच संचालन करते देख कर हुई। उत्तरांश की अनुभूति उस समय हुई जब हम फिश फ्राई और कबाब भकोस रहे थे। (दाईं ओर के चित्र को देखिए, भैया भी खड़े हैं। न, न... शाकाहारी हैं - कुछ ऐसा वैसा न सोच लीजिएगा। मंच छोड़ कर बीच बीच में यह देखने आ रहे थे कि हम लोग ठीक से काँटा निकाल कर खा रहे हैं कि नहीं ? :)    
एक सज्जन टाई धारी ऑफिसर खुलेआम किसी ठीके की बावत दो लाख रुपयों की माँग एहसान जताते कर रहे थे।
मोबाइल पर दूसरी तरफ से क्या कहा जा रहा था, यह तो नहीं पता लेकिन जब उन्हों ने किसी मंत्री जी की बात कर आवाज धीमी की और पेंड़ के नीचे चले गए तो हलाल होते जाने कितनी जानों का खयाल कर मैं बाल्मीकि हो गया और उतर आया उत्तर अंश अनुष्टप।
.. तो आयोजन भव्य था। तरह तरह के स्टाल और शामियाने लगे थे। कृत्रिम लघु झरने, भाँति भाँति के अक़्वेरियम, मछलियों और झिंगों के संरक्षित शरीर, ग्लास, स्फटिक के बने हुए मत्स्य मॉडल, फिश फार्मिंग की जानकारी देते सरकारी और प्राइवेट स्टाल, मछली पालन के विविध आयामों की जानकारी देती हुई संगोष्ठी जिसमें इतर राज्यों से आए वैज्ञानिक भी थे और लखनऊ के आस पास से आए तमाम किसान, मछुआरे भी...पंडालों और तम्बुओं की भव्यता वी आइ पी विवाह सी छटा बिखेर रही थी।
दूर बैठे लोगों को वैज्ञानिकों द्वारा बताई जा रही काम की बातें दिखाई सुनाई दें, इसके लिए दो बड़े आकार के एल सी डी मॉनिटर तक लगे हुए थे मय ध्वनि विस्तारण यंत्र। राज्य सरकार की तरफ से लोगों को फिश फ्राई, फिश कबाब और अस्थिविहीन मत्स्य व्यंजनों का सुस्वादन कराने के लिए स्टाल भी लगा था जिसमें ताजा माल बनते हुए, देखते हुए आप रसास्वादन कर सकते थे।
ब्लड प्रेशर नापने और मधुमेह की घरेलू मॉनिटरिंग के लिए इलेक्ट्रॉनिक यन्त्र बेंचती फर्म थी तो यूरोपियन स्टाइल की बंशी का प्रदर्शन करते गँवई उद्यमी भी थे। ओझवा को बताना है कि हमरे उसके ऊ पी में यह सब मिलता है। हैट लगा कर केवल फोटो न खिंचवाए बल्कि बलिया की गंगा किनारे बैठ थोड़ी मछली भी मार लिया करे। बहुत हुईं ये गणित और इंवेस्टमेंट बैंकिंग की बातें !

.. खेतिहर लोग अब मछुआरे बन रहे हैं। एक और खामोश क्रांति ? बाभन, ठाकुर, अहिर, चमार ...में मछुआपन भी जुड़ रहा है। .. मूँछ पर ताव देते ठाकुर साहब 5 किलो का रोहू उपजाए हैं। .. सामाजिक तनुता के बढ़ने की प्रक्रिया बहौत धीमी होती है।
IMG227-01
IMG226-01बड़ी बड़ी गोभियों को देख तो हम बौरा गए
मूली का साइज देख भन्ना भी गए !
हरे देसी टमाटर और आलुका के क्या कहने !





 


बड़के भैया के साथ हम सपरिवार - प्रदर्शनी पंडाल में।
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अब आप जरा नीचे के इन फोटुओं को भी देख लें।


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(3) IMG221-01
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(5) IMG228-01
(1) मेरे सुपुत्र महोत्सव स्थल पर
(2) प्रदर्शनी में दिखाया गया दीवार पर लगाया जा सकने वाला एक झरना
(3) इस जाल को आप ने चँवर खेतों में लगा देखा होगा!
(4) झींगे ही झींगे
(5) बाप रे ! इतनी बड़ी मछली !
कठपुतली नृत्य का भी आयोजन था लेकिन उसे छोड़ हम लोग वापस आ गए। कुछ अतिथि आने वाले थे। सम्भवत: किसी ईश्वर ने मेरे लिए यह देखना तय कर रखा था कि गड्ढे में भैंस कैसे गिरती है और तब आपदा से निपटने को मज़दूरों की तरफ से कैसे नेतृत्व सामने आता है !  
IMG230-01मीन महोत्सव में प्रदर्शित बहुत सी वस्तुएँ हम गरीबों की जेब से बाहर थीं लेकिन एक छोटा फिश पॉट और चार छोटी गोल्ड फिश हमलोग खरीद लाए। कोई आवश्यक नहीं कि बड़ी खुशियों के लिए बड़े और महँगे आधार ही हों ...छोटी छोटी खुशियों को सहेजती ज़िन्दगी गुनगुनी हो जाती है - आज की खिली धूप की तरह। IMG234-01
मछलियों को अक़्वेरियम के पानी से एकदम घर के पानी में नहीं डाला जाता। तापमान के अंतर से मिनटों में वे मर जाती हैं। विधि यह है कि घर का पानी फिश पॉट में भर कर मछलियों  को मय पुराने पानी और पॉलीथीन पॉट में रख दें। दो घंटों में धीरे धीरे जब दोनों ओर का तापमान समान हो जाता है तो मछलियाँ भी अनुकूल हो जाती हैं। फिर पॉलीथीन को निकाल कर उन्हें फिश पॉट में डाल दीजिए। देखिए कैसे तैर रही हैं !
 हाँ, हम फिश फ्राई खाते हैं और मछली पालते भी हैं - घर के सदस्य की तरह। दोनों में अंतर है।
.. सोच रहा हूँ कि मन के भावुक अक़्वेरियम से अपने को निकाल कर इस दुनिया की धार में छोड़ दूँ तो तापमान के अंतर से कहीं मेरा वह सब कुछ मर तो नहीं जाएगा जिसकी बदौलत मैं इतना खुश रहता हूँ ?

शनिवार, 30 जनवरी 2010

... गई भैंस गड्ढे में

नगरपालिका, जल संस्थान वगैरह के गड्ढों को मैं इस देश की छाती के नासूर मानता हूँ। ये गड्ढे भारत के प्रशासन को चलाते लोगों की सम्वेदनहीनता के मवाद सँजोते हैं और गन्धाते रहते हैं। ये गड्ढे आम नागरिक की सहिष्णुता और कष्टसह्य प्रकृति को उजागर करते हैं। हमारे उन्नत राष्ट्र होने की गाड़ी इन्हीं में फँसी पड़ी है।
ये हैं इसलिए हैं - बँगलों में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते कृष्ण कन्हैया; भयानक ठंड में पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते मजदूर; राशन की लाइन में खाँसते बुजुर्ग; खेलने पढ़ने की उमर में घरों में काम करती लड़कियाँ;  चन्द रुपयो की नौकरी में शोषित होते हमारे जवान; आत्महत्या करते किसान ..... भारत की यह जैव विविधता इन गड्ढों की बदौलत अक्षुण्ण है।
वेतन की स्केल से कैसे भी न नापी जा सकने वाली समृद्धि की ऊँचाई इन गड्ढों की गहराई से अपनी उठान लेती है।
गड्ढे बताते हैं कि हम कितने भ्रष्ट हैं।
मेरा पड़ोसी गड्ढा मेरे तमाम प्रयासों जैसे नेट शिकायत, पत्र, रजिस्टर्ड पत्र, टेलीफोन, फॉलोअप के बावजूद पिछले आठ महीनों से वैसे ही है। इस देश में अगर व्यक्ति जागरूक है तो या तो वह आत्महत्या कर लेगा या हत्या कर देगा । और कोई रास्ता भी नहीं है। मैं इस कथन द्वारा अपनी जागरूकता को लगाम लगाता रहता हूँ। ... All is well, All is well … लेकिन आज मेरी आशंका सचाई में बदल गई। उस बिना चैम्बर के खुले सीवर मैन होल में एक भैंस गिर गई। जिन मजदूरों को हम जागरूक लोग रस्टिक कहते हैं, उन लोगों ने बिना किसी अपील के स्वत: आ कर प्रयास कर भैंस को बाहर निकाला। नीचे चित्रों में देखिए । ऐसा उन लोगों ने इसलिए किया कि वे लोग 'विशिष्ट श्रेणी के आम' नागरिक हैं - पर दु:ख कातर। संतोष हुआ कि  पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते बिहारी मजदूरों में संवेदना जीवित है।
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हिंसक प्रसन्नता भी हुई कि जो अहिर मेरे तमाम बार कहने पर भी अपनी भैंसों को खुले छोड़ मेरे पौधों का नाश करता रहा, उसे आज सबक मिला। नहीं, वह गरीब नहीं है - बाइस लाख की जमीन में भैंसियाना खोले हुए है बड़े साहब का जिनके बँगले में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते हैं कृष्ण कन्हैया। कन्हैया जी को भोग के लिए शुद्ध दूध दधि चाहिए।
हाथी के दाँत नहीं अब हजारो हाथियों के संगमरमरी बुतों की शक्ल में हजारो करोड़ पानी में बहाए जाते हैं लेकिन एक सीवर के मैनहोल को ढकने के लिए धन नहीं है।तंत्र नहीं है। जन नहीं हैं। सीवरों के मैनहोल ढक्कन कागजों में लग कर दीमकों द्वारा खाए जा चुके हैं। इन सीवरों का पानी कहीं नहीं जाता, इन धनपशुओं के भगवान को स्नान कराने के लिए प्रयुक्त होता है।   
.. क्या होता अगर उस गड्ढे में कोई मनु संतान गिर गई होती ! जो किसी की हँसती बिटिया होती, किसी का लाल होता !!
क्या इस समय मैं ऐसे पोस्ट लिख रहा होता ? थाने के चक्कर लगा रहा होता या हॉस्पिटल में पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा होता। मुझमें कहीं अभी संवेदना जीवित है लेकिन उन हरामखोर मक्कारों का क्या करें जिनके मुर्दाघरों में मवाद पल रहा है  ...

शनिवार, 23 जनवरी 2010

पुरानी डायरी से -11 : ... मैं बूढ़ा हो गया ...

22 मई 1992, समय:__________                                                          .... मैं बूढ़ा हो गया ...



सुबह सुबह आज 
दाढ़ी बना रहा था।
थोड़ा सा एकांत देख
बीवी ने कहा
सुनते हो, बिटिया सयानी हो गई है
कहीं बातचीत तो करो ! 


उसी पल 
शीशे में कनपटी के बाल सफेद हो गए।
चेहरे की झुर्रियाँ उभर कर चिढ़ाने लगी मुँह । 
आँखें धुँधली हो गईं।
उसी पल
मैं बूढ़ा हो गया।
... मेरे भीतर कुछ टूट गया। 

शनिवार, 16 जनवरी 2010

बाउ और मरा हुआ सिध्धर -2 : लंठ महाचर्चा

ममहर में खलिहान पहुँचते ही आदतन गाड़ा पर से बाउ कूद पड़े। गाड़े को मामा के दुआर की तरफ ले जाते बैलों को देख बाउ बुदबुदाए,
” जानल बूझल  गलती मानुख करेला, डंगर नाहीं। जानते बूझते भी गलती मनुष्य करता है, बैल नहीं।
पिपराइच की मंडी में गुड़ की लदनी करते बाउ बैलों को लीक पकड़ा सो जाया करते थे, मजाल क्या कि बैलों ने कभी भी पहुँचने या लौटने में गलती की हो! अधराति एक बार जब उनकी नींद टरक के भोंपा से खुली तो देखा कि टरक और गाड़ा आमने सामने खड़े थे और बीच डगर बिसाल निलबाछा मरा पड़ा था। उस दिन डलएबर ने बैलों की खूब तारीफ की थी।  खड़े हुए बैलों की चमकती आँखें नहीं दिखी होतीं तो काने टरक के साथ अनहोनी निश्चित थी।...
   खलिहान पर इकठ्ठे लोगों को पयलग्गी करते ही उनकी नज़र परबतिया के माई पर पड़ी। शायद उसी समय उसने भी बाउ को देखा था – लगा कि सुखरिया की कटी मूड़ी हवा में तैरती आ रही है,टप टप खून।
गोरा, सुदर्शन मुस्कुराता सुखरिया !
काला कुरूप अट्टाहस करता बनमानुख  - लाल लाल आँखें ज्यों रात में धू धू कर जलती बखारें...renu
सुखरिया, बनमानुख , मुसकान, अट्टाहस, सुखरिया, अट्टाहस, बाउ, मुस्कान, अट्टाहस  – हा, हा, हा,....
 परबतिया के माई के चेहरे का रंग उतरता चला गया ।
झाड़ा फिरने निकला पेचिश का मरीज सोहिता रिक्शा वाली दिल्लगी सुनने के बहाने बहोरना के साथ उस समय वहीं खड़ा था। उसके चेहरे की पल भर में उतरी रंगत दिखी और फिर बाउ!
रक्कतसोख बरमराछस !! 
इस तरह से आदमी की रंगत बदलती उसने आज तक न देखी थी। परेत, बरमराछ्स की सुनी हुई कथाएँ यकायक याद हो आईं और लगा कि पेट में धनकुट्टी चलने लगी हो !  हाथ में हरदम रहने वाला पानी भरा लोटा छूट जमीन पर ढुलक ढुलक बह चला और खड़े खड़े वहीं धोती में ही
छेरने लगा
बहोरना तो मारे बदबू के नाक पर गमछा लगाए हट गया – धुत्त इयार, ई का धत्त दोस्त, ये क्या ?
सबको भारी अचरज में डालते हुए परबतिया के माई अपने घर की ओर भाग चली। जिसके लिए दस कदम भी एक साँस चलना मुहाल था, वह ऐसे दौड़े जा रही थी जैसे
पँचई की रेस लगी हो!
मधया तो मुँह बाए कभी अपना रिक्शा देख रहा था तो कभी बाउ को ! अचानक पीपल के पत्ते कुछ अधिक ही डोलने लगे थे ।
बरमराछस !
उस शाम घर घर पुरानी बातें नमक मिर्च कलेवा हो गई थीं ।

(उ)
अपनी झोंपड़ी में पहुँच परबतिया के माई ने
चेंचरा लगा दिया। चेंचरा पीटती मधया की आवाज फैलती रही। उसकी मैभा महतारी सरापती विलपती अपने बेटे को खींचती घर ले गई – “मुँहझौंसी कुटनी ! रेक्सा पर घुम्मे खतिरा भेस बनवले रहलि हे एतना दिन । कलमुँही, कुटनी! रिकशे पर घूमने के लिए इतने दिनों से भेष बनाए थी..” । फिर किसी ने कुछ कहना उचित नहीं  समझा – बिहाने देखल जाई सुबह देखी जाएगी
जिस मरद से इतने बरस
घिरना ही घिरना रही, जिसका गला काटते एक पल भी नहीं सोचा, जिसको सुखरिया कह कर बुलाते आज तक शरम नहीं आई, काला पानी की सजा के दौरान भी जिसकी याद में एक आँसू तक न गिरा था वह आज क्यों ... ? ऐसा क्या था इस बनमानुख में जो कत्ल की रात बिना सोचे समझे उसकी बात मान अपने मरद को ही काट डाला था? कैसा भी था , आपन मनई था !
परबतिया की लाज और उसको मार से बचाने के लिए टाट फाड़
परगट हुए बाउ याद आए, साथ ही फिर याद आया सिर कटा दुआरे सुलाया गया सुखरिया ! फूट फूट कर रोते जमीन पर गिर पड़ी । देह में इतना दाहा, इतनी गरमी जैसे उस दिन बखारें जल रही थीं .... परबतिया के माई ने सारे कपड़े शरीर से नोच कर फेंक दिए।
मरा हुआ सुखरिया इतने दिनों के बाद बदला ले रहा था !
(ऊ)  
स्तब्ध हुए थे बाउ और फिर पहचान भी गए थे। ...  मामा से पूरी कहानी सुनते सुनते जाने कब आँख लग गई।  
अधराति नींद खुली तो पाया कि तकिया के दोनों और नमी थी। आँखें अभी भी नम सी थीं। बेचैनी हुई और बाहर निकल परबतिया के माई की झोपड़ी की ओर चल पड़े।
झोपड़ी में रोशनी थी। चेंचरे से छ्न छन कर दिखती रोशनी -
लपर लपर। बाउ ने धीमी पहचान वाली आवाज लगाई – मामी!
जैसे पुकार का कोई असर ही न पड़ा हो। थोड़ा और नजदीक आने पर हिचकियों की आवाजें आने लगी थीं ।  जमीन पर बैठ कर चेंचरे के थोड़े
फरकोर हिस्से पर आँख लगाई । ये क्या ? एकदम उघारे थुलथुल काया जमीन पर बैठ विलाप कर रही थी – कोई आवाज नहीं, बस हिचकियाँ । लय में झोंटा खोले सिर उपर ले आती फिर जमीन से छुआती।
ह हँ – ढेबरी की लौ बुझने को होती 

ह हँ – ढेबरी की लौ जी उठती ... 
अधेड़, देह पर लदर लदर मास लिए एकदम नंगी औरत ! - बाउ एक क्षण को जुगुप्सा से भर उठे थे लेकिन फिर जैसे सब कुछ जी उठा। यहीं तो ... ! कटी हुई मूड़ी – मरा हुआ सुखरिया।
वापस जाने का मन न हुआ। जमीन पर ही लेट गए -  ठीक उसी जगह ।
थोड़ी देर में ढेबरी भी बुझ गई लेकिन हिचकियाँ सुनाई दे रही थीं । बाउ दुबारा सो गए।

(ए)
महतारी की नजर बँचा मधया सुबह अपने काकी के घर आया तो पाया कि अभी तक चेंचरा बंद था। 
काकी काकी पुकारता चेंचरा देर तक पीटता रहा तब कहीं चेंचरा खुला। काकी बाहर आई – उसकी आँखें सूजी थीं और चेहरा बेरंग। हिकारत से उसे देखते बोली,

”का बिहाने बिहाने बजर डरले बाड़े ? भागु इहाँ से क्या सुबह सुबह शोर कर रहे हो, भगो यहाँ से!
आज तक काकी ने उससे इस तरह बात तक नहीं की थी - भगाना तो नामुमकिन था। लेकिन आज ..!
उदास सा वह अपने घर वापस चला गया। परबतिया के माई के शरीर में सुखरिया की लाश जल रही थी। शरीर में जाने कहाँ से इतनी जान आ गई थी कि चलने फिरने के लिए किसी सहारे की जरूरत नहीं रही।  लेकिन वह जलन । ताप बढ़ता गया और फिर उसके मुँह से जाप सा निकला – सुखरिया, सुखरिया .... पहले बुदबुदाहट फिर सुनाई दे सके वैसी आवाजें लय के साथ –
मरल सुखरिया, मरल सुखरिया, मरल सुखरिया ....
गाँव मे बात फैल गई – मधया के काकी पगला गइलि बा, उसे अब कोई परबतिया के माई नहीं कहता था ।
बाउ ने सुना लेकिन हाल पूछने नहीं गए। रात का देखा नजारा अभी भी दिमाग पर हाबी था – अपशकुन सा।   मन ही मन तय किया कि सुत्ता पड़ने के बाद रोज परबतिया के माई के दुआरे जा कर सोया करेंगे।
(ऐ)
रात की बेला। ढेबरी की लपर लपर । हिचकियों की आवाज। बाउ ने झाँका ।
आज भी परबतिया के माई उसी अभिचार में लगी थी लेकिन शरीर पर कपड़े थे। जाने क्यों बाउ ने संतोष की साँस ली और सो गए।
भिनसारे से कुछ पहले अचानक जोर की आवाज से नींद खुली तो देखा कि थुलथुल औरत तेज कदमों से गाँव के बाहर जा रही थी। चुपचाप पीछे लग लिए।
बसगित से बाहर आते ही परबतिया के माई दौड़ चली। बाउ पीछे पीछे इस तरह लगे रहे कि उसको पता न चला। पोखरे के किनारे आ कर थोड़ी देर खड़ी बड़बड़ाती रही – मरल सुखरिया,
जरल सुखरिया, मरल सुखरिया .... और अचानक छपाक से पोखरे में कूद गई। आव न देखा ताव बाउ ने भी छ्लाँग लगा दी।
उसे पोखरे से बाहर निकाला तो बेहोश थी ।  दोनों बाहों में उसे उठाया तो लगा कि उसके शरीर में कुछ
तड़फड़ा रहा था। जो शरीर देखने में इतनी भारी लगती थी, असल में उसमें वजन जैसा कुछ था ही नहीं।
उसकी बेहोश देह को बाहों में उठाए बाउ चोरों की तरह गाँव में जब वापस आए तो अभी अँधेरा था। चुपचाप उसे झोपड़ी में लिटाया और मामा के घर चले गए।

(ओ)
परबतिया के माई की पगलाई बढ़ गई थी। झोंटा लहराए अस्त व्यस्त कपड़ों में वह अकेले गाँव में घूमने लगी, वही बुदबुदाहट, बड़बड़ाहट – मरल सुखरिया, जरल सुखरिया ....    
किसी ने कुछ दिया तो खा लिया नहीं तो बस बहुत धीमे धीमे घूमना और जपना ! आश्चर्य था कि बाउ के पास नहीं गई। उसकी देह
बस्साने लगी। दिन चढ़ते चढ़ते बदबू इतनी तेज हो गई कि उसके पास खड़े होना भी मुहाल हो गया।
और शाम होते होते बच्चों और बड़ों को मनोरंजन का एक साधन मिल गया ।
उसको घेर कर नाक पर हाथ धरे बच्चे लकार लेने लगे 
“मार बढ़नी काकी बसइलि का ?” मर परे, काकी बदबू मार रही है क्या ? 

मनचले जवान पूरा करने लगे
“ काका मुअवलि डेरइलि का ?” काका की जान लेते डरी थी क्या?

अधिक बरस नहीं बीते थे, सुखरिया अत्याचार और शोषण का खलनायक था जिसकी मौत पर सबने मौन उत्सव मनाया था। आज चन्द क्षणों के मनमनसायन के लिए वह ‘काका’ हो गया था। उसकी मौत से सहानुभूति जताते लोग जीवित काकी के दु:खों से निस्संग मजा लेने में व्यस्त हो रहे थे।  हाय रे जन!
बाउ ने जाना सुना और बेचैन हो गए। उस बदबू का क्या कारण हो सकता था ? कहीं मन में अपराधबोध सा घर कर गया। उनके आने से इस ‘मर्दानी’ औरत की दु:ख यातनाएँ काटने के बाद सुखी हो चली जिन्दगी फिर नरक हो गई थी।
... उनको देखते ही परबतिया के माई का दौड़ पड़ना ... अचानक पागलपन - मरल सुखरिया, जरल सुखरिया ... नंगी हो स्यापा करती अधेड़ औरत ... पोखरे में कूदना ... बेहोश थुलथुल देह में वह अजीब सी तड़फन ... और बदबू । इनका आपस में  क्या सम्बन्ध हो सकता था?  उस रात बाउ सो नहीं पाए।

भोर में आँख लगी तो सपना देखा – हाथ मे सड़ी गली मछली लिए परबतिया के माई घर घर घूम रही थी, इसे कहाँ फेंकूँ ? लोग पागल से  हँस रहे थे। अचानक उसने बाउ के हाथ में रख दिया – बाउ ने देखा तो मछली की जगह सुखरिया का सिर था। नींद खुल गई । फिर नींद आई तो पोखरे में डूबती परबतिया के माई दिखाई दी ।
(औ)

सिर भारी था। एक बहुत ही उटपटांग निर्णय लेने के बाद बाउ दुविधा में पड़े थे। आखिरकार बैलों को खिला कर गाड़ा नाध कर खलिहान पर खड़ा कर आए । वापस आ मामा से बातें करने लगे:
”मामा एगो कार करेके बा। परबतिया के माई के दु:ख नाहिं देखल जाता।“ मामा, एक काम  करना है। परबतिया के माई का दु:ख नहीं देखा जा रहा।
”हँ, बताव।“ हाँ, बताओ।
”बताइब नाहिं। खरिहाने गाड़ा खड़िया देहेले बानी। अगर कुछ ऊँच नीच भइल त ओनहे से अपने गाँवे चलि जाइब । फेर कब्बो एइजा नाहिं आइब।“ बताऊँगा नहीं। खलिहान पर बैलगाड़ी खड़ी कर दी है। अगर कुछ ऊँच नीच हुई तो उधर से ही अपने गाँव चला जाऊँगा। फिर कभी यहाँ नहीं आऊँगा।
बाउ की बात पहेली सी लगी लेकिन कुछ तो अपने इस विचित्र भांजे का स्वभाव और कुछ बाउ के चेहरे का भाव, मामा सिर हिला कर रह गए।
(अं)
... खलिहान पर परबतिया के माई को घेरे लोग मनमनसायन में व्यस्त थे - मार बढ़नी काकी बसइलि का ?, काका मुअवलि डेरइलि का ?
वहीं पीपल के पेंड़ तले  मधया उदास आँखों से नजारा देख रहा था।
बाउ को लगा कि समय आ गया। चुपचाप गाड़ा को वहाँ ले गए, खडा किए और कूद कर घेरे में घुस गए।
परबतिया के माई बड़बड़ा रही थी – मरल सुखरिया .... बाउ ने उसके पेट और छातियों को झकझोरा जैसे मांस की पर्तों से कुछ निकालने की कोशिश कर रहे हों और फिर सामने से उसकी कमीज को उठा दिया – गला सड़ा गन्धाता एक सिद्धर जमीन पर गिरा। चिढ़ाना बन्द हो गया। उपस्थित लोग अवाक रह गए!  सरेआम उघर गई! मारे लाज के परबतिया के माई वहीं बैठ गई।
… बुदबुदाना बन्द हो गया था। आँखें मुँदीं थीं। चेहरे पर ऐसे भाव जैसे किसी और दुनिया को देख रही हो – अजीब सी बदबू लिए सुखरिया का सिर धू धू कर जल रहा था । सिर राख हुआ और बदबू खत्म हो गई। ...
... आँखें खुलीं तो सबने देखा काकी के चेहरे पर पुरानी रंगत लौट आई थी। अपार शांति।
काकी ने पुकारा,” अरे ए माधो ! रेक्शा ले आव घरे नाहिं जा पाइब।“
अरे माधो ! रिक्शा ले आओ, घर नहीं जा पाऊँगी।
मधया भागता  रिक्शा ले आया। काकी सवार हुई और बाउ को देख बोली,

” अरे भैने! तुहूँ आव बइठ। बड़ा बढ़िया बयार लागेला।“ अरे भांजे! तुम भी आओ बैठो। बहुत अच्छी हवा लगती है।   
बहोरना बोल पड़ा,” अरे काकी, फेर न ढिमिला जइह।“
अरे काकी, फिर न रिक्शे से नीचे जमीन पर लुढ़क जाना!
भौंचक्के से उपस्थित लोग लुगाई जोरों से हँस पड़े।

... बुढ़वा पीपल के पत्ते जोर जोर से डोल रहे थे। (प्रसंगांत) 
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शब्द संपदा:
(1) ममहर - मामा का घर (2)गाड़ा  बैलगाड़ी (3) लीक - सड़क (4) अधराति - अर्धरात्रि(5) टरक के भोंपा - ट्रक का हॉर्न(6) बिसाल निलबाछा - विशाल नर नीलगाय (7) डलएबर - ड्राइवर(8) काने टरक - ऐसा ट्रक जिसकी एक हेडलाइट न जल रही हो (9) पयलग्गी - अभिवादन(10) मूड़ी - सिर (11) झाड़ा फिरने - मलत्याग करने हेतु खेत की तरफ निकलना (12) रक्कतसोख बरमराछस - रक्तशोषी ब्रह्मराक्षस (13) छेरने लगा - दस्त होने लगे (14) पँचई की रेस - नागपंचमी की दौड़  (15) चेंचरा - चीरे हुए बाँस से बना झोंपड़ी का दरवाजा (16) सरापती - शाप देती (17) घिरना - घृणा (18) आपन मनई - गृहस्वामी (19) परगट - प्रकट (20) लपर लपर - लपलपाती (21) फरकोर - झिर्री (22) उघारे - नंगी (23) मरल - मर गया (24) बसगित - बस्ती (25) जरल - जल गया (26) तड़फड़ा - तड़पने के अर्थ में प्रयुक्त (27) बस्साने लगी - बदबू आने लगी (28) मनमनसायन - मनोरंजन (29) सिद्धर -एक प्रकार की छोटी मछली, उससे भी छोटी को सिधरी कहते हैं। 
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लंठ महानिष्कर्ष:
हर युग, हर समाज में ऐसे लोग रहे हैं जिन्हों ने दूसरों जैसा ही देखा सुना लेकिन सोचा और किया - अलग ढंग से। इन साहसी लोगों ने वह सोचने का खतरा उठाया जिसके पास दूसरे फटक भी नहीं सके। .. तमाम वर्जनाओं और जड़ता से मुक्ति पा उन्हों ने जब अपनी सोच को कार्यरूप दिया तो चमत्कार हुए। 


गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बहुभाषी ब्लॉगवाणी

screenshot
लगता है कि ब्लॉगवाणी द्विभाषी या बहुभाषी होने की राह चल चुकी है। कृपया पार्श्व का स्क्रीनशॉट देखें।
मुफ्त सेवा प्रदान करते इस एग्रीगेटर साइट की विषयवस्तु क्या हो, कैसी हो, किस भाषा में हो - इन पर निर्णय लेने के लिए इसका प्रबन्धन स्वतंत्र है। यह उनका अधिकार है।
लेकिन अंग्रेजी चिट्ठों की बाढ़ में हिन्दी चिट्ठे दिखने बहुत कम हो जाएँगे जो कि अभी विकसित होती हिन्दी ब्लॉगरी के लिए शुभ नहीं होगा।
बहुभाषी होने की स्थिति में ब्लॉगवाणी को प्रयोक्ता के लिए भाषा चुनने का विकल्प अलग से देना चाहिए ताकि जिसे जिस भाषा का ब्लॉग देखना हो वही दिखे। इससे अपेक्षाकृत कम ब्लॉग संख्या वाली हिन्दी ब्लॉगरी को फलने फूलने में सहूलियत रहेगी।
आप अपने विचार बताइए।

  

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

... प्रकाश जिसने अँधेरों के सूरज को डूबने की राह धकेला

बिटिश भारत - उस राज का हिस्सा जिसमें सूरज कभी नहीं डूबता। आम जनता चरम गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, शोषण, अत्याचार, भूख ..... जाने कितने अँधेरों से जूझती हुई। वह सूरज अन्धेरों का शहंशाह था।
राजे,रजवाड़े, जमींदार कायर निर्लज्ज समर्पण के बाद भोग और विलास में व्यस्त उनके साधन जुटाने हेतु मूर्तिमान शोषण और अत्याचार हो गए थे। ब्राह्मण गण जाति प्रथा, छुआछूत, शोषण और नारी प्रताड़ना के सूत्र स्मृतियों में तलाशते हुए उन्हें और मजबूत करने में लगे थे। उपनिषद और श्रुतियाँ आम जन के लिए निषिद्ध थीं। अंग्रेजी पढ़ा लिखा समाज प्रतिक्रियावादी हो सब कुछ नकारने और निस्पृह, निस्संग बौद्धिक विलासों में व्यस्त हो बाबू की नौकरी पाने के साधन जुटाने में लगा हुआ था।
और आम जनता ?
मालगुजारी और हर्जाने तले पिसती हुई भी बरगद की छाल, पुरानी गलित ईंटों और गूलर के दूध से बने 'व्यंजनों' से अकाल में जान बचा लेने की कला में प्रवीण हो चुकी थी। भारत की बर्बादी पूर्ण हो चुकी थी। अन्धेरों के सूरज की दमक दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी..जाने कितने अन्धेरे, आदमी की जिन्दगी एक !
और ऐसे में सन् 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन किया। बहाना था प्रशासनिक सुधार लेकिन नीयत थी विद्रोह की किसी सम्भावना की रीढ़ को तोड़ देने की ... भारत के जाने कितने भागों में इसके विरोध में विद्रोह भभक उठा। सशस्त्र । आधुनिक भारत के युवाओं ने सम्भवत: पहली बार इस तरह से उठान दिखाई थी।
ब्रिटिश दमन ने अपना वह चेहरा दिखाया जो पहले कभी नहीं दिखा था। छापे, गिरफ्तारियाँ ...... हथियार भले न बरामद हुए हों लेकिन करीब हर जगह मिला - विवेकानन्द साहित्य । vivekanand
उस संन्यासी की बातें भी उन युवकों की शस्त्रास्त्र बन गई थीं। रोमा रोलाँ ने विवेकानन्द को ऐसे ही योद्धा संन्यासी नहीं कहा था !
 ... योद्धा संन्यासी ने अपना काम कर दिया था। संन्यास और वक्तृता साहित्य की ऐसी मारकता पहले कभी नहीं देखी गई थी। अंग्रेजों की नाक तले सन् 1897 से लेकर 1902 में मृत्यु होने तक विवेकानन्द ने चुपचाप भारत और विशेषकर युवाओं में वह आग भर दी थी जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक नहीं बुझने वाली थी।
ऐसा क्या अनोखा था इस योद्धा संन्यासी में जो चालिस की अवस्था भी पार न कर सका लेकिन समूचे देश को झँकझोर गया? मात्र 5 वर्षों में वह कर दिखाया जिसकी परिणति ने अन्धेरों के सूरज को अंतत: डूबने पर मजबूर कर दिया?
विवेकानन्द को समझना हो तो 1893 में धर्म संसद में दी गई शिकागो वक्तृता पर समापन नहीं प्रारम्भ करना होगा। 1897 तक के चार वर्षों में अमेरिका और यूरोप को उन्हों ने दिखा दिया कि भारत केवल विलासी कापुरुष राजाओं, हाथियों और सँपेरों का देश नहीं था। उसकी ज्ञान परम्परा में एक ओर द्रव्य और ऊर्जा के पारस्परिक परिवर्तन के सिद्धांत छिपे थे तो दूसरी ओर सम्पूर्ण मानवता के स्वीकार के मूर्त सिद्धांत प्रस्तुत थे। जाति प्रथा जैसी घनघोर बुराई के बावजूद भारतीय मनीषा सर्वग्राही समावेशी थी।
आज आप को आसान लग रहा होगा लेकिन यह वह समय था जब समुद्र यात्रा पाप थी और श्रुतियाँ आम जन के लिए निषिद्ध थीं। यह वह समय था जब मैक्समूलर और उनके जैसे स्कॉलर आर्य आगमन/आक्रमण के यूरोप केन्द्रित अवधारणा को स्थापित कर चुके थे। मैक्समूलर के प्रशंसक होते हुए भी विवेकानन्द ने यूरोप के सामने भारत केन्द्रित विश्व सभ्यता की बाते रखीं। उनकी पुस्तक 'East and West’ पढ़ने योग्य है।
1897 में भारत वापस आने पर कोलम्बो से लेकर अल्मोड़ा तक किए गए भारत भ्रमण के दौरान दिए गए उनके भाषणों से जनता ने स्वयं को आप्यायित कर लिया। हर भाषण स्वाभिमान और निर्भयता के सम्मोहक सार्थक औपनिषदीय संदेशों से पटा पड़ा था। मूर्तिमान आत्मविश्वास सरीखे इस सुदर्शन योद्धा संन्यासी का सम्मोहन ऐसा था कि ब्रिटिश राज भी भाँप नहीं सका कि इस भ्रमण के दौरान क्या कुछ बोया जा रहा था। वह फसल ब्रिटिश राज को बहुत महँगी पड़ी। एक शांत विद्रोह गौरवशाली भूतकाल की नींव और आधुनिक शिक्षा की इमारत में बसता चला गया।
कितना विशाल अध्ययन था ! विश्व सभ्यता और भारत सब कुछ समेटे हुए। कला, साहित्य, विज्ञान, दर्शन, धर्म, गणित, नाटक, आर्किटेक्चर, कपड़े, खान पान, नृत्य, समाज शास्त्र, नारी उत्थान ..... कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो विवेकानन्द की मर्मभेदिनी दृष्टि से बँचा हो। आज शायद एक दो पिज्जाओं की कीमत में विवेकानन्द का सम्पूर्ण साहित्य मिल जाएगा। मैंने दसियों साल पहले बस रु. 125/- में लिया था। हंसराज रहबर की लिखी उनकी जीवनी राजपाल एण्ड संस से प्रकाशित है। खरीद लीजिए और पढ़ डालिए।
उनको पढ़ने से पता चलता है कि नारी या शूद्र विषयों पर उनकी सोच आज के समय के हिसाब से भी बहुत आगे थी। उनका साहस अतुल्य था। नारी समस्या हो, मांसाहार के प्रश्न हों या शिक्षा का आम जन तक प्रसार हो – वे बहुत रेडिकलों से आगे नज़र आते हैं। मुझे आज रोना आता है जब कुछ लोग उनका नाम लेने पर शिकागो में तथाकथित ‘शून्य’ पर दिए गए उनके भाषण की बात करते हैं। नहीं, धर्म संसद में उन्हों ने जो कहा उसमे शून्य नहीं समूचे विश्व, समूची मानवता के लिए बहुत ही विराट सन्देश था। उन्हों ने उपनिषदों के सन्देशों से वहाँ उपस्थित प्रकाण्ड पंडितों को चमत्कृत कर दिया था। उनका वह संक्षिप्त भाषण आधुनिक विश्व के सर्वोत्तम भाषणों में स्थान रखता है। 
सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित संन्यासियों को तैयार करता रामकृष्ण मठ हो या नारी शिक्षा के लिए सर्वसमर्पित भगिनी निवेदिता हों, विवेकानन्द ने अपनी सोच को ठोस परिणति में बदलने का उपक्रम भी कर दिखाया।    
बहुत कम लोगों को पता होगा कि उन्हों ने बाल गंगाधर तिलक और जमशेदजी टाटा को प्रेरित किया था। उनका सक्रिय जीवन उस योजना और प्रण को जी गया जो तिलक ने भारत को राजनीति और उन्हों ने धर्म के माध्यम से जगाने के लिए एक रेल यात्रा के दौरान लिया था। तिलक और विवेकानन्द के अवसान के बाद आए कांग्रेसियों ने उनकी विराट सोच का बंटाधार कर भारत की स्वतंत्रता को हिन्दू मुस्लिम समस्या में बदल दिया जिसकी परिणति उस चरम सुविधाजीवी और समझौतावादी सत्ता परिवर्तन में हुई जिसने भारतीय जन को क्षुद्र स्वार्थ लोलुप शुतुर्मुर्गी समाज में बदल दिया।
क्या कोई ऋषि विवेकानन्द फिर आएगा ? हाँ, वे ऋषि ही थे। स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें सप्तर्षियों में से एक कहा था।
आज विवेकानन्द का जन्मदिन है (12 जनवरी, 1863, समय प्रात: 06:33, कोलकाता)। हम बस श्रद्धांजलि दे सकते हैं और उनकी बातों पर मनन कर सकते हैं। हममें जाने कितने छोटे छोटे विवेकानन्द सोए पड़े हैं। जरूरत बस उन्हें जगाने की है।


शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

तीसरा भाग ,उत्तरार्द्ध: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी..(लंठ महाचर्चा)

... लेंठड़े की बातों में एक अजीब सी लय थी। उसकी आवाज भी ऐसी थी जैसे तबले को साधते साधते बजवइया मुग्ध होकर धीमी धीमी लय में बजाने लगा हो। उसके स्वर के उतार और चढ़ाव में एक सम्मोहन था। पुस्तकालय में उपस्थित जन धीरे धीरे सम्मोहित से बाहर आने लगे। कुछ ही देर में सभी गुनगुनी धूप में उसे चारो तरफ से घेर कर बैठ गए - बेंच पर, लॉन में, सीढ़ियों पर, जमीन पर ... । लेंठड़ा अपनी ओर लोगों के इस आकर्षण से मुग्ध हो गया था। स्पष्टत: वह भी इस दुनिया के इतने विभिन्न तत्त्वों की उपस्थिति से सम्मोहित था।
 इतना ज्ञान ! वह भूल गया कि क्या करने आया था और अभी कुछ देर पहले शब्दों और साहित्य की बातें करने की कोशिश सी कर रहा था।
 गणितज्ञ उसे हैरानी से देख रहा था लेकिन लेंठड़े की दृष्टि एक वैज्ञानिक पर जमी थी जो साहित्य में भी रुचि रखता था। लेंठड़े को यह बड़ी अजीब बात लगी कि शब्द और साहित्य पर वैज्ञानिक से बात की जाय। उसे लगा कि इस अद्भुत सभ्यता की जड़ों और उसके सनातन प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिक से बात की जाय। आखिर शब्द, साहित्य वगैरह के प्रश्न तो इस सभ्यता के अस्तित्त्व से ही जुड़े थे। क्या था निचोड़ इस सभ्यता के सनातन प्रश्नों का ?
 एक क्षण को उसने अपने पंजे कड़कड़ाए और फिर उस वैज्ञानिक की ओर दृष्टि कर शुरू हो गया...

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पहला भाग - पूर्वार्द्ध


.....और अब उत्तरार्द्ध.......

  मानव के सांस्कृतिक विकास के साथ हमारे आदि चिन्तकों, ऋषि-मुनियों ने अनेक ``सुनहले नियम´´ बनाये थे... .... `` समस्त प्राणियों के साथ समान व्यवहार करो´´ (आत्मवत सर्वभूतेष समाचरेत), ``धन/सम्पदा संग्रह कदापि न करो´´, ``मा गृध: कस्य स्वदधनम्´´ किन्तु आदमी ने इन  सभी सीखों को आज ताख  पर रख दिया है। वह निरन्तर आत्मकेिन्द्रत, स्वार्थी बनता जा रहा है, वह तेजी से भाव प्रवणता, चेतना, और संवेदना को तिलांजलि दे रहा है। वह फिर से अपनी उसी ``जैवीय´´ अस्मिता  के वशीभूत होता जा रहा है। या फिर ``बुद्धिजीविता´´ का ही यह सम्भवत: उभय उत्पाद है कि उसका संवेदना स्रोत सूख रहा है। जबकि पशु पक्षियों में बुद्धि रहित नैसर्गिक  संवेदना के उदाहरण आज भी हैं। पशु पक्षी आज भी अपने कई व्यवहार प्रतिरूपों में `` स्वजॉति रक्षा´´,  ''वात्सल्य ´´ का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस तरह क्या ``बुद्धि´´ और ``संवेदना´´ परस्पर विरोधी भाव तो नहीं हैं? आज का बुद्धिमान मानव कितना संवेदनाहीन हो गया है।
    आज यह आम (समूह) अनुभूति है कि मानव का सुख चैन उससे छिन गया है। उसे शान्ति नहीं है। जापान में ``हाराकिरी´´ (आत्मघात) की घटनायें विश्व में सबसे उपर हैं। संस्कृति  और सभ्यता के स्तर पर आज के जापान की पूरी दुनिया में कोई सानी  नहीं है। पश्चिम के सांस्कृतिक रंग, ढंग में डूबे अनेक जन ``शान्ति´´ की तलाश में भारत की कितनी गहवर गुफा-कन्दराओं, प्राचीन शहरों जैसे बनारस की धूल फांकते नजर आते हैं। `बुद्धिमान´ मानव की यह दशा आखिर क्यों है। अन्य पशु सहचरों से अलग-थलग होने पर अब उसे क्या चाहिए-कैसी मरीचिका में भटक रहा है वह। कभी कभी तो लगता है, प्रकृति उसे सजा दे रही है, प्रकृति देवी का बदला (नेमेसिस) है यह। मानव द्वारा प्रकृति के निरन्तर प्रतिरोध/प्रतिकार का प्रतिशोध है यह। प्रकृति के आगे आज भी कितना बौना है मानव और उसकी तथाकथित संस्कृति या सभ्यता। एक प्रतिप्रश्न यहाँ फिर उभरता है कि अगर मानव का सांस्कृतिक विकास प्रकृति की ही कोई गुप्त योजना है तो फिर वह बदले पर क्यों उतर आयी हैं।
    आज यह स्पष्ट हो चला है कि मानव मात्र के लिए स्वयं मानव के सांस्कृतिक विकास ने कई नये संकटों को जन्म दे दिया है। पशुओं की दुनिया में ``जनसंख्या विस्फोट´´ का महासंकट नहीं है। क्योंकि उनकी संख्या कुदरती तौर पर नियमित नियंत्रित होती रहती है- वहाँ कमजोर का गुजारा नहीं है। सन्तति प्रवाह के लिए वहाँ बला की शक्ति-स्फूर्ति चाहिए। पर हमारी सांस्कृतिक दुनिया में, कमजोर भी बादशाह बने बैठे हैं- कमजोरों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं- यहाँ सबका गुजर बसर है- जीवनदायिनी औषधियों ने उन सभी को जीवन दान दे दिया है जो अन्यथा काल कवलित होते। किन्तु क्या अकेले मानव के मामले में प्रकृति शारीरिक शक्तियों के बजाय केवल ``बुद्धि´´ का वरण कर रही है। यानि केवल बुद्धिमान जियें शेष काल कवलित हो जायें। केवल बुद्धिमान जीवित रहें भले ही जीवन भर दवायें खाते रहें।
    इन दृष्टान्तों से तो ऐसा ही लगता है कि मानव भले ही आज सर्वजेता होने का दम्भ पाल बैठा है, वह आज भी प्रकृति के हाथों की कठपुतली भर ही है... ... वह निमित्त मात्र ही है। निमित्त मात्रम भव सव्यसाची। प्रकृति जो चाहेंगी वहीं होगा (प्रकृतिस्त्वाम नियोक्ष्यति) ....... शायद इन्हीं ``सच्चाईयों´´ के आभास से हमारे ऋषि मुनियों ने मानव को कई सीखें दी ... ... उनके अनुसार सब कुछ नियोजित है, सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसाकि होना नियत था/है, अत: मानव को अपने सुख शान्ति के लिए 'नियतिवादी´´ होना होगा ... ... जो कुछ जैसा है, वैसा ही स्वीकारना होगा ... ...``सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेऊ मुनि नाथ, हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश सब विधि हाथ (सुख दुखे समाकृत्वा लाभा लाभौ जया जय: ... ...)
   दरअसल विज्ञान हमें सत्य का दर्शन तो कराता है पर कोई ``आदर्श जीवन दर्शन´´ प्रस्तावित नहीं करता। मानव का आध्यात्मिक विकास, विज्ञान के इस एकांगी पहलू की ही भरपायी करता है। आज का विज्ञान जितना समृद्ध है और निरन्तर समृद्ध हो रहा है, उससे कुछ कम  समृद्ध हमारा आध्यात्म चिन्तन नहीं है। मानव के अन्तिम अभीष्ट के महाप्रश्न को तय करने में विज्ञान और आध्यात्म दोनों के शरण में जाना होगा। मानव के जैवीय-सांस्कृतिक विकास में ऐसे अनेक क्षण आये हैं जब हमारे महामनीषियों ने ऐसे ही महाप्रश्नों का जवाब खोजा है- ``युधिष्ठिर - यक्ष संवाद´´, ``नचिकेता-यम´ संवाद´´ आदि अनेक कथा-दृष्टान्त इसके साक्ष्य हैं।
 मानव के अन्तिम अभीष्ट की यह खोजपूर्ण यात्रा अभी थमी नहीं है... ...।

बुधवार, 6 जनवरी 2010

इन भुक्खड़ ब्लॉगरों को पहचानिए: एक पहेली ऐसी भी

इन तीन भुक्खड़ ब्लॉगरों को पहचानिए।
नीचे लिखे ब्लॉगरान इस पहेली को बूझने में भाग नहीं ले सकते:
(1) डा. अरविन्द मिश्र
(2) हिमांशु पाण्डेय
(3) श्रीश पाठक 'प्रखर'
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प्रहेलिका बुझौवल अब समाप्त: समय: भारतीय 22:55, दिनांक: 06/01/10


खाली प्लेट लिए मैं हूँ यानि गिरिजेश
लालची निगाहों से ताकते भए अमरेन्द्र
तन्मयता से भकोसते भए महफूज

विजयी हुए:
(1) परम आदरणीय समीर लाल 'समीर' 
(2) परम आदरणीया स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' ( ' आदरणीया' के प्रयोग पर क्षमाप्रार्थी हूँ ;)) 
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अवधी कै अरघान और कुछ औरों की , कुछ अपनी ... के रचयिता अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी  से मेरी पहली मुलाकात महफूज अली  के सौजन्य से मेरे आवास पर हुई। अचानक ही फोन आया था और मैं फोन पर अमरेन्द्र जी को पहचान नहीं पाया था। श्रीमती जी के हाथ के बने गोभी के पकौड़े, धनिए की चटनी और सॉस के साथ भकोसते हुए हम लोगों ने खूब गपोष्ठी की। रात में 10 बजे अमरेन्द्र जी की दिल्ली के ट्रेन थी सो 9 बजे के आसपास विदा हुए। 


इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए इस पहेली का आयोजन हुआ। मैं सभी प्रतिभागियों का हृदय से आभारी हूँ। 
विजेताओं को ढेर सारी बधाइयाँ।


वैसे इन लोगों के विजयी होने में मुझे कुछ गड़बड़ी की आशंका भी हो रही है। शक की सुई स्वामी अरविन्दानन्द सरस्वती उई ! शरारती और बाबा महफूजानन्द की ओर संकेत कर रही है। 
 सबूतों के अभाव में दोनों बाबाओं को माफी दी जा रही है। 
हम भी प्रथम पहेली के सफल आयोजन पर अपनी पीठ थपथपा ले रहे हैं। अब ताऊ, उड़नतश्तरी, तसलीम और अन्य पहेली आयोजकों से दहशत खाने की कोई आवश्यकता नहीं रही। 
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अमरेन्द्र जी से अत्यधिक प्रभावित हुआ। उतनी ही देर में सहजता और विद्वता के एक साथ दर्शन हुए। इतनी सरलता से अवधी के काव्य उदाहरण और संस्कृत के भी उद्धरण देने वाले किसी व्यक्ति से बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई। मुझे अपने संस्कृत के पूज्य आचार्य शास्त्री जी याद आ गए। हाँ, अरविन्द जी के  समर शेष है पर भी चर्चा हुई। 
आश्वस्त हुआ कि ब्लॉगरी में हिन्दी साहित्य का भविष्य उज्जवल है। साथ ही निश्चिन्त भी हुआ कि एक और अपनी कटेगरी का लंठ मिला।
महफूज जी के बारे में क्या कहें ! प्याज के छिलके  उतारने के बाद बताएँगे। 


bhukkhad

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

तीसरा भाग पूर्वार्द्ध : अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी..(लंठ महाचर्चा)

... लेंठड़े की बातों में एक अजीब सी लय थी। उसकी आवाज भी ऐसी थी जैसे तबले को साधते साधते बजवइया मुग्ध होकर धीमी धीमी लय में बजाने लगा हो। उसके स्वर के उतार और चढ़ाव में एक सम्मोहन था। पुस्तकालय में उपस्थित जन धीरे धीरे सम्मोहित से बाहर आने लगे। कुछ ही देर में सभी गुनगुनी धूप में उसे चारो तरफ से घेर कर बैठ गए - बेंच पर, लॉन में, सीढ़ियों पर, जमीन पर ... । लेंठड़ा अपनी ओर लोगों के इस आकर्षण से मुग्ध हो गया था। स्पष्टत: वह भी इस दुनिया के इतने विभिन्न तत्त्वों की उपस्थिति से सम्मोहित था।
इतना ज्ञान ! वह भूल गया कि क्या करने आया था और अभी कुछ देर पहले शब्दों और साहित्य की बातें करने की कोशिश सी कर रहा था।
गणितज्ञ उसे हैरानी से देख रहा था लेकिन लेंठड़े की दृष्टि एक वैज्ञानिक पर जमी थी जो साहित्य में भी रुचि रखता था। लेंठड़े को यह बड़ी अजीब बात लगी कि शब्द और साहित्य पर वैज्ञानिक से बात की जाय। उसे लगा कि इस अद्भुत सभ्यता की जड़ों और उसके सनातन प्रश्नों के बारे में वैज्ञानिक से बात की जाय। आखिर शब्द, साहित्य वगैरह के प्रश्न तो इस सभ्यता के अस्तित्त्व से ही जुड़े थे। क्या था निचोड़ इस सभ्यता के सनातन प्रश्नों का ?

एक क्षण को उसने अपने पंजे कड़कड़ाए और फिर उस वैज्ञानिक की ओर दृष्टि कर शुरू हो गया...
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हान चिन्तक, दार्शनिक अरस्तू का मानना था कि मानव मात्र का अन्तिम लक्ष्य/अभीष्ट सुख की प्राप्ति है। आखिर कौन नहीं चाहता सुख। पशु-पक्षी कपि-भालू, नर-वानर, ऋषि-मुनि सभी तो सुख चाहते हैं। हाँ, यह बात दीगर है कि पशु पक्षियों में सुख की वह अनुभूति नहीं होती जैसी कि प्रकृति की श्रेष्ठतम कृति मानव में होती है। पशुओं में सुखानुभूति महज एक जैवीय ``उद्दीपन प्रतिक्रिया´´ के ही दायरे में सीमित होती है। मानव ने अपने अद्वितीय और अद्भुत सांस्कृतिक विकास की यात्रा में कई तरह के ``सुखों´´ के अन्वेषण-अनुभूति के पड़ाव तय किये हैं-सांसारिक (भौतिक) सुख, आध्यात्मिक  (मानसिक) सुख और यहाँ तक कि ``परमानन्द (सच्चिदानन्द ) तक की  प्राप्ति´´ का सुख जिसके पश्चात् फिर किसी और सुख की चाह ही नहीं रह जाती। यही मोक्ष (निर्वाण) है। मोक्ष यानि एक उस ``परम सत्ता´´ में स्व-अस्तित्व का समाहित हो जाना-जो शाश्वत है, नित्य है, अजर है, अमर है, जिसके बखान में उपनिषदों की अकथ (फिर भी अधूरी) व्याख्यायें हैं और जिसके स्वरूप के निर्धारण का विचार मन्थन आज भी चल रहा है- चरैवेति, चरैवेति ... ... मान्यता है कि वही परमसत्ता ही परम सर्जक है, ब्रह्माण्ड-रचयिता है। उसी के अंश मात्र में स्थित मानव को पुन: उसी में लीन हो जाना है। ... ... तो फिर मानव अस्तित्व, उसके जीवन काल, धरती पर उसके प्रादुर्भाव-अवसान की आवश्यकता ही क्या है, जब मोक्ष ही परम अभीष्ट है, तो मानव जनमता ही क्यों है?विश्व भर के दार्शनिकों, आध्यात्मविदों ने इन प्रश्नों का समय-समय पर अपने-अपने ढंग से जवाब दिया है, जिसके फलस्वरुप, पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, लोक-परलोक, मृत्योपरान्त जीवन जैसी अनेक रोचक अवधारणाओं का जन्म और विकास हुआ है। पर इस विषय में विज्ञान का नजरिया क्या है?


    सबसे पहले यह बात स्पष्ट कर देनी होगी कि विज्ञान के पास हर प्रश्न का जवाब नहीं है- उसकी अपनी एक विशिष्ट कार्य पद्धति है- विज्ञान की पद्धति यानि, जिज्ञासा ... ... प्रश्न... ... प्रेक्षण, संकल्पना, जाँच परख, सत्यापन और निष्कर्ष के सोपानों को पार कर जो उत्तर मिलता है, वहीं विज्ञान का उत्तर है-विज्ञान सम्मत उत्तर है। इसीलिए ``ईश्वर´´ का प्रश्न विज्ञान के समक्ष अनुत्तरित है-ईश्वर विज्ञान की कसौटी पर नहीं उतारे जा सकते। ऐसा कोई प्रयोग परीक्षण आज तक अवधारित नहीं हो सका जो ईश्वर की जाँच विज्ञान की पद्धति पर करे। अत: विज्ञान इस सम्बन्ध में चुप है- वह न तो यह कहता है कि ईश्वर है और न ही यह कि ईश्वर नहीं है। इन दोनों पक्षों की पुष्टि में प्रायोगिक प्रमाण नहीं है। यहाँ लाचार है बिचारा विज्ञान। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जाता है कि जो कुछ प्रमाण पूर्वक झुठलाया न जा सकता हो, उसे सप्रमाण साबित भी नहीं किया जा सकता । विज्ञान की पद्धति से ``ईश्वर´´ न झुठलाये जा सकते हैं और न ही साबित हो सकते हैं क्योंकि इसके लिए चाहिए प्रमाण (जो अभी तक नहीं जुट सका है)। फलत: ``लांग लिव गॉड´´ - जियें वे करोड़ों किंवा असंख्य वर्ष ... ... कम से कम विज्ञान से कोई चुनौती नहीं है उन्हें । हाँ, हम बात मानव के अन्तिम लक्ष्य की कर रहे थे... ... शायद विज्ञान के पास इस प्रश्न का भी उत्साहजनक सीधा सपाट उत्तर नहीं है... ... पर वह मानव की मौजूदा स्थिति, उसके भविष्य पर जरूर कुछ कह पाने की स्थिति में है।


    चार्ल्स  डार्विन ने बहुत ही प्रभावपूर्ण तरीके से यह स्पष्ट कर दिया था कि मानव किसी सृजन का परिणाम नहीं बल्कि एक लम्बी सतत विकास प्रक्रिया का उच्चतम उत्पादन है। यह विकास प्रक्रिया एक कोषी जीव से शुरू होकर अपने में समूची धरा के जीव जन्तुओं को समेटे हुए है। जीवनोद्भव और विकास का यह सिलसिला धरती पर लगभग एक अरब वर्ष पहले शुरू हुआ लगता है। करीब साठ करोड़ वर्ष पुराने सूक्ष्म जीव समूहों के जीवाश्म वैज्ञानिकों ने ढूढ़ निकाले हैं। विकास की प्रक्रिया एक बार जो शुरू हुई तो फिर थमी नहीं है, विविध जीवों के अवतरण के पश्चात् भी विकास की क्रिया विधि अभी भी सक्रिय है- यानि आज के आदमी, जानवर सभी विकास पथ पर ही अग्रसर हैं- बहुत धीमी गति से -शनै:शनै: । पर प्राणियों के इस ``जैवीय´´ विकास में एक बड़ी अनहोनी (!) मानव के साथ घटी है.. ... ... उसका एक और विकास अचानक ही शुरू हो गया- सांस्कृतिक विकास, जिसने कालान्तर में मानव की कई अलग थलग संस्कृति और सभ्यताओं को जन्म दे दिया। शायद यह मानव की जैवीय सत्ता से पृथक उसकी विशिष्ट बुद्धि से सृजित एक नये ढंग के विकास की प्रक्रिया है। आज मानव के इस वैविध्यपूर्ण अनूठे विकास की झलकियाँ, धरती के विभिन्न द्वीपों-महाद्वीपों में दृष्टव्य हैं- मानव का यही सांस्कृतिक विकास उसे अपने अन्य जैवीय सहचरों से एक अलग विशिष्ट पहचान देता है। निश्चित ही, मनुष्य उस परम सत्ता, (मैं उसे प्रकृति कहूँगा) की एक विशिष्टतम कृति है ... ... शायद इस कृति के अवतरण में प्रकृति का कोई हेतु छिपा है... ... कोई खास मकसद।


    अब यदि मानव अस्तित्व के इस विशेष हेतु/प्रयोजन का पता लग जाय तो उसके अन्तिम अभीष्ट का भी कुछ आकलन सम्भव हो सकता है। प्रख्यात विज्ञान कथाकार आइजक आजिमोव ने अपनी एक - चर्चित कहानी ``द लास्ट ऐन्सर´´ में बड़े ही मनोहारी तरीके से मानव अस्तित्व से जुड़े इन कई शाश्वत प्रश्नों के उत्तर पाने की कोशिश की है। कहानी का भौतिकीविद नायक मृत्योपरान्त ब्रह्माण्ड  नियामक (परम सत्ता) से यह जानना चाहता है कि उसकी उत्पत्ति का हेतु क्या था।
जवाब मिलता है-
``महज मेरी इच्छा,  केलि, क्रीड़ा-कौतुक और कुछ नहीं´´ इस बेतुके जवाब पर नायक क्रोधित हो उठता है और कहता है,
    ``मात्र मनोरंजन  के लिए मेरी उत्पत्ति की आपने, यानि मैं आजीवन केवल क्रीड़ा का पात्र बना रहा आपका´´ ... ...
    फिर एक उत्तर, ``वह तो तुम अभी भी हो, ... पहले साकार, अब निराकार रूप में´´
    ``यानि में आपका बन्धक हूँ, बन्धुआ प्राणी मात्र ... ... मैं इस बन्धन से मुक्ति चाहता हूँ´´  झुंझलाये नायक का प्रतिवाद था।
    ``हूँ, खूब ,बहुत खूब, ... ... सस्ते में ही निर्वाण चाहते हो--पड़े रहो इसी तरह... ... ´´

    संवाद अनवरत चलता है... ... यहाँ मृत्यु के उपरान्त भी नायक को छुटकारा नहीं है। यहाँ वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह उस असीम सत्ता का ही प्रतिकार करता है, विद्रोह कर देता है... ... उससे प्रतिवाद करता है। ठीक आधुनिक मानव की तरह, जिसने प्रकृति के प्रतिकार को ही अपनी जीवनचर्या/जीवन दर्शन बना लिया है।


    यहीं एक यह प्रश्न भी उठता है कि क्या ``प्रकृति पर विजय´´ का अभियान मानव का उसकी ``प्राकृतिक दासता´´ से मुक्ति का प्रयास है। क्या वह प्रकृति के बँधे बधाये वैकासिक क्रम से स्वतन्त्र हो अपना अलग विकास (सांस्कृतिक विकास) चाहता है, पर इस सूझ की प्रेरणा उसे मिली कहाँ से। कहीं उसकी यह विकास यात्रा भी प्रकृति से अनुप्राणित तो नहीं है। दूसरे शब्दों में क्या मानव का ``सांस्कृतिक विकास ``प्रकृति की ही कोई गुप्तगुंफित योजना तो नहीं है, तो क्या मानव का उत्कर्ष या अवसान उसके सांस्कृतिक विकास में ही निहित है। क्या मानव महा विनाश की ओर बढ़ रहा है। प्रकृति के इस या ऐसे किसी गुप्त प्रयोजन की भनक क्या उसे है?


    किन्तु भला प्रकृति मानव का सम्पूर्ण विनाश क्यों चाहेगी। वह तो जीवन के सतत संवहन की पक्षधर रही है। संतति प्रवाह ही तो उसका एक प्रमुख ध्येय है।


    प्रथम दृष्टि में तो यह सच सा लगता है कि सुख शान्ति के खेल में बेचैन मानव की सुख शान्ति ही उससे दिन ब दिन छिनती जा रही है-उसके सांस्कृतिक विकास, उसकी सभ्यता ने उसे कई महारोगों का अभिशाप भी तो दे डाला है। आज वह, चिन्ताग्रस्त है, तनाव  ग्रस्त है- ``सुख´´ उसके लिए मरीचिका है। यानि प्रकृति से अलग हटना, स्वयं मानव के लिए आत्मघाती हो सकता है। शायद इसीलिए दार्शनिक रूसों ने ``प्रकृति की ओर लौटो´´ का नारा बुलन्द किया था। गोस्वामी जी की यह बहु -उद्धृत उक्ति कि ``सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति... ... ´´ भी शायद मानव को जैवीय, प्रकृति सम्मत तरीके से जीवन यापन की व्यंजनात्मक सीख देती है।


    आज का मानव सांस्कृतिक विकास के बावजूद भी अपने पाशविक अतीत से मुक्त नहीं है- उसकी पशु-विरासत उसके आचार-व्यवहार में क्षण-क्षण दर्शित होती रहती है। उसकी अति आक्रामकता, कामुकता उसकी पाशविक पृष्ठभूमि की ही चीख-चीख कर ऐलान करती है। विश्वभर में बढ़ती हिंसा और अपराधों पर एक दृष्टिपात तो कीजिए। गुफा मानव तो क्रोध में महज पत्थर के आयुधों का ही संधान करता था ... .पर आज का ``सांस्कृतिक मानव´´ तो परमाणु बम तक चल देता है। गुफा मानव अपने शिकारी दल के साथ पकड़े शिकार को साम्यवादी तरीके से मिल बाँट कर खाता था ... ... पर आज के ``धन कुबेर´´ सारी सम्पदा हड़पने को आमादा हैं... ... ... क्या मानव का यही अभीष्ट है, तो फिर सांस्कृतिक विकास का क्या अर्थ रह जाता है।  जारी ......