रामायण
वह आख्यान है जिसके ऐश्वर्य में उदात्त उद्योगी मानवता वैसे ही पगी हुई है जैसे
देह में प्राण। विराट स्वप्न, तैयारी, प्रतीक्षा, उत्सर्ग अभियान और परिणाम की इस
पंचगंगा से त्रिदेव झाँकते हैं – निर्माण, पोषण और अनुशासन। लिखित मानव इतिहास में सफल आमूल चूल परिवर्तन का
यह पहला उदाहरण है। पुरुषोत्तम के नेतृत्त्व में सारे नृजातीय भेद भुला संगठित नर,
वानर, भल्लूक आदि का औपनिवेशिक बर्बर सत्ता के विरुद्ध यह वह सुफल जन अभियान है जिसकी
पहली छलाँग सुन्दरकाण्ड है।
सुन्दरकाण्ड
उस एकल पुरुष का शौर्य है जो सु नर-सुन्नर-सुन्दर है और उस एकल स्त्री की तपस्विनी
धैर्यश्रद्धा है जो सुनारी-सुन्दरी है। यह अपरिचय को निरी जैविकता से परे माता और पुत्र
सम्बन्ध की अतुल्य भावभूमि में परिवर्तित कर देने वाले राम रसायन का प्रभावी चित्रण
है।
वाल्मीकि
जी ने राम आख्यान के लिये संज्ञा चुनी – राम+अयन, रामायण। सूर्य विष्णु हैं। सूर्य
की गति अयन गति है जो उत्तरायण दक्षिणायन करते पूरी होती है। सूर्यवंशी राम भी यह
यात्रा पूरी कर ऋत सम्मत समाज की स्थापना करते हैं और अवतार शृंखला में स्थान पाते
हैं, वनवास के चौदह वर्ष मानों चौदह भुवनों में गड़े उनके कीर्ति स्तम्भ हैं। अगस्त्य
जिसके सूत्रधार थे उस उत्तर दक्षिण संगम एकता आख्यान का उपसंहार राघव ने रचा। राघव
का रामसेतु उत्तर और दक्षिण के बीच का संवादसेतु हो गया।
रावण
शोषण का पहला सुनियोजित और संगठित नेतृत्त्व था। उत्तर में कैलास से नीचे दक्षिणी महासमुद्र
तक उसके स्कन्धावार फैले हुये थे। वह लंका का मूलनिवासी नहीं था। चरम भोग और उससे प्रेरित
हिंसा अत्याचार का आश्रय ले उसने गिरोहबाजी का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो बहुत प्रभावी थी, जिसके आगे सभी शक्तियाँ झुक सी गईं।
लंका के मूलनिवासी यक्ष साम, दाम, दण्ड और भेद नीतियों द्वारा राक्षस जाति में
परिवर्तित कर दिये गये और वहाँ राक्षस सत्ता का औपनिवेशिक केन्द्र स्थापित हुआ।
पहचान मिटाना राक्षसों की नीति का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय था। सुदूर समुद्री प्रदेश और उत्तर की ओर रक्ष संस्कृति के प्रसार का जो अभियान
प्रारम्भ हुआ वह कैलास की चढ़ाई पर महादेव द्वारा ही रोका जा सका। उस ब्रह्मराक्षस को
जैसे अपनी सांस्कृतिक सीमा मिल गई, उत्तर के कैलास वासी उसके लिये परम पूज्य हो गये
और नीचे समस्त अवनी को वह मेदिनी संज्ञा से मढ़ता सा चला गया।
पीडित
प्राकृत जन और उनके अगुवे भी हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहे। जो जिस योग्य था, प्रतिरोध
करने और अंतिम संघर्ष के लिये एक योद्धा समान स्वयं को तैयार करने में लगा रहा। राक्षस
स्कन्धावारों के साथ ऋषि आश्रमों का लम्बा सह-अस्तित्त्व यूँ ही नहीं था, उसके लिये
बहुत तप और पराक्रम चाहिये थे जिन्हें जननेतृत्त्व ने सँजोया हुआ था।
कृषि
अनुसन्धानी गोतम के क्षेत्र में राज करते परम ज्ञानी ‘सीर’ध्वज ‘जनक’ ने शिव का
अतिगुरु महाधनुष प्राप्त कर लिया लेकिन चलाये कौन? वह श्रद्धास्पद वस्तु बन गया।
वैसे भी एक स्थान पर स्थापित कर ऊँचाई से मार करने वाला वह भारी धनुष मैदानों में
कितना कारगर होता? मैदानों में तो क्षिप्र और एक-जन-वह्य शस्त्र चाहिये था। कौन
लाये?
गाथिन
कौशिक और भृगु परम्परा रक्तसम्बन्ध से जुड़ी थी। नवग्व और दशग्व ऋषियों से युक्त इन
दो कुलों में एक तो परम अनुसन्धानी विश्व के मित्र विश्वामित्र हुये तो दूसरे
महापराक्रमी राम जामदग्नेय। राम जामदग्नेय का परशु वनप्रांतर का सबसे विकसित
शस्त्रास्त्र है। उससे पेंड़ काटे जा सकते हैं, सम्मुख युद्ध में लड़ा जा सकता है और
आवश्यकता पड़ने पर फेंक कर मार भी की जा सकती है लेकिन उसकी सीमायें है - नुकीला
न होना और संग्राम में चलाने के लिये अतिमानवीय बल और कौशल की आवश्यकता। परशु जाते
हुये उस युग का अंतिम चिह्न है जिसके द्वार कृषिकर्म खटखटा रहा था। क्षत्रिय उसकी अगुवाई
में थे। व्यवस्थित वन जीवन में उनकी अवांछित घुसपैठ की भयानकता रेणुका और सहस्रार्जुन
जैसी गाथाओं में सुरक्षित है। बड़ी लम्बी और हिंसक रही यह लड़ाई। क्षत्रियों का राम जामद्ग्नेय
द्वारा कथित इक्कीस बार उच्छेद स्थापित समाज की शक्ति तो दर्शाता ही है, साथ
में यह भी दर्शाता है कि समय की करवट को कोई रोक नहीं सकता।
मीठी
घास ईंख से शर्करा निकालने हेतु इक्ष्वाकु क्षत्रियों के पास कृषि तकनीक थी और भिषग-वनस्पति
अथर्वण ज्ञानभूमि भी जिसमें स्त्री पुरुष का सहकर्म अनिवार्य था। ये क्षत्रिय
सिंहासन पर बैठने वाले राजा या मार काट करने वाले सैनिक भर नहीं थे। विश् प्रजा की
अभिवृद्धि और उसके कल्याण हेतु नित नवीन आविष्कार उनकी थाती रहे। ‘क्षत्रिय कर्म’ वैश्यकर्म
की वह उच्चस्थ छाया थी जिसके तले विद्याब्रह्म और सेवाशूद्र फलते फूलते रहे।
विश्वामित्र
साधना में लगे शस्त्र अनुसन्धान करते रहे, नये संसार गढ़ते रहे। वृद्ध होती देह लिये
सुपात्र शिष्य को ढूँढ़ लेने का तनाव आसान नहीं रहा होगा। कहना न होगा कि इक्ष्वाकु
रघुवंशियों की राजसभा में उनका पधारना अचानक नहीं था। न तो मिथिला की यात्रा में
प्रशिक्षण अचानक था और न ही रक्ष स्कन्धावार की राह ले पहली संघर्ष परीक्षा।
गोतम की अश्म बनी अहल्या के पास तक राघव राम को ले जाना विश्वामित्र द्वारा ली जा
रही परीक्षाओं का अंत था। उन्हों ने सफलता पर कहा होगा क्या कि राम! जीवन का एक
पहलू यह भी है। दक्षिणायन होगे तो इसे स्मृति में बनाये रखना!
राम
की सुपात्रता पर पूरी तरह सुनिश्चित हो उन्हों ने ‘वीर्यशुल्का’ सीता का वृतांत
बताया - देखने चलोगे राम? यज्ञ भी हो रहा है। वीरता की कसौटी बना वह शिवधनु भी देख
लेना!
कहना
न होगा कि विश्वामित्र ने उसकी तकनीक भी सिखा दी थी - वह अब अनुपयोगी है राम!
भार्गव राम जाने किस शंकामोह में पड़े हुये हैं, पर्वतप्रांतर की रुद्री वनप्रांतर में
नहीं चलेगी, उसे सूर्य किरणों की चाहना है, भूमि पुकार रही है। चलोगे
राम? सीता पुकार रही है।
हल
जोतते क्षत्रिय ‘सीर’ध्वज की ‘अयोनिजा’ कन्या सीता संज्ञा वाली यूँ ही नहीं हुई। सीता
खेत के घोहे को भी कहते हैं। कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं, सीरध्वज क्या करते? सीता
का हाथ किसे दे दें, तब जब कि राक्षस स्कन्धावारों की घुसपैठ रोकनी कठिन होती जा
रही है? विश्वामित्र से मिले थे क्या? उस धनुष का सन्धान ही सुपात्र की कसौटी होगी
जो अस्त्र और सीता दोनों को धारण कर सकेगा??
राजघोषणा
फैलती गयी सीता उस वीर की सहधर्मिणी बनेगी जो शिवधनु पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। कई आये
लेकिन 'भारी' धनुष को बस बर्बर बल से कौन साध सकता था, उसके लिये तो कुछ और भी चाहिये थी!
राजन!
ये इक्ष्वाकु कुल नन्दन आये हैं। शिव धनुष देखना चाहते हैं, दिखाइये न! – यही कहा
था विश्वामित्र ने। पहिये लगी पेटी में बन्द उस भारी धनुष को हजारो खींचते हुये ले
आये। मानसिक संवाद हुआ होगा - देख लो राम! रुद्र ऐसी दशा देख रोते होंगे कि नहीं?
इसे
चढ़ाने का प्रयास करूँ गुरुदेव? – राम ने पूछा। हाँ, हाँ, क्यों नहीं?
और
प्रत्यंचा चढ़ाते हुये धनुष टूट गया, या तोड़ दिया गया? धन्य राघव! अब भार्गव राम का
तेज सहने को सन्नद्ध हो जाओ।
भार्गव
राम, इक्ष्वाकु राम – आमने सामने। संवाद क्या
हुये, दोनों एक दूसरे को जैसे तौलते रहे। रुद्र की रौद्रता और विष्णु की ममता को
निज अस्तित्त्व में समोये भार्गव ने पाया, अब और प्रतीक्षा नहीं। इससे अधिक
सुपात्र मिलने से रहा। रुद्र काल बीत गया, विष्णु काल प्रारम्भ हुआ – युगपरिवर्तन।
कवियों ने रचा – भार्गव राम के पास जो विष्णु का धनुष था, वह अपने आप इक्ष्वाकु
राम के हाथ चला गया! उस दिन विष्णु के दो अवतारी एक दूसरे से मिले।
मात्र
पूजनीय भारी पिनाक के स्थान पर उपयोगी हल्का शार्ङ्ग धनुष मनुष्य के हाथ आया, मानव
के हाथ अवतरण। दो दो विष्णु अवतार, प्रज्ञा सिद्धांत और अनुप्रयोग। परशुराम संक्रमण कड़ी हैं, अलौकिक और लौकिक की सन्धि हैं। अलौकिक कौन? वह जो
कृषि आधारित लोकसंस्कृति के लिये पुरनिया है।
पुरनिये
भार्गव द्वारा अर्जित लोक का नाश कर जैसे इक्ष्वाकु राम ने तर्पण विदा दी, जाइये
पितर! अब आगे मुझे देखना है। निश्चिंत रहिये। आप का यह आशीर्वाद अमोघ है, इक्ष्वाकु
राम भी अमोघ है। मुझे तो जन जन में रमना है। रमते राम अमोघ होते हैं न! रक्त सम्बन्धी गाथिन विश्वामित्र और राम जामदग्नेय
की यात्रायें पूरी हुईं। वे दोनों नेपथ्य में चले गये और आगे राम
ने गुरु अगस्त्य की राह पकड़ी।
विन्ध्य
को पहली बार पार कर उत्तर को दक्षिण से जोड़ने वाली अद्भुत अगस्त्य परम्परा जैसे मूर्तिमान
सजग प्रतीक्षा है। जाने कैसा पारस है उसके स्पर्श में कि शबरी, शरभंग, सुतीक्ष्ण, कबन्ध
आदि सभी हिरण्यतेज से पूरित लगते हैं। कच्चे मांस का भी व्यञ्जनवत भक्षण करने वाले
राक्षस प्रभुत्त्व क्षेत्र में भी अगस्त्य की उपस्थिति सभी वनवासियों को जिजीविषा
और उत्साह से जिलाये रखती है।
राक्षस
क्रूर हैं, महाबली हैं, उच्च तकनीकी और क्षिप्र यातायात के साधनों से युत हैं, स्वामी
हैं किंतु अल्पसंख्यक हैं, बाहरी आक्रांता हैं। जन के स्थान को उपनिवेश बनाये हुये
आखेटक हैं।
पीढ़ी
दर पीढ़ी जमा आक्रोश अगस्त्य की संगति में कर्मठ हो गया – प्रतीक्षा करो, उचित समय
की और उचित नायक की भी लेकिन तैयारी में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये।
स्त्री
स्मिता का हरण और बलात्कार रक्ष संस्कृति की पहचान थे। कुमारियाँ और विवाहितायें तिरस्कृत
होतीं, अपहृत होतीं, बलत्कृत होतीं और अंतत: वस्तुस्थिति को सब चुप स्वीकार भी कर लेते
लेकिन उनके पीछे के आक्रोश का क्या? राम के वनवास के चौदह वर्ष सीतायन भी हैं। वह
सीता जो सुकुमारी होने पर भी साथ चलती सारे कष्ट सहती वनप्रांतर में विहँसती कृषिकन्या
है, प्रेरणा भी हैं। सीर गोत्रा सीता इतने वर्ष अनुद्योगी तो नहीं रही होगी!
वनवासियों
के बीच ऐसे मानव अवतरित हुये थे जो सहते नहीं थे, दण्ड देते ही थे। राम द्वारा जनस्थान
को राक्षसशून्य कर उसका वास्तविक रूप पुन: स्थापित करना वनवासियों के लिये बहुत ही
प्रेरक रहा। सीता का हरण हुआ किंतु प्रतिरोध भी हुआ और सब जानते हुये भी उसके पथ
पर दृष्टि भी रखी गयी। आगे जो हुआ वह अकल्पनीय था। रोता भटकता सबको बताता, सबसे
पूछता राजन्य राम मानसिक जड़ता को तोड़ता गया। उससे पहले दबी ढकी चुप्पी थी, ऐसा
स्वीकार और प्रतिकार की ऐसी उत्कट चेतना अनदेखी थी। दोनों भाई जहाँ भी जाते, परिचय
में सीता का अपहरण अवश्य बताते। अरण्यकाण्ड नीतियों द्वारा जनसंगठन है तो किष्किन्धाकाण्ड
सक्रिय आयोजन। वालिवध उसका चरम है।
रावण
को भी मर्दित कर उससे समझौते में रहने वाले बाली का वध कर श्रीराम ने अपने लिये
सेना ढूँढ़ ली। वनवासियों और लड़ाकू यूथपों के बीच स्पष्ट सन्देश गया – यदि रावण को
पराजित करने वाला बाली मारा जा सकता है तो रावण भी। वह अजेय नहीं, उसके पास कोई अमृत
नहीं। हमारे द्वारा संगठित अभियान की कमी का विष ही उसका अमृत है।
सुग्रीव
की भार्या को बाली के चंगुल से मुक्ति दे राम ने रावणी संस्कृति के अवसान की
प्रस्तावना लिख दी। यदि एक अकिंचन निर्वासित राजन्य झूठी लज्जा छोड़ अपनी अपहृता पत्नी
के लिये अकेले इतना बड़ा कर्म कर सकता है तो अन्य क्यों नहीं? श्रीराम ने वर्षों से
जमा आक्रोश को न केवल तोड़ा बल्कि उसके प्रवाह को दिशा दे दी।
कृतज्ञ
सुग्रीव का सन्देश वानर यूथपों तक फैलता चला गया – अपहृत सीता को ढूँढ़ना है। प्रतिरोध
हेतु किसी नेतृत्त्व द्वारा चिरप्रतीक्षित आदेश का स्वीकार स्वाभाविक था और नियोजन
की सफलता भी। चार दल बना कर चार दिशाओं में भेजे गये और एक को छोड़ सभी दल लौट आये,
वह दक्षिणी दल था।
दक्षिणी
दल के महावीर वातात्मज हनुमान लंका तक की छलाँग को तैयार हो गये। आँखें पार नहीं
पा सकती, ऐसा अगाध महोदधि सामने था। लक्ष्य - शत्रुओं से भरे नितांत अपरिचित प्रदेश
में उसके वासनामलिन राजा द्वारा अपहृत सुन्दरी स्त्री की खोज।
स्वामी
ने तो कह दिया था – यथा योग्यं तथा कुरु! अब तो जो करना है, उन्हें ही करना था। प्रदेश
तो दूर था, मार्ग की बाधायें क्या कम थीं?
महेन्द्रगिरि
की ऊँचाई से क्षितिज पर द्वीप दिखा। हनुमान जी ने अंतरीप मार्ग पकड़ा।
वाल्मीकि
जी इस अभियान के लिये एक अर्थगहन शब्द और उसकी व्युत्पत्तियाँ चुनते हैं – प्लव। इसमें
तैरना, छलाँग मारना, गोते लगाना और उड़ना सभी समाहित हैं। हनुमान वातात्मज हैं –
वायु के पुत्र। तरल माध्यम चाहे द्रव हो, चाहे वायु; उनकी गति दोनों में हैं।
हनुमान वानर हैं, प्लवग। सुग्रीव प्लवगराज हैं।
वृक्षों से भरे उभरे द्वीपों से युक्त अंतरीप
मार्ग से अभियान हनुमान जैसे प्लवग वनवासी नर के लिये उपयुक्त था। लम्बी यात्रा
में बिना रुके वृक्षों पर छलाँग मारते कभी उड़ते से तो कभी तैरते इस अभियान को
सुगमता से पूरा किया जा सकता था। द्वीपों की रेखा मार्ग के लिये दिशा सूचक थी।
अपहृत
संस्कृति समास संयुक्ता सीता दूर देश में उद्धार की प्रतीक्षा में बैठी हुई हैं - अदीनां
भर्तृ तेजसा रक्षितां स्वेन शीलेन। ब्रह्मराक्षस को शील कितने दिन रोक पायेगा, भर्तार
के तेज को पहुँचना ही होगा।
महेन्द्र
पर्वत को पाँवों से दबाते उसे पीड़ित करते वायुपुत्र प्लवग हनुमान ने छलाँग ली:
स महान्
सत्त्वसन्नाद: शैलपीडानिमित्तज:
पृथिवीं पूरयामास दिशश्चोपवनानि च
राघवनिर्मुक्त: शर: श्वसनविक्रम:
गच्छेत् तद्वद् गमिष्यामि लङ्का रावणपालिताम्
भार्गव का पराभव साक्षी है, राम का बाण अमोघ है। महर्षि वाल्मीकि
हनुमान के इस छलाँग की तुलना राम के निर्मुक्त शर से करते हैं, लक्ष्य है
रावणपालित लङ्का। यह अमोघ बाण बिना ध्वंस के वापस तूणीर में नहीं आने वाला।
सारे
संशय मिट गये थे। शोषक और अत्याचारी औपनिवेशिक रक्षदुर्ग के विरुद्ध प्लवग ने 'पहला पग' नहीं उठाया, सीधे छलाँग मारी। आत्मविभूतिदर्शन का परिणाम तो आगे आने वाला था!