सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

गच्छ सौम्य यथासुखम् [सुंदरकाण्ड - 4]


महर्षि कहते हैं कि हनुमान जी द्वारा मैनाक को इस प्रकार पार करना उनका दूसरा दुष्कर कर्म था – द्वितीयं हनुमत्कर्म दृष्ट्वा तत्र सुदुष्करम्। सागर को पार कर शत्रु क्षेत्र के अत्यंत अपरिचित, हिंस्र और दुर्जेय लङ्का में प्रवेश का निर्णय ले छलाँग भरना पहला दुष्कर कर्म था:
रामार्थं वानरार्थे च चिकीर्षन् कर्म दुष्करम्।
समुद्रस्य परं पारं दुष्प्रापं प्राप्तुमिच्छति॥

परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुयी थी - लङ्का पुरी में तो इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले कामरूपियों से पाला पड़ेगा जो कि भय के साथ बुद्धि को भी चुनौती देंगे, मारुति क्या उनसे पार पा सकेंगे?
राक्षसों से पीड़ित देव, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि; ये चार मिल कर नागमाता सुरसा के पास गये – मारुति के मार्ग में मुहुर्त भर के लिये विघ्न डाल दो। भय उत्पन्न करने वाली राक्षसी का भयंकर रूप बनाओ – द्रंष्टाकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभ:स्पृशम्! हम सब पुन: मारुति के बल और पराक्रम को जानना चाह रहे हैं को संकट के समय ये उपाय कर तुम्हें जीतने के लिये कार्य करेंगे या विषाद में पड़ जायेंगे – त्वां विजेष्यत्युपायेन विषादं वा गमिष्यति?

राक्षसों की अजेयता का इतना आतङ्क था कि श्रीराम हित उनका भी कार्य सम्पन्न करने जा रहे मारुति को वे सभी ठोंक पीट कर परीछ लेना चाहते थे – आगे की सम्भावित दारुण परिणति से अच्छा है कि अभी निर्णय हो जाय। उन्हें केवल अपनी पड़ी है। पिटी पिटायी परिस्थिति में स्वयं अभियान न कर किसी अन्य उद्योगी को परीक्षित करना उसके लिये रजोगुणी बाधा उत्पन्न करना है। स्थैतिक बल और गतिक पराक्रम की पर्याप्तता जाँचना रजस है।
सुरसा अर्थात सुर-सा। नागमाता हैं किंतु उन चार के वर्गहित में पीड़ित नागों का भी हित देख कर नागमाता सहमत हो गयीं, रजोगुणी का यह भी एक लक्षण है। वह भयङ्कर रूप धारण कर पथ में अड़ गयीं - विकृतं च विरूपं च सर्वस्य च भयावहम्!

हनुमान! देवताओं ने तुम्हें भक्ष्य बता मुझे अर्पित कर दिया है। मैं तुम्हें खाऊँगी, मेरे मुख में प्रवेश करो। यहीं पर नहीं रुकीं, कहा कि यह तो मुझे पुराना ब्रह्म वरदान है – वर एष पुरा दत्तो मम! सुजन वरदानों के भ्रष्ट उपयोग और उनसे निवृत्ति के उदाहरण पूरी रामायण में व्याप्त हैं। विशिष्ट के विरुद्ध साधारण किंतु अप्रतिहत मानवीयता की अंतत: विजय ही तो रामाख्यान है। इस महत्त्वपूर्ण घड़ी भी उसे उपस्थित होना ही था। (आगे लङ्का में भी ऐसी स्थिति आनी है जहाँ दैहिक बल और पराक्रम से अधिक बुद्धि उपयुक्त होगी। महाकाव्य की विशेषता इसमें है कि मानवीयता को दृढ़ खड़ा रखता है - देखते हैं। सब कुछ जान समझ कर ‘देखी जायेगी’ कह कर उद्यत होने वाला रजस भाव यहाँ प्रतिष्ठित है।)    

मारुति ने धैर्य धारण किया, भयभीत तो हुये ही नहीं। प्रसन्नमुख अपना पक्ष निवेदित किये – प्रहृष्टवदनोऽब्रवीत्। राक्षसों से तो राम का भी वैर है और उनकी यशस्विनी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया है – सीता हृता भार्या रावणेन यशस्विनी। अर्थात श्रीराम वैरी के वैरी हैं और पीड़ित स्त्री को मुक्त करना चाहते हैं, तुम तो राम की प्रजा भी हो। माता! ऐसे में तुम्हें तो उनकी सहायता करनी चाहिये – कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनी। (उल्टे बाधा डाल रही हो?)

ध्यान देने योग्य है कि सीता यशस्विनी हैं, वनवास के वर्ष उन्हों ने ऐसे ही नहीं बिता दिये थे। राम के अभियान का जनपक्ष यहाँ भी उद्धृत है। नाग भी उनके विषयवासी प्रजा थे और वे भी राक्षसों से पीड़ित थे। अभियान साधारण नहीं था।

मारुति ने विकल्प भी दे दिया। मैथिली का दर्शन कर श्रीराम जी से मिल लूँगा तब तुम्हारे पास आ जाऊँगा, यह मेरा सत्यवचन है – आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते, अभी तो जाने दे माँ! राजन्य वर्ग में वचन की बड़ी प्रतिष्ठा थी। इक्ष्वाकु कुल तो प्रसिद्ध ही था। मारुति ने यह कह स्मृति सी दिलायी कि मैं रघुवंशी राम का दूत हूँ, तुम्हें मेरे वचन को मान देना ही चाहिये।

राजा, प्रजा, कुल, वचन-प्रतिष्ठा, स्त्री पीड़ा आदि सबको मिला कर स्थिर प्रसन्न बुद्धि से मारुति ने जो संवाद किया उससे उनकी बुद्धिमत्ता प्रमाणित हो गयी लेकिन सुरसा को तो हनुमान की क्षमता भी जाननी थी – बलं जिज्ञासमाना, उसे युक्ति पूर्वक प्रयोग में ला भी सकता है या नहीं, यह भी तो जानना है।

माता ने मुख फैला दिया – तुम्हें तो मेरे मुख में प्रवेश कर के ही आगे जाना होगा, मेरी अवहेलना कर कोई आगे नहीं बढ़ सकता! निविश्य वदनं मेऽद्य गंतव्यं वानरोत्तम

हनुमान और उनमें होड़ सी लग गयी – वे मुख फैलाती गयीं, हनुमान भी बढ़ते गये। सीमा समझ हनुमान ने अपना आकार अंङ्गूठे के बराबर कर लिया, मुख में प्रवेश कर बाहर निकल नमस्कार मुद्रा में खड़े हो गये – दाक्षायणि! तुम्हें नमन है। अब तो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया, मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश कर बाहर जो आ गया। मैं अब वहाँ जाऊँगा जहाँ वैदेही हैं। (विद्वानों ने दाक्षायणि का अर्थ दक्ष पुत्री किया है। नागमाता का दक्ष पुत्री होना एक अलग विषय है।)

रजोगुणी परीक्षा पूर्ण हुई, बलबुद्धिनिधान हनुमान सफल हुये। आश्वस्त माता ने प्रकृत रूप धारण कर उन्हें आशीर्वाद दिया:
अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्
समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना
हे हरिश्रेष्ठ! वांछित कार्यसिद्धि के लिये सुख पूर्वक जाओ। हे सौम्य! वैदेही को राघव से शीघ्र मिलाओ।

हमुमान जी द्वारा यह तीसरा दुष्कर कार्य सम्पन्न हुआ - तत्तृतीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम्

... तमस परीक्षा आगे थी।  

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016

मैनाक! प्रतिज्ञा च मया दत्ता [सुंदरकाण्ड - 3]

जीवन की भारतीय संकल्पना त्रिदेव, त्रिगुण, त्रिदोष संतुलन और त्रि पुरुषार्थ के पथ चलते अनंत से एकाकार होने या मोक्ष प्राप्त करने की रही है। काल के तीन आयामों में विचरित चेतना इनसे ही अनुशासित होती है। ऋग्वेद में भी  तिस्रो देवियाँ मही, इळा और सरस्वती बीज रूप में हैं और समस्त ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों में रची बसी हैं:
आ भारती भारतीभि: सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्नि:।
सरस्वती सारस्वतोभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदंतु॥  
(वसिष्ठ, विश्वामित्र)
भारतीळे सरस्वति या व: सर्वां उपब्रुवे। ता नश्चोदयत श्रिये॥ 
(अगस्त्य मैत्रावरुणि)
इसी क्रम में तीन नाड़ियों पिंगला, इड़ा और सुषुम्ना पर भी ध्यान चला जाता है।    
बिना बँधे अनासक्त कर्म चरम आदर्श है, सत है। उसका मार्ग रजस से है जो कि दोषयुक्त होने पर भी वरेण्य है। रजस तत्त्व तमस वृत्ति से उठान है। परिवेश से सद् प्रेरणा, तुलना, प्रतिद्वन्द्विता, कठिन कर्म आदि रजोगुण के लक्षण हैं। रजोगुणी होना सर्वसाधारण के लिये भी सरल है। निष्क्रिय तमस को ही सतोगुण मान बैठे भारत हेतु विवेकानन्द ने इसीलिये कभी रजोगुण का आह्वान किया था। युवकों के लिये वे हनुमत् आदर्श ही चाहते थे – नि:स्वार्थ, बली, पराक्रमी और पूर्णत: समर्पित।   
     
कर्म के पथ त्रिगुण अर्थात सत्, रजस और तमस परीक्षायें आती ही हैं। अनजान और भयङ्कर तमसकेन्द्र लङ्का में वायुपुत्र को आगे अग्नि को भी साधना था, परीक्षाओं से कैसे छूट जाते?
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 पितरों के शुभकर्म संतति के लिये सुभीते हो जाते हैं। आदिकवि सागर और पर्वत दोनों का मानवीकरण करते हैं। वज्रांग हनुमान के अभियान हित सागर का कृतज्ञ भाव मूर्तिमान हो उठा। उसने अपने भीतर स्थित  मैनाक पर्वत से कहा,”हनुमान श्रीराम के हित इतने उत्कट अभियान पर निकले हैं। श्रीराम के पूर्वज सगर ने मेरी अभिवृद्धि की थी, कृतज्ञता कहती है कि इतने लम्बे पथ पर मुझे इस कपि को विश्राम प्रदान करना चाहिये। अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धित: ... तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपि:। पानी से ऊपर हो - सलिलादूर्ध्वमुत्तिष्ठ तिष्ठत्वेष कपिस्त्वयि!” 
मैनाक ऊपर हो आया।
 नि:स्वार्थ भाव से रामकाज करने को कभी तैरते और कभी अंतरीप छलाँग भरते जाते मारुति को पथ में विशाल मैनाक पर्वत अड़ा दिखा – दृष्टिपथ बाधित और मार्ग अवरुद्ध।

कृतज्ञता से उपजी थी, सतोगुणी थी किंतु जिस अभियान को बिना रुके पूरा करने की प्रतिज्ञा थी, उसके लिये तो विघ्न बाधा ही थी - विघ्नोऽयमिति निश्चितः।  मारुति ने इस विघ्न पर अपने वक्ष से आघात कर गिरा दिया – महावेगो महाकपि: ... उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुत:
सतोगुणी परीक्षा लेते हैं, सफल होने पर हर्षित हो उत्साह वर्द्धन करते हैं। कवि लिखते हैं कि पर्वत प्रसन्न हो गया - बुद्ध्वा तस्य कपेर्वेगं जहर्ष च ननन्द च
 वह मानव रूप में आ गया। समानधर्मा उत्प्रेरण हुआ, मैनाक की स्मृति जीवंत हो उठी -  पुराकाल में पर्वतों के पंख थे, उड़ते विशाल पिण्डों से जनता भयभीत होती थी - भयं जग्मुस्तेषां, क्रुद्ध हो इन्द्र ने उनके पंख काट दिये किंतु मुझे वायुदेवता ने बचा लिया था। उनके पुत्र का सम्मान तो करना ही चाहिये।  

हे हनुमान! उपकार के लिये प्रत्युपकार सनातन धर्म है। ऐसी मति वाले इस समुद्र की इच्छा का आप को सम्मान करना चाहिये। मेरे शिखर पर ठहर थोड़ा विश्राम कर लीजिये। ये सुस्वादु सुगन्धित कन्द, मूल और फल हैं। इन्हें ग्रहण करने के पश्चात आगे प्रयाण कीजिये।
कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः
सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः संमानमर्हति
...
तव सानुषु विश्रान्तः शेषं प्रक्रमतामिति
तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम्
तदिदं गन्धवत्स्वादु कन्दमूलफलं बहु
तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रान्तोऽनुगमिष्यसि
 धर्मानुरागी के लिये तो साधारण अतिथि भी पूजा का पात्र होता है। आप जैसे महान अतिथि के लिये क्या कहूँ?
अतिथिः किल पूजार्हः प्राकृतोऽपि विजानता
धर्मं जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान्

हनुमान जी शीघ्रता में थे। उन्हों ने उत्तर दिया – आप के इस प्रिय प्रस्ताव से ही आतिथ्य हो गया, (मेरे न रुकने के कारण) कोई लाग डाँट न रखियेगा। मुझे शीघ्रता से यह कार्य पूरा करना है और दिन बीता जा रहा है। मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ कि जब तक कार्य पूरा नहीं कर लूँगा, रुकूँगा नहीं। (नहीं रुक सकता, क्षमा कीजिये।)    
प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम्
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा

ऐसा कह कर पर्वत को मान सा देते हुये हनुमान जी ने उसका हाथ से स्पर्श किया और आगे बढ़ गये।
इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुंगवः


... सतोगुणी बाधा के लिये तो स्पर्श भर सम्मान ही पर्याप्त था। आगे देवों द्वारा आयोजित रजोगुणी परीक्षा प्रतीक्षा में थी। 

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

शिला: शैलो विशाला: समन: शिला: [सुंदरकाण्ड - 2]

भारतीय वैचारिकी में कवि द्रष्टा होता है। नारेबाजी, दार्शनिक अपच, सुर ताल छ्न्द समास हीनता आदि आदि के टूटे बन्ध लिखने वाले चाहे जो हों, कवि नहीं हैं। एक कवि वर्ण्य विषय के मार्मिक स्थल पहचानता है और वहाँ वह रचता है जिसकी भावभूमि सामान्यता से ऊँचाई की ओर ले जाती है। कवि कर्म नश्वर और ईश्वर के बीच पसरा वह संसार है जिसमें मानवीय चेतना अपने लिये अमृत संगीत पाती है।
 यह केवल संयोग नहीं कि भारतीय इतिहास महाकाव्यों का रूप लिये हुये है। हमारा इतिहास लिखने का ढंग अनूठा रहा जिसे पश्चिमी आलोचक ‘इतिहास बोध शून्यता’ कहते रहे हैं। हमारे पुरखों के लिये इतिहास चौकी की बही कभी नहीं रहा जिसमें दिनांक सहित आगम निर्गम लिखे जाते हों, ऐसा करना इतिहास से उसकी जीवनशक्ति छीन उसे एक स्मारक में परिवर्तित कर देना होता जो कि नश्वर होता, क्षरित होता और एक दिन काल के गाल में ऐसे समा जाता कि उसकी स्मृति भी नहीं रहती!
हमारा इतिहास जड़ शिलालेख नहीं, दैनन्दिन कर्म और पीढ़ी दर पीढ़ी मेधा में अंकित जीवन थाती रहा। हमारा लिये इतिहास तरल प्रवाही रहा जो सहस्राब्दियों तक अपने को घटनाओं, व्याख्याओं और आख्यानों से परिपूरित करता रहा। रामायण वही इतिहास है।
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मारुति के अंग सिकोड़ छलाँग लगाने के उद्योग की प्रतिक्रिया में अभूतपूर्व घटित होते हैं। अतिशयोक्तियाँ और घटनायें एक दूसरे में समाती दिखती हैं। कवि बिम्बों की झड़ी लगा देते हैं!

पर्वत से जल स्राव होने लगा है जैसे गजराज के कुंभस्थल से मद बह रहा हो – सम्प्रसुस्राव मदमत्त इव द्विप:! शिलायें ऐसे गिर रही हैं जैसे मध्यम अग्नि से धुआँ निकल रहा हो, अद्भुत शब्दवल्लरी है – शिला: शैलो विशाला: समन: शिला:, मध्यमेनार्चिषा जुष्टो धूमराजीरिवानल:।
भयभीत जीव जंतु गुफाओं में प्रवेश करते हैं, निकलते हैं, अतुल कोलाहल है। पर्वत के सर्प क्रुद्ध हो शिलाओं को डँसने लगे हैं, विष इतना प्रबल है कि आग लग जाती है, विषयुक्त आग ऐसी है कि पर्वतीय औषधियाँ भी शमित नहीं कर पातीं – विषघ्नान्यपि नागानां न शेकु: शमितुं विषम्।
तपस्वी भाग चले, भयभीत विद्याधर अपने आमोद प्रमोद छोड़ स्त्रीगण के साथ आकाश में चले गये और विस्मित हो वज्रांग को देखने लगे। रोंये झाड़ते महाकाय कपि कवि के शब्द संयोजन को ही रूप देते नाद करने लगे – रोमाणि चकम्पे .. ननाद च महानादं सुमहानिव, दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गये।
क्या है वह महानाद? मूर्तिमान आत्मविश्वास है:
न हि द्रक्ष्यामि यदि तां लङ्कायां जनकात्मजाम्
अनेनैव हि वेगेन गमिष्यामि सुरालयम्
यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः
बद्ध्वा राक्षसराजानमानयिष्यामि रावणम्
सर्वथा कृतकार्योऽहमेष्यामि सह सीतया
आनयिष्यामि वा लङ्कां समुत्पाट्य सरावणाम्
यदि लङ्का में जानकी नहीं मिलीं तो सुरालय जाऊँगा, यदि वहाँ भी नहीं मिलीं तो रावण को बाँध कर लाऊँगा। सीता के साथ सर्वथा कृतकृत्य हो कर लौटूँगा अथवा रावण सहित लङ्का को ही उखाड़ लाऊँगा। कपि ने इस वज्र विश्वास से भर छलाँग भरी। प्रचण्ड वेग के कारण वृक्ष उखड़ कर साथ हो चले।

शुभकर्म है, पुरुष के साथ प्रकृति चलायमान हो गयी है। पेंड़ पौधे, पुष्प लतायें आदि उनके पीछे पीछे ऐसे जा रहे हैं मानों दूर देश जाते सुहृद बन्धु को विदा दे रहे हों! - प्रस्थितं दीर्घमध्वानं स्वबन्धुमिव बान्धवाः। कुछ दूर चल कर मुक्त हो वैसे ही जल में आ जाते हैं जैसे सुहृद बिदाई देने के पश्चात लौट रहे हों! सलिले निवृत्ता: सुहृदो यथा।  

छ्लाँग मार वायुमार्गी होते तो कभी तैरते महाकाय मारुति में वह सब कुछ था जो द्यौ और पृथ्वी की भिन्नता को तितर बितर कर ऐसे तरल बिम्ब रचे जाने की प्रेरणा देता था जिसमें सागर और अम्बर एक हो जायँ और आदि कवि ने वही किया। कहाँ आकाश, कहाँ सागर, मारुति के उद्योग ने तो अपना ही संसार रच दिया है! 
ताराचितमिवाकाशं प्रभवौ स महार्णव:
पुष्पौघेण सुगन्धेन नानावर्णेन वानर:
बभौ मेघ इवोद्यन् वै विद्युद्गणविभूषित:
ताराभिरभिरामाभिरुदिताभिरिवाम्बरम्
तस्याम्बरगतौ बाहू ददृशाते प्रसारितौ
पर्वताग्राद्विनिष्क्रान्तौ पञ्चास्याविव पन्नगौ
पिबन्निव बभौ चापि सोर्मिजालं महार्णवम्
पिपासुरिव चाकाशं ददृशे स महाकपिः
तस्य विद्युत्प्रभाकारे वायुमार्गानुसारिणः
नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ
पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले
चक्षुषी संप्रकशेते चन्द्रसूर्याविव स्थितौ
मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ
संध्यया समभिस्पृष्टं यथा सूर्यस्य मण्डलम्पा...
उपरिष्टाच्छरीरेण च्छायया चावगाढया
सागरे मारुताविष्टा नौरिवासीत् तदा कपि: ...
तस्य वेगसमुद्घुष्टं जलं सजलदं तदा
अम्बरस्थं विबभ्राजे शरदभ्रमिवाततम्

तैरते पुष्प पल्लव आदि से समुद्र वैसे ही शोभित है जैसे तारों से खचित आकाश हो। विविध पुष्पों से अलंकृत हो उठते वानरशिरोमणि ऐसे लग रहे हैं जैसे उमड़ता मेघ हो। तैरते समय भुजायें जब फैलती सिकुड़ती हैं तो लगता है जैसे किसी पर्वत शिखर से पाँच मुख वाले नाग निकल आये हों। महाकपि तो जैसे तरङ्गमालाओं सहित महासागर और आकाश दोनों को पी लेना चाह रहे हैं। छलाँग भरते वायुमार्गी की आँखें ऐसे दहक रही हैं जैसे बिजलियाँ चमक रही हों, जैसे सागर मथते इस पर्वत पर दो स्थानों पर आग लग गई हो!
पिङ्गल नेत्र वाले मारुति की आँखें ऐसी हैं जैसे आकाश में सूर्य चन्द्र साथ साथ प्रकाशित हो रहे हों। लाल नासिका वाला ताम्रवर्णी मुख ऐसे शोभित है जैसे संध्याकाल में सूर्यमण्डल।  
सागर ऊपर देह और छाया साथ साथ ऐसे दिख रहे हैं जैसे जल में नौका हो जिसके पाल वायु से भरे हैं और निम्नभाग सागर पर सवार है। उनके वेग से ऊँचे उठ कर मेघमण्डल के साथ जल शरद काल के मेघों के समान दिख रहा है ...

...प्रकृति जब साथ देती है तो साथ साथ पात्रता की परीक्षा भी लेती चलती है। मारुति के लिये आगे त्रिगुण परीक्षायें प्रतीक्षा में थीं।          

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

अमोघ राघवनिर्मुक्त: शर: [सुंदरकाण्ड - 1]

रामायण वह आख्यान है जिसके ऐश्वर्य में उदात्त उद्योगी मानवता वैसे ही पगी हुई है जैसे देह में प्राण। विराट स्वप्न, तैयारी, प्रतीक्षा, उत्सर्ग अभियान और परिणाम की इस पंचगंगा से त्रिदेव झाँकते हैं – निर्माण, पोषण और अनुशासन।  लिखित मानव इतिहास में सफल आमूल चूल परिवर्तन का यह पहला उदाहरण है। पुरुषोत्तम के नेतृत्त्व में सारे नृजातीय भेद भुला संगठित नर, वानर, भल्लूक आदि का औपनिवेशिक बर्बर सत्ता के विरुद्ध यह वह सुफल जन अभियान है जिसकी पहली छलाँग सुन्दरकाण्ड है।

सुन्दरकाण्ड उस एकल पुरुष का शौर्य है जो सु नर-सुन्नर-सुन्दर है और उस एकल स्त्री की तपस्विनी धैर्यश्रद्धा है जो सुनारी-सुन्दरी है। यह अपरिचय को निरी जैविकता से परे माता और पुत्र सम्बन्ध की अतुल्य भावभूमि में परिवर्तित कर देने वाले राम रसायन का प्रभावी चित्रण है।

वाल्मीकि जी ने राम आख्यान के लिये संज्ञा चुनी – राम+अयन, रामायण। सूर्य विष्णु हैं। सूर्य की गति अयन गति है जो उत्तरायण दक्षिणायन करते पूरी होती है। सूर्यवंशी राम भी यह यात्रा पूरी कर ऋत सम्मत समाज की स्थापना करते हैं और अवतार शृंखला में स्थान पाते हैं, वनवास के चौदह वर्ष मानों चौदह भुवनों में गड़े उनके कीर्ति स्तम्भ हैं। अगस्त्य जिसके सूत्रधार थे उस उत्तर दक्षिण संगम एकता आख्यान का उपसंहार राघव ने रचा। राघव का रामसेतु उत्तर और दक्षिण के बीच का संवादसेतु हो गया। 
    
रावण शोषण का पहला सुनियोजित और संगठित नेतृत्त्व था। उत्तर में कैलास से नीचे दक्षिणी महासमुद्र तक उसके स्कन्धावार फैले हुये थे। वह लंका का मूलनिवासी नहीं था। चरम भोग और उससे प्रेरित हिंसा अत्याचार का आश्रय ले उसने गिरोहबाजी का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो बहुत प्रभावी थी, जिसके आगे सभी शक्तियाँ झुक सी गईं। लंका के मूलनिवासी यक्ष साम, दाम, दण्ड और भेद नीतियों द्वारा राक्षस जाति में परिवर्तित कर दिये गये और वहाँ राक्षस सत्ता का औपनिवेशिक केन्द्र स्थापित हुआ। 

पहचान मिटाना राक्षसों की नीति का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय था। सुदूर समुद्री प्रदेश और उत्तर की ओर रक्ष संस्कृति के प्रसार का जो अभियान प्रारम्भ हुआ वह कैलास की चढ़ाई पर महादेव द्वारा ही रोका जा सका। उस ब्रह्मराक्षस को जैसे अपनी सांस्कृतिक सीमा मिल गई, उत्तर के कैलास वासी उसके लिये परम पूज्य हो गये और नीचे समस्त अवनी को वह मेदिनी संज्ञा से मढ़ता सा चला गया।
पीडित प्राकृत जन और उनके अगुवे भी हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहे। जो जिस योग्य था, प्रतिरोध करने और अंतिम संघर्ष के लिये एक योद्धा समान स्वयं को तैयार करने में लगा रहा। राक्षस स्कन्धावारों के साथ ऋषि आश्रमों का लम्बा सह-अस्तित्त्व यूँ ही नहीं था, उसके लिये बहुत तप और पराक्रम चाहिये थे जिन्हें जननेतृत्त्व ने सँजोया हुआ था।

कृषि अनुसन्धानी गोतम के क्षेत्र में राज करते परम ज्ञानी ‘सीर’ध्वज ‘जनक’ ने शिव का अतिगुरु महाधनुष प्राप्त कर लिया लेकिन चलाये कौन? वह श्रद्धास्पद वस्तु बन गया। वैसे भी एक स्थान पर स्थापित कर ऊँचाई से मार करने वाला वह भारी धनुष मैदानों में कितना कारगर होता? मैदानों में तो क्षिप्र और एक-जन-वह्य शस्त्र चाहिये था। कौन लाये?

गाथिन कौशिक और भृगु परम्परा रक्तसम्बन्ध से जुड़ी थी। नवग्व और दशग्व ऋषियों से युक्त इन दो कुलों में एक तो परम अनुसन्धानी विश्व के मित्र विश्वामित्र हुये तो दूसरे महापराक्रमी राम जामदग्नेय। राम जामदग्नेय का परशु वनप्रांतर का सबसे विकसित शस्त्रास्त्र है। उससे पेंड़ काटे जा सकते हैं, सम्मुख युद्ध में लड़ा जा सकता है और आवश्यकता पड़ने पर फेंक कर मार भी की जा सकती है लेकिन उसकी सीमायें है - नुकीला न होना और संग्राम में चलाने के लिये अतिमानवीय बल और कौशल की आवश्यकता। परशु जाते हुये उस युग का अंतिम चिह्न है जिसके द्वार कृषिकर्म खटखटा रहा था। क्षत्रिय उसकी अगुवाई में थे। व्यवस्थित वन जीवन में उनकी अवांछित घुसपैठ की भयानकता रेणुका और सहस्रार्जुन जैसी गाथाओं में सुरक्षित है। बड़ी लम्बी और हिंसक रही यह लड़ाई। क्षत्रियों का राम जामद्ग्नेय द्वारा कथित इक्कीस बार उच्छेद स्थापित समाज की शक्ति तो दर्शाता ही है, साथ में यह भी दर्शाता है कि समय की करवट को  कोई रोक नहीं सकता।
मीठी घास ईंख से शर्करा निकालने हेतु इक्ष्वाकु क्षत्रियों के पास कृषि तकनीक थी और भिषग-वनस्पति अथर्वण ज्ञानभूमि भी जिसमें स्त्री पुरुष का सहकर्म अनिवार्य था। ये क्षत्रिय सिंहासन पर बैठने वाले राजा या मार काट करने वाले सैनिक भर नहीं थे। विश् प्रजा की अभिवृद्धि और उसके कल्याण हेतु नित नवीन आविष्कार उनकी थाती रहे। ‘क्षत्रिय कर्म’ वैश्यकर्म की वह उच्चस्थ छाया थी जिसके तले विद्याब्रह्म और सेवाशूद्र फलते फूलते रहे।  

विश्वामित्र साधना में लगे शस्त्र अनुसन्धान करते रहे, नये संसार गढ़ते रहे। वृद्ध होती देह लिये सुपात्र शिष्य को ढूँढ़ लेने का तनाव आसान नहीं रहा होगा। कहना न होगा कि इक्ष्वाकु रघुवंशियों की राजसभा में उनका पधारना अचानक नहीं था। न तो मिथिला की यात्रा में प्रशिक्षण अचानक था और न ही रक्ष स्कन्धावार की राह ले पहली संघर्ष परीक्षा। गोतम की अश्म बनी अहल्या के पास तक राघव राम को ले जाना विश्वामित्र द्वारा ली जा रही परीक्षाओं का अंत था। उन्हों ने सफलता पर कहा होगा क्या कि राम! जीवन का एक पहलू यह भी है। दक्षिणायन होगे तो इसे स्मृति में बनाये रखना!      
राम की सुपात्रता पर पूरी तरह सुनिश्चित हो उन्हों ने ‘वीर्यशुल्का’ सीता का वृतांत बताया - देखने चलोगे राम? यज्ञ भी हो रहा है। वीरता की कसौटी बना वह शिवधनु भी देख लेना!
कहना न होगा कि विश्वामित्र ने उसकी तकनीक भी सिखा दी थी - वह अब अनुपयोगी है राम! भार्गव राम जाने किस शंकामोह में पड़े हुये हैं, पर्वतप्रांतर की रुद्री वनप्रांतर में नहीं चलेगी, उसे सूर्य किरणों की चाहना है, भूमि पुकार रही है। चलोगे राम? सीता पुकार रही है।     
  
हल जोतते क्षत्रिय ‘सीर’ध्वज की ‘अयोनिजा’ कन्या सीता संज्ञा वाली यूँ ही नहीं हुई। सीता खेत के घोहे को भी कहते हैं। कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं, सीरध्वज क्या करते? सीता का हाथ किसे दे दें, तब जब कि राक्षस स्कन्धावारों की घुसपैठ रोकनी कठिन होती जा रही है? विश्वामित्र से मिले थे क्या? उस धनुष का सन्धान ही सुपात्र की कसौटी होगी जो अस्त्र  और सीता दोनों को धारण कर सकेगा??

राजघोषणा फैलती गयी सीता उस वीर की सहधर्मिणी बनेगी जो शिवधनु पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। कई आये लेकिन 'भारी' धनुष को बस बर्बर बल से कौन साध सकता था, उसके लिये तो कुछ और भी चाहिये थी!

राजन! ये इक्ष्वाकु कुल नन्दन आये हैं। शिव धनुष देखना चाहते हैं, दिखाइये न! – यही कहा था विश्वामित्र ने। पहिये लगी पेटी में बन्द उस भारी धनुष को हजारो खींचते हुये ले आये। मानसिक संवाद हुआ होगा - देख लो राम! रुद्र ऐसी दशा देख रोते होंगे कि नहीं?
इसे चढ़ाने का प्रयास करूँ गुरुदेव? – राम ने पूछा।  हाँ, हाँ, क्यों नहीं?
और प्रत्यंचा चढ़ाते हुये धनुष टूट गया, या तोड़ दिया गया? धन्य राघव! अब भार्गव राम का तेज सहने को सन्नद्ध हो जाओ।

भार्गव राम,  इक्ष्वाकु राम – आमने सामने। संवाद क्या हुये, दोनों एक दूसरे को जैसे तौलते रहे। रुद्र की रौद्रता और विष्णु की ममता को निज अस्तित्त्व में समोये भार्गव ने पाया, अब और प्रतीक्षा नहीं। इससे अधिक सुपात्र मिलने से रहा। रुद्र काल बीत गया, विष्णु काल प्रारम्भ हुआ – युगपरिवर्तन। कवियों ने रचा – भार्गव राम के पास जो विष्णु का धनुष था, वह अपने आप इक्ष्वाकु राम के हाथ चला गया! उस दिन विष्णु के दो अवतारी एक दूसरे से मिले।
मात्र पूजनीय भारी पिनाक के स्थान पर उपयोगी हल्का शार्ङ्ग धनुष मनुष्य के हाथ आया, मानव के हाथ अवतरण। दो दो विष्णु अवतार, प्रज्ञा सिद्धांत और अनुप्रयोग। परशुराम संक्रमण कड़ी हैं, अलौकिक और लौकिक की सन्धि हैं। अलौकिक कौन? वह जो कृषि आधारित लोकसंस्कृति के लिये पुरनिया है।
  
पुरनिये भार्गव द्वारा अर्जित लोक का नाश कर जैसे इक्ष्वाकु राम ने तर्पण विदा दी, जाइये पितर! अब आगे मुझे देखना है। निश्चिंत रहिये। आप का यह आशीर्वाद अमोघ है, इक्ष्वाकु राम भी अमोघ है। मुझे तो जन जन में रमना है। रमते राम अमोघ होते हैं न!  रक्त सम्बन्धी गाथिन विश्वामित्र और राम जामदग्नेय की यात्रायें पूरी हुईं। वे दोनों नेपथ्य में चले गये और आगे राम ने गुरु अगस्त्य की राह पकड़ी।

विन्ध्य को पहली बार पार कर उत्तर को दक्षिण से जोड़ने वाली अद्भुत अगस्त्य परम्परा जैसे मूर्तिमान सजग प्रतीक्षा है। जाने कैसा पारस है उसके स्पर्श में कि शबरी, शरभंग, सुतीक्ष्ण, कबन्ध आदि सभी हिरण्यतेज से पूरित लगते हैं। कच्चे मांस का भी व्यञ्जनवत भक्षण करने वाले राक्षस प्रभुत्त्व क्षेत्र में भी अगस्त्य की उपस्थिति सभी वनवासियों को जिजीविषा और उत्साह से जिलाये रखती है।
राक्षस क्रूर हैं, महाबली हैं, उच्च तकनीकी और क्षिप्र यातायात के साधनों से युत हैं, स्वामी हैं किंतु अल्पसंख्यक हैं, बाहरी आक्रांता हैं। जन के स्थान को उपनिवेश बनाये हुये आखेटक हैं।

पीढ़ी दर पीढ़ी जमा आक्रोश अगस्त्य की संगति में कर्मठ हो गया – प्रतीक्षा करो, उचित समय की और उचित नायक की भी लेकिन तैयारी में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये।
स्त्री स्मिता का हरण और बलात्कार रक्ष संस्कृति की पहचान थे। कुमारियाँ और विवाहितायें तिरस्कृत होतीं, अपहृत होतीं, बलत्कृत होतीं और अंतत: वस्तुस्थिति को सब चुप स्वीकार भी कर लेते लेकिन उनके पीछे के आक्रोश का क्या? राम के वनवास के चौदह वर्ष सीतायन भी हैं। वह सीता जो सुकुमारी होने पर भी साथ चलती सारे कष्ट सहती वनप्रांतर में विहँसती कृषिकन्या है, प्रेरणा भी हैं। सीर गोत्रा सीता इतने वर्ष अनुद्योगी तो नहीं रही होगी!

वनवासियों के बीच ऐसे मानव अवतरित हुये थे जो सहते नहीं थे, दण्ड देते ही थे। राम द्वारा जनस्थान को राक्षसशून्य कर उसका वास्तविक रूप पुन: स्थापित करना वनवासियों के लिये बहुत ही प्रेरक रहा। सीता का हरण हुआ किंतु प्रतिरोध भी हुआ और सब जानते हुये भी उसके पथ पर दृष्टि भी रखी गयी। आगे जो हुआ वह अकल्पनीय था। रोता भटकता सबको बताता, सबसे पूछता राजन्य राम मानसिक जड़ता को तोड़ता गया। उससे पहले दबी ढकी चुप्पी थी, ऐसा स्वीकार और प्रतिकार की ऐसी उत्कट चेतना अनदेखी थी। दोनों भाई जहाँ भी जाते, परिचय में सीता का अपहरण अवश्य बताते। अरण्यकाण्ड नीतियों द्वारा जनसंगठन है तो किष्किन्धाकाण्ड सक्रिय आयोजन। वालिवध उसका चरम है।
रावण को भी मर्दित कर उससे समझौते में रहने वाले बाली का वध कर श्रीराम ने अपने लिये सेना ढूँढ़ ली। वनवासियों और लड़ाकू यूथपों के बीच स्पष्ट सन्देश गया – यदि रावण को पराजित करने वाला बाली मारा जा सकता है तो रावण भी। वह अजेय नहीं, उसके पास कोई अमृत नहीं। हमारे द्वारा संगठित अभियान की कमी का विष ही उसका अमृत है।
सुग्रीव की भार्या को बाली के चंगुल से मुक्ति दे राम ने रावणी संस्कृति के अवसान की प्रस्तावना लिख दी। यदि एक अकिंचन निर्वासित राजन्य झूठी लज्जा छोड़ अपनी अपहृता पत्नी के लिये अकेले इतना बड़ा कर्म कर सकता है तो अन्य क्यों नहीं? श्रीराम ने वर्षों से जमा आक्रोश को न केवल तोड़ा बल्कि उसके प्रवाह को दिशा दे दी।      
कृतज्ञ सुग्रीव का सन्देश वानर यूथपों तक फैलता चला गया – अपहृत सीता को ढूँढ़ना है। प्रतिरोध हेतु किसी नेतृत्त्व द्वारा चिरप्रतीक्षित आदेश का स्वीकार स्वाभाविक था और नियोजन की सफलता भी। चार दल बना कर चार दिशाओं में भेजे गये और एक को छोड़ सभी दल लौट आये, वह दक्षिणी दल था।  

दक्षिणी दल के महावीर वातात्मज हनुमान लंका तक की छलाँग को तैयार हो गये। आँखें पार नहीं पा सकती, ऐसा अगाध महोदधि सामने था। लक्ष्य - शत्रुओं से भरे नितांत अपरिचित प्रदेश में उसके वासनामलिन राजा द्वारा अपहृत सुन्दरी स्त्री की खोज।
स्वामी ने तो कह दिया था – यथा योग्यं तथा कुरु! अब तो जो करना है, उन्हें ही करना था। प्रदेश तो दूर था, मार्ग की बाधायें क्या कम थीं?
महेन्द्रगिरि की ऊँचाई से क्षितिज पर द्वीप दिखा। हनुमान जी ने अंतरीप मार्ग पकड़ा।

वाल्मीकि जी इस अभियान के लिये एक अर्थगहन शब्द और उसकी व्युत्पत्तियाँ चुनते हैं – प्लव। इसमें तैरना, छलाँग मारना, गोते लगाना और उड़ना सभी समाहित हैं। हनुमान वातात्मज हैं – वायु के पुत्र। तरल माध्यम चाहे द्रव हो, चाहे वायु; उनकी गति दोनों में हैं। हनुमान वानर हैं, प्लवग। सुग्रीव प्लवगराज हैं।

वृक्षों से भरे उभरे द्वीपों से युक्त अंतरीप मार्ग से अभियान हनुमान जैसे प्लवग वनवासी नर के लिये उपयुक्त था। लम्बी यात्रा में बिना रुके वृक्षों पर छलाँग मारते कभी उड़ते से तो कभी तैरते इस अभियान को सुगमता से पूरा किया जा सकता था। द्वीपों की रेखा मार्ग के लिये दिशा सूचक थी।
अपहृत संस्कृति समास संयुक्ता सीता दूर देश में उद्धार की प्रतीक्षा में बैठी हुई हैं - अदीनां भर्तृ तेजसा रक्षितां स्वेन शीलेन। ब्रह्मराक्षस को शील कितने दिन रोक पायेगा, भर्तार के तेज को पहुँचना ही होगा।

महेन्द्र पर्वत को पाँवों से दबाते उसे पीड़ित करते वायुपुत्र प्लवग हनुमान ने छलाँग ली:      

स महान् सत्त्वसन्नाद: शैलपीडानिमित्तज:
पृथिवीं पूरयामास दिशश्चोपवनानि च
राघवनिर्मुक्त: शर: श्वसनविक्रम:
गच्छेत् तद्वद् गमिष्यामि लङ्का रावणपालिताम्

भार्गव का पराभव साक्षी है, राम का बाण अमोघ है। महर्षि वाल्मीकि हनुमान के इस छलाँग की तुलना राम के निर्मुक्त शर से करते हैं, लक्ष्य है रावणपालित लङ्का। यह अमोघ बाण बिना ध्वंस के वापस तूणीर में नहीं आने वाला।

सारे संशय मिट गये थे। शोषक और अत्याचारी औपनिवेशिक रक्षदुर्ग के विरुद्ध प्लवग ने 'पहला पग' नहीं उठाया, सीधे छलाँग मारी। आत्मविभूतिदर्शन का परिणाम तो आगे आने वाला था! 

बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

मैं हूँ न! अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं

कुछ कथायें या गाथायें चिरजीवी क्यों हो जाती हैं? कई कारणों में से एक यह भी है कि वे जीवन के शाश्वत सत्यों की कोष होती हैं। जन उनमें अपनी उच्चकामा प्रज्ञा को आश्रय दे पाते हैं। ऐसी गाथायें जातीय संस्कार का अंग हो परिष्कार भी करती हैं। जो साधारण कार्यव्यापार हैं उनसे ऊपर, बहुत ऊपर तक पहुँचा देती हैं, आत्मविभूतियोग के स्तर तक।
आल्हा हो, लोरिकाइन हो, रासो हों या प्राचीन महाकाव्य; सबमें ऐसे प्रसंग मिलते हैं जो ऊर्ध्वरेता चेतना की चरम अभिव्यक्ति होते हैं।
आधुनिक काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ में श्रीराम के आँसू देख हनुमान की प्रतिक्रिया देखिये:
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़,
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास।
भगवद्गीता का आत्मविभूति हो या दिव्य रूप, चेतना का वही आयाम है।
कहते हैं कि विश्वामित्र के पिता पितर गाधि या गाथिन का सम्बन्ध भी गाथाओं से ही है। रामकथा में वह मंत्रद्रष्टा ऋषि परम्परा मनुजता और ऐश्वर्य के बीच सेतु का कार्य करती है  और आगे के लिये मार्ग प्रशस्त कर देती है।
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 जामवंत जी के प्रेरणा भरे शब्द सुन कर हनूमंतं महाबलं रामकाज सम्पन्न करने को उद्यत हो अपनी देह बढ़ाने लगे। देह बढ़ाना क्या है? आत्मबल का दैहिक सीमाओं का अतिक्रमण। कोई चिंता नहीं, कोई संशय नहीं बल्कि अपने ही बल का स्मरण करते हर्ष भी है – हर्षाद् बलमुपेयिवान्। आत्मविभूति का साक्षात्कार होता है, कहते हैं अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति में मति:, सौ योजन की कौन कहे, मैं तो अयुत योजन को भी पार कर जाऊँगा। मैं हूँ न! तुम सभी निश्चिन्त रहो, मैं वैदेही के दर्शन अवश्य करूँगा, मोद मनाओ - अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं प्रमोदध्वं प्लवंगमाः।
वाल्मीकि जी शब्दों के संयोजन से तुल्य प्रभाव का सृजन करते हैं:
अम्बरीषोपमं दीप्तं विधूम इव पावकः
हरीणामुत्थितो मध्यात्संप्रहृष्टतनूरुहः ...
अरुजन्पर्वताग्राणि हुताशनसखोऽनिलः
बलवानप्रमेयश्च वायुराकाशगोचरः
तस्याहं शीघ्रवेगस्य शीघ्रगस्य महात्मनः
मारुतस्यौरसः पुत्रः प्लवने नास्ति मे समः
उत्सहेयं हि विस्तीर्णमालिखन्तमिवाम्बरम्
मेरुं गिरिमसंगेन परिगन्तुं सहस्रशः
बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे
समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम्
ममोरुजङ्घावेगेन भविष्यति समुत्थितः
संमूर्छितमहाग्राहः समुद्रो वरुणालयः
...
सागरं क्षोभयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम्
पर्वतान्कम्पयिष्यामि प्लवमानः प्लवंगमाः
हरिष्ये चोरुवेगेन प्लवमानो महार्णवम्
...
महामेरुप्रतीकाशं मां द्रक्ष्यध्वं प्लवंगमाः
दिवमावृत्य गच्छन्तं ग्रसमानमिवाम्बरम्
विधमिष्यामि जीमूतान्कम्पयिष्यामि पर्वतान्
सागरं क्षोभयिष्यामि प्लवमानः समाहितः
...
निमेषान्तरमात्रेण निरालम्भनमम्बरम्
सहसा निपतिष्यामि घनाद्विद्युदिवोत्थिता
...
अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति मे मतिः
वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुवः
विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये
 मैं समस्त ग्रह नक्षत्रादि को लाँघ सकता हूँ, चाहूँ तो समुद्र सोख लूँ, पृथ्वी विदीर्ण कर दूँ, पर्वतों को चूर कर दूँ ...
स्यात निराला जी की प्रेरणा यह संयोजन रहा होगा। 
अनुवाद में सौन्दर्य नष्ट हो जाता है, इन अनुष्टुपों का सस्वर पाठ उस वातावरण का अनुमान करा देता है जिसमें मनुष्य देह से परे जा वज्रांग और अप्रतिहत हो जाता है।

...देह सिकोड़ कर महाबली छलाँग लगाने को उद्यत हैं। ऊर्जस्वित मारुति का प्रभाव परिवेश पर भी है –
... त्यज्यमानमहासानु: संनिलीनमहोरग:
शैलशृङ्गशिलोत्पातस्तदाभूत् स महागिरि:
बड़े बड़े सर्प बिलों में छिप गये, पर्वत के शिखरों से बड़ी बड़ी शिलायें टूट टूट गिरने लगीं, पर्वत बड़ी  दुरवस्था में पड़ गया।
मन में केवल लक्ष्य ही दिख रहा था। कवि कहते हैं, महानुभाव मनस्वी ने मन ही मन लङ्का का स्मरण किया:
मन: समाधाय महानुभावो, जगाम लङ्का मनसा मनस्वी!

॥इति किष्किन्धाकाण्ड॥
(आगे सुन्दरकाण्ड)