उत्तर मध्य रेलवे ने पहली बार महिला पोर्टरों की भर्ती की है। 4800 अभ्यर्थियों के बीच हुई प्रतियोगिता में बिना किसी आरक्षण के अंचितपुर जिला फतेहपुर की निवासी ऊषा ने भी सफलता प्राप्त की। उन्हें बिल्ला नं 70 दिया जाएगा। उनके अतिरिक्त एक और महिला निर्मला ने भी सफलता प्राप्त की।
प्रतियोगिता में उन्हें पुरुषों की तरह ही 25 किलो वज़न को सिर पर रख 200 मीटर तक ले जाना था। उनके लिए समय सीमा थी 4 मिनट जब कि पुरुषों के लिए 3 मिनट। इसके अतिरिक्त इन दोनों ने मानसिक परीक्षण में भी सफलता प्राप्त की।
ग़रीब ऊषा ने यह कदम बच्चों की अच्छी शिक्षा दीक्षा के लिए उठाया है जब कि वह स्वयं आठवीं तक ही पढ़ी हैं।
_________________
चलते चलते :
नैनी क्षेत्र में इन्द्र देव को प्रसन्न करने के लिए सूखी धरती पर महिलाओं ने खुद जुत कर हल चलाए।
(समाचार और चित्र आभार: इंडियन एक्सप्रेस)
शुक्रवार, 25 जून 2010
शनिवार, 19 जून 2010
रोज रोज की
हमारे क्युबिकल्स के बीच एक मौन खिंचा है। कीबोर्ड की किटकिटाहटें, ग्राहकों से की गई बातें और इंटरकॉम की सौम्य कुनमुनाहटें रूटीन हैं, 'मौन' में शामिल हैं। कितनी बार लगा कि मैं चुप तुमसे कुछ कह जाता हूँ। कितनी बार अनुभव हुआ कि तुमने मुझे सुना है। कितनी बार लगा कि मॉनिटर को बेध तुम्हारी दृष्टि मेरा एक्स रे बिम्ब सोख रही है !पर नज़र मिलते ही वही चिर परिचित औपचारिक मुद्रा और रुक्षता हमें धारण कर कह उठते हैं," यू सी ! बड़ा प्रेसर है। मुझे तो यही कहना है तुम्हारी वज़ह से टार्गेट पूरे नहीं हुए।" हममें होड़ है - कौन इसे पहले कह जाता है। क्या इससे कुछ अन्तर पड़ता है?
उस आबनूसी किवाड़ के पीछे का मौन हमारी होड़ की रत्ती भर परवा नहीं करता। "यू बोथ आर यूजलेश ! इन फैक्ट यू आल आर यूजलेश!!" और हम बिना कुछ कहे यूँ ही बाहर आ जाते हैं। होड़ अपने हाड़ का इलाज़ कराने भाग जाती है - कल फिर आने के लिए। बाहर आते ही मुझे लगता है कि ऑफिस एअर कंडीशण्ड है और गरदन से चिपके तुम्हारे केश लहलहा उठने को पसीना झिटक रहे होते हैं। खुलता है थोड़ा सा, बारीक सा तुम्हारा मौन ! एक कंजूस मुस्कान । परफ्यूम स्वेद गन्ध से मिल कुछ अधिक तीखी हो जाती है और मैं सोच उठता हूँ कि ऑफिस ब्वाय रोज नहीं नहाता !
डोर क्लोजर की चीं चीं को गलियारे में ढकेल नींबू पानी के दो गिलास आते हैं और देखता हूँ कि तुम्हारी आँखों के नीचे काले घेरे बढ़ने लगे हैं। नींबू पानी पी कर बाथ रूम । बाहर आते ही काले घेरे ग़ायब। छि: ऐसे भी कोई फॉलो करता है ? ऑफिस ब्वाय की नज़र मेरी नज़र को पकड़ कुछ सन्देशा ले उसके होठों पर आती है और वह दाँत निपोर देता है - साब ! कॉफी पियेंगे ? मैडम आप ?
"नो" । उसकी खिसियाहट देख मैं मुस्कुरा देता हूँ - कंजूस !
ऊब को उछाल तुम घड़ी को देखती हो। नज़रें बीते घंटों और आने वाले घंटों की सीधी उल्टी गिनती दिमाग को सौंप सुस्ताने को सामने की कुर्सी पर चिपकती हैं। वहाँ एक आगंतुक आ बैठा है। अचानक तुम्हारा सारा वज़ूद लहलहा उठता है और मुझे वेनिशन ब्लाइण्ड के पार लटक आई लता पर बैठा गिरगिट दिख जाता है। एक बेहूदा सा सवाल,"नर कि मादा?" तुम्हारी शुद्ध, प्रोफेशनल अंग्रेजी अपने पूरे शबाब पर है और आगंतुक आतंकित होने के कगार पर है कि ओठलाली पुते होठों से निकलता है,"भाई साहब ! यह नहीं हो सकता। सॉरी।" कंजूस मुस्कान। धक्के से उबरने की कोशिश करता भी वह निहाल हो उठ जाता है। नहीं कहने के तरीके और ज़गहों पर जुबान से कुछ अधिक ही होते हैं।
चुप सा वह कुर्सी खींच मेरे पास खिसक आता है और अब अंग्रेजी बोलने की मेरी बारी है। मेरा मोबाइल बजता है। मैं जोर जोर से खोखली बातें शुरू कर देता हूँ जैसे सामने आदमी नहीं हवा का पुतला बैठा हो जो नज़र ही नहीं आ रहा लेकिन उसे मुझे अपने आप को दिखाना है, बताना है कि सामने कुर्सी खाली नहीं है।
"हाउ कैन यू कैल्कुलेट विदाउट अपडेटिंग सी ए जी आर?" सी ए जी आर तेज बोलता हूँ , रुकता हूँ - सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ा ? वह बंडल से निकल प्रिंटर में घुसते ए फोर पेपर जैसा कोरा है - दोनों तरफ । जी में आता है पीछे जा कर एक लात लगाऊँ - तुम्हें अभी तक पसीना क्यों नहीं आया, यू थिक स्किंड रास्कल !
"...आर यू सेन ? व्हाइ आर यू शाउटिंग?" दूसरी तरफ मोबाइल पर जी एम है। मेरी पेशानी पर चुहचुहाअट खुजली करने लगती है। तुम्हारी कनखियाँ मुस्कुरा रही हैं। आगंतुक मेरी उड़ गई रंगत को देख उठ खड़ा होता है। आज काम नहीं होगा। कत्तई नहीं। हरगिज नहीं।
मुझसे ऐसी चूक हुई कैसे ?
मैंने अपनी समझ तुम्हारे क्युबिकल में गिरवी रख छोड़ी है। तुमसे कभी कुछ उधार लिया था क्या? तुम्हारा इंटरकॉम कुनमुना उठता है। हड़बड़ा कर तुम उठती हो। आबनूसी किवाड़ में तुम्हारे धसने से बने खालीपन को चीरती एक आवाज़ मेरे सिर पर धौल जमा जाती है," तुम्हें सुनाई नहीं दिया ? निमंत्रण पत्र प्रेषित करूँ क्या?" डोर स्टॉपर लगा दिया क्या? हे हे हे , ही ही ही
जुगलबन्दी हँसी - फँसा कि फँसी ?
जुगलबन्दी हँसी - फँसा कि फँसी ?
निमंत्रण पत्र ??
प्रेषित???
मेरा इंटरकॉम बजा क्यों नहीं? आबनूसी रंग का औज़ार । तेजी से उठने के बहाने पटक देता हूँ। फर्श पर टुकड़े नाच रहे हैं - चिप, स्प्रिंग, की बोर्ड...। एक क्षण के लिए किसी एनीमेशन फिल्म के दृश्य आँखों में घुस आते हैं। उफ, ज़िन्दगी निर्जीव चीज़ों की !
प्रेषित???
मेरा इंटरकॉम बजा क्यों नहीं? आबनूसी रंग का औज़ार । तेजी से उठने के बहाने पटक देता हूँ। फर्श पर टुकड़े नाच रहे हैं - चिप, स्प्रिंग, की बोर्ड...। एक क्षण के लिए किसी एनीमेशन फिल्म के दृश्य आँखों में घुस आते हैं। उफ, ज़िन्दगी निर्जीव चीज़ों की !
" यू आर लेट डियर! रोज़ा ने मुझे सब समझा दिया है। यू नो , हमें कस्टमर्स से इंटीमेसी डेवलप करनी होगी। उनसे हिन्दी में बात किया करो। आइ थिंक यू हैव अंडरस्टुड ?"
"धड़ाम !" चैम्बर की किवाड़ में तो हाइड्रॉलिक क्लोजर लगा है। फिर यह आवाज़ ?
"रामसिंघ ! क्लोजर चेक करो। गेट इट रिपेयर्ड ऑर चेन्ज्ड ।"
" साब! वह तो ठीक है।" तुम फिर मुस्कुरा रही हो। शायद कुछ गुनगुना भी रही हो।
" तो ये क्युबिकल्स के बीच का काँच हटा कर बोर्ड लगवा दो। आर पार कुछ भी नहीं दिखना चाहिए।"
"जी। पेमेंट तो हो जाएगा न ?"
"अबे! फोकट में काम करता है क्या ?" हिन्दी। इनफॉर्मल ? नहीं । रस्टिक हिन्दी।
ऑफिस ब्वाय को न बुला कर खुद फर्श पर बिखरे इंटरकॉम को डस्टबिन में डालता हूँ। मुझे काँच सरकता नज़र आता है। तुम्हारे चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं ? आबनूसी किवाड़ बन्द है लेकिन भीतर से भेदती आँखें मैं महसूस कर रहा हूँ। भीतर कोई ज़ोर ज़ोर से मुस्कुरा रहा है।
शब्दचिह्न :
कहानी
शुक्रवार, 18 जून 2010
गुजरात में एक क्रांतिकारी कदम
गुजरात में इस वर्ष निगम के 6 वार्डों के चुनावों में ई-मतदान का देश में पहली बार प्रयोग होगा। GSWAN (गुजरात राज्य वाइड एरिया नेटवर्क) के द्वारा यह सम्पन्न की जाएगी। लोग घर बैठे अपने कम्प्यूटर और अंतर्जाल के उपयोग से अपना मत दे सकेंगे। आलसियों, बुद्धिजीवियों, एलीट वर्ग और तंत्र से खुन्नाए वे सभी लोग जो बहाने ढूँढ़ ढूँढ़ कर मत नहीं देने जाते, सम्भवत: अब सक्रिय होंगे और मत के अधिकार का प्रयोग करेंगे।
यह मतदान को अनिवार्य बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा। साथ ही मतदान की प्रक्रिया केवल एक दिन की जगह कई दिनों तक जारी रखने की सम्भावना अब बन सकती है।
इसके लिए निम्न प्रक्रिया होगी:
(1) पंजीयन कराना होगा। पंजियन के समय अपने कम्प्यूटर का आइ पी पता देना होगा।
(2) वोटर के मतदान के समय अपने क्षेत्र में रहना होगा। वह अन्यत्र से मत नहीं देना सकेगा।
(3) ई-मतदाता को दो पासवर्ड दिए जाएँगे। पहले पासवर्ड से वह डिजिटल बैलट पेपर प्राप्त करेगा।
(4) पहचान सुनिश्चित करने के लिए उसके मोबाइल पर काल आएगी।
(5) पहचान सुनिश्चित होने के बाद दूसरे पासवर्ड के प्रयोग द्वारा वह मतदान कर सकेगा।
एक बार इस प्रक्रिया का परीक्षण हो जाने के बाद निम्न सम्भावनाएँ बनती हैं:
(1) टेलीफोन द्वारा मतदान
(2) एटीम द्वारा मतदान
(3) बैंक खाते के उपयोग द्वारा मतदान
...
...
मेरे विचार से टेक सैवी युवा पीढ़ी भी अब मतदान में अधिकाधिक रूप से भाग लेगी। अनंत सम्भावनाएँ हैं। लोकतंत्र के नाम पर एक बहुत बड़े षड़यंत्र, जिसमें हमेशा अल्पमत वाले सत्ता के दलाल ही शासन करते हैं , के विखंडित होने की सम्भावना भी अब दिखने लगी है। मुझे प्रसन्नता है कि अच्छी सोच वाले लोग इस बार विचार को क्रिया रूप में लाने में सफल रहे हैं।
इस सम्बन्ध में मैंने उल्टी बानी नाम से एक लेखमाला लिखी थी जिसका उद्धरण यहाँ देना मुझे प्रासंगिक लग रहा है।
मेरी शुभकामनाएँ। आप लोग क्या कहते हैं? अपने विचार बताइए।
सोमवार, 14 जून 2010
इंडीब्लॉगर पर प्रतियोगिता में भाग लें और मुझे वोट दें
इंडी ब्लॉगर http://www.indiblogger.in/ पर आज कल
Jiyo Life Moments Blogger Contest
चल रहा है। सभी भाषाओं के लिए खुला है। आप अपने ब्लॉग की पोस्टों को वहाँ प्रतियोगिता के लिए रजिस्टर कर सकते हैं। लेख/कविता विषय से जुड़ा होना चाहिए।
अबकी यह प्रतियोगिता किसी हिन्दी ब्लॉग को ही जीतनी चाहिए आखिर शीर्षक में पहला शब्द ही हिन्दी से है : 'जियो'- भले रोमन में लिखा है।
हिन्दी के बिना अब लोगों का काम नहीं चलने वाला !
हिन्दी के बिना अब लोगों का काम नहीं चलने वाला !
माबदौलत ने 4 लेख/कविताएँ रजिस्टर की हैं। लेकिन राग यमन को सुनते हुए अब तक हिन्दी ब्लॉगों में टॉप पर है। सो इसे ही वोट देकर आगे बढ़ाइए या अपनी ब्लॉग पोस्टों को रजिस्टर कर स्वयम् प्रतियोगिता में कूद जाइए लेकिन मुझे वोट देना न भूलिएगा। एक बात और आप अपनी पोस्ट को वोट नहीं दे सकते :)
बाकी तीन लेख/कविताएँ हैं:
रात साढ़े तीन बजे
शुभा मुद्गल और आबिदा परवीन को सुनते हुए
और मेरी व्यक्तिगत पसन्द
टुकड़ा टुकड़ा दुपहर
बाकी तीन लेख/कविताएँ हैं:
रात साढ़े तीन बजे
शुभा मुद्गल और आबिदा परवीन को सुनते हुए
और मेरी व्यक्तिगत पसन्द
टुकड़ा टुकड़ा दुपहर
[ पोस्ट शीर्षक पर क्लिक करने से आप इंडीब्लॉगर के सम्बन्धित पृष्ठ पर पहुँच जाएँगे, जहाँ रजिस्टर करने के बाद आप अपना मत दे सकते हैं। मेरा निवेदन है कि चारो पर अपना मत दें।]
तो मैदान में आइए और हिन्दी की शक्ति दिखाइए।
ब्लॉगवाणी के पसन्दी नापसन्दी वीरों! औकात दिखाने का समय आ गया है। मत चूको चौहान !
प्रविष्टि की अंतिम तिथि है 8 जुलाई और प्रतियोगिता 10 जुलाई तक चलेगी।
शब्दचिह्न :
इण्डीब्लॉगर
शुक्रवार, 11 जून 2010
लंठ महाचर्चा : बाउ और नेबुआ के झाँखी - 1
समय:ब्रिटिश काल परम्परा: श्रौत
(अ)
कुआर का अँजोर । पितरपख बीत चुका था। भितऊ बैठके में चौकी बिछी थी। पँचलकड़ियों से बनी चौकी पर ऐसे मौकों पर ही निकाले जाने वाले तोषक, मसनद, बनारस की धराऊ चादर और उनके उपर विराजमान थे शास्त्र, तंत्र, मंत्र सर्वज्ञाता खदेरन पंडित। पत्रा और एक लाल बस्ते में रखे भोजपत्र के टुकड़े खुले थे। पंडित तल्लीन थे। उनकी चुप्पी माहौल में फैले तनाव को और गम्भीर बना रही थी।
कोई खास उमस न थी लेकिन सग्गर बाबू धीरे धीरे उनके उपर बेना झल रहे थे जिसमें आदर प्रदर्शन का भाव अधिक था। उनके बाप ,रामसनेही, पंडित जी के सामने नीची और छोटी चौकी पर बैठे जनेऊ से कभी पीठ खुजाते तो कभी सग्गर बाबू को इशारा करते।
जुग्गुल की तैनाती नीम के नीचे थी। कोई ऐसा वैसा छूत छात वाला मनई न आ जाय! घर के भीतर सग्गर की महतारी आड़ किए लतमरुआ पर बैठी थीं। हाथ में लकड़ी लिए लँगड़ी पिल्ली को डराए हुए थीं जो बार बार खिरकी के रस्ते दुआर की ओर जाने की कोशिश में थी।
खदेरन पंडित बड़े जोगियाह थे। सिले कपड़े नहीं पहनते थे और ऐसे मौकों पर अस्पृश्य की ओर दृष्टि पड़ जाने पर तुरंत काम बन्द कर स्नान करने चल देते थे। रमल, लाल किताब, रोमक और जाने कितने टोटके उनके बाएँ हाथ के खेल थे और सनकें मशहूर थीं।
कोई खास उमस न थी लेकिन सग्गर बाबू धीरे धीरे उनके उपर बेना झल रहे थे जिसमें आदर प्रदर्शन का भाव अधिक था। उनके बाप ,रामसनेही, पंडित जी के सामने नीची और छोटी चौकी पर बैठे जनेऊ से कभी पीठ खुजाते तो कभी सग्गर बाबू को इशारा करते।
जुग्गुल की तैनाती नीम के नीचे थी। कोई ऐसा वैसा छूत छात वाला मनई न आ जाय! घर के भीतर सग्गर की महतारी आड़ किए लतमरुआ पर बैठी थीं। हाथ में लकड़ी लिए लँगड़ी पिल्ली को डराए हुए थीं जो बार बार खिरकी के रस्ते दुआर की ओर जाने की कोशिश में थी।
खदेरन पंडित बड़े जोगियाह थे। सिले कपड़े नहीं पहनते थे और ऐसे मौकों पर अस्पृश्य की ओर दृष्टि पड़ जाने पर तुरंत काम बन्द कर स्नान करने चल देते थे। रमल, लाल किताब, रोमक और जाने कितने टोटके उनके बाएँ हाथ के खेल थे और सनकें मशहूर थीं।
उनके आने का कारण एक दिन पहले की घटना थी । जंत्री सिंघ बरदेखाई के लिए सुबह सुबह निकले ही थे कि सग्गर सामने पड़ गए।
"धुर बहानचो ! कौनो सुभ कार करे निकल त ई निस्संतानी जरूर समने परि जाला।" "धुत्त बहनचो! कोई शुभ काम करने निकलो तो यह नि:संतानी जरूर सामने पड़ जाता है।"
"धुर बहानचो ! कौनो सुभ कार करे निकल त ई निस्संतानी जरूर समने परि जाला।" "धुत्त बहनचो! कोई शुभ काम करने निकलो तो यह नि:संतानी जरूर सामने पड़ जाता है।"
जंत्री सिंघ ने जाना टाल दिया और घर के भीतर से जवान सोनमतिया की महतारी सग्गर को कोसने लगी। अठारह बरस से निस्संतानी सग्गर के लिए यह सब सुनना आम हो चला था लेकिन सोनमतिया पट्टीदारी की ही सही उनकी प्यारी भतीजी थी।
उसका विवाह खोजा जा रहा था और उन्हें खबर ही नही !
उनके सामने पड़ जाने से निकलना तक टाल दिया जा रहा है !!
दोहरे धक्के ने कुछ अधिक ही हिला दिया। खटवासि ले पड़ गए तो दिन भर कुछ नहीं खाए। संझा के बेरा आँख लग गई जो महतारी की फजिहत से खुली,
"ए बेरा सुत्तता। लछमी का अइहें। जाने कौन बाँझ कुलछनी घर में आइल कि एकर सगरी बुद्धी हरि लेहलसि। नाती नतकुर नाही होइहें। निरबंसे होई।" "इस समय सो रहा है। धन सम्पदा क्या आएगी? जाने कौन कुलक्षणा घर में आई कि इसकी सारी बुद्धि ही हर ली। नाती पोते नहीं होंगे, वंश डूब जाएगा।"
उसका विवाह खोजा जा रहा था और उन्हें खबर ही नही !
उनके सामने पड़ जाने से निकलना तक टाल दिया जा रहा है !!
दोहरे धक्के ने कुछ अधिक ही हिला दिया। खटवासि ले पड़ गए तो दिन भर कुछ नहीं खाए। संझा के बेरा आँख लग गई जो महतारी की फजिहत से खुली,
"ए बेरा सुत्तता। लछमी का अइहें। जाने कौन बाँझ कुलछनी घर में आइल कि एकर सगरी बुद्धी हरि लेहलसि। नाती नतकुर नाही होइहें। निरबंसे होई।" "इस समय सो रहा है। धन सम्पदा क्या आएगी? जाने कौन कुलक्षणा घर में आई कि इसकी सारी बुद्धि ही हर ली। नाती पोते नहीं होंगे, वंश डूब जाएगा।"
प्राणप्यारी सोझवा पत्नी के लिए ऐसी भाखा सुन सग्गर तमतमा उठे। पहाड़ की तरह उन्हों ने पिछले पन्द्रह वर्षों से दूसरे विवाह के दबावों को झेला था - बिना टसके मसके। लेकिन आज जाने क्या हुआ था, अमर्ष ?... संझा के बेरा फूट फूट कर रो पड़े थे। बाप ने सुना और वज्र निर्णय लिया।
(आ)
महामहोपाध्याय चण्डीदत्त शुक्ल। गाँव की भाखा में महोधिया चंडी पंडित। गोरख पीठ, काशी और उज्जैन से शिक्षा दीक्षा। भृगु संहिता, रावण संहिता, ज्योतिष और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान। मलेच्छ भाषा पर भी अधिकार लेकिन वाणी दोष की आशंका के कारण बोलने से बचते थे। महोधिया उपाधि उनकी शोहरत और अंग्रेज बहादुर को भूमि शोधन कर मदद करने से मिली थी। घोड़े पर चलते थे और यजमानों के यहाँ उनके लिए छ्त्र, चँवर अनिवार्य थे।
ऐसे चंडीदत्त के खानदान के थे भ्रष्ट विद्या आचार्य श्मशान साधक खदेरन पंडित। शव साधना, लाल किताब और ऐसे ही जाने कितनी गुप्त विद्याओं के अध्ययन साधन ने उन्हें गाँव का पतित बना दिया था। एक दिन तो हद ही हो गई जब तेलिया मसान की हड्डी लिए घूमते अघोरी को उन्हों ने भोजन करा दिया।
उग्रधर्मा वयोवृद्ध महोधिया ने निर्णय लिया और बाकी घरानों के साथ खदेरन का खान पान बन्द हो गया। जजमानी टूट गई जिसमें सग्गर का खानदान भी था।
लेकिन खदेरन तो खदेरन थे। बचपन से ही आक्रोश को अग्नि की तरह धारण किए थे। अपने को सच्चा अग्निहोत्री बताते वह अपनी साधना में लगे रहे - एकमात्र उनका ही घर था जिसमें अग्निशाला कभी ठंडी नहीं पड़ी थी। उनकी दृष्टि में चंडी चाचा भ्रष्ट और मलेच्छतुल्य थे और वह खुद खेतिहर अग्निहोत्री ब्राह्मण। जिस ब्राह्मण के घर अग्निहोत्र न हो वह कैसा ब्राह्मण ?
ऐसे चंडीदत्त के खानदान के थे भ्रष्ट विद्या आचार्य श्मशान साधक खदेरन पंडित। शव साधना, लाल किताब और ऐसे ही जाने कितनी गुप्त विद्याओं के अध्ययन साधन ने उन्हें गाँव का पतित बना दिया था। एक दिन तो हद ही हो गई जब तेलिया मसान की हड्डी लिए घूमते अघोरी को उन्हों ने भोजन करा दिया।
उग्रधर्मा वयोवृद्ध महोधिया ने निर्णय लिया और बाकी घरानों के साथ खदेरन का खान पान बन्द हो गया। जजमानी टूट गई जिसमें सग्गर का खानदान भी था।
लेकिन खदेरन तो खदेरन थे। बचपन से ही आक्रोश को अग्नि की तरह धारण किए थे। अपने को सच्चा अग्निहोत्री बताते वह अपनी साधना में लगे रहे - एकमात्र उनका ही घर था जिसमें अग्निशाला कभी ठंडी नहीं पड़ी थी। उनकी दृष्टि में चंडी चाचा भ्रष्ट और मलेच्छतुल्य थे और वह खुद खेतिहर अग्निहोत्री ब्राह्मण। जिस ब्राह्मण के घर अग्निहोत्र न हो वह कैसा ब्राह्मण ?
ऐसे पंडित का खदेरन नाम कैसे पड़ा ?
(इ)
" कुलटा ! निकल घर में से। हमरे बीज से चरि चरि गो भवानी होइहें?""कुलटा ! घर में से बाहर निकलो। मेरे वीर्य से चार चार लड़कियाँ होंगी?" रात का समय। चतुर्भुज पंडित अपनी घरैतिन को घसीटते घर में से निकाल रहे थे। माँ बाप की रोज रोज की चख चख की अभ्यस्त हो चली चार भवानियाँ सहमी सी दुबकी हुई थीं और मतवा पति से निहोरा कर रही थी,
"राति के बेरा कहाँ जाईं? बिहाने अपने लइकनिन के ले के पोखरा में कूदि जाइब। रउरे मुकुत हो जाइब लेकिन ए बेरा छोड़ि देईं।" "रात के समय कहाँ जाऊँ? सबेरे अपनी बेटियों के साथ पोखरे में कूद जाऊँगी। आप मुक्त हो जाएँगे लेकिन इस समय रहने दीजिए।" घर से बाहर अकेली स्त्री का रात बिताना! लोकापवाद की आशंका ने मतवा को निरीह बना दिया था। पति के पैर पकड़ धाड़े मार रो रही थीं लेकिन चतुर्भुज के मन में वही चोर था जिसका मतवा को डर था। घसीटते हुए घर से बाहर ला एक लात जमाया और चाँचर बन्द कर दिया। चारो भवानियाँ चीख चीख रोने लगीं लेकिन पंडित टोले के किसी घर से कोई बाहर नहीं निकला।
रात कुछ अधिक ही काली हो चली थी। रोती बिलखती मतवा बबुआने पहुँच गई, सीधे भिक्खन के महतारी के पास।
गाँव भर की काकी भुनभुनाई,
" कठमरद चतुर्भुजवा। अरे ! औलाद औलाद होले। हमार बोक्का बा तब्बो मालिक कब्बो कुच्छू नाहीं कहलें।""कठमर्द चतुर्भुज। अरे! औलाद औलाद होती है। मेरी औलाद तो मन्दबुद्धि है लेकिन मेरे स्वामी ने तो कभी कुछ नहीं कहा !"
"ए भिखना ! लुकारा धराउ।" "भिक्खन! मशाल जलाओ!" काकी ने अपने मन्दबुद्धि जवान बेटे को जगाते हुए आदेश दिया।
पोरसा भर लम्बा पहाड़ सा शरीर लिए भिखना मातृ आदेश के पालन हेतु तत्पर हुआ। पति को माजरा बता-समझा कर भिखना और मतवा के साथ काकी चतुर्भुज की अक्ल दुरुस्त करने चल दी।
" ए पंडित ! इ कौनो कायदा हे ? मेहरारू के राति के घर से निकाल देहल ह।" "ऐ पंडित ! ये कोई तरीका है ? अपनी स्त्री को रात में घर से बाहर निकाल दिए ?"
" काकी हो, तू बिच्चे में न पर sss" "काकी! तुम बीच में न पड़ो" "
"काकी परिहें बिच्चे में पंडित ! पयलग्गी करिहें लेकिन बइयो झरिहें। भिखना के देखतल कि नाहीं ? अब्बे इशारा करब। बम्मड़ मनई, तोहार पहँटा लगावत देरि नाइ लागी।" "काकी तो बीच में पड़ेगी पंडित! प्रणाम करेगी लेकिन तुम्हारी अक्ल भी दुरुस्त करेगी। भिक्खन को देख रहे हो न ? अभी इशारा करूँगी। मन्दबुद्धि जवान है, तुम्हारी ऐसी तैसी करते देर नहीं लगेगी।"
चतुर्भुज ने साँड़ सरीखे भिक्खन को लुकारा लिए देखा तो पुत्र की कामना बिला गई। काकी का यह पुत्र काकी को भले नरक से न तार पाए लेकिन चतुर्भुज जैसों को एक इशारे पर नरक में झोंक सकता था।
धमकी काम कर गई। मतवा को गृहप्रवेश मिला और चतुर्भुज को भविष्य में फिर कभी ऐसा न करने की चेतावनी।
लेकिन मतवा का दु:ख और बढ़ गया। पुत्र प्राप्ति हेतु घर और घरैतिन में तारतम्य न होने का कारण बताते हुए महामहोपाध्याय चण्डीदत्त शुक्ल ने व्यवस्था दी,
"चतुर्भुज की स्त्री घर से, ग्राम सीमा से बाहर रहेगी। उत्तरायण सूर्य के रहते हुए पति पत्नी शास्त्रोक्त ऋतुकाल सम्बन्धी मर्यादाओं का पालन करते हुए समागम करेंगे। यदि वर्षांत में भी गर्भ नहीं ठहरा तो चतुर्भुज दूसरे विवाह के लिए स्वतंत्र होंगे।"
चण्डी के मन में चोर था। चतुर्भुज का दूसरा विवाह वह अपने रिश्ते में कराना चाहते थे। उन्हें डर था कि चार चार पुत्रियों को जन्म देने वाली स्त्री पुत्र को भी जन्म दे सकती है। यदि पति पत्नी में अलगाव डाल दिया जाय तो बात बन सकती थी। उन्हों ने तदनुकूल व्यवस्था दी। मतवा गाँव के बाहर 'खदेरा गई'।
नियति के आगे किसी का बस नहीं चलता भले वह महामहोपाध्याय ही क्यों न हो!
काकी ने यह सुना तो मन ही मन चंडी को खूब कोसा। उस रात बिन बुलाए काकी चतुर्भुज के यहाँ गई। भिक्खन दुआरे चतुर्भुज को बिठाए रहा। भीतर काकी मतवा को भूले पाठ याद कराती रही। सोहागिन नारी का कर्तव्य है कि अपना आकर्षण बनाए रखे।
उस साल सूर्य के उत्तरायण रहते, बस तीन महीने तक भिक्खन रात का सूरज बन चतुर्भुज के दरवाजे आता रहा। मन्दमति की नींद कच्ची थी। मारे डर के चतुर्भुज चुपचाप गाँव के बाहर अपनी निष्कासित पत्नी की झोपड़ी में जाते रहे और रात बिता सुबह घर वापस आते रहे।
इस तरह की अनूठी रखवाली शायद पहले कभी नहीं हुई थी। ..
मतवा गर्भवती हुईं और...
... पुत्र ने जन्म लिया। चंडी के चेहरे पर कालिमा पोतते आह्लादित चतुर्भुज काकी के यहाँ पधारे और अद्भुत बात हुई।
नामकरण बिना किसी आडम्बर कर्मकांड के हो गया।
काकी ने खदेड़ी गई स्त्री के बेटे का नाम रखा "खदेरन"।
उन्हें नहीं पता था कि यह नाम माता के अपमान और पीड़ा की अग्नि को हमेशा हमेशा के लिए पुत्र के मनोमस्तिष्क में स्थापित कर देगा। बड़े होने पर भी खदेरन ने नाम नहीं बदला। यज्ञोपवीत के तुरंत बाद ही खदेरन ने अग्नि की स्थापना की थी। बचपन में न मंत्र आते थे और न कर्मकाण्ड लेकिन अग्नि हमेशा जीवित रही -उनके मन में भी और शाला में भी।
(ई)
अठ्ठारह वर्ष। पुत्र कामना कामना ही रही।
बन्ध्या धरती - खरपतवार तक न हो! सग्गर सिंघ के यहाँ कन्या तक का जन्म न हुआ।
पहले वयोवृद्ध चंडी शुक्ल कर्मकाण्ड कराते रहे फिर उनके बेटे भतीजे लेकिन विधाता की लेखनी पुन: स्याही में न डूबी। दबी जुबान से घरैतिन ने कई बार खदेरन पंडित का नाम लिया पर स्वामी की वर्जन दृष्टि के आगे बात बढ़ नहीं सकी।
लेकिन आज ?
... पुत्र की आँखों में आँसू और वंश न चलने के भय ने पिता को परम आदरणीय चण्डी पंडित की व्यवस्था का उल्लंघन करने को बाध्य कर दिया।
गाँव में सर्व बहिष्कृत और गाँव के बाहर सर्व पूजित खदेरन पंडित को बुलावा भेजने का वज्र निर्णय रामसनेही सिंघ ने लिया। जाति से बाहर किए जाने का खतरा कोई मायने नहीं रखता था तब जब कि वयस्क और परम स्नेही पुत्र को रोना पड़े।
(उ)
सूरज देव बाँस भर आकाश में चढ़ आए थे। खदेरन पंडित ने दृष्टि उठाई तो सब कुछ ठहर गया - सग्गर का बेना, रामसनेही का जनेऊ से खुजलाना, महतारी की लकड़ी, जुग्गुल की चहलकदमी, यहाँ तक कि लँगड़ी पिल्ली भी खिरकी में पटा गई।
हवा ठहर गई जैसे किसी चक्रवात की प्रतीक्षा हो !
खदेरन पंडित ने रुक्ष स्वर में आदेश सुनाया,
" सनातन धर्म के शास्त्रों में मुझे कोई समाधान नहीं दिखता। यजमान ! लोकविद्या, गुह्य विद्या और वामविद्या के समन्वय से राह मिलेगी। पोते का दर्शन आप को होगा ..."
खदेरन ने रुक कर वातावरण के तनाव में उमड़ते घुमड़ते स्वीकार को महसूस किया और पुन: जारी हुए,
" किसी भी रविवार के दिन सूर्य उगने के पहले पूरब दिशा की ओर सागर सिंह प्रस्थान करें। किसी से कुछ न कहें और न किसी की पुकार का उत्तर दें। गाँव की सीमा से बाहर आने पर पहली किरण का दर्शन होने के तुरंत बाद जिस किसी पहले पौधे को देख मन में स्वीकार भाव आए उसे अपने घर आने के लिए निमंत्रित करें, उसे सुरक्षित करें और वापस आ जाँय। अगले रविवार को उसे लाकर पति पत्नी दोनों घर के बाहर रास्ते के किनारे रोपित करें। तत्पश्चात दिन में ही समागम करें।
ईश्वर कृपा से पुत्र की प्राप्ति होगी लेकिन ..."
"... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।
ईश्वर पर भरोसा रखें, सब शुभ होगा। मुझे दिख रहा है, यह वंश इतना बड़ा होगा कि रोज मनही भर नमक लगेगा।" कहते हुए खदेरन ने आसन छोड़ दिया।
चरण छूने को उद्यत हाथों को बरजते और दक्षिणा को घर भेजवा देने का इशारा करते लगभग भागते हुए रुखसत हुए।
नियति भी कैसे कैसे खेल खेलती है!
सग्गर सिंघ को अगले रविवार को गाँव से बाहर गोंयड़े के खेत की मेड़ पर जो पौधा पहली किरण के साथ मिला और स्वीकार्य भी लगा, वह था - 'नींबू'
रामसनेही सिंघ ने सिर पीट लिया - नीबू। काँटेदार झाड़ियाँ, फल अफरात लेकिन बला की खटास ! और नींबू के पेंड़ का जीवन ही कितना ?
मन में खदेरन पंडित की रुक्ष वाणी गूँज उठी, "... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।" (अगला भाग)
हवा ठहर गई जैसे किसी चक्रवात की प्रतीक्षा हो !
खदेरन पंडित ने रुक्ष स्वर में आदेश सुनाया,
" सनातन धर्म के शास्त्रों में मुझे कोई समाधान नहीं दिखता। यजमान ! लोकविद्या, गुह्य विद्या और वामविद्या के समन्वय से राह मिलेगी। पोते का दर्शन आप को होगा ..."
खदेरन ने रुक कर वातावरण के तनाव में उमड़ते घुमड़ते स्वीकार को महसूस किया और पुन: जारी हुए,
" किसी भी रविवार के दिन सूर्य उगने के पहले पूरब दिशा की ओर सागर सिंह प्रस्थान करें। किसी से कुछ न कहें और न किसी की पुकार का उत्तर दें। गाँव की सीमा से बाहर आने पर पहली किरण का दर्शन होने के तुरंत बाद जिस किसी पहले पौधे को देख मन में स्वीकार भाव आए उसे अपने घर आने के लिए निमंत्रित करें, उसे सुरक्षित करें और वापस आ जाँय। अगले रविवार को उसे लाकर पति पत्नी दोनों घर के बाहर रास्ते के किनारे रोपित करें। तत्पश्चात दिन में ही समागम करें।
ईश्वर कृपा से पुत्र की प्राप्ति होगी लेकिन ..."
"... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।
ईश्वर पर भरोसा रखें, सब शुभ होगा। मुझे दिख रहा है, यह वंश इतना बड़ा होगा कि रोज मनही भर नमक लगेगा।" कहते हुए खदेरन ने आसन छोड़ दिया।
चरण छूने को उद्यत हाथों को बरजते और दक्षिणा को घर भेजवा देने का इशारा करते लगभग भागते हुए रुखसत हुए।
नियति भी कैसे कैसे खेल खेलती है!
सग्गर सिंघ को अगले रविवार को गाँव से बाहर गोंयड़े के खेत की मेड़ पर जो पौधा पहली किरण के साथ मिला और स्वीकार्य भी लगा, वह था - 'नींबू'
रामसनेही सिंघ ने सिर पीट लिया - नीबू। काँटेदार झाड़ियाँ, फल अफरात लेकिन बला की खटास ! और नींबू के पेंड़ का जीवन ही कितना ?
मन में खदेरन पंडित की रुक्ष वाणी गूँज उठी, "... उस पुत्र से आगे की वंशावली उस पौधे के स्वभाव अनुरूप होगी। वंश तब तक चलेगा जब तक वृक्ष रहेगा। वृक्ष की हानि वंश का नाश कर देगी।" (अगला भाग)
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शब्द सम्पदा:
(1) कुआर का अँजोर - आश्विन (क्वार) मास का शुक्ल पक्ष (2) पितरपख - पितृपक्ष (3) भितऊ - मिट्टी की दीवार वाला घर (4) पँचलकड़ियाँ - औषधीय गुणों वाली 5 लकड़ियाँ (5) बेना - बाँस का या नारियल की पत्ती से बना हाथ का पंखा (6) मनई - व्यक्ति (7) लतमरुआ - खपरैल के घरों में प्रयुक्त मुख्य द्वार की भारी चौखट का निचला भाग (8) पिल्ली - कुतिया (9) खिरकी - दो घरों के बीच का सँकरा रास्ता/खाली स्थान (10) दुआर - देहाती घरों में आगे छोड़ा गया बड़ा खाली स्थान जिसे बैठने और अन्न प्रसंस्करण के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। (11) जोगियाह - फालतू के नेम टेम मानने वाला (12) खटवासि - चरम दु:ख के क्षणों में खाट पर पड़े रहना (13) सोझवा - सीधी साधी (14) भाखा - भाषा, बोली (15) संझा के बेरा - शाम का समय (16) मलेच्छ भाषा - अंग्रेजी (17) तेलिया मसान की हड्डी - गुह्य साधना का एक अंग। तेली जाति के लिए सुरक्षित श्मशान से अधजले शव से खींच लिया गया हड्डी का टुकड़ा (18) भवानी - पुराने जमाने में बेटी के लिए प्रयुक्त (19) मतवा - ब्राह्मणी, आदर स्वरूप प्रयुक्त, इतर जातियों के लिए किसी भी आयु की विवाहिता ब्राह्मणी माता समान (20) बबुआने - गाँव की राजपूत बस्ती के लिए इतर जातियों द्वारा प्रयुक्त (21) पोरसा भर – हाथ को ऊपर की ओर सीधा फैलाने से हुई ऊँचाई (22) बिला - खो जाना, भूल जाना (23) खदेरा गई - खदेड़ दी गई, निष्कासित किए जाने के अर्थ में प्रयुक्त (24) सोहागिन - सुहागिन (25) मनही भर - एक चौथाई सेर, सेर तौल की पुरानी माप थी जो आज के एक किलोग्राम से कुछ कम होती थी। (26) नेबुआ - नींबू
मंगलवार, 8 जून 2010
नरक के रस्ते
…तकिया गीली है।
आँखें
सीली हैं?
आँसू
हैं या पसीना ?
अजीब
मौसम
आँसू
और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग
गई है।
आग!
खिड़कियों के किनारे
चौखट
के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर
दहकती सब तरफ आग !
बिस्तर
से उठती लपटें
कमाल
है एकदम ठंडी
लेकिन
शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों?
दौड़ता
जा रहा हूँ
हाँफ
रहा हूँ – बिस्तर के किनारे कमरे
में कितने ही रास्ते
सबमें
आग लगी हुई
साथ
साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले
यह
क्या ? किसने फेंक दिया मुझे
खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक
जलन खाल उतरती हुई
चीखती
हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट
झपट
कर उठता हूँ
शरीर
के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने
से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ
पत्नी
का चेहरा मेरे चेहरे के उपर
आँखों
में चिंन्ता – क्या हुआ इन्हें ?
अजीब
संकट है
स्नेहिल
स्त्री का पति होना।
कृतघ्न, पाखंडी, वंचक
.... मनोवैज्ञानिक केस !
क्यों
सताते हो उस नवेली को ?
.... सोच संकट है। क्या
करूँ?
... भोर है कि सुबह?
पूछना
चाहता हूँ
आवाज
का गला किसने घोंट दिया?
खामोश
चिल्लाहट ...|
... ”अशोच्यानन्वशोचंते
प्रज्ञावादांश्च .....”
पिताजी
गा रहे हैं
बेसमझ
पारायण नहीं
गा
रहे हैं।
... आग अभी भी कमरे में
लगी हुई है।
लेकिन
शमित हो रहा है
शरीर
का अन्दरूनी दाह ।
शीतल
हो रही हैं आँखें
सीलन
नहीं, पसीना नहीं
..पत्नी का हाथ माथे पर
पकड़ता हूँ
कानों
में फुसफुसाहट
“लेटे रहिए
आप को
तेज बुखार है।“ ...
बुखार? सुख??
37 डिग्री बुखार माने
जीवन
तेज
बुखार माने और अधिक जीवन
इतना
जीवन कि जिन्दगी ही बवाल हो जाए !
यह
जीवन मेरे उपर इतना मेहरबान क्यों है?
ooo
बुखार
चढ़ रहा है
अजीब
सुखानुभूति।
पत्नी
से बोलता हूँ -
भला
बुखार में भी सुख होता है ?
बड़बड़ाहट
समझ चादर उढ़ा
हो
जाती है कमरे से बाहर।
ooo
कमरे
में एकांत
कोई
बताओ – भोर है कि सुबह?
....नानुशोचंति पंडिता:“
कौन
इस समय पिताजी के स्वर गा रहा?
क्यों
नहीं गा सकता ? सुबह है।
कमरे में घुस आई
है
धूप
की एक गोल खिड़की ।
कमाल
है आग कहाँ गई?
धूप
सचमुच या बहम?
ooo
हँइचो
हँइचो हैण्डपम्प
रँभाती
गैया
चारा
काटने चले मणि
कमरे
के कोने में नाच रही मकड़ी
चींटियाँ
चटक लड्डू पपड़ी
जै
सियराम जंगी का रिक्शा
खड़ंजे
पर खड़ खड़ खड़का।
धूँ
पीं धूँ SSssS हों ssss
रामकोला
की गन्ना मिल
राख
उगलती गुल गिल
दे
रही आवाज बाँधो रे साज
पिताजी
चले नहाने
खड़ाऊँ
खट पट खट टक
बजे
पौने सात सरपट।
रसोई
का स्टोव हनहनाया
सुबह
है, कस्बा सनसनाया।
ooo
गोड़न
गाली दे रही
बिटिया
है उढ़री
काहें
वापस घर आई?
बाप
चुप्प है
सब
ससुरी गप्प है।
बेटियाँ
जब भागतीं
घर की
नाक काटती
बेटा
जब भागता
कमाई
है लादता ।
ऐसा
क्यों है?
गोड़न
तेरी ही नहीं
सारी
दुनिया की पोल है,
कि
मत्था बकलोल है।
समस्या
विकट है
सोच
संक्कट्ट है।
ooo
बुखार
का जोर है ।
हरापन
उतर आया है कमरे में।
कप के
काढ़े से निकल हरियाली
सीलिंग
को रंग रही तुलसी बावरी।
छत की
ओस कालिख पोत रही
हवा
में हरियाली है
नालियों
में जमी काई
काली
हरियाली ..
अचानक
शुरू हुई डोमगाउज
माँ
बहन बेटी सब दिए समेट
जीभ
के पत्ते गाली लपेट
विवाद
की पकौड़ी
तल
रही नंगी हो
चौराहे
पर चौकड़ी।
रोज
की रपट
शिव
बाबू की डपट
से
बन्द है होती
लेकिन
ये नाली उफननी
बन्द
क्यों नहीं होती?
ooo
टाउन
एरिया वाले चोर हैं
कि
मोहल्ले वाले चोर हैं ?
ले दे
के बात वहीं है अटकती
ये
नाली बन्द क्यों नहीं होती?
ooo
रोज
का टंटा
कितने
सुदामा हो गए संकटा।
वह
क्या है जो नाली की मरम्मत नहीं होने देता?
इस
उफनती नाली में पलते हैं बजबजाते कीड़े
और
घरों के कुम्भीपाक
खौलता
तेल आग
ठंढा
काई भरा पानी हरियाला
अजब
है घोटाला
कौन
हुआ मालामाल है ?
ooo
धूँ पीं धूँ SSssS
हों ssss
ओं sss होंsss कीं
हें sss
साढ़े
नौ – पंजाब मिल की डबलदार
सीटी|
जंगी
का रिक्शा फिर खड़का है
अबकी
दारू का नशा नहीं भड़का है।
पीढ़े
से डकारते पिताजी उठते हैं ।
बगल
के घर से हँसी गुप्ता की
तकिए
की जगह नोट रखता है
जाने
बैंक जाते इतना खुश क्यों रहता है ?
गुड्डू
की डेढ़ फीट पीठ पर
आठ
किलो का बस्ता चढ़ता है।
इस
साढ़े नौ की सीटी से
पूरा
कस्बा सिहरता है।
ooo
कैसी
इस कस्बे की सुबहे जिन्दगी !
इतने
में ही सिमट गई !!
मुझे
बेचैन करता है
क़स्बे
की सुबह का ऐसे सिमट जाना!
लगता
है कि एक नरक में जी रहा हूँ
शायद
ठीक से कह भी नहीं पाना
एक
नारकीय उपलब्धि है।
कमरे
में बदबू है
मछली
मार्केट सी।
जिन्दा
मछलियाँ जिबह होती हुईं
पहँसुल
की धार इत्ती तेज !
जंगी
के शरीर में जाने कितनी मछलियाँ
ताजी
ऊर्जावान हरदम उछलती हुईं
शीतल
आग में धीरे धीरे
फ्राई
हो रही हैं
कौन
खा रहा है उन्हें ?
कौन
है??
चिल्लाता
हूँ
भागती
अम्माँ आती है
आटा
सने हाथ लिए
पीछे
बीवी ।
... चादर के नीचे शरीर
में दाने निकल आए हैं ।
सुति
रह !
कैसे
सो जाऊँ ?
ये जो
शराब पी कर वह जंगी जी रहा है
जिन्दगी
की जंग बिना जाने बिना लड़े
अलमस्त
हो हार रहा है।
वह
रिक्शे की खड़खड़ जो हो जाएगी खामोश
बस
चार पाँच सालों में टायरों को जला जाएगी आग
रह
जाएगा झोंपड़ी में टीबी से खाँसता अस्थि पंजर
मैं
देख रहा हूँ – कुम्भीपाक में खुद को
तल रहा हूँ।
अम्माँ
तुम कहती हो – सुति रह !!
मेरे
इतिहास बोध में कंफ्यूजन है !
मैं
मानता हूँ कि इस मुहल्ले में रहते
ये
पढ़े लिखे मास्टर – कोई डबल एम ए कोई
विशारद
दुश्मन
के सामने तमाशा देखती गारद ।
निर्लिप्त
लेकिन अपनी दुनिया में घनघोर लिप्त
करें
भी तो क्या परिवार और स्कूल
इन दो
को साधना
करनी
एक साधना कि
बेटे
बेटियों को न बनना पड़े मास्टर।
कोई
इतिहासकार न इनका इतिहास लिखेगा
और न
जंगी की जंग का
सही
मानो तो वह जंग है ही नहीं ...
इसका
न होना एक नारकीय सच है
समय
के सिर पर बाल नहीं
सनातन
घटोत्कच है।
गुड्डू
जो किलो के भाव बस्ता उठाता है
दौड़ते
भागते हँसते पैदल स्कूल जाता है
कॉलेज
और फिर रोजगार दफ्तर भी जाएगा
उस
समय उसे जोड़ों का दर्द सताएगा
जब
कुछ नहीं पाएगा
समानांतर
ही धँस जाएंगी आँखें
दीवारों
पर स्वप्नदोष की दवाएँ बाँचते
बाप
को कोसेगा जुल्फी झारते और खाँसते ।
बाप
एक बार फिर जोर लगाएगा
बूढ़े
बैल में जान बँची होगी ?
भेज
देगा तैयारी करने को – इलाहाबाद
सीधा
आइ ए एस बनो बेटा – मुझे मत कोसना ..
मैं
अकेला बदबूदार कमरे में
मांस
जलने की बू सूँघते
बेशर्म
हो हँसते
मन
में जोड़ता हूँ ये तुकबन्दी
भविष्य
देख रहा हूँ – सोच संकट है।
अर्ज
किया है:
”खेतों के उस पार खड़ा
रहता
हरदम अड़ा अड़ा
सब
कहते हैं ठूँठ ।
बढ़
कर के आकाश चूम लूँ
धरती
का भंडार लूट लूँ
कितनी
भी हरियाली आई
कोंपल
धानी फूट न पाई
चक्कर
के घनचक्कर में
रह
गया केवल झूठ
सब
कहते हैं ठूँठ।
हार्मोन
के इंजेक्शन से
बन
जाएगी पालक शाल
इलहाबाद
के टेसन से
फास्ट
बनेगी गाड़ी माल
आकाश
कहाँ आए हाथों में
छोटी
सी है मूठ
सब
कहते हैं ठूँठ ।
गुलाब
कहाँ फूले पेड़ों पर
दूब
सदा उगती मेड़ों पर
ताँगे
के ये मरियल घोड़े
खाते
रहते हरदम कोड़े
पड़ी
रेस में लूट (?)
सब
कहते हैं ठूँठ”
ये
जवानी की बरबादी
ये
जिन्दगी के सबसे अनमोल दिनों का
यूँ
जाया होना
मुझे
नहीं सुहाता।
..कमाल है इस बारे में
कोई नहीं बताता।
इस
बेतुके दुनियावी नरक में
तुकबन्दी
करना डेंजर काम है।
शिक्षा
भयभीत करती है
जो
जितना ही शिक्षित है
उतना
ही भयग्रस्त है।
उतने
ही बन्धन में है ।
गीता
गायन पर मुझे हँसी आती है
मन
करता है गाऊँ -
होली
के फूहड़ अश्लील कबीरे।
मुझे
उनमें मुक्ति सुनाई पड़ती है।
बाइ द
वे
शिक्षा
की परिभाषा क्या है ?
शिक्षा
, भय सब पेंसिल की नोक
जैसे
चुभो रहे हों
मुझे
याद आता है – सूरदास आचार्य जी का
दण्ड
मेरी
दो अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा कर घुमाना!
वह
पीड़ा सहते थे मैं और मेरे साथी
आचार्य
जी हमें शिक्षित जो बना रहे थे !
हमें
कायर, सम्मानभीरु और सनातन
भयग्रस्त बना रहे थे
हम
अच्छे बच्चे पढ़ रहे थे
घर
वालों, बाप और समाज से तब भी
भयग्रस्त थे
वह
क्या था जो हमारे बचपन को निचोड़ कर
हमसे
अलग कर रहा था?
जो
हमें सुखा रहा था ..
नरक
ही साक्षात था जो गुजरने को हमें तैयार कर रहा था।
आज जो
इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ
सूरदास
की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प
दीपो भव .. ठेंगे से
अन्धे
बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे
टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम
पूजे क्यों जाते हो?...
..यहाँ सब कुछ ठहर गया
है
कितना
व्यवस्थित और कितना कम !
गन्ना
मिलों के भोंपू ही जिन्दगी में
सिहरन
पैदा करते हैं,
नहीं
मैं गलत कह रहा हूँ –
ये
भोंपू हैं इसलिए जिन्दगी है। ..
ये
भोंपू बहुत सी बातों के अलावा
तय
करते हैं कि कब घरनी गृहपति से
परोसी
थाली के बदले
गालियाँ
और मार खाएगी।
कब
कोई हरामी मर्द
माहवारी
के दाग लिए
सुखाए
जा रहे कपड़ों को देख
यह तय
करेगा कि कल
एक
लड़की को औरत बनाना है
और वह
इसके लिए भोंपू की आवाज से
साइत
तय करेगा
कल का
भोंपू उसके लिए दिव्य आनन्द ले आएगा।
... और शुरुआत होगी एक
नई जिन्दगी की
जर्रा
जर्रा प्रकाशित मौत की !!
वह
हँसती हुई फुलझड़ियाँ
अक्कुड़, दुक्कुड़
दही
चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन
में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों
के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक
ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी
छाया भी शापित
और
जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !
..कभी एक औरत सोचेगी
माँ
का बताया
वही
डोली बनाम अर्थी वाला आदर्श वाक्य!
क्या
उस समय कभी वह इस भोंपू की पुकार सुनेगी
भोंपू
जो नर हार्मोन का स्रावक भी है ! ..
चित्त
फरिया रहा है
मितली
और फिर वमन !
... चलो कमरे से
जलते मांस की बू तो टली ।
कमरे
में धूप की पगडण्डी बन गई है
हवा
में तैरते सूक्ष्म धूल कण
आँख
मिचौली खेल रहे
अचानक
सभी इकठ्ठे हो भागते हैं
छत की
ओर !
रुको
!!
छत
टूट जाएगी
मेरे
सिर पर गिर जाएगी
..अचानक छत में हो गया
है
एक
बड़ा सा छेद
आह !
ठण्डी हवा का झोंका
घुसा
भीतर पौने दस का भोंपा !
मैं
करवट बदलता हूँ
सो
गया हूँ शायद..
चन्नुल
जगा हुआ है।
तैयार
है।
निकल
पड़ता है टाउन की ओर
जाने
कितने रुपए बचाने को
तीन
किलोमीटर जाने को
पैदल।
खेतों
के सारे चकरोड
टोली
की पगडण्डियाँ
कमरे
की धूप डण्डी
रिक्शे
और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा
...
ये सब
दिल्ली के राजपथ से जुड़ते हैं।
राजपथ
जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं।
ये
रास्ते सबको राजपथ की ओर चलाते हैं
इन पर
चलते इंसान बसाते हैं
(देवगण गन्धाते हैं।)
कहीं
भी कोई दीवार नहीं
कोई
द्वार नहीं
राजपथ
सबके लिए खुला है
लेकिन
बहुत
बड़ा घपला है
पगडण्डी
के किनारे झोंपड़ी भी है
और
राजपथ के किनारे बंगला भी
झोंपड़ी
में चेंचरा ही सही – लगा है।
बंगले
में लोहे का गेट और खिड़कियाँ लगी हैं
ये सब
दीवारों की रखवाली करती हैं
इनमें
जनता और विधाता रहते हैं ।
कमाल
है कि बाहर आकर भी
इन्हें
दीवारें याद रहती हैं
न
चन्नुल कभी राजपथ पर फटक पाता है
न
देवगण पगडण्डी पर।
बँटवारा
सुव्यवस्थित है
सभी
रास्ते यथावत
चन्नुल
यथावत
सिक्रेटरी
मिस्टर चढ्ढा यथावत।
कानून
व्यवस्था यथावत।
राजपथ
यथावत
पगडण्डी
यथावत
खड़न्जा
यथावत।
यथावत
तेरी तो ...
.. मालिक से ऊँख का
हिसाब करने
चन्नुल
चल पड़ा अपना साल बरबाद करने
हरे
हरे डालर नोट
उड़
उड़ ठुमकते नोट
चन्नुल
आसमान की ओर देख रहा
ऊँची
उड़ान
किसान
की शान
गन्ना
पहलवान ।
एक
फसल इतनी मजबूत !
जीने
के सारे विकल्पों के सीनों पर सवार
एक
साथ ।
किसान
विकल्पहीन ही होता है
क्या
हो जब फसल का विकल्प भी
दगा
दे जाय ?
गन्ना
पहलवान
– बिटिया का बियाह गवना
– बबुआ का अंगरखा
- पूस की रजाई
- अम्मा की मोतियाबिन्द
की दवाई
- गठिया और बिवाई
- रेहन का बेहन
- मेले की मिठाई
- कमर दर्द की सेंकाई
- कर्जे की भराई
....
गन्ना
पहलवान भारी जिम्मेदारी निबाहते हैं।
सैकड़ो
कोस के दायरे में उनकी धाक है
चन्नुल
भी किसान
मालिक
भी किसान
गन्ना
पहलवान किसानों के किसान
खादी
के दलाल।
प्रश्न:
उनका मालिक कौन ?
उत्तर:
खूँटी पर टँगी खाकी वर्दी
ब्याख्या:
फेर देती है चेहरों पर जर्दी
सर्दी
के बाद की सर्दी
जब जब
गिनती है नोट वर्दी
खाकी
हो या खादी ।
चन्नुल
के देस में वर्दी और नोट का राज है
ग़जब
बेहूदा समाज है
उतना
ही बेहूदा मेरे मगज का मिजाज है
भगवान
बड़ा कारसाज है
(अब ये कहने की क्या
जरूरत थी? )....
आजादी
- जनवरी है या अगस्त?
अम्माँ
कौन महीना ?
बेटा
माघ – माघ के लइका बाघ ।
बबुआ
कौन महीना ?
बेटा
सावन – सावन हे पावन ।
जनवरी
है या अगस्त?
माघ
है या सावन ?
क्या
फर्क पड़ता है
जो
जनवरी माघ की शीत न काट पाई
जो
संतति मजबूत न होने पाई
क्या
फर्क पड़ता है
जो
अगस्त सावन की फुहार सा सुखदाई न हुआ
अगस्त
में कोई तो मस्त है
वर्दी
मस्त है – जय हिन्द।
जनवरी
या अगस्त?
प्रलाप
बन्द करो
कमाण्ड
! - थम्म
नाखूनों
से दाने खँरोचना बन्द
थम
गया ..
पूरी
चादर खून से भीग गई है...
हवा
में तैरते हरे हरे डालर नोट
इकोनॉमी
ओपन है
डालर
से यूरिया आएगा
यूरिये
से गन्ना बढ़ेगा।
गन्ने
से रूपया आएगा
रुक !
बेवकूफ ।
समस्या
है
डालर
निवेश किया
रिटर्न
रूपया आएगा ।
बन्द
करो बकवास – थम्म।
जनवरी
या अगस्त?
ये
लाल किले की प्राचीर पर
कौन
चढ़ गया है ?
सफेद
सफेद झक्क खादी।
लाल
लाल डॉलर नोट
लाल
किला सुन्दर बना है
कितने
डॉलर में बना होगा ..
खामोश
देख
सामने
कितने
सुन्दर बच्चे !
बाप
की कार के कंटेसियाए बच्चे
साफ
सुथरी बस से सफाए बच्चे
रंग
बिरंगी वर्दी में अजदियाए बच्चे
प्राचीर
से गूँजता है:
मर्यादित
गम्भीर
सॉफिस्टिकेटेड
खदियाया स्वर
ग़जब
गरिमा !
”बोलें मेरे साथ जय
हिन्द !”
”जय हिन्द!”
समवेत
सफेद खादी प्रत्युत्तर
“जय हिन्द!“
”इस कोने से आवाज धीमी
आई
एक
बार फिर बोलिए – जय हिन्द”
जय
हिन्द , जय हिन्द, जय हिन्द
हिन्द, हिन्द, हिन्
...द, हिन् ..
..हिन हिन भिन भिन
मक्खियों
को उड़ाते
नाक
से पोंटा चुआते
भेभन
पोते चन्नुल के चार बच्चे
बीमार
– सुखण्डी से।
कल एक
मर गया।
अशोक
की लाट से
शेर
दरक रहे हैं
दरार
पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली
के चिड़ियाघर में
जींस
और खादी पहने
एक
लड़की
अपने
ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
”शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज
हैं
यू
सिली” ।
शेर
मर रहे हैं बाहर सरेह में
खेत
में
झुग्गियों
में
झोपड़ियों
में
सड़क
पर..हर जगह
सारनाथ
में पत्थर हम सहेज रहे हैं
जय
हिन्द।
मैं
देखता हूँ
छ्त
के छेद से
लाल
किले के पत्थर दरक रहे हैं।
राजपथ
पर कीचड़ है
बाहर
बारिश हो रही है
मेरी
चादर भीग रही है।
धूप
भी खिली हुई है -
सियारे
के बियाह होता sss
सियारों
की शादी में
शेर
जिबह हो रहे हैं
भोज
होगा
काम
आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी।
खाल
लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को
हड्डी
का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को ..
पंडी
जी कह रहे हैं - जय हिन्द।
अम्माँ
ssss
कपरा
बत्थता
बहुत
तेज घम्म घम्म
थम्म!
मैं
परेड का हिस्सा हूँ
मुझे
दिखलाया जा रहा है -
भारत
की प्रगति का नायाब नमूना मैं
मेरी
बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है
मैं
क्रीम हूँ भारतीय मेधा का
मैं
जहीन
मेरा
जुर्म संगीन
मैं
शांत प्रशांत आत्मा
ॐ
शांति शांति
घम्म
घम्म, थम्म !
परेड
में बारिश हो रही है
छपर
छपर छ्म्म
धम्म।
क्रॉयोजनिक
इंजन दिखाया जा रहा है
ऑक्सीजन
और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं
पानी
से नए जमाने का इंजन चलता है
छपर
छपर छम्म।
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ
... जाने कितनी जगहें
पानी
कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है
ये
कैसा क्रॉयोजेनिक्स है!
चन्नुल
की मेंड़ और नहर का पानी
सबसे
बाद में क्यों मिलते हैं?
ये
इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं?
घमर
घमर घम्म।
रात
घिर आई है।
दिन
को अभी देख भी नहीं पाया
कि
रात हो गई
गोया
आज़ाद भारत की बात हो गई।
शाम
की बात
है
उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए।
खामोश
हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू
सो
रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं
जिन्हें
नहीं खोना बस पाना !
फिर
खोना और खोते जाना..
सोना
पाना खोना सोना ....
जिन्दगी
के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।
इस
रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं
रोज
डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं
मौत
का चालीसा - चालीस साल
लगते
हैं आदमी को बूढ़े होने में
यह
देश बहुत जवान है।
जवान
हैं तो परेड है
अगस्त
है, जनवरी है
जवान
हैं परेड हैं
अन्धेरों
में रेड है।
मेरी
करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
जिन्दगी
चीखती है - उसे क्षय बुखार है।
ये सब
कुछ और ये आजादी
अन्धेरे
के किरदार हैं।
मेरी
बड़बड़ाहट
ये
चाहत कि अन्धेरों से मुक्ति हो
ये
तडपन कि मुक्ति हो।
मुक्ति
पानी ही है
चाहे
गुजरना पड़े
हजारो
कुम्भीपाकों से ।
कैसे
हो कि जब सब ऐसे हो।
ये
रातें
सिर
में सरसो के तेल की मालिश करते
अम्माँ
की बातें
सब
खौलने लगती हैं
सिर
का बुखार जब दहकता है।
और?
.. और खौलने लगता है
बालों
में लगा तेल
अम्माँ
का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक।
(हाय ! अब ममता भी असफल
होने लगी है।)
माताएँ
क्या जानें कि उनकी औलादें
किन
नरकों से गुजर रही हैं !
अब
जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही
जिन्दगी
माताओं का स्नेह नहीं है।
भीना
स्नेह खामोश होता है...
सब
चुप हो जाओ।
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ।
..एक नवेली चौखट पर रो
रही है
मुझे
नींद आ रही है...
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- गिरिजेश राव
- गिरिजेश राव
सन् ~ 1995
पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली
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