सोमवार, 5 मार्च 2012

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी- 12

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भीतर की ऊष्मा थी या देहश्रम? खदेरन स्वेद से लथपथ हो गये। लकड़ियाँ तो हो गईं पर किसकी सहायता लें? अकेले तो नहीं हो पायेगा। मतवा और माई ही तो थीं साथ! मतवा और माई... माँ...त्रिपुरसुन्दरी...स्त्रियाँ श्मशान में! खदेरन के चेहरे पर विद्रूप की मुस्कान आई और चली गई। पतुकी में अभिचार हेतु पानी भरे और मतवा को संकेत किये ... समय आ गया। मतवा ने आग भरी पतुकी उठा लिया। दोनों खेत में पहुँचे तो सिर पर हाथ धरे मगहिया डोम बैठा हुआ था और माई फेंकरनी की देह अँकवार में लिये सो गई थी जैसे बेटी को अंतिम बिदाई दे रही हो।
आपन करतब क देवे के चाहीं अन्नदाता! एहि से अइलीं हे। पतित जाति हम, हमसे का होई लेकिन दसा ठीक नइखे। बताइब महराज! जौन हो पाई क देब। अब देरी नाहीं... बास आवे लागी।(अन्नदाता! अपना कर्तव्य कर देना चाहिये। इसीलिये आया हूँ। मैं जाति का नीच, मुझसे क्या होगा लेकिन दशा ठीक नहीं है। बताइयेगा महाराज! जो हो सकेगा कर दूँगा। अब देर न कीजिये ... दुर्गन्ध आने लगेगी।)
डोम की बात से खदेरन भीतर तक भर गये... नहीं रे! तुम पतित नहीं। केवल तुम ही पुण्यात्मा हो, बाकी पूरा गाँव तो जीवित ही नहीं... पाप, पुण्य क्या देखना?
गाँव मौन था - मरण शांति। खदेरन के अंत: से अभिशापों की झड़ी लग गई ... मृतक बसते हैं यहाँ, मृतक! इस गाँव का भला नहीं होगा ... किस घड़ी वामाचार की सूझी मुझे? माँ!... अपने आप से जूझते खदेरन ने माई को फेंकरनी की देह से हटाने के लिये हिलाया लेकिन वह वैसे ही पड़ी रही। दुबारा बल लगा कर खींचा ... और खुला मुँह लिये माई एक ओर लुढ़क गई। वह परलोक सिधार चुकी थी।
स्वेच्छा मृत्यु! आत्महत्या!! ... खदेरन के हाथ से पतुकी छूट गई। जल भुइयाँ पसर गया। जल में कुम्भ, कुम्भ में जल, फूटा कुम्भ जल जलहि समाना...उनकी आँखों के आगे अन्धकार छाता चला गया, वहीं घम्म से बैठ गये...भीतर अमावस अन्हरिया। भूत, पिशाच, प्रेत, चुरइल, हाँकिनी, डाकिनी, राकस ... सब एक साथ चिक्कार उठे - अनर्थ, घोर अनर्थ! सब भुगतेंगे ... अमानुषी ध्वनियाँ जैसे सिर फाड़ देंगी! ..कोई घर ऐसा नहीं था जिसके यहाँ नये जन्मे को माई धिया ने भुइयाँ न उतारा हो। उनकी ऐसी दुर्गति! भला नहीं होगा। अभिशापों की लपटें। आग को घेर चुका धुआँ, जाने कितना धुआँ... कि चेतना लहकी - अब तो दो का संस्कार करना होगा। माई! क्या सोच कर मर गई? खदेरन को दुबारा कठिन परीक्षा से न होना पड़े! जो भी होना हो, एक ही बार हो जाय! ...आँखों से लोर बह निकली... कन्धे पर किसी ने हाथ रखा था। किसका स्पर्श है यह?
तन्द्रा से बाहर आ कर खदेरन ने सिर उठाया। अँड़ुहरवा!... हुमचावन सामने खड़ा था। भावहीन मुख लिये उसने अपने गाड़े की ओर संकेत किया बाबा, चँवरे लकड़ी पहुँचा देहले बानी। गाड़ा पर लहास लादि देहल जाँ। एहिजा नाहीं वोइजा फुँकाइहें सो...मनई के देहीं के गति त लगही के चाहीं... आगे पीछे के बा हमरे? जौन होई तौन होई...चलीं अब! (बाबा! चँवर किनारे लकड़ियाँ पहुँचा दी हैं। गाड़े पर लाशों को लाद दिया जाय। यहाँ नहीं इनको वहाँ फूँक दिया जाय... मनुष्य की देह की गति तो लगनी ही चाहिये... कौन है मेरे आगे पीछे? जो हो सो हो... चलिये अब!)
... तुम्हें जुग्गुल के क्रोध की परवाह नहीं? ऐसी देह लेकर अकेले तुमने लकड़ियाँ किस जतन लादी होंगी?... खदेरन ने उसे लिपटा लिया। अँड़ुहरवा तब भी भावहीन ही रहा।
डोम, अँड़ुहरवा और खदेरन ने मिल कर गाड़े में दोनों लाशों को लिटाया और ऊपर से लकड़ियाँ लाद दिये। अँड़ुहरवा ने गाड़ा हाँक दिया। पीछे आग भरी पतुकी लिये पैदल खदेरन और उनके पीछे लाठी ठेकता मगहिया डोम! कैसी शवयात्रा थी यह! ऐसी कभी हुई थी क्या? गाँव के सभी नवजातों को जीवन देने वाली माई धिया की अंतिम यात्रा को मानुष कन्धे तक नहीं मिले। मरियल बैलों का कन्धा मिला! ... 
न कफन, न विमान, देह के ऊपर जलावन लकड़ियाँ लकड़ियाँ जो दाहा के लिये नहीं, रसोई चूल्हे के लिये थीं।

चँवर किनारे आस पास दो मृत शरीरों को मुखाग्नि देते खदेरन कुछ संयत हो चले थे। डोम ने पारम्परिक परिक्रमा के लिये संकेत किया था किन्तु उनकी मुद्रा देख बल नहीं दिया। परम्परा, विधि-विधान सब निरर्थक थे। अग्नि संस्कार हो जाय बस। अग्नि सब शुद्ध कर देती है। चितायें धधक उठीं। माई की आकस्मिक और अप्रत्याशित मृत्यु खदेरन को सहज लगने लगी। मन ही मन उसके लिये माँ त्रिपुरसुन्दरी से प्रार्थना - माँ! माई...
 भीतर फेंकरनी की मृत्यु की कचोट किसी फोड़े जैसी टभक रही थी। शिशु, मेरा पुत्र माँ के दूध से वंचित!...सब तुम्हारे कारण खदेरन!...तोहरे खातिर हो पंडित! 
आसमान में आदित्य चढ़ आये थे। उन्हें देखा और खदेरन सूखी करुणा की शांति में नहाते चले गये... वह मेरी ब्याहता नहीं थी। बिना मेरे छल को समझे उसने प्रेम किया, समर्पण किया। उसे शरीर सुख तो मुझसे ही मिला और संतान सुख भी। सुख? क्या इसे सुख कहें? जब सुख का समय आया तो नाशवान जग को ही छोड़ गई! ...तुम्हें दुविधा, दु:ख से मुक्त कर गई खदेरन! उसे जीवित झेल पाते तुम? ... किस सुहागिन ब्याहता से कमतर आचरण था उसका? नपुंसक को ब्याही गई थी वह! नपुंसक को!!...नपुंसक?
आचार, विचार, मर्यादा, शास्त्र निषेध सब व्यर्थ! धधकती अग्नि समक्ष थी। जीवित न सही मृत ही सही। हजारो लाखों वर्ष पुरानी ऋचायें व्यतिक्रमी हो उमड़ पड़ीं शूद्र का साथ, शूद्रों का अन्तिम संस्कार, तेलिया मसान - वामाचार के लिये उपयुक्त? वेदमंत्र निषिद्ध ...किंतु महानिशा नहीं, यह दिन है मध्याह्न। आदित्य को साक्षी मान विवाह और दाह संस्कार के मंत्र खदेरन के कर्कश स्वर में एक के पश्चात एक घोषित होते चले गये ... अँड़ुहरवा और डोम दोनों को लगा कि खदेरन किसी और लोक में थे।

मरण सेज सुहाग सेज हो चली। शरीर नहीं आत्माओं का मिलन।...आत्माओं की सप्तपदी...अंतिम संस्कार...एक साथ। स्त्री शूद्राओं के लिये शूद्र के समक्ष वेदवाणी! कोई निषेध नहीं, बस मानुष रीति...सत्य, ऋत, आदित्य...
सूर्या अपने सोम से मिल रही है...श्मशान नहीं अमृतलोक है यह!
सत्येनोत्तभिता भूमि: सूर्येणोत्तभिता दयु:.. ऋतेनादित्यास्तिष्ठंति दिवि सोमो अधि श्रित:... सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व उदीष्र्वात: पतिवती...
कफन नहीं, सुहाग वस्त्र नहीं, मेरे पास मंत्रवस्त्र हैं। इनसे परिष्कृत क्या होगा? धारण करो...भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्...
...इहलोक में हमारा साथ बस इतना ही था। जाओ फेंकरनी! पितरों के लोक जाओ। तुम्हीं सुखदा, सुभगा! तुम न सही तुम्हारा पुत्र, तुम्हारा पति दीर्घायु होंगे ... दीर्घायुरस्या य: पतिर्जीवाति शरद: शतम्..इमां त्वमिन्द्र मीढ्व: सुपुत्रां सुभगां कृणु... पितर एह गच्छत सद:सद: सदत सुप्रणीतय:...
जाओ फेंकरनी! पंचमहाभूतों के साथ ऐसा मिलन पुन: कभी नहीं होगा...
सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा, अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरै:।

... जैसे शरीर से सब निचुड़ गया हो! अपार शांति। ढलते देव के वितान तले खदेरन बुझती चिताओं के आगे बैठ गये। डोम और अँड़ुहरवा को साहस नहीं हुआ कि उन्हें कुछ कहें। चुपचाप लौट चले।
चँवर से पानी उलीच कर खदेरन ने चिताओं को शांत किया। अस्थियों को जल में प्रवाहित किया और रक्तवर्णी अंशुमाली से स्नात प्रार्थना में लीन हो गये तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात... एक और परीक्षा शेष थी। जाति जीवित थी और काका महामहोपाध्याय चण्डीदत्त शुक्ल भी।
(ड)
जुग्गुल ने अँड़ुहरवा की लीला सुनी और मारे क्रोध के अगिया बैताल हो गया। गद्दारी! ...दुआरे पेंड़ के नीचे धुप्प अन्हार में भचकते हुये चक्कर लगाने लगा। कहते हैं कि क्रोध में बुद्धि काम नहीं करती किंतु गाँव के इस जीवित पिशाच की बात ही अलग थी...
उसने अपने मन को सान्त्वना दी - तेली के जात धुरखेली। पुरनिया एहिसे इयारी बराबरी में करे के कहले बाड़ें(तेली जात जमीन में लोटेगा ही। पुरनियों ने इसीलिये मित्रता बराबरी में करने को बताया है।)
अँड़ुहरवा ने जुग्गुल का विश्वास भंग ही नहीं किया, उसके ठीक उलट काम किया था फल तो भुगतना ही था। परंतु कैसे? जुग्गुल को उसका हुमचावन नाम याद आया ...बच्चे के सीने पर गिरा, उठने का प्रयास करता अँड़ुहरवा हुमचावन!...अँड़ुआ...बेमौसम कटहल...नेबुआ... पिशाच के मस्तिष्क में हाँकिनी, डाँकिनी, बरमपिशाचिनी सभी एक साथ खिलखिला उठीं खेला तो अब जिमदार होई (खेल तो अब मजेदार होगा)! सुत्ता पड़ने को अगोरता जुग्गुल भोजन में जुट गया। उसके लिये रोटियाँ पाथती उसकी काकी खोरिश (भोजन करने की मात्रा) देख हैरान रह गई!
उस रात खदेरन पंडित के यहाँ चूल्हा नहीं जला। दुन्नो परानी के ऊपर विरक्ति छा गई थी। आज उनके चूल्हे की लकड़ियों से अग्निदेव ने महाभूतों का आहार ग्रहण किया था। खदेरन ने बच्चे को अपनी गोद में लिया... शोक, वात्सल्य, विरक्ति सब एक साथ। पश्चाताप के भाव बच्चे के लिये आशीर्वाद बन गये। उसके मुँह में मधुसिक्त कपास लगा कर खदेरन बुदबुदाये... मधु वाता रतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः... मधु नक्तमुतोषसो मधुमत पार्थिवं रजः, मधु दयौरस्तु नः पिता... मैं तुम्हारा पिता हूँ। सत्य तुम्हें शुभ हो। अग्नि तुम्हें पवित्र रखे... अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम:...तामस तुम्हारे ज्ञान से हारेगा। पुत्र! मैं तुम्हें शिक्षित करूँगा।... पिता की गोद की ऊष्मा में सुखी शिशु मुस्कुराता हुआ सो गया।
पंडितटोले में गहमागहमी बढ़ गई थी। महोधिया के नक्षत्र अपनी चाल सोच रहे थे।
घनी रात कटहल को पेंड़ से उतारने के पश्चात जुग्गुल नेबुआ के पास रुका, एक कच्चा नींबू तोड़ा और चादर ओढ़े भचकता तेलियाटोले में घुस गया। उसे देखने वाला बस एक प्राणी था गुड़ेरवा जो डाल पर बैठा एक मोटे चूहे का स्वाद ले रहा था। गाँव के कुत्ते जाने कहाँ थे!
(ढ)
प्रात गहिमणी थी। बीते दिनों में इस समय कुछ न कुछ सुनने को अवश्य मिला था। आज का होई?
हुमचावन के पड़ोसी फुलेनवा ने जब देखा कि उसके बैल नाँद पर नहीं लगे थे तो अचरज में पड़ गया। धीमे धीमे काम करने वाला हुमचावन भोर में ही खटरपटर करने लगता था। लेकिन आज?... का भइल? उत्सुकता वश उसने फुसउवा घर का चेंचरा हटाया और भीतर का दृश्य देख चीखते हुये भागा और अचेत हो गया।
इकठ्ठी भींड़ ने देखा – हुमचावन की चौकी के पास दो फाड़ में कटा कटहल। कटे भागों पर उजला दूध नहीं, रक्त था। चौकी पर हुमचावन उतान(पीठ के बल अकड़ा) पड़ा हुआ था। अँड़ुये के घाव के चारो ओर रक्त था। आँखें उलट गई थीं और खुला मुँह जैसे आकाश को गोहरा रहा था। हमेशा भावहीन रहने वाले मुखमण्डल पर यातना के चिह्न थे। आग की भाँति इस घटना की सूचना पसरती गई।
रोता, पीटता जुग्गुल मरे हुये हुमचावन की देह से लिपट गया। इयार हो! का करे पातकी पंडितवा के साथे गइल?  जान चलि गइल न!(क्या करने पातकी ब्राह्मण के साथ गये? जान चली गई न?) ... कभी रोते, कभी छाती पीटते हुये, घर घर घूमते उसने शीघ्र ही अपनी माया पसार दी ... हुमचावन मूत नहीं रोक पाता था। मगहिया ने बताया है कि मसाने चँवर के पानी में हुमचावन ने खड़े खड़े मूता था। उस पानी में तो जलप्रेत रहते हैं सिरकट्ट। उन्हों ने दण्ड दे दिया। अच्छा हुआ कि कटहल पा गये तो उसे ही काट दिये नहीं तो हुमचावन, खदेरन और डोम, तीनों सिरकट्ट! बिना रुत वह कटहल उन्हीं के लिये फला था। किसी पेंड़ पर कटहल हैं क्या? ...भ्रष्ट बाभन जो न कराये। क्या आवश्यकता थी चमइनों को फूँकने की? गये ही थे तो दरेशी में फेंक फाँक कर प्रायश्चित कर लिये होते! एक भोज भात में सब ठीक। पंडित टोले से खायन पीयन भी आरम्भ हो जाता...
पर कपारे राकस सवार होखें त ठीक बाति कैसे समझे? खदेरन के चलते गाँवे मसान हो गइल। अरे! केहू सुनले रहल ले आजु ले कि मसाने के परेत गाँवे में आवें? अइबो कइलें अउर बदलो लेहलें सो। ये गाँव के भला नाहीं होई (लेकिन सिर पर राक्षस सवार हों तो ठीक बात कहाँ सूझती है? खदेरन के चलते गाँव श्मशान हो गया। अरे! आज तक किसी ने सुना था क्या कि श्मशान के प्रेत गाँव में आये हों? प्रेत आये भी और बदला भी लिये। इस गाँव का भला नहीं होगा।)...कहते हैं दुपहर सरेह में उत्पाती प्रेत घूमते हैं किंतु गाँव में तो साक्षात दिन ब दिन बली होता देहधारी प्रेत घूम रहा था!
तेलियों ने हुमचावन का दाहा कर दिया। सबके मन में एक ही प्रश्न - यह ढर्रा कब विराम लेगा? खदेरन की मनोभूमि अमृतलोक की थी तो जो प्रत्यक्ष था, वह श्मशान था। आतंकित जन के लिये तो केवल भय रह गया था चाहे खदेरन कारण हों या जुग्गुल।
तिजहरिया जुग्गुल का रूप देखने योग्य था। लाल कपड़े और लाल टीका। बड़बड़ाता लोगों को सुनाता घूमने लगा बखिश द महराज! इयारी मने सँकारी थोड़े होला (मुझे बख्श दो! यारी का अर्थ सहमति भी हो, कोई आवश्यक नहीं)। उसकी ऐसी क्षुद्र कर्मों से परिचित होते हुये भी लोग सुन सुन कर एक के पश्चात एक कर के हुई चार मौतों की सोच सिहरने लगे जुगुला पर परेत सवार हो गइल बाड़ें सो, बतियावता( जुग्गुल के सिर प्रेत सवार हो गये हैं। उनसे बातें करता है!)
(ण)
माधव के लुप्त हो जाने के पश्चात बच गये तीन बेटों को भेज कर चंडी पंडित ने उसी दिन पट्टीदारों की सभा जुटाई। लोग हुमचावन की मौत से सन्न थे। पक्का हुआ कि तिजहर खदेरन और उनकी पत्नी दोनों की पेशगी जाति सभा के सामने हो। खदेरन मना करने वाले थे किंतु सर बर लड़ लेने की सोच पहुँचने की हामी भर दिये।
वही तिजहर, जब जुग्गुल लाली फैलाने में लगा था। ब्राह्मण सभा जाजिम पर बैठी थी। अन्धे हो चले महोधिया चंडी उसके सभापति थे। खदेरन और गोद में शिशु को लिये मतवा सभा के सामने खड़े थे...प्रहार पर प्रहार। आरोप। पुरखों की मर्यादा, ब्रह्म रक्त की मर्यादा भंग करने का दोषी खदेरन सामने था ...आँखों की जा चुकी शक्ति जैसे चंडी के कंठ और कानों में समा गई थी...
...”भ्रष्ट शिरोमणि! वामाचारी!! शूद्रा, पतिता, परदारा के साथ निषिद्ध सम्भोग। उसकी संतान को गले लगाये हो! उसका दाह संस्कार भी किया तुमने?”
वह परित्यक्ता थी, परदारा नहीं। आर्ष शास्त्रों में ब्राह्मण के लिये शूद्रा भार्या का निषेध नहीं है। अपनी पत्नी का दाह संस्कार करना कर्तव्य है। पुत्र तो मेरा ही है। क्यों न गले लगाऊँ? ... शूद्रों की बात कर रहे हैं काका? द्वैपायन व्यास को क्या कहेंगे? जाने कितने ही आदरणीय ऋषि उस परम्परा से आते हैं जिसे आप निषिद्ध संभोग कह रहे हैं। मेरा पुत्र वेदज्ञाता ब्राह्मण होगा, आप की भाँति विद्याद्रोही लबार नहीं।
क्रोध से लाल हो गये थे चंडी पंडित। धौंकनी से आता खाँसता स्वर तीव्र हो चला..
ऋषियों की बात करता है मूर्ख! तुममें पात्रता भी है उनका नाम लेने की? यह कलियुग है - स्मृतियों का युग। गर्ग ऋषि ने उच्च वर्णी के लिये निम्न वर्णी का दाहसंस्कार करने से मना किया है। पत्नी थी वह तुम्हारी? ...उससे तुम्हारा विवाह कब हुआ था?”
अग्नि की साक्षी मैंने उससे विवाह किया था। ब्राह्मण का वचन पर्याप्त है, उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।... किस गर्ग की बात कह रहे हैं काका? असत्य आप को शोभा नहीं देता। गर्ग ने या तो ज्योतिष ग्रंथ लिखा है या कृष्ण लीला। समाज संहिता कब रच गये?“
गर्ग स्मृति है पापी! ... तुम्हारा पिता उद्धत था। तुम्हारी माँ भी वैसी ही थी। परम्परा भी वैसी ही चली है। अब चमार ब्राह्मण बन कर हमलोगों के साथ बैठेगा! ...खदेरन! खान पान तो टूटा ही था। यह सभा आज से तुम्हें और तुम्हारे परिवार को चांडाल घोषित करती है। तुम्हारी छाया भी अब निषिद्ध है...
घोर घोषणा करते चंडी का चेहरा विकृत हो गया। जलपा शरीर से खाँसियों का बवंडर निकल पड़ा।
पिता! माँ!! सब उद्धत! ... आज चांडाल भी बना दिया! इसने माँ को कितना कष्ट दिया और अब हमलोगों पर भी...खदेरन जैसे क्षण भर में ही युगों की यात्रा कर आये...सहम कर रहते पिता, फूट फूट कर रोती, चंडी काका के षड्यन्‍त्रों को बताती माँ...माँ... त्रिपुरसुन्दरी...इसके प्रतिशोध की आग में जलते मैं क्या क्या नहीं कर गया! अब भी छुटकारा नहीं! आज मेरा और मेरी संतान का भाग्य लिख रहा है! इस वृद्ध को दण्ड मिलना ही चाहिये। बहुत हुआ। कामाख्या का अनुशासन टूट गया...तुम्हें शपथ है अपने इस वामाचारी पुत्र की माँ!...
आप जिसे चांडाल कह रहे हैं काका! वह अग्निहोत्री ब्राह्मण है और रहेगा। आदित्य साक्षी हैं।
...खदेरन की कर्कश वाणी रुक्ष हो चली।
चंडी काका! बहुत सताया आप ने माँ को, पिता को और मुझे भी। खदेरन वामाचारी हुआ तो आप के कारण। पापी हैं आप! आप को दंड मिलना ही चाहिये।
जैसे दसियो कौवे काँव काँव कर रहे हों...
अब आप इस धरा पर और बोझ बन कर नहीं रहेंगे। कल प्रात: का सूर्य आप नहीं देख पायेंगे।... यह इस वामाचारी ब्राह्मण का शाप है।
मतवा ने खदेरन का हाथ पकड़ा किंतु विलम्ब हो चुका था। आक्रोश और भावनाओं से पराजित वह वहीं बैठ गये। चंडी काका के खाँसियों का बवंडर रुकने का नाम नहीं ले रहा था। जाने उन्हों ने शाप सुना भी या नहीं? एक झटका लगा और महामहोपाध्याय पं. चंडीदत्त शुक्ल परलोक सिधार गये। समृद्ध सनातनी को अंत समय तुलसी, गंगाजल और सोना तक नहीं मिल पाये! ...
...जुग्गुल के मसान, खदेरन के श्मशान की प्रेतलीला का आरम्भिक बलिभाग सम्पन्न हुआ। चारो वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की बलि हो चुकी थी। नेबुआ की झाँखी स्थायी हुई। उस रात न खेंखर बोली और न सियार किंतु भूत, प्रेत, चुड़ैल, राकस, डाइन... सब नाचेबहुत नाचे।
...प्रात:काल सनसनी थी। चमइन माई डाइन हो गई थी - गाछ हाँकती डाइन! नीबू के झाड़ पर सवार डाइन ने घर में घुस पहला प्रहार किया था। फुलेनवा ब को गर्भपात हुआ था।

सिद्ध स्थानों को आस्था पोसती है और भयानक स्थानों को भय। सनपात सी गई फुलेनवा ब की बड़बड़ाहटों ने वह कर दिखाया जो जुग्गुल ने भी नहीं सोचा था। सौरी में सब जाति के जच्चा बच्चा का निस्तार कराने वाली माई की जैसी मौत हुई थी उससे औरतों के मन में गुनानि(ग्लानि भाव) चोर की भाँति पैठ गई थी। फुलेनवा ब की गति देख अपराधी मन बूझने लगे - कोख ककोरने वाली चमैनिया डाइन बदला लेगी, झंखाड़ नेबुआ पर सवार हाँकिनी डाइन सबसे बदला लेगी! भीतर बाहर दोनों ओर फैले खरमंडल माहौल में स्त्रियों को इस संकट से अपनी बिध जूझना था। ऐसे में जो पहले बक बका दे वही सत्ती और उसकी बानी बेद रमायन! बुढ़िया रमैनी काकी ने तोड़ निकाला जुग्गुल के नेबुआ मने चमैनिया डाइन के अस्थान। जे बुजरो के पेट फूले ऊ रोज सनिच्चर ओइजा दूध गिरा दे। जुग्गुल न करे दें त ओकर नाव ले खिरकी में गिरा दे। डाइन तरी रही। नाहीं सताई। (जुग्गुल का नींबू यानि चमैनिया डाइन का स्थान। जिस औरत का पेट फूले, वह हर शनिवार को वहाँ दूध गिरा आवे। जुग्गुल न गिराने दें तो डाइन का नाम लेकर खिरकी में गिरा दे। वह तृप्त रहेगी। नहीं सतायेगी।)
डाइन के अस्थान को अब कोई हटा नहीं सकता था। उसे मान्यता मिल गई। जुग्गुल को आगे कुछ करने की आवश्यकता नहीं थी।
नये उपजे टोटके की गति वायुगति से भी तीव्र होती है, प्रसार में समय नहीं लगता! मन के गड़हों में वैसे ही बैठता है जैसे पुरानी बटुली की पेनी में जरठा। झाँवा मल मल, पेनी चम चम किंतु गढ़ौनों में जरठा वैसे के वैसे! मानुख मन कोई पुरानी बटुली तो नहीं जो हाट में फेरा कर नया ले आया जा सके। मन फेरने को बड़ा उत्पात करना पड़ता है और गाँव गन्हवरिया में उत्पाती लंठ नहीं थे। यहाँ या तो गन्धाता पिशाच था या भूत और स्वयं से जूझता सतवान! निस्तार कैसे हो?
(त)
सूतक के वातावरण में गाँव जागा। पुरोहितों के यहाँ स्वयंं सूतक लगा था, दूसरों के सूतक कर्मकांड कैसे होंगे? महोधिया का मरण एक युग का अंत था। अब मार्ग कौन निकाले? खदेरन तो चंडाल हो गये! महोधिया के बेटे सब बिरथू! मधउवा बिला गया और सतऊ मतऊ तो पक्के खेतिहर, पोथी पतरा से कोई काम नहीं। बचलें परसू पंडित त ऊ महोधिया जइसन कहाँ? ...सब बिरथू!
सतऊ मतऊ माने सत्यनारायण और अमृतनारायण, परसू माने परशुराम महोधिया चंडी के तीन बचे हुये बेटे। कृषिकार्य कराने वाले बेटों को गाँव इकठ्ठे सतऊ मतऊ नाम से जानता था। पुरोहिती तो केवल परसू पंडित को आती थी किंतु वटवृक्षी पिता की छाँव ने उन्हें मुरमुरा दिया था। वह पंडितटोले के शेष पुरोहितों की भाँति ही थे।
पहल जुग्गुल ने ही की। परसू पंडित के पास समस्या को छेड़ा तो उन्हें अपनी आभा दिखाने का पहला अवसर मिला हरि ओम यजमान! इसमें कोई समस्या नहीं है। चमइनों के लिये खदेरन भैया हैं ही। आप के यहाँ मैं करा दूँगा। हुमचावन के आगे पीछे तो कोई था नहीं। उसकी जाति चाहेगी तो उनके पुरोहित करा देंगे। कोई टंटा हुआ तो मैं हूँ ही। आपदा पड़ी तो ऋषि विश्वामित्र कुत्ता खा गये, यह तो कुछ भी नहीं।
खदेरन के पेंच को परसू पंडित ने चमइन चांडाल जुति कह कर हँसी में उड़ा दिया। जुग्गुल मन ही मन परसू पंडित की प्रशंसा करता लौटा किंतु उसे कुत्त्ता खाने वाली बात गले नहीं उतरी। धुर बहानचो! एसे हमके का करेके कह कर उसने भुला दिया।
क्रिया कर्म सम्पन्न हुये। अंग्रेज बहादुर भी आये और जाते हुये चँवर, छत्र साथ लेते गये। महोधिया कुल में अब कोई सुपात्र नहीं था... खदेरन के यहाँ केवल मगहिया डोम ने कच्ची पक्की खाया। छोड़ल चमइन बाभन से बियहल (परित्यक्ता चमाइन का ब्राह्मण से विवाह)? राम! राम!! किसके गले उतरता?
फेंकरनी का अतीत बटुली में जमे जरठा सरीखा ही था। खदेरन इतनी शीघ्र कहाँ मुक्त होने वाले थे?
(थ)
वही चौकी, जिस पर कभी खदेरन ने विराजमान होकर गाँव की बयार घुमा देने वाले वामाचार का श्रीगणेश किया था। सग्गर सिंह और जंत्री सिंह के सामने आज उस पर परसू पंडित बैठे हुये थे। जुग्गुल चक्कर लगा रहा था। घर की स्त्रियाँ वैसे ही कान लगाये लतमरुआ पर बैठी अगोर रही थीं। रह गयी थी तो केवल लंगड़ी पिल्ली ही जो कब की मर चुकी थी। आज सग्गर कुल के दीपक का नामकरण होना था और साथ ही कुंडली वाचन भी।
हरि ओम यजमान! नामकरण एक बहुत महत्त्वपूर्ण संस्कार है। जैसा नाम वैसा काम। क्षत्रियकुल दीपक जातक का नाम ज्योतिष अनुसार अक्षर से होना है। मैं मान्धातारखने का परामर्श देता हूँ, आगे माता पिता की इच्छा।
जैसा नाम वैसा काम! जुग्गुल मन ही मन हँसा - परसू पंडित तोहार फरसा कहाँ बा (परसू पंडित! तुम्हारा फरसा कहाँ है)? नाम पर सहमति के पश्चात परसू पंडित ने अपनी विद्वता आरम्भ की गाँव का सबसे प्रतिष्ठित यजमान यदि संतुष्ट तो सब संतुष्ट!
ॐ... गुरुश्च शुक्र: शनि राहु केतव:...
मित्राणि सूर्याद् गुरुचन्द्रं भूमा: सूर्येन्दु पुत्री विधु जीव सूर्य: ...
पंडी जी! अइसन कहीं कि कुछ हमनो के बुझा(पंडित जी! ऐसा बताइये कि हम सबको भी समझ में आये!) – जुग्गुल ने संस्कृत प्रवाह पर मेड़ बाँधा।
... केन्द्र ग्यारहवें भाव में है और लग्न में कोई पापग्रह नहीं। जातक सुन्दर, स्वस्थ, बुद्धिमान एवं पराक्रमी होगा। सग्गर सिंह ने मन ही मन खदेरन का आभार व्यक्त किया।
... भाग्येश बलवान होकर लाभेश के साथ वैशेषिकांश में है, जातक लक्षाधिपति होगा।
पट्टीदार जंत्री सिंह को अच्छा नहीं लगा।
पंचमभाव बताते हुये परसू पंडित मुस्कुराये जातक प्रेमी एवं रसिक जीव होगा। व्ययेश परमोच्चांश में है और केन्द्र त्रिकोण में भी। शय्या कंचन और कंचनकाया से सदैव आपूरित रहेगी।
...जुग्गुल की बाँछें खिल गईं।
लग्नेश अष्टम में। सप्तम और द्वितीय के ग्रह बताते हैं कि ...परसू पंडित ने सिर उठा कर किञ्चित ऊँचे स्वर में बोला... जातक के दो विवाह होंगे। वंशवरी से घर बार भरा रहेगा। इस बार सग्गर ब ने खदेरन पंडित को ढेरों शुभकामनायें दीं और मन ही मन निश्चिय किया कि थोड़ा और समय बीत जाय तो बेटे की कुंडली खदेरन पंडित से भी ...
परसू पंडित ने समाप्त किया :
यस्य नास्ति किल जन्मपत्रिकाया शुभाशुभ फल प्रदर्शनी।
अन्धकं भवति तस्य जीवितं दीपहीनमिव मन्दिरं निशि।
भाग्य बाँचने वाले परसू पंडित को यह पता नहीं चल पाया कि जातक उन्हीं के मन्दिर में अन्धेरा करने वाला था।...
... दोनों जातकों की कुंडली अकेले बाँच कर खदेरन पंडित हाथ जोड़ बुदबुदाये थे विलासी जातक!... जाने क्यों नथुनों में सुभगा की देह से आती सुगन्ध भरती चली गई।
माँ! त्रिपुरसुन्दरी माँ!! अभी क्या क्या देखना बाकी है?”
उन्हों ने अपने पुत्र का नामकरण किया वेदमुनि।

...चमैनिया स्थान पर पहली बार गिरा हुआ दूध देख कर जुग्गुल हँसे जा रहा था – हे हेे हे कौन बुजरी(जारी)

7 टिप्‍पणियां:

  1. सच है सदियों से यही सत्य है कि ब्राह्मन का वचन ही प्रमाण है -
    खदेरन तुम्ही हो असली ब्राह्मण-वाह !
    कुलदीपक के नमम्करण संस्कार में हम भी सम्मिलित हैं....
    यशश्वी भव!

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  2. ’गज़ब’ के अलावा और कुछ लिखने की ताब नहीं है।

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  3. इस दुनिया में होते हुए भी एक अलग ही दुनिया है - जारी रहे।

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  4. ब्राह्मण का वचन पर्याप्त है, उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।...

    aglee kadi ka intizaar...

    jai baba banaras....

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  5. Bahut bahut dhanyawad,BAU aa gaye,man jhoom raha hai.Fagunahat par BAU bhari pad rahe hain .Punah dhanyabad.

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  6. बहुत आभार - किन्तु - यह फिर से ब्लॉग पर ???

    पता नहीं क्यों - मुझे लग रहा tha की यह कथा अब पुस्तक के रूप में ही आएगी ?

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  7. पोस्ट देखि तो दिल खुशी से भर गया ... परतुं पढ़ने बैठा तो फिर वही .... यानी नए सिरे से कथा सूत्र पकड़ने के लिए - दुबारा से पढ़ने की धून, .... पर परवा नहीं की... और पोस्ट पढ़ ली ... बीच में पता नहीं कुछ ऐसे लगा खासकर .... निबुआ पर दूध चढाने वाले पहरे में की - ये पहले भी पढ़ी है... क्या ऐसा है क्या. मुझे क्यों लगा..

    कृपा कथा का प्रवाह बनने दीजिए... और अगली किस्त जल्दी लिखिए.

    दुसरे होली की अग्रिम शुभकामनायें.

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