सोमवार, 29 जून 2009
हमहूँ नामी हो गइलीं
शुक्रवार, 26 जून 2009
एक 'ज़ेन कथा'
एक जादूगर था जो अपनी टोप से भाँति भाँति की चीजें निकालता था। एक दिन जादूगर ने टोप से खुद को निकाला। उसके बाद वह फिर नहीं दिखा।
अब टोप से निकला जादूगर टोप पहन कर कहानियाँ सुनाया करता है।
गुरुवार, 25 जून 2009
लंठ महाचर्चा: 'बाउ' हुए मशहूर, काहे?
मंगलवार, 23 जून 2009
कनैल: वनस्पति, पौधा, लता, वृक्ष - 2
जन जन उपयोगी यह 'थेथर' श्रेणी का पौधा कहीं भी उग आता है। घूरा, कोला, बाँस के झुरमुट, काली माई वाले बरगद के नीचे, घर के आँगन, बाग बगइचा, गँवारू मन्दिर, नागर रोड डिवाइडर, अगाड़, पिछवाड़ कहीं भी लगा दो, बपुरा टनाटन्न हरा भरा रहता फूलों की वर्षा करता रहता है। निस्पृह इतना कि जोगी भी प्रेरणा लें!
हम अधम मानवों ने अपनी जाति या वर्ग व्यवस्था चारो तरफ थोप रखी है। पौधा जगत भी अपवाद नहीं है। सर्वसुलभ और सर्व-उपयोगी होने से इसे सर्वहारा की भाँति ही उपेक्षित रखा गया है। मेरी बात पर आपत्ति करने के पहले थोड़ा बताइए कि आप ने अपने प्रेमी या प्रेमिका को कभी कनैल का फूल भेंट किया है? नहीं। क्यों? क्या यह सुन्दर नहीं होता कि इसमें सुगन्धि नहीं होती?
उपेक्षा की स्थिति यह है कि :
- कभी इसे 'बुके' में स्थान नहीं मिलता।
- किसी लेखक ने इसके बारे में नहीं लिखा।
- दुष्ट कवियों ने जूही, मोगरा, गुलाब, कमल, चम्पा, चमेली, रजनीगन्धा आदि को लेकर तो बहुत उपमाएँ गढ़ीं परन्तु कनैल की कहीं चर्चा तक नहीं हुई।
- एक और सर्वहारा गेंदा फूल पर भी फिल्मी गाना रच दिया गया, पर बेचारा कनैल, आह!
- पौधारोपण करने जब महाजन आते हैं तो अशोक, अमलतास, गुलमोहर आदि ही लाए जाते हैं, कनैल नहीं।
- नारियों की वैयक्तिक प्रकार के पूजा पाठ में एकमात्र उपयोगी फूल होने पर भी वे इसे कभी जूड़े में स्थान नहीं देतीं।
बच्चे इसके सूखे बीजों से गोट्टी खेलते लक्ष्य साधने का अभ्यास करते हैं। है कोई माई का लाल पौधा जिसके बीजों में इतना बल हो? आखिर यह क्यों उपेक्षित है? गँवई होने के कारण न?
गाँवों में अभी एक पीढ़ी पहले तक इसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। पीले फूल किसी भी सात्त्विक प्रकार की पूजा के लिए सर्वोत्तम माने जाते थे। गुरुवार व्रत में तो इसके फूलों का आदर देखने योग्य होता था।
परन्तु जिस प्रकार से मुए खम्भे अशोक ने आकर नीम के सम्मान का सत्तानाश कर दिया, वैसे ही दुष्ट पूँजीवादी समाज प्रिय गुलाब ने गाँवों में पदार्पण कर कनैल को उसके आसन से नीचे कर दिया।
कनैल इतना अत्याचार होते हुए भी फूल, पत्ती या डाल तोड़ने पर निस्पृह भाव से दूध स्रवित करता है मानो आशीर्वाद दे रहा हो फलो फूलो, हम तो ऐसे ही हैं। मुझे बड़ी करुणा होती है किन्तु कर भी क्या सकता हूँ, सिवाय इस एक लेख के?
रविवार, 21 जून 2009
अथ लंठ महाचर्चा
गुरुवार, 18 जून 2009
श्रद्धांजलि : मुठभेड़ अभी जारी है (अद्यतन किया गया 20/06/09)
एस ओ जी जवान शमीम
कंपनी कमाण्डर बेनी माधव सिंह
जवान बीर सिंह
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दस्यु मारा गया। कुल चार जाबांजों की बलि लेकर ।
" मुठभेड़ अभी जारी है" पंक्ति नहीं हटा रहा हूँ। यह तो निरंतर चलना है. . .
रविवार, 14 जून 2009
संशय निकष है . ..
मंगलवार, 9 जून 2009
बरियार : वनस्पति, पौधा, लता, वृक्ष - 1
सोमवार, 8 जून 2009
लाज और झिझक छोड़ें
जून का पहला सप्ताह बीत गया लेकिन गड्ढा प्रतियोगिता पर कोई प्रविष्टि प्राप्त नहीं हुई।
शनिवार, 6 जून 2009
इन्डीब्लॉगर पर 'Blogger of the Month - April' प्रतियोगिता
http://www.indiblogger.in/ पर 'Blogger of the Month-April' की प्रतियोगिता चल रही है। अगले 12/06/09 तक चालू रहेगी।
आम धारणा के विपरीत यह अंग्रेजी के अलावा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का भी एग्रीगेटर है। अत: आप सभी हिन्दी ब्लॉगरों से अनुरोध है कि यहाँ अपने ब्लॉग रजिस्टर करें और सदस्य बनें। अप्रैल माह की प्रतियोगिता ' सामाजिक मुद्दों' पर केन्द्रित है।
आप के इस मित्र ने भी प्रतियोगिता में भाग लिया है। यदि आप को मेरे पोस्ट पसन्द हैं तो कृपया वहाँ जाकरअपना 'मत' मेरे पक्ष में दें। इसके लिए आप का http://www.indiblogger.in/ पर सदस्य होना अनिवार्य है। वोट देने के लिए वहाँ पहँच कर लोगो पर क्लिक करें। नए खुले पृष्ठ पर एक बार और क्लिक कर आप विभिन्न प्रविष्टियों की सूची और उनके 5 पंजीकृत पोस्ट देख सकेंगी/गें। प्रविष्टियों में से आप को एक चुनना है। धन्यवाद।
http://www.indiblogger.in पर इस समय तकरीबन 350 हिन्दी ब्लॉगर पंजीकृत हैं। सदस्य होने और अपना ब्लॉग पंजीकृत होने पर आप आगे की प्रतियोगिताओं में भी भाग ले सकती/ते हैं। चूँकि यहाँ भाषा के आधार पर वर्गीकरण नहीं है, इसलिए हिन्दी की प्रविष्टियों को कड़ी चुनौती है। अत: सभी हिन्दी प्रविष्टियों के लिए भी आप का सहयोग प्रार्थित है।
शुक्रवार, 5 जून 2009
कड़वी ‘करी’ (भाग – 2)
माइग्रेशन के तार सभ्यता के विकास से जुड़े हुए हैं। बड़ा अजीब है कि आधुनिक सभ्यता को विकास का लांचिंग झटका भी एक अलग ढंग के माइग्रेशन से ही मिला। यह लुटेरे यूरोपियन्स का माइग्रेशन था, जिनका दंश एशिया, अफ्रीका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सभी ने झेला। यूरोप इनका शोषण और विनाश कर के समृद्ध हुआ। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मानव सभ्यता में आपसी जान पहचान ही नहीं बढ़ी बल्कि एक सार्वभौमिक विश्व सभ्यता की नींव भी पड़ी जिसने विकसित होते होते कमोबेश ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि आज विश्व के किसी कोने का मनुष्य कहीं भी किसी भी समाज से जुड़ने, जीने खाने और फलने फूलने के स्वप्न ही नहीं देख सकता है बल्कि उन्हें साकार भी कर सकता है।
यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर सभ्य, शिक्षित और समर्थ मनुष्य अपनी सम्भावनाओं के विकास और उनकी तार्किक परिणति के लिए जिस वातावरण को भी उपयुक्त पाए, उसे अपना सकता है और उसके द्वारा अपनाया जा सकता है। जब हम सभ्यता को इस कोण से देखते हैं तो पाते हैं कि मानव मानव में रूढहो चुकी विभिन्न सीमाओं को तोड़ने और एक विश्व मानव के विकास में इसने बहुत ही योगदान दिया है।
बहुत ही प्रगतिशील देन है यह। भारतीय छात्रों के आस्ट्रेलिया प्रयाण को इसी देन के प्रकाश में देखना होगा। मानव स्वतंत्र है अपने स्व के विकास के लिए। समूची धरा उसकी अपनी है।इस मानव का माइग्रेशन पूर्ववर्ती यूरोपियन माइग्रेशन से इसलिए एकदम उलट है इसलिए कि यह सभ्यता-संवाद और सम्मिलन के द्वारा एक इकाई और समूह दोनों का विकास और कल्याण करता है न कि एक के विकास के लिए समूह का विध्वंश। ।
जो लोग इस का विरोध कर रहे हैं, हिंसा फैला रहे हैं वे समूचे मानव वंश की इस बहुत ही मूल्यवान उपलब्धि को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। यही कारण है कि चाहे देश के भीतर बिहारियों या उत्तर प्रदेश वालों का उत्पीड़न हो या विदेश में सिख या दक्षिण भारतीयों छात्रों का उत्पीड़न, यह न केवल निन्दनीय है बल्कि बहुत ही कड़ाई से समाप्त करने योग्य है। हमारी सरकारें दोनों सीमाओं पर विफल हुई हैं। दु:ख यही है और चिंता का कारण भी।
जब तक समूचा विश्व राष्ट्रहीन और सीमाहीन नहीं हो जाता (और ऐसा होने में बहुत समय लगेगा) तब तक सभ्य सरकारों का यह दायित्त्व बनता है कि इस तरह की प्रवृत्तियों को पनपने ही न दें, उन्हें फलने फूलने देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इनके समर्थक और तर्क पुरुष इन्हें जायज ठहराने, पर्दा डालने या अतिवादिता से आँख चुराने के लिए बहुत से कारण ढूढ़ लेंगें – जैसे भूमिपुत्रों का असंतोष, रोज़गार के अवसरों की कमी, असुरक्षा की भावना आदि आदि।
यदि कोई माइग्रेण्ट उस धरा के नियम कानून को मान रहा है और सभ्य तरीके से रह रहा है तो उसे खँरोच भी नहीं आनी चाहिए। अब यह सरकारों को देखना है कि रोजगार के पर्याप्त अवसर हों या कोई किसी से अपने को असुरक्षित न समझे।
मानव के अन्दर की प्रतिक्रियावादी और ह्रासशील शक्तियाँ समाहार और उदात्तीकरण के लिए अनवरत संस्कार की धारा की चाहना रखती हैं। शिक्षा और तंत्र के द्वारा सभ्य समाज की सरकारें ऐसा वर्षों से कर रही हैं। परिवर्तन की यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही धीमी होती है और परिणाम के बीज बहुत ही नाज़ुक। उन्हें जरा भी विपरीत वातावरण मिले तो वे अंकुरित ही नहीं होते। वर्षों की साधना एक छोटी सी दुर्घटना से मटियामेट हो जाती है। यहाँ तो दुर्घटना नहीं जातीय घृणा पूरी चेतना के साथ विनाश ताण्डव कर रही है। परिणाम सामने हैं।
भारत और आस्ट्रेलिया दोनों सरकारें मानवता के गुनहगार हैं, इनकी जितनी निन्दा हो कम है ।
भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपने को विकसित करना चाहिए क्यों कि यह मानव समाज के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के आत्मसम्मान की बात है। इसका पतित होना या निर्बल होना सभ्यता के विकास में एक बहुत बड़ा रोड़ा है। भले भारतीय छात्र नागरिकता छोड़ने पर ही आमादा हों, भारत के नागरिकों और भारत सरकार को डँट कर उनके समर्थन में सामने आना चाहिए क्यों कि यह सार्वभौम मानव सभ्यता का मुद्दा है, केवल दो देशों या उनके चन्द नागरिकों का नहीं।
बुधवार, 3 जून 2009
कड़वी 'करी' (भाग – 1)
बहुत ही भारी मन से लिख रहा हूँ।
जिस आस्ट्रेलिया में समूचे विश्व से छात्र अध्ययन हेतु आते हैं, वहाँ केवल भारतीयों को ही निशाना क्यों बनाया जा रहा है? उन्हें ‘करी‘ अचानक इतनी कड़वी क्यों लगने लगी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समस्या बहुत दिनों से थी और अचानक बढ़ोत्तरी के कारण इस पर सब का ध्यान गया है?
जातीय या नस्लीय घृणा किसी न किसी रूप में समूचे विश्व में पाई जाती है जिसके तार देशों के इतिहास और समाज की रचना से जुड़ते हैं। लेकिन यदि यह बेकाबू हो कर घृणित और हिंसक रूप ले ले तो पूरी व्यवस्था पर प्रश्न उठते हैं। मानव की गोरी प्रजाति का इतिहास ऍइवेंचर, लालच, शोषण और संहार के द्वारा नई व्यव्स्थाओं को जन्म देने का रहा है। अमेरिका के रेड इंडियन्स और आस्ट्रेलिया के ऐबोरिजिंस के साथ जो हुआ वह इतिहास की चीज है। आज भले उन्हें संरक्षण दिया जाय या उनकी संस्क़ृति को पर्यटन उद्योग को बढ़ाने के लिए पोषित किया जाय लेकिन ऐसा करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? सुनियोजित नस्लीय विनाश के कारण।
उस मानसिकता के अंश ठीक उसी तरह आज भी इन विकसित राष्ट्रों में मौजूद हैं जिस तरह शूद्र और नारी घृणा या दमन के अंश आज भी भारतीयों की मानसिकता में हैं। सभ्यता की कसौटी यह है कि वह हमारे मन के बर्बर को कितना नियंत्रित रखती है और उसका कितना परिष्कार करती है। इस मामले में एक सभ्य राष्ट्र के रूप में आस्ट्रेलिया असफल रहा है। हम क्या करें?
सहज ही मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय छात्र इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? अन्याय और अत्याचार को मात्र इस लिए सहना कि पुलिस केस बन जाने पर आस्ट्रेलिया की नागरिकता मिलने में कठिनाई आ सकती है, कहाँ तक क्षम्य है? क्या यह प्रवृत्ति स्वयं में पराजय के बीज नहीं लिए हुए है? यदि ऐसा करते हुए एक समूह वहाँ का नागरिक बन भी जाता है तो खोए हुए आत्मसम्मान को वापस कैसे पाएगा?अपने जेनेटिक प्रिंट से तो उसे छुटकारा तो नहीं मिलेगा? रहेगा तो ‘ब्राउन‘ या ‘कलर्ड स्किन‘ वालों का ही समूह न? उपर से अन्याय को बर्दास्त करने वाली छवि भी जुड़ जाएगी। जो लोग भारत की नागरिकता छोड़ने का मन बना ही चुके हैं, उनसे सहानुभूति क्यों होनी चाहिए? पिटें या मरें उनकी बला, हमें क्या?
काश समस्या इतनी सरल होती!
आस्ट्रेलिया में जो कुछ हुआ या हो रहा है और उससे जिस तरह से हम निपट (या निपटा?) रहे हैं, वह भारत की एक राष्ट्र के रूप में छवि को प्रभावित कर रहा है। या यूँ कहें कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की और उसके नागरिकों की इतर विश्व में जो छवि है उससे इसका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। यह समस्या दोधारी है - भारत की और समूचे विश्व की।
पहले भारत।
भारतीयों के उपर उनके बहुत ही कायर और समर्पणशील नए इतिहास का बोझ है। कूटनीति या अधिक उपयुक्त कहें तो विदेशनीति नैतिकता की पाठशाला नहीं होती। नैतिकता और उदात्तता की बातें इस क्षेत्र में केवल मुखौटे और छ्द्म सौहार्द्र के लिए की जाती हैं। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत ने ऐसा एक भी उदाहरण संसार के सामने नहीं रखा जिससे एक परिपक्व और मज़बूत राष्ट्र की छवि संसार के सामने आए।
संयुक्त राष्ट्र में काश्मीर का मामला ले जाना, शांति और नि:शस्त्रीकरण की बकवास करते करते इतना लापरवाह और आत्ममुग्ध हो जाना कि जब हमला हो तो सैनिकों को लड़ने के लिए ढंग के हथियार भी न मिलें, एकदम कमाण्डिंग स्थिति में रहते हुए भी समर्पण किए हुए सैनिकों के बदले एक पुरानी गलती को ठीक नहीं करना, चन्द आतंकवादियों द्वारा अपहृत हवाई यात्रियों की रिहाई के लिए घुटने टेक देना . . .
यह सब संघनित हो कर विश्व के सामने हमें एक निहायत ही कमजोर और पिलपिले राष्ट्र की सिद्धि दे चुके हैं। ऐसे राष्ट्र के नागरिकों के लिए विकसित देशों के निवासी क्या सम्मान रखेंगें? इन घटनाओं के लिए हमें आस्ट्रेलियाई सत्ता को घुटने पर ला देना चाहिए था लेकिन हम क्या कर रहे हैं - औपचारिक विरोध ? उसके राजदूत को देश छोड़्ने पर विवश कर देना था, हम क्या कर रहे हैं? मान मनौवल? हम सह दे रहे हैं उन नस्लभेदी जानवरों को - हमारे साथ कुछ भी करो। हम ऐसे ही रहेंगें। हिम्मत है तो वे जरा चीन या जापान के नागरिकों के साथ ऐसा कर के देखें ! वे सोच भी नहीं सकते जब कि उन जानवरों के पास उनके साथ ऐसा करने के लिए कुछ अधिक ही ‘कारण‘ हैं। ऐसा क्यों है? इसलिए कि उनको नहीं, उनकी सरकार को पता चलेगा कि नागों को छेड़ना कितना घातक होता है! एक बार फिर प्रश्न उठता है, जब मालूम है कि उनकी सरकार संकट में मदद के लिए कुछ नहीं करेगी, ये भारतीय वहाँ जाते ही क्यों हैं? . . . जारी