शुक्रवार, 30 मार्च 2012
बुधवार, 28 मार्च 2012
लोक : भोजपुरी - 10: चइता के तीन रंग
चैत माह रबी फसल का माह है। महीनों के श्रम के फल के घर पहुँचने का माह है। ऐसे में कृषि प्रधान लोक में उत्सव न हो, हो ही नहीं सकता! प्रकृति भी ऐसे में नवरसा जाती है। पेंड़ पौधों से लेकर मनुष्यों तक सबमें नवरस का संचार होने लगता है, वायु दिशा बदल देती है, शुष्क हो जाती है। देह में मीठा मीठा दर्द उभर आता है और मन? फागुन में वसंतोत्सव मना कर नेह बन्धनों को प्रगाढ़ कर चुका मन अब फल चखने की तैयारी में लग जाता है। इच्छायें गर्भिणी हो जाती हैं। बागीचों के आम बौरा चुके होते हैं। ऐसे में आती है रामनवमी। ‘राम जी की दुनिया राम जी के खेल’ मानने वाली कृषि संस्कृति तो नमक को भी रामरस कहती आई है! उनके जन्म के बहाने फसल के घर आने का उत्सव आयोजन क्यों न हो जाय!
रामनवमी की रात का पूजन नये गेहूँ या जौ की बनाई पूरियों और हलवा से होता है। कुछ तो जेनेटिक हस्तक्षेप और कुछ ऋतुचक्र की विचलन – अब गेहूँ बैसाख में ही हो पाता है लेकिन पकती हुई बालियों से नया अन्न निकाल कर पुराने में मिला नया पुरान पूजन कर लिया जाता है। मकर संक्रांति से प्रारम्भ हुये अन्न उत्सव का समाहार नये अन्न से बनी नवमी की नौ रोटियों से होता है:
खिचड़ी के खीच खाच, फगुआ के बरी
नवमी के नौ रोटी, तब्बे पेट भरी।
संक्रांति पर्व के मिश्रित अन्न, होली की बड़ी और नवमी की नौ रोटियों के बिना पेट कैसे भर सकता है भला? अब जो ढोल झाल निकलते हैं, उनमें जो उत्साह दिखता है उसका रंग कुछ और ही होता है। चैत माह में चैता, चैती और घोटा गाये जाते हैं। इन्हें अर्धशास्त्रीय पद्धतियों में भी गाया जाता है लेकिन मैं यहाँ लोकरूप ही प्रस्तुत करूँगा।
इन गीतों के बोलों में प्राय: मिलन के पंचम स्वर बोलती कोयल का घर उजाड़ने की बात होती है। कोयल जो अपना घर नहीं बनाती, लोक में घरवाली हो जाती है जिसकी बोली सुन कर या तो सइयाँ सेज छोड़ कर खेत की ओर चल देता है और मिलन पूर्णता नहीं पा पाता या कोयल के स्वर में एक विरहन का आलाप माना जाता है जो कि एकदम नहीं सुहाता। वक्रोक्ति या उलटे ढंग से बात कहने की लोकशैली के दर्शन चैत माह के गीतों में होते हैं। नागर लोग भले कोयल की बोली को सर्वदा वांछित मानते रहें, गाँव की कोइलर तो घरनी सी है जिसकी मधुरता कभी कभी अति मीठेपन के कारण ही नहीं सुहाती। अरे भाई! यह मौसम तो टटका टिकोरे की खटाई, मजूरे से तिताई और पसीने की लुनाई का मौसम है, इसमें मिठाई का क्या काम? तब जब कि समूची सृष्टि ही नवरस से प्रफुल्लित होती है, बगीची तक ‘लरकोर’ यानि संतानवती हो जाती है; प्रिय मिलन की मादक इच्छा की अभिव्यक्ति होने लगती है। पैर नृत्य में अपने आप ही थिरक उठते हैं।
चैता या चइता मुझे पुरुषराग लगता है जिसकी संगी स्त्रीरागधारी चैती है। किसान बदलते मौसम, बड़े होते और उजास उड़ेलते दिन, फलवती होती बगिया – सबका अनुभव करता है और उसे लगता है जैसे अन्धेरे में प्रकाश टपकने लगा हो! प्रीत की डोर लगा मन पतंग हो उड़ उड़ आसमान छूने लगता है। देखिये तो सलेमपुर वासी गिरिधर करुण के गीत को गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रेक्षागृह में सलेमपुर के ही राणा सिंह ‘मेघदूत पूर्वांचल में’ प्रस्तुति में कैसे गाते हैं और क्या खूब गाते हैं!
चुवत अन्हरवे अँजोर हो रामा चइत महिनवाअमवा मउरि गइलें नेहिया बउरि गइलेंदेहियाँ टूटेला पोरे पोर हो रामा चइत महिनवा ॥१॥उड़ि उड़ि मनवा छुवेला असमनवाबन्हल पिरितिया के डोर हो रामा चइत महिनवा ॥२॥अँखिया न खर खाले निंदिया उचटि जालेबगिया भइल लरकोर हो रामा चइत महिनवा ॥३॥ |
हरपुर नवका टोला के केदार की टोली तो सजनी के सजने के उत्साह को खेत, बारी, हल, बैल सब बेंच कर गहना गढ़ाने की बात कह बयाँ करती है। सँवरने की स्त्री इच्छा पति के स्वरों में ग़जब ढंग से अभिव्यक्ति पाती है। सजनी को साजन से इतना प्यार चाहिये और साजन को भी इतना प्यार उड़ेलना है कि अयुक्ति की इंतहाँ हो जाय! जिन हल, बैल, खेतों के कारण उत्सव मनाने लायक अन्न घर में आया, उन्हें ही बेंच कर इस चैत महीने गहना गढ़ा दो! और तो और यह घर ही बेंच दो जिसकी मैं घरनी हूँ!! अब क्या कहें ऐसी इच्छा पर!
(रिकॉर्डिंग की खराब क़्वालिटी के लिये खेद है। बन्दे ने गाया था बहुत सुन्दर और बहुत मन से लेकिन मैं ही ठीक से रिकॉर्ड नहीं कर पाया। मेरी अनुभवहीनता के कारण ऐसा हुआ। सॉफ्टवेयर से भी कुछ खास सुधार नहीं हो पाया। )
राग का अतिरेक हो तो मन उच्छृंखल हो ही जाता है। नये जमाने के इस चइता में बिहार के महेश खेसारी जो गाते हैं, उसकी गढ़न देखिये।
प्रेमिका अपनी बहन के साथ गेहूँ की पकी फसल काट रही है (हार्वेस्टर अभी भी सर्वसुलभ नहीं हो पाया है!) नवरस रसायनों के कारण देह में पीर है, ऊपर तेज धूप है जिससे देह की कोमल त्वचा कड़ी हो गई है, पसीना देह के उभारों में गतर गतर पैठ परेशान किये है और कट चुके गेहूँ के पौधे की जो खूँटियाँ खेत में छूट गई हैं, वे पैर में चुभ रही हैं। न बैठा जाता है और न उठा। झुक झुक काटने के कारण कमर में दर्द है। ऐसे में काटा जाने वाला गेहूँ मुट्ठी में नहीं समाता। वह कहती है कि मेरी देह में तो महुवा भर गया है, दीदी! मुझसे कटिया नहीं हो पायेगी। विश्राम के बहाने उसे प्रिय मिलन की आस जो है। गायक बैसाख की उस गरम हवा के झँकोरे को भी नहीं भूलता जिसके कारण सजनी का मन सूखे पुआल जैसा हो आग जोहने लगा है जब कि कामकुम्भों से लोर टपक रही है। देह की ऊष्मा, फसल की ऊष्मा और मौसम की ऊष्मा - प्रेमी इन सबको बयाँ कर रहा है और स्वराभिनय से मिलन की उच्छृंखल कामना को भी व्यक्त कर रहा है। खेत में तो वह भी साथ में काम में लगा है लेकिन जमाना जालिम है, क्या करे? फसल कटाई से लेकर गोदाम में रखे जाने में हुई लसर फसर तक अपनी छिपी कामना को व्यक्त करता प्रेमी अपनी संगी के सारे कष्टों और उनसे मुक्त हो किसी की प्रेमिल छाँव में छँहाने की उत्कट इच्छा को व्यक्त करता है – बस एक कामना है कि अतिश्रम और धूप के कारण काली पड़ चुकी देह को बगीचे में तुम्हारी छाँव में विश्राम दूँ।
इस गीत में रागोत्सव मनाने को सबका आह्वान है। टन टन जीने की शुभेच्छा के साथ तेजू को बुलावा है, जनार्दन को बुलावा है और रामसूरत को भी बुलावा है। इसमें छोटू बाबा हैं, पत्रा देख साइत बताने वाले पवन बाबा हैं (गरमाया पवन मिलन का मुहुर्त बताने वाला पंडित हो गया है!), दिल्ली जा बसे प्रवासियों की भी बात है जो परशुराम बाबा को महेश भैया के साथ गाँव गाड़ा छोड़ महानगर आने को प्रेरित करते रहते हैं। गायक संक्रामक उल्लास में समूचे गाँव को समेट लेता है – चाहे पसन्द करें या न करें!
इस गीत में केदार के गाये चइता में ढोलक का साथ देते स्वर उहूँ, उहुँ, उइ, उइ का रूप उच्छृंखल हो ‘आउ’ के रूप में हर अंतरे के पहले आता है – सुरतक्रीड़ा के नागर स्वर उह या आउच का लोकरूप। इसमें जो जीवन्तता आ गई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
चढ़ल जवानी हमार भइल बा महुवा
अब न कटाई दीदी हमरा से गँहुवा
बथे कलाई हम चूर चूर न धरातारे मूठी
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।
जरता चाम घाम लागता बड़ा
देहिया मुलायम सारा भइल जाता कड़ा
भइल बइमान हमार धुपे में बेना
सुखत नइखे हमरा देह के पसेना
कुहले बदन हमार कोर कोर
हम बइठीं ना ऊठीं
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।
डाँड़ में दरद होला काटिं जब निहूर के
गोड़वो में चूभे बड़ा रहिलें सिहूर के
लारा पुआर भइल जातालें मनवा
गरम ताव झोंकताने पवनवा
जोबन से चुवतलें लोर लोर
अब देबे ना छूटी
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।
लागल तारास एगो ईहे बा ईच्छा
महेस खेसारी सँघे बइठीं बगीचा
लसर फसर भइल चाचा गोदाम में
अब नाहिं मन हमार लागता काम में
करिया हो गइल देह गोर गोर
बड़ा फेंक त लूटीं
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।
रविवार, 25 मार्च 2012
लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 15
पिछले भाग से जारी....
...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। खुदाई कसौटी दूजों को कसता रहता है!... |
एक रात भउजी ने रसोई में देर कर दी। इसरभर चला गया लेकिन सोहिता के आगे थाली नहीं पहुँची। मारे रीस के वह नहान चउकी पर बैठ अगोरने लगा – माँगब नाहिं, देखीं कब खयका देली? (माँगूगा नहीं, देखें कब खाना देती हैं?)
अँजोरिया टहाटह फुला चुकी थी और सुहावन रात शीतल थी। चउकी पर सोहिता उकड़ू मार अँहुवाने (ऊँघने) लगा था कि भउजी के स्वर से चेतन हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि भउजी परोसी थाली ले वहीं आ गई थीं।
“खाईं बबुना! आजु देर हो गइल, बिजन बनावे लगलीं।“ (खाओ बाबू! आज देर हो गई, व्यंजन बनाई हूँ।)
थाली वाकई खास थी और सुस्वादु भी। अँजोरिया तले भोजन करता सोहिता प्रसन्न था जब कि धीमे धीमे बेना डोलाती (पंखा झलती) भउजी मौके की प्रतीक्षा में थी। उसके अँचऽ लेने (हाथ धो लेने ) के बाद भउजी ने अपनी बात शुरू की:
“बबुना! कब्बो सोचले बानीं कि बाबू के खनदान कइसे चली?” (कभी सोचे कि खानदान कैसे चलेगा?)
सोहिता चेतन हुआ कि भउजी ने दूसरा वार कर दिया – बड़ी बदनामीऽ हो गइल बा बबुना! घर क लींऽ। एन्ने वोन्ने मुँह मारल ठीक नाहींऽ। (बहुत बदनामी हो गई है बबुना! विवाह कर लीजिये। इधर उधर मुँह मारना ठीक नहीं)
अँजोरिया में दो जोड़ी आँखें मिलीं और दोनों सहम कर चुप हो गये। जमीन को कुछ देर कुरेदने के बाद भउजी ने बात की लुतुही (लुत्ती) फिर से लगाई – कहीं तऽ बीजनपुर सनेसा भेजवा दींऽ, हमरे नइहरे कवनो कनिया त मिलीऽ जाईऽ (कहिये तो बीजनपुर सन्देश भेजवा दूँ, मेरे मायके कोई कन्या तो मिल ही जायेगी) और फिर अपना देवर दुलार भी जताया – रजा जइसन हमार देवर, एक बोलावे चउदे धावे! (राजा जैसे हमारे देवर, एक को बुलाऊँ तो चौदह दौड़ें!)
सोहिता गरम हो गया – एहि खातिर खयका एतना देर से देहलू हऊ आजु? ... नीच पट्टीदारन आ रमैनी काकी के रहते हमरे गाँड़ि हरदी लागी? बीजनपुर वाला तऽ तोहऊ खातिर झाँके नाइँ आवेलें ..एगो अउरी बेटी दीहें?...ई कुलि हमसे न कहऽल करऽ आ ...(इसीलिये आज इतनी देर से भोजन दिया? ...नीच पट्टीदारों और रमैनी काकी के रहते मुझे हल्दी लगेगी? बीजनपुर वाले तो आप के लिये भी झाँकने नहीं आते...एक और बेटी देंगे?... यह सब मुझसे मत कहा कीजिये और...) सोहिता को खदेरन का प्रस्ताव याद आया और वह जड़ हो गया।
गहरी साँस ले भउजी उठ खड़ी हुई। मन में रात का नहीं वह सन्नाटा था जो बिन किलकारी के आँगन में होता है – हमरे कारन खनदान निरबंस हो जाई! (मेरे कारण खानदान समाप्त हो जायेगा)
दो दिनों के बाद ही हजाम गुप्त सन्देश ले बीजनपुर में था लेकिन सोहिता की शोहरत और नागिन डाँस प्रबल थे। महतारी ने हजाम को बुला कर हाल चाल तक पूछ्ने की जरूरत नहीं समझी और भाई ने सीधे कह दिया – सरापल घर में फेर से बासा कइसे परी? (शापित घर में फिर से वास कैसे पड़ेगा?)
भउजी ने सुना और हजाम को सौंह दिलाई कि बबुना को इस बात का पता न चले। हजाम मुसकी मारता चला गया। उस रात भउजी की सेज पर केवल करवटें थीं – न रुलाई, न हिचकी और न दाहा...
...पख बीत गया। चँवर की चरम अन्हरिया में सोहिता रमण में लगा था, साथी थी रमैनी काकी की मझली...वह अपनी इस विजय पर प्रसन्न था, बहुत प्रसन्न!
आत्मा इतनी तृप्त हुई कि उसके बाद महीनों उसने कहीं मुँह नहीं मारा।
...भउजी मन में गुँड़ार मारे अनगिनत साँपों से जूझती अलगाती रही लेकिन वे सब तो ही नागिन के सगे थे! दुनिया के सगों ने तो दगा कर दी थी!
(भ)
भदवारा चल रहा था। काम धाम था नहीं और सबकी मोर्ही खाली। जुग्गुल के लिये यह वक्त बहुत मायने रखता था। भादो में वे बखारें खुलतीं जो सालो साल बन्द रहतीं। साँझ के बेरा टेढ़े मेढ़े अक्षर लिखी बही रोज देखता और जुड़ाता रहता। उस साल तो जैसे असमानी हाथी बिगड़ गया था। छप्पन कोटि बरखा। क्या भितऊ, क्या खपड़ा, क्या फुसऊ; सब घरों के आँगन किचिर पिचिर हो गये और ऐसे में जैसा होता है जन जनावर सब कुलबुल कुलबुल और मन में बिछली। सोची बात ऐसे छिहिलती कि पूछो न!
सत्तमी को दिन में ही घनघोर अन्हरिया कर मेह तड़प रहे थे और फुहारों का मजा लेते जुग्गुल ने बही में गौर किया सतऊ मतऊ की उधारी गहरा गई थी। बइठकी की चौकी से बाहर उसने आँख गड़ा कर जमीन को देखा। बरखा के जोर से जैसे जमीन उठ गिर रही थी। उसके मन में नेबुआ मसान की झाँखी लहरा उठी। रास्ता सँकरा हो चला था, उसे और जमीन चाहिये थी। अब तो रेहन का बाण ठाँसना पड़ेगा। वह मन ही मन हँसा –सतऊ मतऊ! जमीन के आपन सत्त होला, जुग्गुल के बही, जामल मही।(जमीन का अपना सत्त्व होता है, जुग्गुल की बही में मही जम गई है)
“का हो काका! कल्हि के कौन तैयारी बा?” (क्या काका! कल की क्या तैयारी है?)
सोहिता की आवाज से जुग्गुल स्वप्नलोक से बाहर आया। उसने जल्दी से बही तोसक के नीचे छिपा दी। प्रकट में बोला,”तैयारी का होई? कन्हैया के तैयारी देखु, हे बरखा में का होई? तब्बो कुछ कइले जाई।”(तैयारी क्या होगी? कन्हैया की तैयारी देखो, इस बारिश में क्या हो सकता है? तब भी कुछ किया ही जायेगा।)
सोहिता पूरा भीग गया था और जुग्गुल को ऐसे समय उसके आने का कारण समझ में नहीं आया। कुसंग मन और देह दोनों को बिगाड़ता है। अकेले घर में लेटे लेटे सोहिता का ध्यान रह रह भउजी पर जाता। नहीं रहा गया तो भाग कर अपने मीत के पास आ गया था। देह जरे त कउड़ा धावे! (देह जले तो अलाव की ओर दौड़े!)
वहाँ पहुँचने पर बात जन्माष्टमी की तैयारी से बही तक पहुँच गई और पहली बार जुग्गुल ने इयार से अपना मन खोला। नेबुआ के सामने वाले पंडितों के गोंयड़े के खेत को उसका होने में अब देर नहीं थी। बस सही वक्त की तलाश थी।
सोहित आतंक से जड़ हो गया,“काका! बभने के खेत हड़पबऽ का?” (काका! ब्राह्मण का खेत हड़पोगे?)
जुग्गुल ठठा कर हँस पड़ा,” जर, जमीन अउर जोरू बरियारे के लग्गे अपने से चलि जालें। ए सबके कवनो जाति नाहिं होला।“ (धन, जमीन और स्त्री बलवान के पास अपने आप ही चले जाते हैं। इन सबकी कोई जाति नहीं होती।)
वह फुसफुसाया,” फँसावेले त मेहरारुन के जाति देखेलेऽ? (फँसाते हो तो औरतों की जाति देखते हो?)
फुसफुसाहट और गहरी हो गई – ...मझली त एक तरे से तोर बहिनिये लागीऽ।(मझली तो एक तरह से तुम्हारी बहन ही लगेगी)। जुग्गुल की मुस्कान वक्र हो चली - जाति, धरम, नाता पाता सब बेकार। जिनगी ई कुल सोचले से बेमजा हो जालेऽ।(जाति, धर्म, नाते रिश्ते सब बेकार। जिन्दगी यह सब सोचने से बेकार हो जाती है।)
सोहिता उठ खड़ा हुआ। कलेजे की फाँस को जुग्गुल ने जोर से हिला दिया था। जिस तरह से आया था वैसे ही बैठके से निकल कर भागता भीगता चला गया। हैरान से जुग्गुल ने जमीन पर थूका –चूतिया सार, हमके सिखाई! (मुझे सिखायेगा!) जारी...
शब्दचिह्न :
बाउ,
बाऊ,
भोजपुरी,
भोजपूरी,
लंठ महाचर्चा
शनिवार, 24 मार्च 2012
लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 14
पिछले भाग से जारी....
..एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है! |
(प)
कुछ लोग महतारी की कोख में ही देह के रस पुष्ट करा कर पैदा होते हैं। जीवन भर भले मकुनी खायें, देह किसी राजे की तरह दिखती है। भले कुकर्मों की फेहरिस्त में नये नये जोड़ते रहें, चेहरा सिद्ध सा चमकता है। लमघोड़ा सोहिता ऐसा ही था। चार लोगों के साथ खड़ा होता तो सबसे अलग नज़र आता जैसे किसी और देश का वासी हो। उसकी शोहरत यह थी कि कोई जनानी पसन्द आ जाय तो सोहिता को उसे फाँसने में एक दिन भी नहीं लगता था। आस पास के टोलों में भी वह सरनाम था – जाने कितनी कोमल देहों का स्वाद ले चुका था। अपनी कला में इतना प्रवीण था कि कभी न तो पकड़ा गया और न ही कोई सुराग छोड़ा। गन्हवरिया गाँव महोधिया चंडी, खदेरन, जुग्गुल के साथ साथ सोहिता के लिये भी जाना जाता था। शक़ का आलम यह था कि उसके घर गाँव की बहू बेटियाँ नहीं जाती थीं या यूँ कहें उन्हें जाने नहीं दिया जाता था। न जाने देने के पीछे एक और बात भी थी।
जुग्गुल की कुटिलता दूसरी तरह की थी सो सिवाय दुआ बन्दगी के और गाभी बोलों के दोनों में कोई आपसी लगाव नहीं था। कुरूप जुग्गुल को अगर कभी हीनता होती तो लमघोड़े को देख कर ही होती लेकिन जुग्गुल की मनलहर का अब वह संगी था – लाँड़ श्रेणी का आदर्श पुरुष। तो बाण और लाँड़ की मित्रता का प्रारम्भ कुछ ऐसे हुआ:
“राम राम काका!”
“राम राम भतीजा!”
सोहिता को आश्चर्य सा हुआ,“हे, हे, हे ...आज त बड़ा दुलराइल बोली बोललऽ काका...भतीजा।“ (आज तो बहुत प्रेमिल वाणी बोले काका! ...भतीजा!)
जुग्गुल ने चौकी के पास बैठने का संकेत करते हुये सुरती को जोर से ठोंका। सोहिता को छींक आ गई।
“का रेऽ, छींके लगलेऽ, खाले नाहीं काऽ?“ (क्यों रे!, छींकने लगे, खाते नहीं हो क्या?)
“काका ई अमल हमके नाइँ बा। मुँह बस्साला।“ (काका यह आदत मुझे नहीं है। खाने से मुँह गन्धाता है।)
जुग्गुल को मुँह की बास से बात की राह मिली।
हँसते हुये बोला,“हँ तोके त मूँहे में मूँह जोरे के रहेलाऽ। बस्साई त चुम्मा लेत शिकाइत हो जाई।“ (हाँ, तुम्हें तो मुख से मुख जोड़ना होता है। बदबू होगी तो चुम्बन लेने में शिकायत हो जायेगी।)
“का कक्का! भतीजा से केहू एतरे बतियावेला भला?” (क्या काका! कोई भतीजे से इस तरह बात करता है भला?”)
“भतीजा गइल सीधा लेवे ...” जुग्गुल ने आँख मटकाते हुये फुसकी मारी,”ई बताउ जाल में क गो मछरी? सिधरी कि मँगुरी?” (ये बताओ जाल में कितनी मछलियाँ? सिधरी हैं या माँगुर?)
सोहिता सतर्क हो गया। घटियाही काम का पहला अलिखित नियम होता है – राज़ को अपने मुँह से कभी न बको। उसने वैसे ही कूट में उत्तर दिया – सिधरी खातिर जाल के कौन जरूरत कक्का? रोहू, मँगुरी के कौनो कमी नइखे। तोहहुके चाहीं का? (सिधरी के लिये जाल की क्या जरूरत काका? रोहू और माँगुर की कोई कमी नहीं है। तुम्हें भी चाहिये क्या?) और खड़ा हो गया।
लाठी का सहारा लेकर खड़ा हुआ जुग्गुल उसके आगे बौना हो गया। सुरती थूकते हुये बोला - मँगुरी के मार तोरिये मान के बा सोहित... हुमचावन के गइले के बादि से बड़ा सून लागेला। आइल करऽ। (माँगुर की मार तुम्हीं झेल सकते हो... हुमचावन की मौत के बाद बड़ा सूना सूना सा लगता है। आया करो।)
नयनों की भाखा पढ़ने में माहिर सोहिता भाँप गया। जुग्गुल की बदली बोली भी इशारा कर रही थी। पूछ बैठा – रोज रोज के टंटा सून भइले से कहतलऽ काका? (रोज रोज टंटा सूना होने से कह रहे हो काका?)
जुग्गुल ने सुरती थूक दिया – खाली मन शैतान के बासा। अब कुच्छू नाहीं होई। (अब कुछ नहीं होगा।)
सोहिता का ध्यान अपनी मुसमात (विधवा) भौजी पर चला गया था।
(फ)
सोहित सिंह का घर गाँव का अकेला घर था जिसमें केवल दो परानी और एक नौकर थे। माँ बाप तो कब के गुजर चुके थे। एक बहुत भारी त्रासदी तब हुई जब साँप काटने से बड़े भाई सनीपन का मरन हुआ। उस समय भौजी के पाँव की लाली भी नहीं छूटी थी। रात में भीतर जाते भइया को साँप ने काटा था, बिसहरिया के आने से पहले ही प्राण पखेरू उड़ गये। दूर नदी में भइया की देह में पत्थर बाँध कर नाव से ढकेलते सोहित कितना रोया था! सबको रुला दिया। लौट कर मर्दानों ने बताया – सोहित त डँहको पहको, लागत रहे कि नद्दी मइया आँखि में उतर गइल रहली। लौट कर आये सोहित को गाँव की जनानियों से सुनने को मिला – बुजरी के पौरा ठीक नाहींऽ बा, नागिन आइलि बा, नागिन। अपनिये मरदे के डँसि लेहलसि। (बुजरी के पाँव ठीक नहीं हैं, नागिन आई है, नागिन। अपने पति को ही डँस ली।)
जब रमैनी काकी ने यह सुनाया तो सोहित सन्न रह गया था। हमार भउजी नागिन? (मेरी भौजी नागिन?)
“देवर मने भउजी पर दोहर हक़ बबुना!” (देवर माने भाभी पर दुगुना हक बाबू!) यही कहा था भउजी ने जब पहली मुँहदेखाई से निपटी थीं। घर में अँजोर भउजी। ऊ भउजी नागिन! दाँत पीस कर रह गया था सोहित। मुसमाति भउजी का सूना मुख देखे न बने। भीतर जाना छोड़ ही दिया सोहित ने। नौकर ईसरभर ही दोनों के बीच कड़ी रह गया। उस साल तो कोई त्यौहार नहीं मने लेकिन बरसी के बाद के साल भी वही स्थिति रही तो कर्कश पंडित खदेरन ने एक दिन समझाया – जिसे जाना था, गया। घर मन्दिर होता है सोहित! तर त्यौहार तो मनाया करो।
खदेरन फुसफुसाये थे – ऐसे में शास्त्रों की अनुमति है। पहाड़ सा जीवन सामने पड़ा है। बहू से विवाह कर लो। मैं पुरोहिती कर दूँगा। सोहित ने हाथ जोड़ लिये – ई हमसे नाहिं होई बाबा! (यह मुझसे नहीं होगा बाबा!) लेकिन तर त्यौहार वाली बात उसके मन में धँस गई।
पँचई के दिन सोहित ज़िद पर उतर आया – भउजी तूहीं न कहले रहलू कि देवर मने दोहर हक़? हम नाहिं मानब, आज घर के घेरा करे के परी। (भौजी! तुम्हीं ने कहा था न कि देवर माने दुगुना हक? मैं नहीं मानूँगा, आज घर पर घेरा डालना ही पड़ेगा) सोहित अभिमंत्रण के लिये गाय का गोबर, सरसो, बालू जुटा कर खदेरन को बुला लाया – बाबा! अइसन मंतर पढ़ब कि सब दुख दूर हो जा।
घूघट काढ़े सनीपन बहू के मुख के सूनेपन को भाँप कर खदेरन कसमसा कर रह गये। कैसी जोड़ी होती! मूरख मानता ही नहीं। ज़िन्दगी कैसे कटेगी? कुछ न कह कर उन्हों ने कर्मकांड पूरा किया और घेरा पूरने के निर्देश दे चले गये।
सजना बिन घर साजन! मन में तूफान लिये भउजी ने उस दिन दलभरी पूड़ी, मसालेदार तरकारी और खीर बनाया। गोबर का घेरा पूरते भउजी घर के कोने तक आई कि रमैनी काकी और दो तीन औरतों की टिबोली सुनाई दी –सवाँगेऽ के डँसि के नागिन नागदेवता पूजतियाऽ। अब देवरो जाईऽ। (पति को मार कर नागिन नागदेवता को पूज रही है! अब देवर भी मरेगा।)
भउजी ने सुना और चँवर दरेसी का बन्धा टूटा। हाथ की थाली को वहीं पटक कर भउजी रोते हुये घर के भीतर को भागी। घरदुआरी (चौखट) पर खड़े सोहित से लिपट गई थी भउजी – बाबू! हमके नइहर पहुँचा देइँ। हम इहाँ नाहिं रहि पाइब। (बाबू! मुझे मेरे मायके पहुँचा दो। मैं यहाँ नहीं रह पाऊँगी।) नसों में खौलता खून लिये सोहित ने भउजी को बाहों में उठा लिया। घर के भीतर ले जा कर पलँगरी पर बैठाते हुये बोला – तूँ जइबू त हमहूँ जाइब, तैयार बाड़ूऽ? (आप जायेंगी तो मैं भी जाऊँगा, तैयार हैं आप?) और बाहर निकल आया।
रमैनी काकी के दुआर पर फेंटा बाँधे, कमर कसे और लाठी हाथ में लिये सोहित तड़क रहा था – आजु के बादि से जिन भोंसड़ो भउजी के कुछु कहली, उनके सोहाग जोगाड़ में इहे लाठी हूर देबऽ। (आज के बाद जिस भोंसड़ी ने भौजी को कुछ कहा, उसके सुहाग जुगाड़ में यही लाठी घुसेड़ दूँगा।) धरा धरी हुई लेकिन त्यौहार का अवसर देख और लोगों के समझावन से मामला शांत हुआ।
लेटी हुई भउजी के आँसू सूख चुके थे। देवर की बलिष्ठ शरीर और पौरुख, कैसे बाहों में उठा लिया!... तूँ जइबू त हमहूँ जाइब... भउजी का मन जाने कैसा हो रहा था। पलँगरी से उतर कर खाली भुइयाँ सो गई। धरती मइया कितनी ठंडी थी!
दलभरी पूड़ी, तरकारी, खीर ...सब रखे रह गये, किसी ने नहीं खाया। साँझ को सारी रसोई ईसरभर अपने घर ले गया।
और सोहित? .... उस नागपंचमी के दिन से ही सोहित के सोहिता बनने की प्रक्रिया शुरू हुई, जुग्गुल की नई जुबानी कहें तो – ‘लाँड़’।
रमैनी काकी के रमायन पुरान से निकला – मर्दानन में रहे त रहे, मेहरारू अब नगिनियाऽ के इहाँ नाहिं जइहें। (मर्दों में आपसी सम्बन्ध रहें तो रहें, गाँव की स्त्रियाँ अब नागिन से कोई नाता नहीं रखेंगी) बरदेखउवा (शादी के लिये लड़के देखने वाले) आयें तो कोई न कोई झूठी कहानी में ग़लत सम्बन्ध का सम्पुट दे सुना दे। जाने प्रतिक्रिया थी या जवानी का उफान, सोहिता नये नये शिकार फाँसता रहा फिर भी परम्परा की दृष्टि से कुँवारा ही रहा - गाँव जवार का सरनाम ‘घटिहा’।
(ब)
जनम जनम के शापितों पर गर्रह नछत्तर के प्रभाव नहीं पड़ते। उनके लिये बस अशुभ होता है – कभी अधिक, कभी कम। महतारी ने लछमिनिया नाम दिया था, जिस घर सुन्दर बेटी जायेगी, लछमी की बरखा होगी, सब सुखी रहेंगे लेकिन भउजी तो नागिन थी! नाम बदलने से क्या होने वाला था? मुसमात क्या हुई, नैहर से भी नाता टूट गया। महतारी मैभा तो न थी? नहीं, अगर होती तो ऐसा नाम रखती, इतना दुलार करती? फेर काहें माई?
रात में जब सलहंत हो जाता और दुआरे सोये देवर की नाक बजने लगती तब गलाघोंटू सिसकियाँ पुक्का बन फूट पड़तीं। कुछ देर की यह रुलाई ही उसके लिये अमृत का काम करती। नागिनें बीमार नहीं पड़तीं है सो भउजी हमेशा स्वस्थ रहती। गाँव में न किसी के घर जाना और न किसी का आना। दिन पहाड़ से और रात? मन और देह जैसे मद्धिम आँच पर अगहनी का भुजिया – आग भी, पानी भी। न गरमी न ठंढ, दाहा रह रह बदके, बुलबुल्ले फूटें! न काँच न पाकल, बिचऊ हिसाब। लोर बहते बहते जाने कब सूख जाती और फिर देंह में ऐंठन जलन शुरू होती। कितनी बार आँगन में खड़े खड़े पानी का गगरा भउजी ने अपने ऊपर उड़ेल लिया। इस रोग की आदत सी पड़ गई थी। सुबह इसरभर के आने से पहले गगरा खाली देख सोहित पूछता तो भौजी कह देती – पियास के कौन ठेकान बबुना? कब्बो कम, कब्बो ढेर। भउजी के पियास – सोहित का जी जाने कैसा हो जाता। (जारी)
शब्दचिह्न :
बाउ,
बाऊ,
भोजपुरी,
भोजपूरी,
लंठ महाचर्चा
मंगलवार, 20 मार्च 2012
वेश्या
'तुमने क्यों पूछा?'
'बस ऐसे ही। अब्बू की याद आ गई।.... हरामी! तुम्हारी छुअन वैसी ही लगी मुझे। कहाँ थे अब तक?'
नीमजाड़ा था लेकिन वह फिर से पसीने पसीने हो गया। उसमें इतनी अक्ल नहीं थी कि थोड़ी देर पहले के पसीने से इस पसीने का फर्क कर पाता। बहुत ही कमजोर आवाज़ में उसने पूछा - गाली देनी ज़रूरी थी?
'साहेब! मेरे ग़म में अब्बू जरूर चल बसे होंगे...बिना गाली के पूछ नहीं पाती। ... आप ने बताया नहीं?'
'बेटी है एक।'
'क्या उमर होगी?'
'बारह ... क्यों?'
उसने नाक सुड़की और मुँह दूसरी ओर कर लिया - रंडीबाजी क्यों करते हो? एक बेटी के बाप हो...
उसका चेहरा लाल हो गया। वह चिल्लाया - औकात में रहो! हालाँकि भीतर कुछ जल उठा था जिसे उसने बची हुई दारू को गटक बुझाने की कोशिश की।
'हमारी औकात तो आप से है जान! ...बुरा मत मानो। चार बरस हो गये, बारह की ही थी तो यहाँ उठा लाई गई थी।... तुम्हारी जोरू ....' उसने बात अधूरी छोड़ दी।
'गुजर गई... इसीलिये तो यहाँ....' ग्राहक ने भी बात अधूरी छोड़ दी।
लेकिन दोनों पूरी तरह समझ गये।
उसने वेश्या के जिस्म को नई नज़र से निहारा और पूछ बैठा - तुम तो बहुत सयानी लगती हो, मेरा मतलब सोलह की नहीं...
घड़ी से ही पता चल रहा था कि शाम ढल चुकी थी। मेकअप पुता चेहरा बल्ब की पीली रोशनी में और पीला हो गया, उसने इशारे से गद्दे का एक कोना उठाने को कहा। ग्राहक के हाथ में गोलियों का एक पत्ता आ गया।
'क्या है यह?'
'वही...' वह सिसकी थी - वही गोली खा कर हम ऐसी हो जाती हैं। इसे किसान अपने जानवरों को मोटा करने के लिये खिलाते हैं। सोचो हम खायेंगी तो ....वेश्या ने उघाड़ दिया।
उसे लगा कि नज़रों में हाथ हैं जो लुंज पुंज हो गये हैं। पापा को चौंकाने को बेटी का आँख मूँद लेना कौंध गया। आँखें बन्द करते वह चिल्लाया - शर्म कर बेशरम!
दरवाजे पर ठकठक हुई। बाहर से किसी स्त्री ने पुकारा था - ओये! फारिग हो गई के? एक मोटा असामी आया है।
वेश्या ने दरवाजा खोला और फुफकारते हुये बोली - यह मेरी इबादत का वक़्त है। जबरी की तो ....
'गाहक तो अन्दर बैठ्ठा है!'
'गाहक नहीं, वह मेरा बापवाला है...अपने भँड़ुओं से कह दो आज का टैम खत्तम, कल आयें।'
'बारह ... क्यों?'
उसने नाक सुड़की और मुँह दूसरी ओर कर लिया - रंडीबाजी क्यों करते हो? एक बेटी के बाप हो...
उसका चेहरा लाल हो गया। वह चिल्लाया - औकात में रहो! हालाँकि भीतर कुछ जल उठा था जिसे उसने बची हुई दारू को गटक बुझाने की कोशिश की।
'हमारी औकात तो आप से है जान! ...बुरा मत मानो। चार बरस हो गये, बारह की ही थी तो यहाँ उठा लाई गई थी।... तुम्हारी जोरू ....' उसने बात अधूरी छोड़ दी।
'गुजर गई... इसीलिये तो यहाँ....' ग्राहक ने भी बात अधूरी छोड़ दी।
लेकिन दोनों पूरी तरह समझ गये।
उसने वेश्या के जिस्म को नई नज़र से निहारा और पूछ बैठा - तुम तो बहुत सयानी लगती हो, मेरा मतलब सोलह की नहीं...
घड़ी से ही पता चल रहा था कि शाम ढल चुकी थी। मेकअप पुता चेहरा बल्ब की पीली रोशनी में और पीला हो गया, उसने इशारे से गद्दे का एक कोना उठाने को कहा। ग्राहक के हाथ में गोलियों का एक पत्ता आ गया।
'क्या है यह?'
उसे लगा कि नज़रों में हाथ हैं जो लुंज पुंज हो गये हैं। पापा को चौंकाने को बेटी का आँख मूँद लेना कौंध गया। आँखें बन्द करते वह चिल्लाया - शर्म कर बेशरम!
दरवाजे पर ठकठक हुई। बाहर से किसी स्त्री ने पुकारा था - ओये! फारिग हो गई के? एक मोटा असामी आया है।
वेश्या ने दरवाजा खोला और फुफकारते हुये बोली - यह मेरी इबादत का वक़्त है। जबरी की तो ....
'गाहक तो अन्दर बैठ्ठा है!'
'गाहक नहीं, वह मेरा बापवाला है...अपने भँड़ुओं से कह दो आज का टैम खत्तम, कल आयें।'
कुटनी हैरान सी चली गई।
शनिवार, 17 मार्च 2012
लोक: भोजपुरी- 9: पराती, घरनियों का सामगायन
रात पहर भर शेष है किन्तु अदृश्य पहरुओं ने जगा दिया है। मैं उस संसार में हूँ जो मेरा नितांत अपना है - मेरा अंत:संसार। वह संसार जहाँ की अनुभूतियाँ मुझे स्वयं के भीतर किसी और का अनुभव कराती हैं और जिनमें डूबते उतराते मैं लिखता हूँ...जाने कितने वर्षों तक अपना अस्तित्त्व पसर गया है- मैं कहीं और हूँ।
ग्रीष्म है, भोर है, गाँव है, गुमधुम रव है। घर के बाहरी चत्वर पर स्त्रियाँ इकठ्ठी हैं - चचेरे भाई का 'लगन लग' गया है। काका किनारे बैठे लाठी पर ठोड़ी टेके प्रतीक्षा में हैं। मैं पास में बैठ जाता हूँ - का होई?
"पराती गावे जुटल बालोऽ, नाहीं जानेलऽ?"
उनके प्रश्न को तोड़ता हुआ एक किशोरी का स्वर - सबके कहि अइनी हो चाचीऽ! सभे आ गइल बाऽ। जैसे चाची यानि मेरी अम्मा को संकेत मिल गया हो। वह कढ़ाती हैं -
ए भोरऽ भऽइल भीनुसहराऽ चिरइया एक बोलेले।
सधा हुआ ग्राम्य गृहिणी स्वर - ताल, आरोह, अवरोह; किसी सुने हुये से साम्य है। समवेत स्वर जुड़ गये हैं - आह्वान है या प्रार्थना या कामना? आकाशवाणी का स्वरसुधा कार्यक्रम - सामगायन पर आधारित कार्यक्रम। हाँ, कुछ कुछ सामगायन सा लगता है। तो आदिस्वर लोक में ऐसे सुरक्षित हैंं?...
...वर्षों पश्चात - अम्मा पराती गाउ न?
अम्मा हँसती हैं - अरे बेटा, बियाहे में गावल जालाऽ। अइसे कइसे गा दीं?
'अम्मा! तोहनी के बाद के गाई? रिकार्ड क लेब त सबदिन खातिर हो जाई'
'तोहार अम्मा अब बूढ़ हो गइली, ठीक नाहीं आई।' मैं मचल जाता हूँ - गाना पड़ेगा।
वेदध्वनियों को परम्परा ने श्रुति, तप और समर्पण से आज तक सुरक्षित रखा है, लोकसाम को कौन रखेगा, कैसे? यही तो मार्ग है!
अम्मा बताती हैं - बहुत पवित्र गायन है यह! भोर में ही गाया जाता है। हाथ मुँह धो के बसिये मूँहे! वह शुरू करती हैं और मुझे भान होता है - जीवन से प्रेम करने वाली बली आर्य परम्परा का। प्रकृति ने सन्देश दे दिया है, यह आह्वान है - देवों का, पितरों का; इसमें बसने वाले नये घर के लिये मंगल कामना है। घर घरनी की सनातन परम्परा को आदर और आशीष देती अमृत वाणी। कभी ऋषियों ने कहा - अमृतस्य पुत्रा: और लोक में हर विवाह जीवन यज्ञ के प्रारम्भ को अमृत बरसाती गृहिणियाँ कहती हैं - 'एसे हो दूऽध बइठेलाऽ तियुरियाऽ त आऽमृत जोरन'। इसमें आस्था ही आस्था भरी हुई है और कहीं दीन दैन्य नही!
एक भरे पुरे आर्य घर की बात है। दूध दही है। सभा समाज में, जो कि कालक्रम में वैसे ही 'कचहरी' हो गया है जैसे बाबा 'पापा' और मंडप 'खपरैल वाला सवैया घर', परिवार की उपस्थिति बनी रहने की कामना है तो भरे हुये घर की भी। आती हुई उषा को देख वैदिक ऋषि भले नाच कर गा उठा हो, गृहिणी की भाँति उसने चिड़ियों की चहचहाहट से स्वयं को नहीं जोड़ा! देवों का आह्वान यहाँ भी है किंतु पूर्णत: घरेलू गँवई रूप में ...भोर भिनसार हो गयी है और एक चिड़िया कहती है - जाओ! ब्रह्मा और विष्णु को जगाओ, उनसे मेरी गाय दुहवाओ! मेरी गाय अभी बकेना नहीं हुई है, भरपूर दूध देती है। मेरा घर ओसारे वाला सवैया घर है अर्थात उसमें नये जोड़े के लिये पर्याप्त स्थान है। मेरे घर में न्यूनता है तो बस इसकी कि इतने पुत्र नहीं हैं जो सभा में परिवार की उपस्थिति ढंग से करा सकें और इसको भरने वाली पुत्रबधू भी नहीं है। मेरे यहाँ इतना दूध होता है कि उससे जमने वाली दही से निकले मठ्ठे से नाली भर जाती है! यह दूध जब विवाह समारोह के अतिथियों के भोज के लिये बनने वाले चूल्हे पर चढ़ेगा तब उसमें अमृत का जामन पड़ेगा। उस दही को खाने से दूल्हा अमर हो जायेगा और दुल्हन खायेगी तो उसके सिर के सौभाग्य में वृद्धि होगी। ब्रह्मा विष्णु से कहो कि यह झरनेदार पात्र लें, हाथ मुँह धो कर दर्पण देख स्वयं को परख लें और सुराही के पानी से सब कुछ पवित्र कर दें...
... लोकगीतों में महादेव ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु भी घरेलू मनई की भाँति ही हैं। शुभ अवसर पर उनसे स्वयं को एवं अन्य सब कुछ को भी साफ शुद्ध कर दूध दुहने को कहा जा सकता है - मेरे पुत्र का विवाह है, कोई ऐसा वैसा आयोजन थोड़े है! यहाँ दूध में जोरन का पड़ना विवाह संस्कार जनित पवित्र मिलन का प्रतीक है। इससे जो परिवार बढ़ेगा वह समाज और परम्परा दोनों के लिये बढ़ोत्तरी का कारण होगा।...
...आज अनुमान लगा पा रहा हूँ उस आह्लाद भरी पवित्रता की जिसकी अनुभूति विश्वामित्र को हुई होगी और गायत्री अवतरित हुई। समझ पा रहा हूँ अपने उस भाव को जिसने इसे रचवा दिया - तुम्हें नमन है आदित्य!
सुनिये अम्मा का स्वर पुन: जो सामगायन के साथ मिश्रित है - सामस्वर कभी तानपुरे जैसा है तो कभी लोकस्वर को सहारा देता सा लगता है।
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पराती का लड़की के घर गाया जाने वाला रूप भी है। आपलोगों के यहाँ किस भाँति है, यहाँ बताइयेगा।
अगले अंक में:
जामाता दशमो ग्रह: की धौंस में मेरी मौसिया सासू जी का गाया कन्यादान का गीत जिसने मेरी आँखें नम कर दीं।
भिनसारे कौन सा ग्रहण लगता है और भरी दुपहर कौन सा?
मंगलवार, 13 मार्च 2012
सोच यानि बरम अस्थान की लेंड़ियाँ
गाँवों में 'बरम बाबा' का स्थान पाया जाता है - ब्राह्मण अनुशासन का गँवई रूप। पीपल, बरगद, पाकड़ आदि के किसी वृक्ष के नीचे सादा सा चबूतरा बना दिया जाता है। मन्नत पूरी होने पर या तर त्यौहार पर जेवनार चढ़ाया जाता है। गोंइठी की आग पर गाय के दूध में चावल डाल छोड़ दिया जाता है। दूध उफन कर बाहर गिरता है, तब प्रसाद स्वरूप इस फीकी खीर को उतार कर बाँट दिया जाता है। बाबा को लँगोट चढ़ाने की भी प्रथा है। हर पर्व त्यौहार में इस स्थान की सफाई होती है और देवताओं के साथ यह भी पहली भेंट के भागी होते हैं।
बचपन से ही इनसे जुड़ी कतिपय आतंक मिश्रित आस्था को धीरे धीरे लुप्त होते देखते आ रहा हूँ। एक समय वह था कि पीपल वाले बरम स्थान के आसपास तो क्या लोग उधर मुँह तक कर मूतते नहीं थे! केवल कुत्ते ही कभी कभी ...जिनकी पकड़े जाने पर दौड़ा दौड़ा कर पिटाई होती थी लेकिन पशु तो पशु! अगली बार मौका मिलने पर फिर...
गाँव में किसी को सफेद दाग की बीमारी हो गई तो उसका कारण यह बताया गया कि फलाने पंडित जब ब्रह्मभोज खाने के बाद नल पर हाथ धो रहे थे तो उन महाशय ने उनके हाथ के ऊपर ही अपना हाथ लगा दिया था जिससे धुलता जूठा पंडित के हाथ पर गिरा। नाराज़ होकर बरम बाबा ने पहले उनका वह हाथ और फिर पूरी देह ही धुल दी! दपादप्प उज्जर! - अन्हरिया रतियो में चमके, ओइसन! यह किसी के ध्यान में नहीं आया कि पंडित हस्तप्रक्षालन शास्त्रोक्त विधि से क्यों नहीं कर रहे थे?
यह भी सुना कि दूर देस से पैदल गाँव वापस आते किसी पुरनिया को राह भूल गई तो बरम बाबा पैना से कोंच कोंच सही राह बताये।
ओंहर नाहीं रे! हे पड़े -पहली कोंच।
निराल बागड़े हउअ? अबकी एँहर ओंहर भइल त देब दू सटहा! - दूसरी कोंच ...
अब बरम बाबा केवल स्त्रियों द्वारा ही पूजित रह गये हैं। वह भी केवल मरजाद रखती हैं और परम्परा निबाहती हैं लेकिन स्थान ठीक करने को किसी सँवाग को नहीं धिरातीं!
सदियों से चला आ रहा बाभन अनुशासन खत्म हो गया। बाबू लोगों का क्षात्र अहम नरम पड़ गया। चमटोली और दलित गाँवों के जवान अब 'बाबू सलाम' नहीं कहते, सीधे आँख तरेरते हैं, जैसे युगों युगों की त्रासदी का बदला उसी क्षण ले लेंगे। साथ ही मोहभंग भी दिखता है। कभी 15 बनाम 85 आन्दोलन की एक चाहना थी - राज बहुजन का होगा और ये सवर्ण हमारे यहाँ काम करेंगे, इनकी जनानियाँ हमारा चौका बरतन करेंगी।
चमटोली का ___ कहता है - बड़का बड़के रहिहें बाबू! उम्र में मुझसे बड़ा है लेकिन अब सलाम करने लगा है। मैं कहता हूँ - अब तो सब जातियों में बड़के होने लगे हैं। वह बात नहीं मानता और हाथ जोड़ कहता है कि उसका बेटा कम्प्यूटर में डिप्लोमा कर लिया है, कहीं कोई ठाँव नहीं। अगर आप कुछ कर देते तो ... मैं उसे समझा नहीं पाता कि इस व्यवस्था में मैं भी बहुजन हूँ और राज काज प्रभाव आदि जाति निरपेक्ष रूप से उन चन्द जनों के पास ही रहे हैं और रहते हैं जिन्हें हम बाबू कहते हैं - टाइटिल कोई हो। मगध का महापद्म नन्द भी तो ... उसे पोसा बाभन व्यवस्था ने ही। आज की बाभन व्यवस्था है – लोकतंत्र।
जिस तरह से संहिताओं में तमाम अच्छी अच्छी बातें कही गईं लेकिन राज चला अपने हिसाब से, उसी तरह अब विधान में तमाम अच्छी अच्छी बातें कही गई हैं लेकिन राज चल रहा है अपन हिसाब से। संहिताओं की बातें अब क्रूर और अमानवीय लगती हैं, क्या पता हजारो वर्षों के बाद चकतियों और थेगलियों लगे विधान को पढ़ तब के लोग यही कहें?
बरम बाबा के स्थान और घरों के दुआर अब बकरियाँ चरने लगी हैं। बरम के चबूतरे पर पीली मूत के साथ अब लेंड़ियाँ भी दिखती हैं - कोई नहीं रोकता टोकता। काका गुस्से में लाल हो कर बुदबुदाते हैं - सब नामर्द हो गइलें ... अपने गाँव का इतिहास कुरेदता हूँ - अस्पृश्यता के निबाह के अलावा दलित उत्पीड़न की कोई घटना नहीं मिलती । पिताजी के एक अंत्यज शिष्य की कही बात याद आती है - तुम्हारे गाँव इलाके में अत्याचार नहीं हुआ कभी। तो फिर फुफकार की मर्दानगी का कमाल था अनुशासन! गरीबी तो सब जातियों में थी। वर्ण व्यवस्था का बाभन अनुशासन ही कमाल करता था!
अब?
अजीब धुरखेल है। सब एक दूसरे की आँखों में झोंकने में लगे हैं। संतोष है कि सबको समान अवसर हैं! नहीं, यह नहीं - कम से कम वंचना में वर्ण व्यवस्था का रोल आधिकारिक रूप से नहीं है, हाँ अपनी जाति को प्रमोट करने की बात और है। सामाजिक क्रांति ऐसे ही तो होगी। गाँव की अस्पृश्यता अब भी वैसे है जिसकी प्रगतिशीलता होटल की चाय गिलास पर होठ निशान छोड़ हवा हो जाती है। रोटी बेटी में आपसी व्यवहार अब भी नहीं है माने बाभन व्यवस्था अब भी वहीं है लेकिन बकरियाँ आ पहुँची हैं। ये सब चर जायेंगी और परम्परा के हर पवित्र मुकाम पर लेंड़ियाँ छोड़ जायेंगी। वहाँ केवल कुत्ते नहीं, सब मूतेंगे।
सूख चके पीलेपन से विधानों के स्याह दूसरे तरीके से रचे जायेंगे। तब जब कि कभी न होने वाली क्रान्तियाँ इन द मेकिंग होंगी, हम जैसे लध्धड़ किसी पीपर अस्थान बैठ ऐसे ही मन डोलाते लेंड़ियों का हिसाब किताब करते रहेंगे... जेवनार चाभने वाले तब भी चाभते रहेंगे।
शब्दचिह्न :
गाँव
रविवार, 11 मार्च 2012
लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी- 13
मेरे पात्र बैताल की तरह
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न ।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूं उत्तर
...प्रतिदिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
(द)
निषिद्ध और भयावह स्थान जुग्गुल जैसों के खुराफती फितूरों की देन होते हैं लेकिन उनको स्थापित आम लोग ही करते हैं जिनके भ्रष्टाचार, स्वार्थ, दुख, सुख सभी सीमित होते हैं। उन्हें ऐसी जगहों को मान देने और उनका मान बढ़ाने में वही सुख मिलता है जो अमली को अमल में। ऐसे में जुग्गुलों को प्रतिष्ठित होते देर नहीं लगती।
रमैनी काकी के टोटके की खबर जुग्गुल को थी लेकिन उसे वह टोटका लुजलुज लगा। टाँगी(कुल्हाड़ी) का बेंट ढीला हो तो घाव अवाह(पुरजोर) कैसे लगेगा? जुग्गुल की लँगड़चाल गाँव के हर दुवार पहुँचने लगी, लाल कपड़े, लाल टीका – जिन सोगहो चमैनिया अस्थाने दूध चढ़वले बाड़ी, अगर खून नाहिं चढ़वली त महिन्ना बन्न। (जिस भ्रष्टा ने चमैनिया स्थान पर दूध चढ़ाया है, अगर खून भी नहीं चढ़ाया तो उसे कभी माहवारी नहीं आयेगी।)
पूरे गाँव का भ्रमण समाप्त करने के बाद सग्गर ब का परोसा रोट्टा खाते जुग्गुल अपने प्रयास पर मगन था, सन्तुष्ट था कि जिसने भी यह काम किया है खून क्या चढ़ायेगी, मिलने ज़रूर आयेगी।
जुग्गुल झाड़ा फिरने चँवर की ओर ही जाता था क्यों कि चाल में भचक के कारण लोटे में पानी नहीं ले जा सकता था। चँवर के पानी में ही धो धा लेता था। उसकी राह जगजाहिर थी। सुबह के झुटपुट उजाले में जब वह पंडित टोले के पास से गुज़र रहा था तो लमजमुनिया के मोटे पेंड़ की आड़ से आवाज़ आई – रुकीं तनी (जरा रुकिये!)। देखा, सुना अनसुना कर आगे बढ़ा तो आग्रह पुकार थोड़ी तेज़ हो गई – सुनत नइखीं का? तनी रुकीं न (सुन नहीं रहे हैं क्या? रुकिये तो सही।)
जनानी आवाज़ के कारण जुग्गुल के दिमाग में भकजोन्हियाँ जलने बुझने लगीं। वह समझ गया। ठिठक कर बोला – के ह? लुकाइल काहें बाड़ू? (कौन है? छिपी क्यों हो?)
- सनमुख का होईं बाबू? रमैनी काकी के कहले से दुधवा हमहीं चढ़वले रहलीं। आगे जौन करे के होखे, खुदे क लेब। हाथ जोड़तनीं हमरे कोखी पर कवनो बिपति न परे (सामने क्या आऊँ बाबू? रमैनी काकी के कहने पर मैंने ही वहाँ दूध चढ़ाया था। आगे जो करना हो, आप खुद कर लीजियेगा। आप से विनती है कि मेरी कोख पर कोई विपत्ति न आये।) पेंड़ की आड़ से सुबकने की आवाज़ आने लगी।
जुग्गुल कोई उत्तर दिये बिना ही झड़क पड़ा। उसे तेज़ लग गई थी। उस दिन चँवर में बहुत दिनों बाद उसका झाड़ा साफ उतरा। हल्केपन का असर उसकी लौटती चाल में भी दिख रहा था। सँवरुआ ने देख कर चुटकी ली – जुग्गुल बाबू! आज त उड़तल ऽऽ (जुग्गुल बाबू! आज तो उड़ रहे हो।)
बदले में उसने भद्दा सा गाली संकेत पाया – तोर मेहरिया हल्लुक बा । भारी क दे नाहिं त ऊहो उड़े लागी। न सपरे त बताउ (तुम्हारी औरत हल्की है। उसे भारी कर दो नहीं तो वह भी उड़ने लगेगी। तुमसे नहीं होता तो बताओ।)
(ध)
करिखही रात। कामाख्या मन्दिर के चारो ओर बहुत बड़े गोले में आग लगी हुई है - वैसा ही हल्ला है जैसे आग बुझाने के समय लोग करते हैं लेकिन लपटों की चट चट चटक लहकन के पीछे लोग दिख नहीं रहे बस हल्ला है। धुप्प अन्धेरे में भी आसमान पर छाई लाल जीभ दिख रही है। किसकी जीभ है यह? त्रिपुर सुन्दरी?
आज्ञा चक्र का लाल गोला फैलता जा रहा है। आग के घेरे में कुन्दन सी दमकती स्त्री।
माम् बलि! दहकती आँखों में भय नहीं, माँ! ले लो मुझे –बिजली की चमक के साथ अन्धेरे को चीरता चमकता खडग। गले से रक्त की धार उफन पड़ी है। मैं आ रही हूँ खदेरन! पितरों की धरती पर मैं आ रही हूँ। चारो ओर रक्त ही रक्त।... ...कौन है यह?
'सुभगा?'
'नहीं सुभगे! नहीं !!'
...माई, भिक्खन की महतारी, चमैनिया माई, कामाख्या की बुढ़िया, फेंकरनी... घेर घेर, कटे मुंड को लोकाती जनानियाँ... पाप कइले रे! पाप कइले रे!! मुखमंडल पर गर्म राख पोतती औरतें...पाप कइले रे!...
'सुभगा?'
'नहीं सुभगे! नहीं !!'
...माई, भिक्खन की महतारी, चमैनिया माई, कामाख्या की बुढ़िया, फेंकरनी... घेर घेर, कटे मुंड को लोकाती जनानियाँ... पाप कइले रे! पाप कइले रे!! मुखमंडल पर गर्म राख पोतती औरतें...पाप कइले रे!...
...शय्या पर पसीने से लथपथ खदेरन जाग गये। कंठ में किसी ने बालू सा भर दिया था, आवाज नहीं निकली। मस्तिष्क फट रहा था। मन में गूँजते स्वर जैसे चारो ओर से आ रहे थे ... भस्मांगरागायोग्रतेजसे हनहन दहदह पचपच मथमथ...पाप कइले रे...विदारयविदारयच्छिन्धिच्छिन्धि ह्रीं फट स्वाहा...
'कैसी माया माँ?'
बेचैन खदेरन घर से निकल पड़े। पलानी में मतवा और वेदमुनि गहरी नींद सोये हुये थे।
'यह कैसा स्वप्न था? सुभगा! अनिष्ट हुआ क्या तुम्हारे साथ?'
पग उन्हें खींच कर बाहर ले आये। रात अभी बहुत बाकी थी लेकिन टिमटिमाते दिये से सम्मोहित खदेरन नेबुआ मसान की ओर चल पड़े। निकट पहुँचे तो कोई लंगड़ाता जाते दिखा। सिर पर हाथ रखे एक छाया दिये के पास बैठी थी। पैर के नीचे कुछ कोमल सा पड़ा तो झुक कर उन्हों ने उठाया। हाथ खूने खून हो गया। सिर कटा परेवा(कपोत) हाथ में था।
'कैसी माया माँ?'
बेचैन खदेरन घर से निकल पड़े। पलानी में मतवा और वेदमुनि गहरी नींद सोये हुये थे।
'यह कैसा स्वप्न था? सुभगा! अनिष्ट हुआ क्या तुम्हारे साथ?'
पग उन्हें खींच कर बाहर ले आये। रात अभी बहुत बाकी थी लेकिन टिमटिमाते दिये से सम्मोहित खदेरन नेबुआ मसान की ओर चल पड़े। निकट पहुँचे तो कोई लंगड़ाता जाते दिखा। सिर पर हाथ रखे एक छाया दिये के पास बैठी थी। पैर के नीचे कुछ कोमल सा पड़ा तो झुक कर उन्हों ने उठाया। हाथ खूने खून हो गया। सिर कटा परेवा(कपोत) हाथ में था।
बैठी औरत ने उन्हें देखा, दिया नहीं दिन का प्रकाश हो गया। खदेरन की आँखें फट पड़ीं – परशुराम... परसू पंडित की जोरू, महोधिया चंडी की पुत्रबधू! स्पर्श वर्जना की परवाह किये बिना बहू ने खदेरन के पैर पकड़ लिये – भाई जी, केहू न जाने(कोई न जाने!) ... क्या क्या देखना बाकी है खदेरन?... तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिये। चंडी वंश का विनाश चाहते थे न? खदेरन उलटे पाँव लौट पड़े। घर पहुँचते पहुँचते ज्वर का दाहा पूरे शरीर में फैल चुका था।
दिन उगा और सबने देखा। मुअल परेवा नेबुआ मसान, खूने खून चमैनिया बिहान। खदेरन दिन भर खाट पर पड़े तपते बड़बड़ाते रहे और जुग्गुल बुदबुदाता गाँव में घूमता रहा। रक्कत जोग – लाल कपड़ों पर भी छींटे देखे जा सकते थे।
(न)
नया बिहान माने नया जीवन लेकिन इस गाँव के लिये हर सबेरा शंका ले कर आता था। महीने दो महीने पर कोई न कोई ऐसी घटना घटती रही जो अन्धेरे को पुख्ता करती रही। पुरानी बटुली की पेंदी में जरठा बैठता रहा। नेबुआ मसान के पास मंगर को किसी की देह कभी जुलफुत हुई तो भुइली के बजाय उसे नाखून से देंह ककोरती फेंकरनी दिखी, किसी के लड़के की बहती गाँड़ धोते धोते चूतड़ लाल हुआ तो चमैनिया माई की नज़र लग गई, किसी को भरी दुपहर गेंड़ुआर का मसाला पीसती फेंकरनी दिखी तो किसी को रात में गुड़ेरवा से आँख लड़ाती चुड़ैल... नेबुओं की जड़ों में तो जैसे अमृत बरस रहा था। जाने कितने खर, पतवार, झाड़, झंखाड़ बाड़ को लाँघ चुपचाप राह को सँकरा करते रहे। जैसा कि ऐसे में होता है एक अनाम सा समझौता स्वीकार पैठ गया - वह रास्ता करीब करीब बन्द हो गया।
जुग्गुल और सग्गर सिंघ गुलगुल होते रहे। सामने पंडितों के गोंयड़े के खेत थे। चंडी पंडित तो रहे नहीं, कभी तो ...
गाँव की शांति जुग्गुल को ठीक नहीं लगती थी। उसे दूसरे बमचक की तलाश थी। नेबुआ तो अब पौढ़ा गया था, उसका मज़ा मज़ेदार नहीं रह गया था। कुछ तो नया हो।
यह संयोग ही था कि जिस दिन परसू पंडित की घरैतिन ने भवानी को जन्म दिया, उसी दिन जुग्गुल के मन में नये मज़े की बेहन पड़ी – जिस गाँव में बाण, लाँड़ और राँड़ न हों वह गाँव अधूरा होता है। बाण माने बाण – जो दूसरों के कलेजे बेधता रहे। जुग्गुल ने खुद को इस खाते रखा और राँड़ की सोच पर वह मुस्कुराया – धुर्र बुरधुधुर! सब पता बा लेकिन राँड़ त दुसरे गाँवे के होखे तब्बे मज़ा (सब पता है लेकिन भ्रष्टा दूसरे गाँव की हो तभी मजा)। इस काम के लिये उसे एक लाँड़ की कमी अखरने लगी। लाँड़ माने जो किसी भी बिरादर की, किसी भी उमर की, किसी नाते की जनानी से सम्बन्ध बनाने में परहेज न करे। जुग्गुल को पूरा यकीन था कि कोई न कोई तो होगा ही। फिर उसे अपने ऊपर ही हँसी आई – अरे! सोहिता त बटले बा (अरे! सोहित तो है ही)। उसे खीझ सी हुई कि अब तक सोहित सिंह से उसकी क्यों नहीं छनी? (जारी)
शब्दचिह्न :
बाउ,
बाऊ,
लंठ महाचर्चा
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