हमारी मुलाकात पंसारी की एक दुकान पर हुई। जिस जगह मेरा स्थानांतरण हुआ था, वहाँ मकानों की भारी कमी थी जब कि घर बसते जा रहे थे। बसना कहना शायद ठीक नहीं, 'हाल्ट लेना' कहना चाहिए। हर तरफ महँगाई की मार। टैक्स हॉलीडे होने के कारण अचानक ही जंगलों में वनवासियों की जमीनों के दाम आसमान छूने लगे थे और अजीब अजीब नामों वाली कम्पनियाँ उन पर चहारदीवारियाँ बना कर स्थापित होने लगी थीं। अधिकांश में प्रोडक्शन के नाम पर कुछ नहीं होता। बम्बई से बना बनाया माल आता और वहाँ केवल पैकिंग होती। सरकारी विभागों की सँकरी खिड़कियों से तफरीह कर के आते चालान पैक सामानों को उन बोगियों तक पहुँचा देते जिन्हें विश्व की सबसे नकारा रेल पटरियों पर चलते हुए उन्हें पूरे देश में बिखेर देना होता था।
बस तीन घंटों की दूरी पर तीन हजार रुपये महीने के फ्लैट में रहने वाले मैं राम को जब पन्द्रह हजार महीने की बातें सुनने को मिलीं तो मेरे होश उड़ गए। आम धारणा के विपरीत यहाँ के लोग सीधे साधे हरगिज नहीं थे। उन्हें मजबूरी की नब्ज़ से खून सोखना बखूबी आता था। मेरे पास बस सात दिनों का समय था। उस बीच अपनी छत ढूँढ़ मुफ्त का सरकारी गेस्ट हाउस खाली कर देना था। दलालों से दो दिनों में ही निराश होकर रोज रात को सड़कों पर देर तक घूमने लगा। देखता कि किन फ्लैटों में लाइट नहीं जल रही और गार्ड से जा कर बात करता। गार्ड मेरी समस्या समझ कर बस दाँत निपोर देते और कहते कि साहब यहाँ तो बस ऐसे ही है। मैंने दुकानों पर भी पता लगाना शुरू कर दिया।
ऐसे ही एक दिन मैं किसी दुकान पर पूछताछ कर रहा था। दुकानदार मेरे ऊपर अधिक ध्यान नहीं दे रहा था। उसी समय हमारी बातों में किसी आवाज ने पीछे से टँगड़ी भिड़ाई - मोटे भाई! मेरे साथ बात करोगे?
दुकानदार ने राहत की साँस ली। मेरे चेहरे पर कंफ्यूजन भरी सहमति देख उस अजनबी ने मेरा हाथ पकड़ा और पास के छोटे से पार्क में घुस गया। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, नहीं उसने बढ़ा रखी थी और आँखों से चालाकी टपक रही थी। उसने सिगरेट सुलगाई और शुरू हो गया - मेरा नाम सुजान है। सुजान भाई हर्षद भाई पटेल। गुजराती हूँ - एक प्राइवेट कम्पनी में स्टोर ऑफिसर। दो बेडरूम के फ्लैट में अकेले रहता हूँ। औरतों में मेरी दिलचस्पी बस माँ तक है जो बड़ौदा में रहती है। मुझे मास मच्छी से परहेज नहीं। हमारी कम्पनी यहाँ बहुत पहले ही आ गई थी और फ्लैट भी यहाँ के हिसाब से सस्ते में मिल गया - छ: हजार रूपये महीना, मेंटेनेंस चार्ज मिला कर। एक और आदमी शेयर करने लगे तो मुझे भाड़ा पोसाने लगे, अभी तो हालत खराब है।
मुझे मामला अजीब सा लगा। एक अजनबी के पास ऐसा प्रस्ताव एक चालाक मनुष्य़ ही रख सकता था, यह मान कर मैंने उस पर भरोसा कर लिया हालाँकि यह कोई तर्क नहीं था। मेरे पास उसका प्रस्ताव मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया और तय किया कि परिवार को पुराने स्थान पर ही रहने दूँगा। बेटे का स्कूल फ्लैट के सामने ही था इसलिये अंजू को भी अधिक परेशानी नहीं होनी थी। सोचा कि छुट्टियों में आता जाता रहूँगा। प्रोजेक्ट के अठ्ठारह बीस महीने गुजर जायेंगे। फिर स्थानांतरण होगा तो देखी जाएगी।
मैंने हामी भर दी।
उसके चेहरे पर यातना से उबरने के चिह्न उभरे और लुप्त हो गए। उसने कहा - देखो, फ्लैट थोड़े वीराने में है। डरने की बात नहीं, बीसों परिवार रहते हैं। मेरी कुछ शर्ते हैं - दिन में फ्लैट पर न तुम आओगे और न मैं। अगर मैं शहर में हूँ तो तुम मेरे साथ ही शाम को फ्लैट में घुसोगे। छुट्टियों के दिन अगर यहाँ रहोगे तो साथ साथ घूमेंगे। यहाँ देखने के लिये बहुत कुछ है और मेरे पास स्कूटर है। और भी शर्ते हैं लेकिन कोई खास नहीं। धीरे धीरे जान जाओगे।
मैं डरा। मकान मालिक की शर्तें तो सुनी थीं लेकिन रूम पार्टनर की शर्तें? मैंने सिर को झटका - कौन इस पागल के साथ छुट्टी के दिन यहाँ रहेगा? मैं तो अपने परिवार से मिलने चला जाया करूँगा। मैंने उसे अपना परिचय दिया और हम दोनों गेस्ट हाउस से सामान फ्लैट में ले आये।
फ्लैट में घुसते ही उसने जीभ को तलवों पर चटका कर आवाज निकालना शुरू कर दिया। ऐसा करते और सीटी बजाते हुए वह घूमता रहा और मेरे सामान को यहाँ वहाँ करीने से सजाता रहा। उसने फ्लैट को ऐसे व्यवस्थित रखा था जैसे उसमें कोई परिवार रहता हो। यह देख अपने आलस और लापरवाही को सोच मैं परेशान हुआ।
सोने के पहले उसने कहा - बेडरूम का दरवाजा खुला रखना और तीन हजार रुपये अभी मेरे हवाले करो। रुपये पैसे के मामले अगले दिन के लिए नहीं छोड़ने चाहिए।
इतने से साथ में ही मैं उसका अभ्यस्त सा हो गया था। मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा। रुपये गिन दिये और गुड नाइट बोला जिस पर उसने जय श्रीकृष्ण कहा।
पहली रात चैन से बीती। हमारे बेडरूम अलग अलग थे। हमें न तो एक दूसरे की पाद झेलनी थी और न खर्राटे। बस एक खास बात मेरे ध्यान में आई - रसोई से और रद्दी पेपर रखे स्टोर से रेंगने की आहट सी आती और फिर उसकी सीटी की आवाज। मैंने उसे नई जगह का भ्रम समझा।
सुबह उठा तो सुजान भाई ने बेड टी बगल में रख दिया और पास बैठ कर मटर छीलने लगा - तुम शादीशुदा हो, तुमसे किचेन का काम नहीं होगा। जो खाने का मन हो बता दिया करना, मैं सब बना दूँगा। उस डायरी में हिसाब है। जो कोई भी सामान लायेगा, उसमें अपने नाम से लिख देगा। महीने के अंत में आधा आधा।
मुफ्त में कुक भी मिल गया! मुझे अपने भाग्य पर नाज हो आया। मैंने उससे बस इतना कहा - सब्जी और दाल में चीनी मत डालना। इस पर वह हँसा और एकाएक चुप हो कर सीटी बजाने और चटके की आवाज निकालने लगा।
उसने एकदम से पूछा - घरवाली से अलग इतने दिन अकेले कभी रहे हो? मेरे नहीं कहने पर उसने आँख मारी - कोई माल चाहिए तो बता देना, जंगली चीज का मजा ही और है। मुझे कोई अनुभव नहीं, मेरे साथ वाले बताते हैं।
मेरे मुँह में उबकाई भर आई, तय किया कि अंजू को इस फ्लैट पर कभी नहीं लाऊँगा और प्रत्यक्ष में बोल पड़ा - सुजान भाई! मुझे भी सुजान रहने दो। मुझे इधर उधर मुँह मारने में दिलचस्पी नहीं। उसकी सीटी की बोलती बन्द हो गई और ओठ सामान्य हो गए।
कुछ दिन गुजरे। वह मुझे बहुत मासूम लगने लगा। मैं एकाध छुट्टियों में रुक गया तो उसने बहुत खयाल किया। स्कूटर से हमदोनों जंगलों में घूमते रहते। किसी वनवासी की झोंपड़ी में जा कर मुर्गा पसन्द कर लेते और लौटने के बाद उसकी दावत होती। वह मिर्च अधिक ही डालता। जाने क्यों मुझे चिकेन खाने के बाद सी सी करना अच्छा लगने लगा। उसने मुझे सीटी बजाना भी सिखा दिया और कहा - बजाते रहा करो। झुर्रियाँ देर से पड़ती हैं। यह नुस्खा मैंने न सुना था और न ही दुबारा कभी किसी के मुँह से सुना। सीटी बजाना सीखने के अगले ही दिन उसने फ्लैट की डुप्लीकेट चाभी मुझे सौंप दी। अब मैं कभी भी फ्लैट में आ जा सकता था।
हेड क़्वार्टर ने कम्प्यूटर भेज दिया - इस निर्देश के साथ कि जब तक साइट पर स्थिति ठीक नहीं हो जाती, घर पर रखो और हर सप्ताह प्रोग्रेस डाटा फ्लॉपी में भेज दिया करो। प्रोजेक्ट प्राइमावेरा सॉफ्टवेयर से मॉनिटर होना था। वह पहला अवसर था जब मैं फ्लैट में अकेले दिन में घुसा। गाड़ी वाला दरवाजे तक पैकिंग रख कर चला गया। मैंने सीटी बजाते हुए फ्लैट का दरवाजा खोला और सामने मोजैक फर्श पर नागराज विराजमान थे। खिड़रिचिया गेहुअन साँप!
साँप फन काढ़े अपनी पूरी गरिमा के साथ मुझे घूरे जा रहा था। सीटी सटक गई। पहली रात की रेंगने की आहट याद आई, सुजान भाई की सीटी याद आई और यह पाठ याद आया कि साँप बहरा होता है। सुजान भाई मासूम के बजाय जल्लाद लगने लगा जो इस साँप के लिए शिकार तैयार कर रहा था।
मुझे लगा कि हो न हो यह साँप फ्लैट में हमेशा रहता है या आता जाता रहता है। यह भी ध्यान में आया कि सुजान भाई ने किचेन सँभाल रखा था।
क्या यह साँप किचेन में रहता है और रात में घूमता रहता है? मैं पसीने पसीने हो गया। शायद मेरी चेतना कुछ देर के लिये कुन्द हो गई थी क्यों कि साँप कब ग़ायब हो गया, मुझे पता ही नहीं चला। डरते डरते मैंने कम्प्यूटर के डिब्बे फ्लैट में रखे, ताला लगाया और सुजान भाई की फैक्ट्री के लिए ऑटो पकड़ लिया।
सुजान भाई ने पूरा हाल ऐसे सुना जैसे सुहाने दिनों में लोग रेडिय़ो पर मौसम की सूचनायें सुनी अनसुनी करते हैं। वह मुस्कुराया और बोला मैंने तुम्हें नहीं बताया वरना तुम कभी राजी नहीं होते। डरने की जरूरत नहीं, वह साँप मेरा दोस्त है। दोस्त का दोस्त दोस्त होता है। तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचायेगा, बस सीटी बजाते रहना।
स्तब्ध मन से मैंने मन ही मन उसे वह सारी त्रिविमीय गालियाँ दे डालीं जो कॉलेज रैगिंग में सीखी थीं। उनका वह पहला मौन प्रयोग था। मैंने उससे कहा - तुम्हें पता है? साँप हवा से होकर आती आवाज नहीं सुन सकता। बहरा होता है।
उसने कहा - वे नादान हैं जो ऐसा कहते हैं कि साँप बहरा होता है। साँप कुछ भी कर सकता है। मेरी बात पर भरोसा रखो। साँप से तुम्हें डरने की जरूरत नहीं।
'अन्धविश्वासी हो तुम! तुम्हारे बीवी बच्चे तो हैं नहीं! तुम्हें अपनी जान की क्या परवाह? एकदम सनकी हो। लेकिन मुझे कुछ हुआ तो सुजान भाई! मेरी बीवी और बच्चे का क्या होगा? मुझे आज ही फ्लैट खाली कर देना है।'
'कर दो खाली। फुटपाथ पर रहना।'
वह थोड़ी देर रुका और बोला - मैंने कब कहा कि मेरे बीवी बच्चे नहीं हैं? छोड़ गए सब मुझे। इसी फ्लैट में हमलोग साथ साथ रहते थे। उस अहमक औरत पर पता नहीं कौन सा फितूर सवार था? हमेशा लड़ती रहती थी। एक दिन दोनों बच्चों को लेकर जाने कहाँ गायब हो गई? साँप तो उनके जाने के बाद आया। किचेन में घरवाली नहीं साँप रहता है। इस इकलौते के माँ बाप को गुजरे जमाना बीत गया।
...फ्लैट किराये का नहीं, मेरा अपना है। ...तुम भी छोड़ कर चले जाओगे?' - सुजान भाई फूट फूट कर रो पड़ा। स्तब्ध सा मैं बस उसका सिर सहलाता रहा। उस क्षण कुछ घटित हुआ और मैंने तय किया कि फ्लैट खाली नहीं करूँगा। सतर्क रह कर जिया जा सकता था। आखिर सुजान भाई इतने दिन से रह ही रहा था। साइट पर भी साँप होंगे ही, अनहोनी तो कहीं भी हो सकती थी। सुजान भाई ने न तो दुबारा कभी किराया माँगा और न मैंने दिया।
सुजान भाई के साथ बीस महीने रहने के बाद वह दिन भी आया जब मुझे मेरे अपने प्रदेश में टर्मिनल बनाने के लिए ट्रांसफर कर दिया गया। पहले बम्बई में रिपोर्ट करना था। मुझे ट्रेन पर चढ़ाते हुए सुजान भाई बस रोता रहा। ट्रेन सरकने लगी तो उसने मेरे हाथ में लिफाफा पकड़ा दिया। लिफाफे पर एक रूपये का सिक्का चिपका था। अन्दर तीन हजार रूपये थे। उसने कहा - मोटे भाई! रख लो। ...जय श्रीकृष्ण।
बम्बई में सात आठ दिन रहने के बाद एक फाइनल बिल में समस्या होने के कारण उसे सुलझाने मुझे वापस जाना पड़ा। वह दिन छुट्टी का था और मैंने सोचा सुजान भाई से मिलता चलूँ।
अपार्टमेंट के गार्ड ने बताया - साब! सुजान भाई ने तो खुदकुशी कर ली। बड़ी खराब मौत रही होगी, पूरी देह नीली पड़ गई थी।
मेरे हाथ से ब्रीफकेस गिर पड़ा और मैं चिल्लाया - आत्महत्या नहीं उसे साँप ने काटा होगा।
'नहीं साब! जहर की शीशी बगल में पड़ी थी और आप को साँप की बात कैसे पता?'
'बस ऐसे ही। क्यों क्या हुआ?'
'साब! एक साँप पंखे से लटका मरा पाया गया।'
'साँप पंखे तक कैसे पहुँचा?' - सोचते हुए मैं वहीं जमीन पर बैठ गया।
आज लिखते हुए सुजान भाई की बात याद आ रही है - वे नादान हैं जो ऐसा कहते हैं कि साँप बहरा होता है। साँप कुछ भी कर सकता है। ...